भारतीय खगोलविज्ञान का पुनर्जागरण
सम्राट यंत्र
मध्य युग में भी भारत में खगोलविज्ञान की विकास की दिशा में ठोस पहल जारी रही। फिरोज शाह तुगलक के शासनकाल में महेंद्र सूरी ने 'यंत्रराज' पुस्तक लिखी जो खगोलीय उपकरणों पर आधारित थी। 1400 ई. में पद्मनाभ ने 'ध्रुव-भ्रमण यंत्र' का इजाद किया।
हुमायूँ के दरबार के मुल्ला चाँद द्वारा अकबर के जन्म के समय की गणना के लिए ज्योतिषीय अध्ययन का उल्लेख पाया जाता है। यही मुल्ला चाँद अकबर के दरबार में भी रहे। शाहजहाँ ने भी इस विधा को संरक्षण दिया। यह काल भारतीय और अरब खगोलशास्त्र के सम्मिलन के लिए भी महत्वपूर्ण माना जाता है। मगर इक्का-दुक्का दृष्टान्तों को छोड़ दें तो यह युग खगोलविज्ञान के ज्योतिष और भविष्यवाणियों के साधन के रूप में रूपांतरित और संकुचित हो जाने का ही युग रहा.
18 वीं सदी में जयपुर के सवाई राजा जय सिंह II के परिदृश्य में आने से खगोलविज्ञान को एक प्रकार से पुनर्जीवन मिला। इस विधा में उनकी व्यक्तिगत रूचि और वैज्ञानिक दृष्टिकोण ने इसे एक विज्ञान के रूप में पुनर्स्थापित किया।
'यंत्र प्रकार' तथा 'सम्राट सिद्धांत' जैसे ग्रंथों की रचना द्वारा राजा जय सिंह तथा उनके राजज्योतिषी पं. जगन्नाथ ने इस विज्ञान के प्रसार में अपना अमूल्य योगदान दिया। इन्होने अपनी देख-रेख में 5 वेधशालाएं- दिल्ली, जयपुर, उज्जैन, मथुरा और वाराणसी में स्थापित करायीं। जय सिंह ने भारतीय खगोलविज्ञान को यूरोपीय विचारधारा से भी जोड़ा. अतः यह कहना उचित होगा की जयसिंह की वेधशालाएं ही भारत में भविष्य के तारामंडल (Planatoriums) की आधार बनीं. इस प्रकार पाषाण संरचनाओं से वेधशाला और वेधशालाओं से तारामंडलों का एक चक्र पूर्ण हुआ.
जंतर-मंतर के प्रमुख यंत्रों में सम्राट यंत्र, नाड़ी वलय यंत्र, दिगंश यंत्र, भित्ति यंत्र,मिस्र यंत्र, आदि प्रमुख हैं, जिनका प्रयोग सूर्य तथा अन्य खगोलीय पिंडों की स्थिति तथा गति के अध्ययन में किया जाता है।
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