भारत का वैज्ञानिक चिन्तन
स्थापत्य शास्त्र-२ : अजंता, एलोरा, कोणार्क, खजुराहो – ये हैं भारतीय शिल्प की चमत्कारिक धरोहर
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२५००-३००० ई.पू. से लेकर १७वीं शताब्दी तक के देश के विविध हिस्सों में जल प्रदाय की व्यवस्था के आश्चर्यजनक नमूने मिलते हैं जिसमें बड़े तालाब, नहरें तथा अन्य स्थान से पानी का मार्ग परिवर्तित कर पानी लाने के अनेक उदाहरण प्राप्त होते हैं।
कौटिल्य आज से २५०० वर्ष पूर्व अपने अर्थशास्त्र में कहते हैं कि राजा जिस पवित्र भाव से मन्दिर का निर्माण करता है उसी भाव से उसे जल रोकने का प्रयत्न करना चाहिए। आज पानी को लेकर चारों ओर हाहाकार है। लोग कहते हैं कि कहीं तीसरा विश्वयुद्ध पानी को लेकर न हो जाए। ऐसे समय में चाणक्य की बात ध्यान देने योग्य है। चाणक्य राजा को पवित्र भाव से जल रोकने का प्रयास करने की सलाह देकर ही नहीं रुके, अपितु आगे वे कहते हैं कि जनता को भी जल संरक्षण के लिए प्रेरित करना चाहिए। उस हेतु आर्थिक सहयोग देना चाहिए, आवश्यकता पड़ने पर वस्तु का सहयोग करना चाहिए, इतना ही नहीं तो व्यक्ति का भी सहयोग करना चाहिए।
कौटिल्य जल रोकने हेतु बांध बनाने का भी उल्लेख करते हैं तथा इसका भी वर्णन करते हैं कि बांध वहां नहीं बनाना चाहिए जहां दो राज्यों की सीमाएं मिलती हैं, क्योंकि ऐसा होने पर वह झगड़े की जड़ बनेगा। आज कावेरी तथा नर्मदा नदी के विवादों को देखकर लगता है वे बहुत दूरद्रष्टा थे।
दक्षिण में पेरुमामिल जलाशय अनंतराजा सागर ने बनवाया था। यह भारत में सिंचाई, शिल्प और प्रौद्योगिकी की कहानी कहता है। समीप के मंदिर की ओर दो पत्थर-शिलाओं पर बने शिलालेख (सन् १३६९) से पता लगता है कि जलागार के निर्माण में दो वर्ष लगे। एक हजार श्रमिक लगाए गए और एक सौ गाड़ियां पत्थर निर्माण स्थल तक पहुंचाने में प्रयुक्त हुएं। शिलालेख में इस जलागार (जलाशय) के निर्माण स्थल के चयन और निर्माण के संबंध में बारह विशेष बातों का उल्लेख हैं, जो एक अच्छे तालाब के निर्माण के लिए आवश्यक हैं।
(१) शासक में कुछ भलाई, समृद्धि, खुशहाली के माध्यम से यश पाने की अभिलाषा हो। (२) पायस शास्त्र यानी जल विज्ञान में निपुणता हो। (३) जलाशय का आधार सख्त मिट्टी पर आधारित हो। (४) नदी जल का भण्डार करीब ३८ किलोमीटर से ला रही हो। (५) बांध के दो तरफ किसी पहाड़ी के ऊंचे शिखर हों। (६) इन दो पहाड़ी टीलों के बीच बांध ठोस पत्थर का बने। भले ही लंबा न हो, लेकिन सख्त हो। (७) ये पहाड़ियां ऐसी जमीन से भिन्न हों जो उद्यानिकी के अनुकूल और उर्वर होती हैं। (८) जलाशय का वेड (तल) लंबा, चौड़ा और गहरा हो। (९) सीधे, लम्बे पत्थरों वाली जमीन हो। (१०) समीप में निचली, उर्वर जमीन सिंचाई के लिए उपलब्ध हो। (१२) जलाशय बनाने में कुशल शिल्पी लगाए जाएं।
छह वर्जनाएं भी शिलालेख में उत्कीर्ण हैं, इन्हें हर हाल में टाला जाना चाहिए-
(१) बांध से रिसाव। (२) क्षारीय भूमि। (३) दो अलग शासित क्षेत्रों की सीमा में जलाशय का निर्माण। (४) जलाशय बांध के बीच में ऊंचाई वाला क्षेत्र। (५) कम जलापूर्ति आगम और सिंचाई के लिए अधिक फैला क्षेत्र। (६) सिंचाई के लिए अपर्याप्त भूमि और अधिक जलागम।
इसके अतिरिक्त ग्यारहवीं शताब्दी से सत्रहवीं शताब्दी में जल संरक्षण की संरचना के लिए जलाशयों के निर्माण को रोचक इतिहास देश में दर्ज है।
(१) अरिकेशरी मंगलम् जलाशय (१०१०-११) के साथ मन्दिर की संरचना। (२) गंगा हकोदा चोपुरम् जलाशय (१०१२-१०१४) के बांध, स्तूप और नहरों का विस्तार १६ मील लम्बा है। (३) भोजपुर झील (११वीं सदी) भोपाल से लगी हुई २४० वर्गमील में फैली है। इसका निर्माण राजा भोज ने किया था। इस झील में ३६५ जल धाराएं मिलती हैं। (४) अलमंदा जलाशय (ग्यारहवीं) विशाखापट्टनम् में है। (५) राजत टाका तालाब (ग्यारहवीं शताब्दी) (६) भावदेव भट्ट जलाशय बंगाल में (७) सिंधुघाटी जलाशय (११०६-०७) मैसूर में स्लूस तक निर्माण किया गया है। (८) पेरिया क्याक्कल स्लूस (१२१९) त्रिचलापल्ली जिले में। (९) पखाला झील (१३वीं शताब्दी)। वारंगल जिले में हल संरचना का उदाहरण है। (१०) फिरंगीपुरम् जलाशय (१४०९) गुंटूर जिले में शिल्प की विशिष्टता है। (११) हरिद्रा जलाशय (१४१०) व्राह्मणों ने अपने खर्चे से निर्मित कराया था। तब विजयनगर में राजा देवराज सत्तासीन थे। (१२) अनंतपुर जिले में नरसिंह वोधी जलाशय (१४८९) का उल्लेख भी आवश्यक है। (१३) १५२० में नागलपुर जलाशय-राजा कृष्णराज ने नागलपुर की पेयजल पूर्ति के लिए बनवाया था। कृष्णराज को भूजल सुरंग बनाने का पहला गौरव प्राप्त हुआ। विजयपुर, महमदनगर, औरंगाबाद, कोरागजा, वासगन्ना चैनलों का निर्माण इसी श्रृंखला की कड़ी है। (१४) शिवसमुद्र (१५३१-३२) आज भी बंगलुरू की जलपूर्ति का स्रोत है। (१५) तुगलकाबाद में बांध के जनक अनंगपाल (११५१) थे (१६) सतपुला बांध दिल्ली (१३२६) में ३८ फुट ऊंची महराबें है। (१६) जमुना की पुरानी नहर, जिसे फिरोजशाह तुगलक नहर (१३वीं शताब्दी) कहा गया, रावी पर बनी है।
कलात्मक स्थापत्य के अमर उदाहरण-
प्राचीन मंदिर
प्राचीनकाल में शिल्पियों के समूह होते थे, जो एक कुल की तरह रहते थे और कोई राजकुल या धनिक व्यक्ति भक्ति भावना से भव्य मन्दिर निर्माण कराना चाहता तो ये वहां जाकर वर्षों अंत:करण की भक्ति से, पूजा के भाव से, व्यवसायी बुद्धि से रहित होकर, मूर्ति उकेरने की साधना में संलग्न रहते थे। उनकी मूक साधना प्रस्तर में प्राण फूंकती थी। इसी कारण आज भी प्राचीन मंदिरों की मूर्तिकला मानो जीवंत हो अपनी कहानी कहती है। कोणार्क के सूर्य मन्दिर का निर्माण लगातार १२ वर्ष तक अनेक शिल्पियों की साधना का परिणाम है।
इस श्रेष्ठ भारतीय कला के अनेक नमूने देश के विभिन्न स्थानों पर दिखाई देते हैं।
एलोरा के मन्दिर जिनमें व्राह्मण मंदिर कैलास सबसे विशाल और सुन्दर है, इसके सभी भाग निर्दोष और कलापूर्ण हैं। इसकी लंबाई १४२ फुट, चौड़ाई ६२ फुट तथा ऊंचाई १०० फुट है। इस पर पौराणिक दृश्य उत्कीर्ण हैं।
एलीफेंटा की गुफा में शिव-पार्वती के विवाद वाले दृश्यों में मानो शिल्पी की सारी साधना मुखर हुई है।
उड़ीसा का लिंगराज मंदिर कला का श्रेष्ठतम नमूना है। यह मन्दिर ५२०न्४६५ वर्गफुट में स्थित है, मंदिर की ऊंचाई १४४.०५ फुट है तथा ७.५ फुट भारी दीवार से घिरा है। इसके चार प्रमुख भाग हैं:- विमान-जगमोहन-नट मन्दिर-भाग मंडप। मंदिर में अनेक देवताओं की सुंदर उकेरी गई मूर्तियों के साथ-साथ रामायण और महाभारत के अनेक प्रसंगों को उकेरा गया है।
खजुराहो के मन्दिर-यह नवीं शताब्दी के मंदिर हैं। पहले ८५ मंदिर थे, अब लगभग २० ही शेष रह गए हैं। खजुराहो के मन्दिर शिल्पकला के महान् प्रतीक हैं। बाह्य दीवारों पर भोग मुद्रायें हैं। गर्भगृह में शिवलिंग स्थापित है।
इसके अतिरिक्त गुजरात में गिरनार के मन्दिर प्रसिद्ध हैं। दक्षिण भारत में श्रीरंगपट्टन का मंदिर सबसे बड़ा और स्थापत्य का उत्कृष्ट नमूना है। यहां पर एक सहस्र स्तंभों वाला (१६न्७०) मण्डप है, जिसका कमरा ४५०न्१३० फुट है। यहां गोकुल जैसा बड़ा और कलात्मक गोपुर और कहीं-कहीं कुण्डलाकार बेलें, पुष्पाकृतियों आदि अनोखी छटा उत्पन्न करते हैं।
११वीं शताब्दी का रामेश्वरम् मंदिर चार धामों में से एक धाम है। मदुरई का मीनाक्षी मन्दिर कला का अप्रतिम नमूना है। इसकी लम्बाई ८४७ फुट, चौड़ाई ७९५ फुट ऊंचाई १६० फुट है। इसके परकोटे में ११ गोपुर हैं। एक सहस्र स्तंभों वाला मंडप यहां भी है और इसकी विशेषता है कि प्रत्येक स्तंभ की कारीगीरी, मूर्तियां व मुद्राएं भिन्न-भिन्न है। दक्षिण भारत में कला का यह सर्वश्रेष्ठ नमूना है।
इस प्रकार पूरे भारत में सहस्रों मंदिर, महल, प्रासाद प्राचीन शिल्पज्ञान की गाथा कह रहे हैं।
शिल्प के कुछ अद्भुत नमूने- (१) अजंता की गुफा में एक बुद्ध प्रतिमा है। इस प्रतिमा को यदि अपने बायीं ओर से देखें तो भगवान बुद्ध गंभीर मुद्रा में दृष्टिगोचर होते हैं, सामने से देखें तो गहरे ध्यान में लीन शांत दिखाई देते हैं और दायीं ओर देखें तो उनके मुखमंडल पर हास्य अभिव्यक्त होता है। एक ही मूर्ति के भाव कोण बदलने के साथ बदल जाते हैं।
(२) दक्षिण में विजयनगर साम्राज्य में बना विट्ठल मंदिर शिल्पकला का अप्रतिम नमूना है। इसका संगीत खण्ड यह बताता है कि पत्थर, उनके प्रकार, विशेषता और किस पत्थर को कैसे तराशने से और किस कोण पर स्थापित करने पर उसमें से विशेष ध्वनि निकलेगी। इस खण्ड के विभिन्न स्तंभों से संपूर्ण संगीत व वाद्यों का अनुभव होता है। इसमें प्रवेश करते ही सर्वप्रथम सात स्तंभ हैं। इसमें प्रथम स्तंभ पर कान लगाएं और उस पर आघात दें। तो स की ध्वनि निकलती है और सात स्वरों के क्रम से आगे के स्तम्भों में से रे,ग,म,प,ध,नी की ध्वनि निकलती है। आगे अलग-अलग स्तंभों से अलग-अलग वाद्यों की ध्वनि निकलती है। किसी स्तम्भ से तबले की, किसी स्तंभ से बांसुरी की, किसी से वीणा की। जिन्होंने यह बनाया, उन्होंने पत्थरों में से संगीत प्रकट कर दिया। आज भी उन अनाम शिल्पियों की ये अमर कृतियां भारतीय शिल्प शास्त्र की गौरव गाथा कहती हैं।
चित्रकला
महाराष्ट्र में औरंगाबाद के पास स्थित अजंता की प्रसिद्ध गुफाओं के चित्रों की चमक हजार से अधिक वर्ष बीतने के बाद भी आधुनिक समय से विद्वानों के लिए आश्चर्य का विषय है। भगवान बुद्ध से संबंधित घटनाओं को इन चित्रों में अभिव्यक्त किया गया है। चावल के मांड, गोंद और अन्य कुछ पत्तियों तथा वस्तुओं का सम्मिश्रमण कर आविष्कृत किए गए रंगों से ये चित्र बनाए गए। लगभग हजार साल तक भूमि में दबे रहे और १८१९ में पुन: उत्खनन कर इन्हें प्रकाश में लाया गया। हजार वर्ष बीतने पर भी इनका रंग हल्का नहीं हुआ, खराब नहीं हुआ, चमक यथावत बनी रही। कहीं कुछ सुधारने या आधुनिक रंग लगाने का प्रयत्न हुआ तो वह असफल ही हुआ। रंगों और रेखाओं की यह तकनीक आज भी गौरवशाली अतीत का याद दिलाती है।
व्रिटिश संशोधक मि। ग्रिफिथ कहते हैं ‘अजंता में जिन चितेरों ने चित्रकारी की है, वे सृजन के शिखर पुरुथ थे। अजंता में दीवारों पर जो लंबरूप (खड़ी) लाइनें कूची से सहज ही खींची गयी हैं वे अचंभित करती हैं। वास्तव में यह आश्चर्यजनक कृतित्व है। परन्तु जब छत की सतह पर संवारी क्षितिज के समानान्तर लकीरें, उनमें संगत घुमाव, मेहराब की शक्ल में एकरूपता के दर्शन होते हैं और इसके सृजन की हजारों जटिलताओं पर ध्यान जाता है, तब लगता है वास्तव में यह विस्मयकारी आश्चर्य और कोई चमत्कार है।‘
महर्षि कणाद के वैशेषिक दर्शन में कर्म शब्द का अर्थ ग्दृद्यत्दृद से है। इसके पांच प्रकार हैं।
उत्क्षेपण (छद्रध्र्ठ्ठद्धड्ड थ्र्दृद्यत्दृद)
अवक्षेपण (क़्दृध्र्दध्र्ठ्ठद्धड्ड थ्र्दृद्यत्दृद)
आकुञ्चन (ग्दृद्यत्दृद ड्डद्वड्ढ द्यदृ द्यण्ड्ढ
द्धड्ढथ्ड्ढठ्ठद्मड्ढ दृढ द्यड्ढदद्मत्थ्ड्ढ द्मद्यद्धड्ढद्मद्म)
प्रसारण (च्ण्ड्ढठ्ठद्धत्दढ़ थ्र्दृद्यत्दृद)
गमन (क्रड्ढदड्ढद्धठ्ठथ् च्र्न्र्द्रड्ढ दृढ थ्र्दृद्यत्दृद)
विभिन्न कर्म या ग्दृद्यत्दृद को उसके कारण के आधार पर जानने का विश्लेषण वैशेषिक में किया है।
(१) नोदन के कारण-लगातार दबाव
(२) प्रयत्न के कारण- जैसे हाथ हिलाना
(३) गुरुत्व के कारण-कोई वस्तु नीचे गिरती है
(४) द्रवत्व के कारण-सूक्ष्म कणों के प्रवाह से
डा. एन.जी. डोंगरे अपनी पुस्तक च्ण्ड्र्ढ घ्ण्न्र्द्मत्ड़द्म में वैशेषिक सूत्रों के ईसा की प्रथम शताब्दी में लिखे गए प्रशस्तपाद भाष्य में उल्लिखित वेग संस्कार और न्यूटन द्वारा १६७५ में खोजे गए गति के नियमों की तुलना करते हैं।
प्रशस्तपाद लिखते हैं ‘वेगो पञ्चसु द्रव्येषु निमित्त-विशेषापेक्षात् कर्मणो जायते नियतदिक् क्रिया प्रबंध हेतु: स्पर्शवद् द्रव्यसंयोग विशेष विरोधी क्वचित् कारण गुण पूर्ण क्रमेणोत्पद्यते।‘ अर्थात् वेग या मोशन पांचों द्रव्यों (ठोस, तरल, गैसीय) पर निमित्त व विशेष कर्म के कारण उत्पन्न होता है तथा नियमित दिशा में क्रिया होने के कारण संयोग विशेष से नष्ट होता है या उत्पन्न होता है।
उपर्युक्त प्रशस्तिपाद के भाष्य को तीन भागों में विभाजित करें तो न्यूटन के गति सम्बंधी नियमों से इसकी समानता ध्यान आती है।
(१) वेग: निमित्तविशेषात् कर्मणो जायते
च्ण्ड्र्ढ क्ण्ठ्ठदढ़ड्ढ दृढ थ्र्दृद्यत्दृद त्द्म ड्डद्वड्ढ द्यदृ त्थ्र्द्रद्धड्ढद्मद्मड्ढड्ड ढदृद्धड़ड्ढ (घ्द्धत्दड़त्द्रत्ठ्ठ)
(२) वेग निमित्तापेक्षात् कर्मणो जायते नियत्दिक् क्रिया प्रबंध हेतु
च्ण्ड्र्ढ क्ण्ठ्ठदढ़ड्ढ दृढ थ्र्दृद्यत्दृद त्द्म द्रद्धदृद्रदृद्धद्यत्दृदठ्ठथ् द्यदृ द्यण्ड्ढ थ्र्दृद्यत्ध्ड्ढ ढदृद्धड़ड्ढ त्थ्र्द्रद्धड्ढद्मद्मड्ढड्ड ठ्ठदड्ड त्द्म थ्र्ठ्ठड्डड्ढ त्द द्यण्ड्ढ ड्डत्द्धड्ढड़द्यत्दृद दृढ द्यण्ड्ढ द्धत्ढ़ण्द्य थ्त्दड्ढ त्द ध्ण्त्र्ड़ण् द्यण्ड्ढ ढदृद्धड़ड्ढ त्द्म त्थ्र्द्रद्धड्ढद्मद्मड्ढड्ड (घ्द्धत्दड़त्द्रत्ठ्ठ)
(३) वेग: संयोगविशेषाविरोधी
च्र्दृ ड्ढध्ड्ढद्धन्र् ठ्ठड़द्यत्दृद द्यण्ड्ढद्धड्ढ त्द्म ठ्ठथ्ध्र्ठ्ठन्र्द्म ठ्ठद ड्ढद्दद्वठ्ठथ् ठ्ठदड्ड दृद्रद्रदृद्मत्द्यड्ढ द्धड्ढठ्ठड़द्यत्दृद (घ्द्धत्दड़त्द्रत्ठ्ठ)
यहां न्यूटन के गति के नियम दिए तथा वैशेषिक की परिभाषा भी बतायी है कि वेग या क़दृद्धड़ड्ढ एक द्रव्य है, जो कर्म या थ्र्दृद्यत्दृद द्वारा उत्पन्न हुआ है।
स्थिति स्थापकता (कथ्ठ्ठद्मद्यत्ड़ ढदृद्धड़ड्ढद्म)
कथ्ठ्ठद्मद्यत्ड़त्द्यन्र् वास्तव में किसी पदार्थ के उस गुण को दिया गया नाम है, जिस कारण छड़ें-फ्लेट आदि कंपन करते हैं और ध्वनि भी निकलती है। वैशेषिक दर्शनकार इसे जानते थे। उदयन की ‘न्याय कारिकावली‘ नामक ग्रंथ में इसका उल्लेख मिलता है।
स्थितिस्थापकसंस्कार:
क्षित: क्वचिच्चतुर्ष्वपि।
अतीन्द्रियोसौ विज्ञेय:
क्वचित् स्पन्देऽपि कारणम्॥ ५९॥
ठोस या द्रव्य के अन्य प्रकार में द्रव्यों में उत्पन्न अदृश्य बल ही स्पन्दन (ज्त्डद्धठ्ठद्यत्दृद का कारण है।
ई. सन् १११४ में हुए भास्कराचार्य के ग्रंथ ‘सिद्धांत शिरोमणि‘ के गोलाध्याय के यंत्राध्याय के श्लोक ५३ से ५६ तक ध्र्ठ्ठद्यड्ढद्ध ध्ण्ड्र्ढड्ढथ् का वर्णन है।
ताम्रादिमयस्यांकुशरूपनलस्याम्बुपूर्णस्य। ५३
एक कुण्डजलान्तर्द्वितीयमग्रं त्वधोमुखं च बहि:
युगापन्मुक्त चेत् क नलेन कुण्डाब्दहि:
पतति ।५४
नेम्यां बद्धवा घटिकाश्च्क्रं जलयन्त्रवत् तथा धार्यम्
नलकप्रच्युतसलिलं पतित यथा तद्घटी मध्ये। ५५
भ्रमति ततस्तत् सततं पूर्णघटीभि: समाकृष्टम्
चक्रच्युतं तदुदकं कुण्डे याति
प्रणालिकया। ५६
अर्थात्-ताम्र आदि धातु से बना हुआ, अंकुश के तरह मोड़ा हुआ एवं पानी से भरा तल का एक अन्त को जल पात्र में डुबा कर और दूसरे अन्त को बाहर अधोमुख करके अगर दोनों अन्त को एक साथ छोड़ेंगे तब पात्रस्थ जल सम्पूर्ण रूप से नल के द्वारा बाहर जाएगा। चक्र की परिधि में घटिकाओं को (जल पात्रों को) बांधकर, जल यंत्र के समान. चक्र के अक्ष के दोनों अन्त को उस प्रकार रखना चाहिए जैसे नल से गिरता हुआ पानी घटिका के भीतर गिरे। इससे वह चक्र पूर्ण घटियों के द्वारा खींचा हुआ निरन्तर घूमता है और चक्र से निकला हुआ पानी नाली के द्वारा कुण्ड में चला जाता है।
राव साहब के.वी. वझे द्वारा १९२६ में भोज द्वारा ११५० ईसवी में सम्पादित ग्रंथ ‘समरांगण सूत्रधार‘ का विश्लेषण करते हुए यंत्रशास्त्र के बारे में दी गई जानकारी एक विकसित यंत्रज्ञान की कल्पना देती है। इस ग्रंथ में सभी यंत्रों की दृष्टि से कुछ मूलभूत बातों का विचार किया है। पृथ्वी पदार्थ स्वाभाविक स्थिर है, सभी यंत्र पदार्थ की कृत्रिम साधनों से उत्पन्न गति रूप है।
प्रकृत्या पार्थिवं स्थिरं शेषेषु सहजा गति:।
अत: प्रायेण सा जन्य क्षितावेव प्रयत्नत:।
सूत्रधार समरांगण अ ३१
यंत्रों के साधन व कार्य
यंत्र के मुख्य साधनों का वर्णन ‘यंत्रार्णव‘ नामक ग्रंथ में किया गया है।
दंडैश्र्चक्रैश्र्च दंतैश्र्च सरणिभ्रमणादिभि:
शक्तेरूत्पांदनं किं वा चालानं यंत्रमुच्यते॥ यंत्रार्णव
यंत्र त्द्म ठ्ठ ड़दृदद्यद्धत्ध्ठ्ठदड़ड्ढ ड़दृदद्मत्द्मद्यत्दढ़ दृढ….
दंड- ख्र्ड्ढध्ड्ढद्ध, चक्र- घ्द्वथ्थ्ड्ढन्र्, दंत- द्यदृदृद्यण्ड्ढड्ड ध्ण्ड्र्ढड्ढथ्, सरणि- त्दड़थ्त्दड्ढड्ड द्रथ्ठ्ठदड़ड्ढ, भ्रमण- च्ड़द्धड्ढध्र्
ठ्ठदड्ड त्द्म द्धड्ढद्दद्वत्द्धड्ढड्ड ढदृद्ध द्रद्धदृड्डद्वड़त्दढ़ शक्ति (घ्दृध्र्ड्ढद्ध दृद्ध थ्र्दृद्यत्दृद) दृढ ड़ण्ठ्ठदढ़त्दढ़ त्द्यद्म ड्डत्द्धड्ढड़द्यत्दृद.
इनके मुख्य कार्य- दंड का उच्चाटन या च्द्यत्द्धद्धत्दढ़, चक्र का वशीकरण या क्ड्ढदद्यद्धठ्ठथ्त्दढ़ थ्र्दृद्यत्दृद, दंत का स्तंभन या द्मद्यदृद्रद्रत्दढ़, सरणि का जारण या एद्धत्दढ़त्दढ़ द्यदृढ़ड्ढद्यण्ड्ढद्ध, भ्रमण का मारण या ठ्ठददत्ण्त्थ्ठ्ठद्यत्दृद
एक यंत्र में तीन भाग होते हैं :
(१) बीज- द्यण्ड्ढ द्रद्धदृड्डद्वड़ड्ढद्ध दृढ ठ्ठड़द्यत्दृद (२) कीलक- द्यण्ड्ढ द्रत्द त्र्दृत्दढ़त्दढ़ द्रदृध्र्ड्ढद्ध ठ्ठदड्ड ध्र्दृद्धत्त् (३) शक्ति- द्यण्ड्ढ ठ्ठडत्थ्त्द्यन्र् दृढ ड्डदृत्दढ़ द्यण्ड्ढ ध्र्दृद्धत्त्.
इस प्रकार यंत्र अपने तीन भाग, पांच साधनों एवं उनके द्वारा होने वाली क्रियाओं से गतिमान होता है। इससे विविध प्रकार की गति उत्पन्न होती है।
तिर्यगूर्ध्वंमध: पृष्ठे पुरत: पार्श्वयोरपि
गमनं सरणं पात इति भेदा: क्रियोद्भवा:॥ समरांगण-अ ३१
विविध कार्यों की आवश्यकतानुसार विविध गति होती है जिससे कार्यसिद्धि होती है।
(१) तिर्यग्- द्मथ्ठ्ठदद्यत्दढ़ (२) ऊर्ध्व द्वद्रध्र्ठ्ठद्धड्डद्म (३) अध:- ड्डदृध्र्दध्र्ठ्ठद्धड्डद्म (४) पृष्ठे- डठ्ठड़त्त्ध्र्ठ्ठद्धड्डद्म (५) पुरत:-ढदृद्धध्र्ठ्ठद्धड्डद्म (६) पार्श्वयो:- द्मत्ड्डड्ढध्र्ठ्ठन्र्द्म
किसी भी यंत्र के मुख्य गुण क्या-क्या होने चाहिए, इसका वर्णन समरांगण सूत्रधार में करते हुए पुर्जों के परस्पर सम्बंध, चलने में सहजता, चलते समय विशेष ध्यान न देना पड़े, चलने में कम ऊर्जा का लगना, चलते समय ज्यादा आवाज न करें, पुर्जे ढीले न हों, गति कम-ज्यादा न हो, विविध कामों में समय संयोजन निर्दोष हो तथा लंबे समय तक काम करना आदि प्रमुख २० गुणों की चर्चा करते हुए ग्रंथ में कहा गया है-
चिरकालसहत्वं च यंत्रस्यैते महागुणा: स्मृता:। समरांगण-अ ३
हाइड्रोलिक मशीन (च्र्द्वद्धडत्दड्ढ)-जलधारा के शक्ति उत्पादन में उपयोग के संदर्भ में ‘समरांगण सूत्रधार‘ ग्रंथ के ३१वें अध्याय में कहा है-
धारा च जलभारश्च पयसो भ्रमणं तथा॥
यथोच्छ्रायो यथाधिक्यं यथा नीरंध्रतापि च।
एवमादीनि भूजस्य जलजानि प्रचक्षते॥
बहती हुई जलधारा का भार तथा वेग का शक्ति उत्पादन हेतु हाइड्रोलिक मशीन में उपयोग किया जाता है। जलधारा वस्तु को घुमाती है और ऊंचाई से धारा गिरे तो उसका प्रभाव बहुत होता है और उसके भार व वेग के अनुपात में धूमती है। इससे शक्ति उत्पन्न होती है।
सङ्गृहीतश्च दत्तश्च पूरित: प्रतनोदित:।
मरुद् बीजत्वमायाति यंत्रेषु जलजन्मसु। समरांगण-३१
पानी को संग्रहित किया जाए, उसे प्रभावित और पुन: क्रिया हेतु उपयोग किया जाए, यह मार्ग है जिससे बल का शक्ति के रूप में उपयोग किया जाता है। इसकी प्रक्रिया का विस्तार से इसी अध्याय में वर्णन है।
कुछ अन्य संदर्भ भी यंत्र विज्ञान के बारे में मिलते हैं।
चालुक्य वंश के राज्य के समय एक बगीचे के टैंक में पानी निकासी की स्वयं संचालित व्यवस्था का वर्णन जर्नल ऑफ अनन्ताचार्य इन्डोलॉजीकल इन्स्टीट्यूट बाम्बे में आया है।
महर्षि भारद्वाज रचित ‘विमान शास्त्र‘ में भी अनेक यंत्रों का वर्णन है, जिसका उल्लेख विमान शास्त्र अध्याय के प्रसंग में करेंगे।
राजा भोज के समरांगण सूत्रधार का ३१ वां अध्याय यंत्र विज्ञान के क्षेत्र में एक सीमा बिन्दु है। इस अध्याय में अनेक यंत्रों का वर्णन है। लकड़ी के वायुयान यांत्रिक दरबान तथा सिपाही, इनमें ङदृडदृद्य की एक झलक देख सकते हैं.
उत्क्षेपण (छद्रध्र्ठ्ठद्धड्ड थ्र्दृद्यत्दृद)
अवक्षेपण (क़्दृध्र्दध्र्ठ्ठद्धड्ड थ्र्दृद्यत्दृद)
आकुञ्चन (ग्दृद्यत्दृद ड्डद्वड्ढ द्यदृ द्यण्ड्ढ
द्धड्ढथ्ड्ढठ्ठद्मड्ढ दृढ द्यड्ढदद्मत्थ्ड्ढ द्मद्यद्धड्ढद्मद्म)
प्रसारण (च्ण्ड्ढठ्ठद्धत्दढ़ थ्र्दृद्यत्दृद)
गमन (क्रड्ढदड्ढद्धठ्ठथ् च्र्न्र्द्रड्ढ दृढ थ्र्दृद्यत्दृद)
विभिन्न कर्म या ग्दृद्यत्दृद को उसके कारण के आधार पर जानने का विश्लेषण वैशेषिक में किया है।
(१) नोदन के कारण-लगातार दबाव
(२) प्रयत्न के कारण- जैसे हाथ हिलाना
(३) गुरुत्व के कारण-कोई वस्तु नीचे गिरती है
(४) द्रवत्व के कारण-सूक्ष्म कणों के प्रवाह से
डा. एन.जी. डोंगरे अपनी पुस्तक च्ण्ड्र्ढ घ्ण्न्र्द्मत्ड़द्म में वैशेषिक सूत्रों के ईसा की प्रथम शताब्दी में लिखे गए प्रशस्तपाद भाष्य में उल्लिखित वेग संस्कार और न्यूटन द्वारा १६७५ में खोजे गए गति के नियमों की तुलना करते हैं।
प्रशस्तपाद लिखते हैं ‘वेगो पञ्चसु द्रव्येषु निमित्त-विशेषापेक्षात् कर्मणो जायते नियतदिक् क्रिया प्रबंध हेतु: स्पर्शवद् द्रव्यसंयोग विशेष विरोधी क्वचित् कारण गुण पूर्ण क्रमेणोत्पद्यते।‘ अर्थात् वेग या मोशन पांचों द्रव्यों (ठोस, तरल, गैसीय) पर निमित्त व विशेष कर्म के कारण उत्पन्न होता है तथा नियमित दिशा में क्रिया होने के कारण संयोग विशेष से नष्ट होता है या उत्पन्न होता है।
उपर्युक्त प्रशस्तिपाद के भाष्य को तीन भागों में विभाजित करें तो न्यूटन के गति सम्बंधी नियमों से इसकी समानता ध्यान आती है।
(१) वेग: निमित्तविशेषात् कर्मणो जायते
च्ण्ड्र्ढ क्ण्ठ्ठदढ़ड्ढ दृढ थ्र्दृद्यत्दृद त्द्म ड्डद्वड्ढ द्यदृ त्थ्र्द्रद्धड्ढद्मद्मड्ढड्ड ढदृद्धड़ड्ढ (घ्द्धत्दड़त्द्रत्ठ्ठ)
(२) वेग निमित्तापेक्षात् कर्मणो जायते नियत्दिक् क्रिया प्रबंध हेतु
च्ण्ड्र्ढ क्ण्ठ्ठदढ़ड्ढ दृढ थ्र्दृद्यत्दृद त्द्म द्रद्धदृद्रदृद्धद्यत्दृदठ्ठथ् द्यदृ द्यण्ड्ढ थ्र्दृद्यत्ध्ड्ढ ढदृद्धड़ड्ढ त्थ्र्द्रद्धड्ढद्मद्मड्ढड्ड ठ्ठदड्ड त्द्म थ्र्ठ्ठड्डड्ढ त्द द्यण्ड्ढ ड्डत्द्धड्ढड़द्यत्दृद दृढ द्यण्ड्ढ द्धत्ढ़ण्द्य थ्त्दड्ढ त्द ध्ण्त्र्ड़ण् द्यण्ड्ढ ढदृद्धड़ड्ढ त्द्म त्थ्र्द्रद्धड्ढद्मद्मड्ढड्ड (घ्द्धत्दड़त्द्रत्ठ्ठ)
(३) वेग: संयोगविशेषाविरोधी
च्र्दृ ड्ढध्ड्ढद्धन्र् ठ्ठड़द्यत्दृद द्यण्ड्ढद्धड्ढ त्द्म ठ्ठथ्ध्र्ठ्ठन्र्द्म ठ्ठद ड्ढद्दद्वठ्ठथ् ठ्ठदड्ड दृद्रद्रदृद्मत्द्यड्ढ द्धड्ढठ्ठड़द्यत्दृद (घ्द्धत्दड़त्द्रत्ठ्ठ)
यहां न्यूटन के गति के नियम दिए तथा वैशेषिक की परिभाषा भी बतायी है कि वेग या क़दृद्धड़ड्ढ एक द्रव्य है, जो कर्म या थ्र्दृद्यत्दृद द्वारा उत्पन्न हुआ है।
स्थिति स्थापकता (कथ्ठ्ठद्मद्यत्ड़ ढदृद्धड़ड्ढद्म)
कथ्ठ्ठद्मद्यत्ड़त्द्यन्र् वास्तव में किसी पदार्थ के उस गुण को दिया गया नाम है, जिस कारण छड़ें-फ्लेट आदि कंपन करते हैं और ध्वनि भी निकलती है। वैशेषिक दर्शनकार इसे जानते थे। उदयन की ‘न्याय कारिकावली‘ नामक ग्रंथ में इसका उल्लेख मिलता है।
स्थितिस्थापकसंस्कार:
क्षित: क्वचिच्चतुर्ष्वपि।
अतीन्द्रियोसौ विज्ञेय:
क्वचित् स्पन्देऽपि कारणम्॥ ५९॥
ठोस या द्रव्य के अन्य प्रकार में द्रव्यों में उत्पन्न अदृश्य बल ही स्पन्दन (ज्त्डद्धठ्ठद्यत्दृद का कारण है।
ई. सन् १११४ में हुए भास्कराचार्य के ग्रंथ ‘सिद्धांत शिरोमणि‘ के गोलाध्याय के यंत्राध्याय के श्लोक ५३ से ५६ तक ध्र्ठ्ठद्यड्ढद्ध ध्ण्ड्र्ढड्ढथ् का वर्णन है।
ताम्रादिमयस्यांकुशरूपनलस्याम्बुपूर्णस्य। ५३
एक कुण्डजलान्तर्द्वितीयमग्रं त्वधोमुखं च बहि:
युगापन्मुक्त चेत् क नलेन कुण्डाब्दहि:
पतति ।५४
नेम्यां बद्धवा घटिकाश्च्क्रं जलयन्त्रवत् तथा धार्यम्
नलकप्रच्युतसलिलं पतित यथा तद्घटी मध्ये। ५५
भ्रमति ततस्तत् सततं पूर्णघटीभि: समाकृष्टम्
चक्रच्युतं तदुदकं कुण्डे याति
प्रणालिकया। ५६
अर्थात्-ताम्र आदि धातु से बना हुआ, अंकुश के तरह मोड़ा हुआ एवं पानी से भरा तल का एक अन्त को जल पात्र में डुबा कर और दूसरे अन्त को बाहर अधोमुख करके अगर दोनों अन्त को एक साथ छोड़ेंगे तब पात्रस्थ जल सम्पूर्ण रूप से नल के द्वारा बाहर जाएगा। चक्र की परिधि में घटिकाओं को (जल पात्रों को) बांधकर, जल यंत्र के समान. चक्र के अक्ष के दोनों अन्त को उस प्रकार रखना चाहिए जैसे नल से गिरता हुआ पानी घटिका के भीतर गिरे। इससे वह चक्र पूर्ण घटियों के द्वारा खींचा हुआ निरन्तर घूमता है और चक्र से निकला हुआ पानी नाली के द्वारा कुण्ड में चला जाता है।
राव साहब के.वी. वझे द्वारा १९२६ में भोज द्वारा ११५० ईसवी में सम्पादित ग्रंथ ‘समरांगण सूत्रधार‘ का विश्लेषण करते हुए यंत्रशास्त्र के बारे में दी गई जानकारी एक विकसित यंत्रज्ञान की कल्पना देती है। इस ग्रंथ में सभी यंत्रों की दृष्टि से कुछ मूलभूत बातों का विचार किया है। पृथ्वी पदार्थ स्वाभाविक स्थिर है, सभी यंत्र पदार्थ की कृत्रिम साधनों से उत्पन्न गति रूप है।
प्रकृत्या पार्थिवं स्थिरं शेषेषु सहजा गति:।
अत: प्रायेण सा जन्य क्षितावेव प्रयत्नत:।
सूत्रधार समरांगण अ ३१
यंत्रों के साधन व कार्य
यंत्र के मुख्य साधनों का वर्णन ‘यंत्रार्णव‘ नामक ग्रंथ में किया गया है।
दंडैश्र्चक्रैश्र्च दंतैश्र्च सरणिभ्रमणादिभि:
शक्तेरूत्पांदनं किं वा चालानं यंत्रमुच्यते॥ यंत्रार्णव
यंत्र त्द्म ठ्ठ ड़दृदद्यद्धत्ध्ठ्ठदड़ड्ढ ड़दृदद्मत्द्मद्यत्दढ़ दृढ….
दंड- ख्र्ड्ढध्ड्ढद्ध, चक्र- घ्द्वथ्थ्ड्ढन्र्, दंत- द्यदृदृद्यण्ड्ढड्ड ध्ण्ड्र्ढड्ढथ्, सरणि- त्दड़थ्त्दड्ढड्ड द्रथ्ठ्ठदड़ड्ढ, भ्रमण- च्ड़द्धड्ढध्र्
ठ्ठदड्ड त्द्म द्धड्ढद्दद्वत्द्धड्ढड्ड ढदृद्ध द्रद्धदृड्डद्वड़त्दढ़ शक्ति (घ्दृध्र्ड्ढद्ध दृद्ध थ्र्दृद्यत्दृद) दृढ ड़ण्ठ्ठदढ़त्दढ़ त्द्यद्म ड्डत्द्धड्ढड़द्यत्दृद.
इनके मुख्य कार्य- दंड का उच्चाटन या च्द्यत्द्धद्धत्दढ़, चक्र का वशीकरण या क्ड्ढदद्यद्धठ्ठथ्त्दढ़ थ्र्दृद्यत्दृद, दंत का स्तंभन या द्मद्यदृद्रद्रत्दढ़, सरणि का जारण या एद्धत्दढ़त्दढ़ द्यदृढ़ड्ढद्यण्ड्ढद्ध, भ्रमण का मारण या ठ्ठददत्ण्त्थ्ठ्ठद्यत्दृद
एक यंत्र में तीन भाग होते हैं :
(१) बीज- द्यण्ड्ढ द्रद्धदृड्डद्वड़ड्ढद्ध दृढ ठ्ठड़द्यत्दृद (२) कीलक- द्यण्ड्ढ द्रत्द त्र्दृत्दढ़त्दढ़ द्रदृध्र्ड्ढद्ध ठ्ठदड्ड ध्र्दृद्धत्त् (३) शक्ति- द्यण्ड्ढ ठ्ठडत्थ्त्द्यन्र् दृढ ड्डदृत्दढ़ द्यण्ड्ढ ध्र्दृद्धत्त्.
इस प्रकार यंत्र अपने तीन भाग, पांच साधनों एवं उनके द्वारा होने वाली क्रियाओं से गतिमान होता है। इससे विविध प्रकार की गति उत्पन्न होती है।
तिर्यगूर्ध्वंमध: पृष्ठे पुरत: पार्श्वयोरपि
गमनं सरणं पात इति भेदा: क्रियोद्भवा:॥ समरांगण-अ ३१
विविध कार्यों की आवश्यकतानुसार विविध गति होती है जिससे कार्यसिद्धि होती है।
(१) तिर्यग्- द्मथ्ठ्ठदद्यत्दढ़ (२) ऊर्ध्व द्वद्रध्र्ठ्ठद्धड्डद्म (३) अध:- ड्डदृध्र्दध्र्ठ्ठद्धड्डद्म (४) पृष्ठे- डठ्ठड़त्त्ध्र्ठ्ठद्धड्डद्म (५) पुरत:-ढदृद्धध्र्ठ्ठद्धड्डद्म (६) पार्श्वयो:- द्मत्ड्डड्ढध्र्ठ्ठन्र्द्म
किसी भी यंत्र के मुख्य गुण क्या-क्या होने चाहिए, इसका वर्णन समरांगण सूत्रधार में करते हुए पुर्जों के परस्पर सम्बंध, चलने में सहजता, चलते समय विशेष ध्यान न देना पड़े, चलने में कम ऊर्जा का लगना, चलते समय ज्यादा आवाज न करें, पुर्जे ढीले न हों, गति कम-ज्यादा न हो, विविध कामों में समय संयोजन निर्दोष हो तथा लंबे समय तक काम करना आदि प्रमुख २० गुणों की चर्चा करते हुए ग्रंथ में कहा गया है-
चिरकालसहत्वं च यंत्रस्यैते महागुणा: स्मृता:। समरांगण-अ ३
हाइड्रोलिक मशीन (च्र्द्वद्धडत्दड्ढ)-जलधारा के शक्ति उत्पादन में उपयोग के संदर्भ में ‘समरांगण सूत्रधार‘ ग्रंथ के ३१वें अध्याय में कहा है-
धारा च जलभारश्च पयसो भ्रमणं तथा॥
यथोच्छ्रायो यथाधिक्यं यथा नीरंध्रतापि च।
एवमादीनि भूजस्य जलजानि प्रचक्षते॥
बहती हुई जलधारा का भार तथा वेग का शक्ति उत्पादन हेतु हाइड्रोलिक मशीन में उपयोग किया जाता है। जलधारा वस्तु को घुमाती है और ऊंचाई से धारा गिरे तो उसका प्रभाव बहुत होता है और उसके भार व वेग के अनुपात में धूमती है। इससे शक्ति उत्पन्न होती है।
सङ्गृहीतश्च दत्तश्च पूरित: प्रतनोदित:।
मरुद् बीजत्वमायाति यंत्रेषु जलजन्मसु। समरांगण-३१
पानी को संग्रहित किया जाए, उसे प्रभावित और पुन: क्रिया हेतु उपयोग किया जाए, यह मार्ग है जिससे बल का शक्ति के रूप में उपयोग किया जाता है। इसकी प्रक्रिया का विस्तार से इसी अध्याय में वर्णन है।
कुछ अन्य संदर्भ भी यंत्र विज्ञान के बारे में मिलते हैं।
चालुक्य वंश के राज्य के समय एक बगीचे के टैंक में पानी निकासी की स्वयं संचालित व्यवस्था का वर्णन जर्नल ऑफ अनन्ताचार्य इन्डोलॉजीकल इन्स्टीट्यूट बाम्बे में आया है।
महर्षि भारद्वाज रचित ‘विमान शास्त्र‘ में भी अनेक यंत्रों का वर्णन है, जिसका उल्लेख विमान शास्त्र अध्याय के प्रसंग में करेंगे।
राजा भोज के समरांगण सूत्रधार का ३१ वां अध्याय यंत्र विज्ञान के क्षेत्र में एक सीमा बिन्दु है। इस अध्याय में अनेक यंत्रों का वर्णन है। लकड़ी के वायुयान यांत्रिक दरबान तथा सिपाही, इनमें ङदृडदृद्य की एक झलक देख सकते हैं.
रसायन शास्त्र : धातु, आसव, तत्व – सब भारतीय सत्य
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रसायन शास्त्र का सम्बन्ध धातु विज्ञान तथा चिकित्सा विज्ञान से भी है। वर्तमान काल के प्रसिद्ध वैज्ञानिक आचार्य प्रफुल्ल चंद्र राय ने ‘हिन्दू केमेस्ट्री‘ ग्रंथ लिखकर कुछ समय से लुप्त इस शास्त्र को फिर लोगों के सामने लाया। रसायन शास्त्र एक प्रयोगात्मक विज्ञान है। खनिजों, पौधों, कृषिधान्य आदि के द्वारा विविध वस्तुओं का उत्पादन, विभिन्न धातुओं का निर्माण व परस्पर परिवर्तन तथा स्वास्थ्य की दृष्टि में आवश्यक औषधियों का निर्माण इसके द्वारा होता है।
पूर्व काल में अनेक रसायनज्ञ हुए, उनमें से कुछ की कृतियों निम्नानुसार हैं।
नागार्जुन-रसरत्नाकर, कक्षपुटतंत्र, आरोग्य मंजरी, योग सार, योगाष्टक
वाग्भट्ट – रसरत्न समुच्चय
गोविंदाचार्य – रसार्णव
यशोधर – रस प्रकाश सुधाकर
रामचन्द्र – रसेन्द्र चिंतामणि
सोमदेव- रसेन्द्र चूड़ामणि
रस रत्न समुच्चय ग्रंथ में मुख्य रस माने गए निम्न रसायनों का उल्लेख किया गया है-
(१) महारस (२) उपरस (३) सामान्यरस (४) रत्न (५) धातु (६) विष (७) क्षार (८) अम्ल (९) लवण (१०) लौहभस्म।
महारस
(१) अभ्रं (२) वैक्रान्त (३) भाषिक (४) विमला (५) शिलाजतु (६) सास्यक (७)चपला (८) रसक
(१) अभ्रं (२) वैक्रान्त (३) भाषिक (४) विमला (५) शिलाजतु (६) सास्यक (७)चपला (८) रसक
उपरस :-
(१) गंधक (२) गैरिक (३) काशिस (४) सुवरि (५) लालक (६) मन: शिला (७) अंजन (८) कंकुष्ठ
(१) गंधक (२) गैरिक (३) काशिस (४) सुवरि (५) लालक (६) मन: शिला (७) अंजन (८) कंकुष्ठ
सामान्य रस-
(१) कोयिला (२) गौरीपाषाण (३) नवसार (४) वराटक (५) अग्निजार (६) लाजवर्त (७) गिरि सिंदूर (८) हिंगुल (९) मुर्दाड श्रंगकम्
(१) कोयिला (२) गौरीपाषाण (३) नवसार (४) वराटक (५) अग्निजार (६) लाजवर्त (७) गिरि सिंदूर (८) हिंगुल (९) मुर्दाड श्रंगकम्
इसी प्रकार दस से अधिक विष हैं।
अम्ल का भी वर्णन है। द्वावक अम्ल (च्दृथ्ध्ड्ढदद्य ठ्ठड़त्ड्ड) और सर्वद्रावक अम्ल (ठ्ठथ्थ् ड्डत्द्मद्मदृथ्ध्त्दढ़ ठ्ठड़त्ड्ड)
विभिन्न प्रकार के क्षार का वर्णन इन ग्रंथों में मिलता है तथा विभिन्न धातुओं की भस्मों का वर्णन आता है।
प्रयोगशाला-
रस-रत्न-समुच्चय‘ अध्याय ७ में रसशाला यानी प्रयोगशाला का विस्तार से वर्णन भी है। इसमें ३२ से अधिक यंत्रों का उपयोग किया जाता था, जिनमें मुख्य हैं- (१) दोल यंत्र (२) स्वेदनी यंत्र (३) पाटन यंत्र (४) अधस्पदन यंत्र (५) ढेकी यंत्र (६) बालुक यंत्र (७) तिर्यक् पाटन यंत्र (८) विद्याधर यंत्र (९) धूप यंत्र (१०) कोष्ठि यंत्र (११) कच्छप यंत्र (१२) डमरू यंत्र।
रस-रत्न-समुच्चय‘ अध्याय ७ में रसशाला यानी प्रयोगशाला का विस्तार से वर्णन भी है। इसमें ३२ से अधिक यंत्रों का उपयोग किया जाता था, जिनमें मुख्य हैं- (१) दोल यंत्र (२) स्वेदनी यंत्र (३) पाटन यंत्र (४) अधस्पदन यंत्र (५) ढेकी यंत्र (६) बालुक यंत्र (७) तिर्यक् पाटन यंत्र (८) विद्याधर यंत्र (९) धूप यंत्र (१०) कोष्ठि यंत्र (११) कच्छप यंत्र (१२) डमरू यंत्र।
प्रयोगशाला में नागार्जुन ने पारे पर बहुत प्रयोग किए। विस्तार से उन्होंने पारे को शुद्ध करना और उसके औषधीय प्रयोग की विधियां बताई हैं। अपने ग्रंथों में नागार्जुन ने विभिन्न धातुओं का मिश्रण तैयार करने, पारा तथा अन्य धातुओं का शोधन करने, महारसों का शोधन तथा विभिन्न धातुओं को स्वर्ण या रजत में परिवर्तित करने की विधि दी है।
पारे के प्रयोग से न केवल धातु परिवर्तन किया जाता था अपितु शरीर को निरोगी बनाने और दीर्घायुष्य के लिए उसका प्रयोग होता था। भारत में पारद आश्रित रसविद्या अपने पूर्ण विकसित रूप में स्त्री-पुरुष प्रतीकवाद से जुड़ी है। पारे को शिव तत्व तथा गन्धक को पार्वती तत्व माना गया और इन दोनों के हिंगुल के साथ जुड़ने पर जो द्रव्य उत्पन्न हुआ, उसे रससिन्दूर कहा गया, जो आयुष्य-वर्धक सार के रूप में माना गया।
पारे की रूपान्तरण प्रक्रिया-
इन ग्रंथों से यह भी ज्ञात होता है कि रस-शास्त्री धातुओं और खनिजों के हानिकारक गुणों को दूर कर, उनका आन्तरिक उपयोग करने हेतु तथा उन्हें पूर्णत: योग्य बनाने हेतु विविध शुद्धिकरण की प्रक्रियाएं करते थे। उसमें पारे को अठारह संस्कार यानी शुद्धिकरण प्रक्रिया से गुजरना पड़ता था। इन प्रक्रियाओं में औषधि गुणयुक्त वनस्पतियों के रस और काषाय के साथ पारे का घर्षण करना और गन्धक, अभ्रक तथा कुछ क्षार पदार्थों के साथ पारे का संयोजन करना प्रमुख है। रसवादी यह मानते हैं कि क्रमश: सत्रह शुद्धिकरण प्रक्रियाओं से गुजरने के बाद पारे में रूपान्तरण (स्वर्ण या रजत के रूप में) की सभी शक्तियों का परीक्षण करना चाहिए। यदि परीक्षण में ठीक निकले तो उसको अठारहवीं शुद्धिकरण की प्रक्रिया में लगाना चाहिए। इसके द्वारा पारे में कायाकल्प की योग्यता आ जाती है।
इन ग्रंथों से यह भी ज्ञात होता है कि रस-शास्त्री धातुओं और खनिजों के हानिकारक गुणों को दूर कर, उनका आन्तरिक उपयोग करने हेतु तथा उन्हें पूर्णत: योग्य बनाने हेतु विविध शुद्धिकरण की प्रक्रियाएं करते थे। उसमें पारे को अठारह संस्कार यानी शुद्धिकरण प्रक्रिया से गुजरना पड़ता था। इन प्रक्रियाओं में औषधि गुणयुक्त वनस्पतियों के रस और काषाय के साथ पारे का घर्षण करना और गन्धक, अभ्रक तथा कुछ क्षार पदार्थों के साथ पारे का संयोजन करना प्रमुख है। रसवादी यह मानते हैं कि क्रमश: सत्रह शुद्धिकरण प्रक्रियाओं से गुजरने के बाद पारे में रूपान्तरण (स्वर्ण या रजत के रूप में) की सभी शक्तियों का परीक्षण करना चाहिए। यदि परीक्षण में ठीक निकले तो उसको अठारहवीं शुद्धिकरण की प्रक्रिया में लगाना चाहिए। इसके द्वारा पारे में कायाकल्प की योग्यता आ जाती है।
धातुओं को मारना:-
विविध धातुओं को उपयोग करने हेतु उसे मारने की विधि का वर्णन किया गया है। प्रयोगशाला में धातुओं को मारना एक परिचित विधि थी। गंधक का सभी धातुओं को मारने में उपयोग होता था। अत: ग्रंथ में गंधक की तुलना सिंह से की गई तथा धातुओं की हाथी से और कहा गया कि जैसे सिंह हाथी को मारता है उसी प्रकार गंधक सब धातुओं को मारता है।
विविध धातुओं को उपयोग करने हेतु उसे मारने की विधि का वर्णन किया गया है। प्रयोगशाला में धातुओं को मारना एक परिचित विधि थी। गंधक का सभी धातुओं को मारने में उपयोग होता था। अत: ग्रंथ में गंधक की तुलना सिंह से की गई तथा धातुओं की हाथी से और कहा गया कि जैसे सिंह हाथी को मारता है उसी प्रकार गंधक सब धातुओं को मारता है।
जस्ते का स्वर्ण रंग में बदलना-हम जानते हैं जस्ता (झ्त्दत्त्) शुल्व (तांबे) से तीन बार मिलाकर गरम किया जाए तो पीतल (एद्धठ्ठद्मद्म) धातु बनती है, जो सुनहरी मिश्रधातु है। नागार्जुन कहते हैं-
क्रमेण कृत्वाम्बुधरेण रंजित:।
करोति शुल्वं त्रिपुटेन काञ्चनम्॥
(रसरत्नाकार-३)
धातुओं की जंगरोधी क्षमता-गोविन्दाचार्य ने धातुओं के जंगरोधन या क्षरण रोधी क्षमता का क्रम से वर्णन किया है। आज भी वही क्रम माना जाता है।
सुवर्ण रजतं ताम्रं तीक्ष्णवंग भुजङ्गमा:।
लोहकं षडि्वधं तच्च यथापूर्व तदक्षयम्॥
(रसार्णव-७-८९-१०)
अर्थात् धातुओं के अक्षय रहने का क्रम निम्न प्रकार से है- सुवर्ण, चांदी, ताम्र, वंग, सीसा, तथा लोहा। इसमें सोना सबसे ज्यादा अक्षय है।
तांबे से मथुर तुप्ता
(ड़दृद्रद्रड्ढद्ध द्मद्वथ्द्रण्ठ्ठद्यड्ढ) बनाना-
ताम्रदाह जलैर्योगे जायते
तुत्यकं शुभम्।
अर्थात् तांबे के साथ तेजाब का मिश्रण होता है तो कॉपर सल्फेट प्राप्त होता है।
भस्म:-
रासायनिक क्रिया द्वारा धातु के हानिकारक गुण दूर कर उन्हें राख में बदलने पर उस धातु की राख को भस्म कहा जाता है। इस प्रकार मुख्य रूप से औषधि में लौह भस्म (क्ष्द्धदृद), सुवर्ण भस्म (क्रदृथ्ड्ड), रजत भस्म (च्त्थ्ध्ड्ढद्ध), ताम्र भस्म (क्दृद्रद्रड्ढद्ध), वंग भस्म (च्र्त्द), सीस भस्म (ख्र्ड्ढठ्ठड्ड) प्रयोग होता है।
रासायनिक क्रिया द्वारा धातु के हानिकारक गुण दूर कर उन्हें राख में बदलने पर उस धातु की राख को भस्म कहा जाता है। इस प्रकार मुख्य रूप से औषधि में लौह भस्म (क्ष्द्धदृद), सुवर्ण भस्म (क्रदृथ्ड्ड), रजत भस्म (च्त्थ्ध्ड्ढद्ध), ताम्र भस्म (क्दृद्रद्रड्ढद्ध), वंग भस्म (च्र्त्द), सीस भस्म (ख्र्ड्ढठ्ठड्ड) प्रयोग होता है।
वज्रसंधात (ॠड्डठ्ठथ्र्ठ्ठदद्यत्दड्ढ क्दृथ्र्द्रदृद्वदड्ड)-
वराहमिहिर अपनी बृहत् संहिता में कहते हैं-
वराहमिहिर अपनी बृहत् संहिता में कहते हैं-
अष्टो सीसक भागा: कांसस्य द्वौ तु रीतिकाभाग:।
मया कथितो योगोऽयं विज्ञेयो वज्रसड्घात:॥
अर्थात् एक यौगिक जिसमें आठ भाग शीशा, दो भाग कांसा और एक भाग लोहा हो उसे मय द्वारा बताई विधि का प्रयोग करने पर वह वज्रसङ्घात बन जाएगा।
आसव बनाना-
चरक के अनुसार ९ प्रकार के आसव बनाने का उल्लेख है।
१. धान्यासव – ङदृदृद्यद्म
२. फलासव-क़द्धद्वत्द्यद्म
३. मूलासव-क्रद्धठ्ठत्दद्म ठ्ठदड्ड द्मड्ढड्ढड्डद्म
४. सरासव-ज़्दृदृड्ड
५. पुष्पासव-क़थ्दृध्र्ड्ढद्धद्म
६. पत्रासव-थ्ड्ढठ्ठध्ड्ढद्म
७. काण्डासव-द्मद्यड्ढथ्र्द्म (च्द्यठ्ठड़त्त्द्म)
८. त्वगासव-एठ्ठद्धत्त्द्म
९. शर्करासव-च्द्वढ़ड्ढद्ध
इसके अतिरिक्त विभिन्न प्रकार के गंध, इत्र सुगंधि के सामान आदि का भी विकास हुआ था।
ये सारे प्रयोग मात्र गुरु से सुनकर या शास्त्र पढ़कर नहीं किए गए। ये तो स्वयं प्रत्यक्ष प्रयोग करके सिद्ध करने के बाद कहे गए हैं। इसकी अभिव्यक्ति करते हुए अनुमानत: १३वीं सदी के रूद्रयामल तंत्र के एक भाग रस कल्प में रस शास्त्री कहता है।
इति सम्पादितो मार्गो द्रुतीनां पातने स्फुट:
साक्षादनुभवैर्दृष्टों न श्रुतो गुरुदर्शित:
लोकानामुपकाराएतत् सर्वें निवेदितम्
सर्वेषां चैव लोहानां द्रावणं परिकीर्तितम्-
(रसकल्प अ.३)
अर्थात् गुरुवचन सुनकर या किसी शास्त्र को पढ़कर नहीं अपितु अपने हाथ से इन रासायनिक प्रयोगों और क्रियाओं को सिद्धकर मैंने लोक हितार्थ सबके सामने रखा है।
प्राचीन रसायन शास्त्रियों की प्रयोगशीलता का यह एक प्रेरणादायी उदाहरण है।
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