प्राचीन धातु विज्ञान का चमत्कार : महरौली (मिहिरावली)का लौह स्तम्भ
दिल्ली की प्रसिद्द कुतुबमीनार के विशाल परिसर के मध्य स्थित 'लौह स्तंभ' से भला कौन वाकिफ नहीं! सैकडों वर्षों से अपने स्थान पर बुलंदी से खडा यह स्तम्भ अपनी जंग प्रतिरोधक क्षमता की वजह से समस्त विश्व के धातुविज्ञानियों के मध्य चर्चा का विषय बना रहा है।
इस स्तम्भ का निर्माण काल चन्द्रगुप्त विक्रमादित्य (375 CE - 414 CE) के शासनकाल के दौरान माना जाता है। लोक श्रुतियों में दिल्ली का नामकरण भी इस स्तम्भ की स्थापना से जुड़ा हुआ है। इसका खगोलीय महत्व भी था। वस्तुतः यह स्तम्भ 'ग्रीष्म अयनांत' (Summer Solstice- 21 June); जो कि वर्ष का सबसे बड़ा दिन भी होता है के अध्ययन हेतु प्रयुक्त होता था। कालांतर में इसे दिल्ली स्थानांतरित किया गया।
इस स्तम्भ की सबसे बड़ी विशेषता इसका लगभग 1600 वर्षों के भौतिक और रासायनिक प्रतिक्रियाओं के बावजूद जंग लगने की स्वाभाविक प्रक्रिया की प्रतिरोधक क्षमता है। अध्ययन के कई चरणों के बाद IIT कानपुर के विशेषज्ञ डॉ. आर. बालासुब्रमन्यम इस निष्कर्ष पर पहुंचे हैं कि 'Miisawite' जो लोहा, आक्सीजन और हाईड्रोजन की एक पतली परत है, ने इस स्तम्भ को क्षरण से बचा रखा है। लोहे में फास्फोरस की उच्च मात्र की उपस्थिति भी इस स्तम्भ के संरक्षण में एक महत्वपूर्ण तत्त्व है। वर्तमान में लोहे में प्रयुक्त 0।05 % फास्फोरस की तुलना में इस स्तम्भ में फास्फोरस की मात्रा 0.1% तक पाई गई है।
इस प्रकार यह स्तम्भ प्राचीन धातु विज्ञान की उच्चता और उसके गहन अध्ययन की आवश्यकता पर तो बल देता ही है, तत्कालीन खगोलीय अध्ययन में अपनी अहम् भूमिका भी सुनिश्चित करता है।
झाड़खंड, मध्यप्रदेश, छत्तीसगढ़ जैसे आदिवासी बहुल राज्यों में पारंपरिक असुर व अगडिया जैसी जनजातियाँ आज भी लोहे को गलाने और प्रयोग करने की पारंपरिक विधि का अनुकरण करते हैं। इस ज्ञान को अपने ही परिवार तक सीमित रखने की पारंपरिक सोच और नई पीढी की पैतृक परंपरा से उदासीनता इस प्राचीन धरोहर और विज्ञान को विलुप्ति की ओर ले जा रही है।
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