क्या 'हिन्दू' नाम विदेशियों ने दिया?
विश्व का सबसे प्राचीन धर्म है हिन्दू धर्म। सिर्फ 5 हजार वर्ष पहले तक कोई दूसरा धर्म अस्तित्व में नहीं था तो स्वाभाविक है कि हिन्दुओं में कभी यह खयाल नहीं आया कि कोई नया धर्म जन्म लेगा और फिर वह हमें मिटाने के लिए सबकुछ करेगा। मात्र 2 हजार वर्ष पूर्व ईसाई धर्म की उत्पत्ति के पहले तक भी धार्मिक झगड़े या धर्मांतरण जैसा कोई माहौल नहीं था। धर्म के लिए युद्ध नहीं होते थे।
सवाल 'हिन्दू' शब्द के संदर्भ में कि कुछ विदेशी लेखक यह मानते हैं कि 'हिन्दू' नाम का कोई धर्म नहीं है...धर्मशास्त्र पढ़ा रहीं शिकागो यूनिवर्सिटी की वेंडी डोनिगर की किताब 'हिन्दूज : एन आल्टरनेटिव हिस्ट्रीज़' (हिन्दुओं का वैकल्पिक इतिहास) इसका ताजा उदाहरण है। इस किताब में जो लिखा गया है वह भारत के सामाजिक ताने-बाने को विखंडित करता है। खैर, ऐसे कई अंग्रेज लेखक हैं जिसका अनुसरण हमारे यहां के इतिहासकार करते आए हैं। सचमुच देश और विदेश के ज्यादातर लेखक पढ़ते कम और लिखते अधिक हैं और लिखने के पीछे उनकी मंशा क्या होती है ये तो वही जाने।
हिन्दुओं को ही आर्य, वैदिक और सनातनी कहा गया है, उसी तरह जिस तरह कि अन्य धर्म के लोगों को भी 3-4 नामों से पुकारा जाता है। दुष्प्रचार के कारण कुछ लोग खुद को 'हिन्दू' न कहकर आर्य समाजी कहते हैं, कुछ लोग सनातनी और कुछ खुद को संत मत का मानते हैं।
लेकिन भारतीय लेखक या इतिहासकार दो-चार किताबें पढ़कर अपनी धारणा बना लेते हैं और वे भी षड्यंत्रकारियों की साजिश का शिकार होते रहे हैं। लेकिन वे यदि जान-बूझकर ऐसा कर रहे हैं तो फिर सोचना होगा कि वे भारतीय है या नहीं?
* क्या 'हिन्दू' शब्द की उत्पत्ति सिन्धु के कारण नहीं हुई?
* क्या सिन्धु नदी के आसपास रहने वालों को ईरानियों ने 'हिन्दू' कहना शुरू किया, क्योंकि उनकी जुबान से 'स' का उच्चारण नहीं होता था?
* क्या 'हिन्दू' शब्द विदेशियों द्वारा दिया गया शब्द है?
* क्या 'इन्दु' शब्द से 'हिन्दू' शब्द बना?
* क्या प्राचीनकाल से ही 'हिन्दू' शब्द प्रचलित था?
* क्या सिन्धु नदी के आसपास रहने वालों को ईरानियों ने 'हिन्दू' कहना शुरू किया, क्योंकि उनकी जुबान से 'स' का उच्चारण नहीं होता था?
* क्या 'हिन्दू' शब्द विदेशियों द्वारा दिया गया शब्द है?
* क्या 'इन्दु' शब्द से 'हिन्दू' शब्द बना?
* क्या प्राचीनकाल से ही 'हिन्दू' शब्द प्रचलित था?
सिन्धु' से बना 'हिन्दू' : सवाल यह कि 'हिन्दू' शब्द 'सिन्धु' से कैसे बना? भारत में बहती थी एक नदी जिसे सिन्धु कहा जाता है। भारत विभाजन के बाद अब वह पाकिस्तान का हिस्सा है। ऋग्वेद में सप्त सिन्धु का उल्लेख मिलता है। वह भूमि जहां आर्य रहते थे। भाषाविदों के अनुसार हिन्द-आर्य भाषाओं की 'स्' ध्वनि (संस्कृत का व्यंजन 'स्') ईरानी भाषाओं की 'ह्' ध्वनि में बदल जाती है इसलिए सप्त सिन्धु अवेस्तन भाषा (पारसियों की धर्मभाषा) में जाकर हफ्त हिन्दू में परिवर्तित हो गया (अवेस्ता : वेंदीदाद, फर्गर्द 1.18)। इसके बाद ईरानियों ने सिन्धु नदी के पूर्व में रहने वालों को 'हिन्दू' नाम दिया। ईरान के पतन के बाद जब अरब से मुस्लिम हमलावर भारत में आए तो उन्होंने भारत के मूल धर्मावलंबियों को हिन्दू कहना शुरू कर दिया। इस तरह हिन्दुओं को 'हिन्दू' शब्द मिला।
लेकिन क्या यह सही है कि हिन्दुओं को हिन्दू नाम दिया ईरानियों और अरबों ने?
पारसी धर्म की स्थापना आर्यों की एक शाखा ने 700 ईसा पूर्व की थी। मात्र 700 ईसापूर्व? बाद में इस धर्म को संगठित रूप दिया जरथुस्त्र ने। इस धर्म के संस्थापक थे अत्रि कुल के लोग। यदि पारसियों को 'स्' के उच्चारण में दिक्कत होती तो वे सिन्धु नदी को भी हिन्दू नदी ही कहते और पाकिस्तान के सिंध प्रांत को भी हिन्द कहते और सिन्धियों को भी हिन्दू कहते। आज भी सिन्धु है और सिन्धी भी। दूसरी बात यह कि उनके अनुसार फिर तो संस्कृत का नाम भी हंस्कृत होना चाहिए। सबसे बड़ा प्रमाण यह कि 'हिन्दू' शब्द का जिक्र पारसियों की किताब से पूर्व की किताबों में भी मिलता है। उस किताब का नाम है : 'बृहस्पति आगम'।
इन्दु से बना हिन्दू : चीनी यात्री ह्वेनसांग के समय में 'हिन्दू' शब्द प्रचलित था। यह माना जा सकता है कि 'हिन्दू' शब्द 'इन्दु' जो चन्द्रमा का पर्यायवाची है, से बना है। चीन में भी 'इन्दु' को 'इंतु' कहा जाता है। भारतीय ज्योतिष चन्द्रमा को बहुत महत्व देता है। राशि का निर्धारण चन्द्रमा के आधार पर ही होता है। चन्द्रमास के आधार पर तिथियों और पर्वों की गणना होती है। अत: चीन के लोग भारतीयों को 'इंतु' या 'हिन्दू' कहने लगे। मुस्लिम आक्रमण के पूर्व ही 'हिन्दू' शब्द के प्रचलित होने से यह स्पष्ट है कि यह नाम पारसियों या मुसलमानों की देन नहीं है।
बृहस्पति आगम : इन दोनों सिद्धांतों में से पहले वाले प्राचीनकाल में नामकरण को इस आधार पर सही माना जा सकता है कि 'बृहस्पति आगम' सहित अन्य आगम ईरानी या अरबी सभ्यताओं से बहुत प्राचीनकाल में लिखा जा चुके थे। अतः उसमें 'हिन्दुस्थान' का उल्लेख होने से स्पष्ट है कि हिन्दू (या हिन्दुस्थान) नाम प्राचीन ऋषियों द्वारा दिया गया था न कि अरबों/ईरानियों द्वारा। यह नाम बाद में अरबों/ईरानियों द्वारा प्रयुक्त होने लगा।
एक श्लोक में कहा गया है:-
ॐकार मूलमंत्राढ्य: पुनर्जन्म दृढ़ाशय:
गोभक्तो भारतगुरु: हिन्दुर्हिंसनदूषक:।
हिंसया दूयते चित्तं तेन हिन्दुरितीरित:।
ॐकार मूलमंत्राढ्य: पुनर्जन्म दृढ़ाशय:
गोभक्तो भारतगुरु: हिन्दुर्हिंसनदूषक:।
हिंसया दूयते चित्तं तेन हिन्दुरितीरित:।
'ॐकार' जिसका मूल मंत्र है, पुनर्जन्म में जिसकी दृढ़ आस्था है, भारत ने जिसका प्रवर्तन किया है तथा हिंसा की जो निंदा करता है, वह हिन्दू है।
श्लोक : 'हिमालयात् समारभ्य यावत् इन्दु सरोवरम्। तं देवनिर्मितं देशं हिन्दुस्थानं प्रचक्षते॥'- (बृहस्पति आगम)
अर्थात : हिमालय से प्रारंभ होकर इन्दु सरोवर (हिन्द महासागर) तक यह देव निर्मित देश हिन्दुस्थान कहलाता है।
हिमालय से हिन्दू : एक अन्य विचार के अनुसार हिमालय के प्रथम अक्षर 'हि' एवं 'इन्दु' का अंतिम अक्षर 'न्दु'। इन दोनों अक्षरों को मिलाकर शब्द बना 'हिन्दू' और यह भू-भाग हिन्दुस्थान कहलाया। 'हिन्दू' शब्द उस समय धर्म की बजाय राष्ट्रीयता के रूप में प्रयुक्त होता था। चूंकि उस समय भारत में केवल वैदिक धर्म को ही मानने वाले लोग थे और तब तक अन्य किसी धर्म का उदय नहीं हुआ था इसलिए 'हिन्दू' शब्द सभी भारतीयों के लिए प्रयुक्त होता था। भारत में हिन्दुओं के बसने के कारण कालांतर में विदेशियों ने इस शब्द को धर्म के संदर्भ में प्रयोग करना शुरू कर दिया।
दरअसल, 'हिन्दू' नाम हजारों वर्षों से चला आ रहा है जिसके वेदों, संस्कृत व लौकिक साहित्य में व्यापक प्रमाण मिलते हैं। वस्तुतः यह नाम हमें विदेशियों ने नहीं दिया है। हिन्दू नाम पूर्णतया भारतीय है जिसका मूल वेदों का प्रसिद्ध ‘सिन्धु’ शब्द है और हर भारतीय को इस पर गर्व होना चाहिए।
क्या आर्य (हिन्दू) भारत में कहीं बाहर (विदेश) से आए हैं ?
प्रख्यात भारतविद् प्रो. सूर्यकान्त बाली ने अपने ग्रन्थ ‘भारत गाथा’ में इस सम्बन्ध में महत्त्वपूर्ण बातें लिखी हैं जिनका मैं अक्षरसः उल्लेख कर रहा हूँ—
‘भारतीय शैली के इतिहास के स्मृति में मनु तो हैं, जिन्होंने मानव जाति को मानव बनाया। हमारी स्मृति में प्रलय भी है, जिसमें से मनु ने हमारी जाति को उबारा। हमारी स्मृति में पृथु भी हैं, जिनके नाम पर इस धरती का नाम ‘पृथिवी’ पड़ा। हमारी स्मृति में प्रथम जैन तीर्थंकर ऋषभदेव के पुत्र भरत भी हैं, जिनके नाम पर इस देश का नाम ‘भारतवर्ष’ पड़ा। हमारे जहन में इतनी सारी स्मृतियाँ हैं। परन्तु हम किसी और देश से, बाहर से अपने देश भारतवर्ष में आये— यह हमारी स्मृति में कहीं नहीं है। हमारी स्मृति में देव भी हैं। हमारी स्मृति में असुर भी हैं। हमारी स्मृति में देवासुर संग्राम भी है। हमारी स्मृति में यक्ष भी हैं, किन्नर भी हैं और गन्धर्व भी हैं। परन्तु हमारी स्मृति में वे आर्य नहीं हैं, जिन्हें कहीं बाहर से यहाँ आक्रमणकारी में रूप में आया बताया जा रहा है। हमारी स्मृति में श्रेष्ठ के अर्थ में ‘आर्य’ शब्द है। दुराचारी के अर्थ में ‘अनार्य’ शब्द भी है। हमारी स्मृति में ‘पति’ अर्थ देनेवाला आर्य शब्द भी है; पर जातिवाची, नस्लवाची वह ‘आर्य’ शब्द हमारी स्मृति में कहीं है नहीं। जिस तरह से आर्य हमारे पूर्वज और कहीं बाहर से आये हुए बताए जा रहे हैं, वेद हों या ब्राह्मण-ग्रन्थ हों, आरण्यक-ग्रन्थ हों या उपनिषद्-ग्रन्थ हों, रामायण और महाभारत-जैसे प्रबन्धकाव्य (इतिहास-ग्रन्थ) हों या अठारह पुराण और अठारह उपपुराण हों, तमाम वैज्ञानिक साहित्य हो, समाजशास्त्रीय ग्रन्थ हों या ललित साहित्य हो, संस्कृत के ऐसे किसी भी ग्रन्थ में कोई एक परोक्ष, प्रत्यक्ष की तो बात ही क्या है, सन्दर्भ तक ऐसा नहीं जो हमारे बारे में कहता हो कि हम बाहर से आये। ब्राह्मण-परम्परा के तमाम ग्रन्थ हों या श्रमण अर्थात् जैन-बौद्ध परम्परा के कोई ग्रन्थ हों, ऐसी कोई स्मृति कहीं अंकित नहीं, जो हमारे बारे में कहती हो कि हम बाहर से आए। भारत का पाली, प्राकृत, अपभ्रंश या आधुनिक भारतीय भाषाओं में लिखा साहित्य हो, हमारे देश के किसी भी कोने में गाया जानेवाला कोई लोकगीत हो, कोई झूठी-सच्ची अफवाह, कोरी गप्प या कोई बकवास हो, कहीं भी यह अंकित नहीं कि यह देश हमारा नहीं और हम कहीं बाहर से आये हैं।’
यह सर्वविदित तथ्य प्रमाणित करता है कि पाश्चात्य विद्वानों एवं उनके प्रभाव से प्रभावित भारतीय विद्वानों ने भारतीय इतिहास के प्रति कितना बड़ा षड्यंत्र किया है। यह जो अभिशाप किया है उसका प्रायश्चित भी उन्हें अवश्य इस काल के क्रम में करना ही पड़ेगा। हमें प्रयत्नपूर्वक भारतीय इतिहास-पद्धति को प्रतिष्ठित करना ही पड़ेगा। अन्य मार्ग नहीं है।
प्रख्यात भारतविद् प्रो. सूर्यकान्त बाली ने अपने ग्रन्थ ‘भारत गाथा’ में इस सम्बन्ध में महत्त्वपूर्ण बातें लिखी हैं जिनका मैं अक्षरसः उल्लेख कर रहा हूँ—
‘भारतीय शैली के इतिहास के स्मृति में मनु तो हैं, जिन्होंने मानव जाति को मानव बनाया। हमारी स्मृति में प्रलय भी है, जिसमें से मनु ने हमारी जाति को उबारा। हमारी स्मृति में पृथु भी हैं, जिनके नाम पर इस धरती का नाम ‘पृथिवी’ पड़ा। हमारी स्मृति में प्रथम जैन तीर्थंकर ऋषभदेव के पुत्र भरत भी हैं, जिनके नाम पर इस देश का नाम ‘भारतवर्ष’ पड़ा। हमारे जहन में इतनी सारी स्मृतियाँ हैं। परन्तु हम किसी और देश से, बाहर से अपने देश भारतवर्ष में आये— यह हमारी स्मृति में कहीं नहीं है। हमारी स्मृति में देव भी हैं। हमारी स्मृति में असुर भी हैं। हमारी स्मृति में देवासुर संग्राम भी है। हमारी स्मृति में यक्ष भी हैं, किन्नर भी हैं और गन्धर्व भी हैं। परन्तु हमारी स्मृति में वे आर्य नहीं हैं, जिन्हें कहीं बाहर से यहाँ आक्रमणकारी में रूप में आया बताया जा रहा है। हमारी स्मृति में श्रेष्ठ के अर्थ में ‘आर्य’ शब्द है। दुराचारी के अर्थ में ‘अनार्य’ शब्द भी है। हमारी स्मृति में ‘पति’ अर्थ देनेवाला आर्य शब्द भी है; पर जातिवाची, नस्लवाची वह ‘आर्य’ शब्द हमारी स्मृति में कहीं है नहीं। जिस तरह से आर्य हमारे पूर्वज और कहीं बाहर से आये हुए बताए जा रहे हैं, वेद हों या ब्राह्मण-ग्रन्थ हों, आरण्यक-ग्रन्थ हों या उपनिषद्-ग्रन्थ हों, रामायण और महाभारत-जैसे प्रबन्धकाव्य (इतिहास-ग्रन्थ) हों या अठारह पुराण और अठारह उपपुराण हों, तमाम वैज्ञानिक साहित्य हो, समाजशास्त्रीय ग्रन्थ हों या ललित साहित्य हो, संस्कृत के ऐसे किसी भी ग्रन्थ में कोई एक परोक्ष, प्रत्यक्ष की तो बात ही क्या है, सन्दर्भ तक ऐसा नहीं जो हमारे बारे में कहता हो कि हम बाहर से आये। ब्राह्मण-परम्परा के तमाम ग्रन्थ हों या श्रमण अर्थात् जैन-बौद्ध परम्परा के कोई ग्रन्थ हों, ऐसी कोई स्मृति कहीं अंकित नहीं, जो हमारे बारे में कहती हो कि हम बाहर से आए। भारत का पाली, प्राकृत, अपभ्रंश या आधुनिक भारतीय भाषाओं में लिखा साहित्य हो, हमारे देश के किसी भी कोने में गाया जानेवाला कोई लोकगीत हो, कोई झूठी-सच्ची अफवाह, कोरी गप्प या कोई बकवास हो, कहीं भी यह अंकित नहीं कि यह देश हमारा नहीं और हम कहीं बाहर से आये हैं।’
यह सर्वविदित तथ्य प्रमाणित करता है कि पाश्चात्य विद्वानों एवं उनके प्रभाव से प्रभावित भारतीय विद्वानों ने भारतीय इतिहास के प्रति कितना बड़ा षड्यंत्र किया है। यह जो अभिशाप किया है उसका प्रायश्चित भी उन्हें अवश्य इस काल के क्रम में करना ही पड़ेगा। हमें प्रयत्नपूर्वक भारतीय इतिहास-पद्धति को प्रतिष्ठित करना ही पड़ेगा। अन्य मार्ग नहीं है।
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