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Friday, February 22, 2013

कुरुक्षेत्र


हरियाणा स्थित कुरुक्षेत्र अति प्राचीन तीर्थों में से एक है। वामन पुराण के 33वें अध्याय के श्लोक 7 व 8 में कहा गया है-
कुरुक्षेत्रंगमिष्यामि कुरुक्षेत्रेवसाम्यहम्।
अप्येतांवा चमुत्सृज्यसर्वपापैप्रमुच्यते।।
ब्रह्मज्ञानं गया श्राद्ध गोग्रहेमरणं ध्रुवम्।
वासपुंसाकुरुक्षेत्रे मुक्तिरुकता चतुर्विधा।।
अर्थात् मैं कुरुक्षेत्र जाऊंगा अथवा कुरुक्षेत्र में वास करूंगा, इस प्रकार के मानसिक संकल्प या वचनोच्चारण से सम्पूर्ण पाप दूर हो जाते हैं। ब्रह्मज्ञान, गया में श्राद्ध, गोगृह में मरण और कुरुक्षेत्र वास, यही चार प्रकार की मुक्ति कही गयी है।
कुरुक्षेत्र की पावन धरा की महत्ता बताते हुए महाभारत के वन पर्व के 83वें अध्याय में कहा गया है-
पांसवो।़पि कुरुक्षेत्रे वायुना समुदीरिता:
अपि दृष्कृत कर्माणं नयन्ति परमां गतिम्।।
अर्थात् वायु द्वारा उड़ा कर लाई गई कुरुक्षेत्र की धूलि भी यदि शरीर पर पड़ जाए तो वह पापी मनुष्यों को भी परमगति प्राप्त करवा देती है।
कुरुक्षेत्र का इतिहास वास्तव में संक्षिप्त रूप में भारतीय इतिहास है। इस पावन भू-क्षेत्र में सरस्वती नदी के पवित्र तटों पर ऋषियों ने सर्वप्रथम वेद मंत्रों का उच्चारण किया, ब्रह्मा तथा अन्यायन्य देवताओं ने यज्ञों का आयोजन किया। महर्षि वशिष्ठ तथा विश्वामित्र ने ईश्वरीय ज्ञान प्राप्त किया। पाण्डवों तथा कौरवों ने इसी को महाभारतीय समर का युद्धांगन बनाया। भगवान श्रीकृष्ण ने विश्व को अपनी गीता का अमर संदेश सुनाया तथा महर्षि वेदव्यास ने इसी से संबंधित महाभारत की रचना की। महाराज कुरु ने इसी को अपनी कर्मभूमि बनाया और पुराणों ने इसकी महिमा का विस्तारपूर्वक वर्णन किया।
विशाल व्याप
प्राचीन कुरुक्षेत्र न एक पवित्र सरोवर था, न केवल एक शहर, बल्कि एक विस्तृत क्षेत्र था, जिसमें बहुत से शहर व गांव आबाद थे। लगभग पचास मील लम्बा तथा इतना ही चौड़ा था। यह दक्षिण में वर्तमान पानीपत और जींद तक, पश्चिम में वर्तमान पटियाला तथा पूर्व में यमुना एवं उत्तर में सरस्वती नदी तक फैला था।
यजुर्वेद में इसे इन्द्र, विष्णु, शिव तथा अन्यान्य देवताओं की यज्ञभूमि बताया गया है। कौरव तथा पाण्डवों के पूर्वज महाराज कुरु के यहां आने से पूर्व यह ब्रह्माजी की 'उत्तरवेदी' नाम से विख्यात था। कहा जाता है कि महाराज कुरु ने इस क्षेत्र को आध्यात्मिक शिक्षा का महान केन्द्र बनाया। वामनपुराण के 22वें अध्याय में इसकी उत्पत्ति के बारे में कहा गया है कि महाराज कुरु ने पावन सरस्वती नदी के किनारे इस स्थान पर आध्यात्मिक शिक्षा तथा अष्टांग धर्म (तप, सत्य, क्षमा, दया, शौच, दान, योग तथा ब्रह्मचर्य) की कृषि करने का निश्चय किया। राजा यहां स्वर्ण रथ में बैठकर आए और इस रथ के स्वर्ण से कृषि के लिए हल तैयार किया। उन्होंने भगवान शिव तथा यमराज से क्रमश: वृषभ तथा महिष लेकर खेती प्रारंभ की। उस समय देवराज इन्द्र ने आकर राजा कुरु से प्रश्न किया, राजन्! क्या करते हो? राजा ने कहा, 'मैं अष्टांग धर्म की कृषि के लिए भूमि तैयार कर रहा हूं।'
इन्द्र ने पुन: कहा, 'राजन्! बीज कहां हैं?' राजा कुरु ने निवेदन किया, 'देवेन्द्र! बीज मेरे पास हैं।' देवराज इन्द्र हंसने लगे तथा अपने स्थान को लौट गए। तदुपरान्त राजा कुरु निरन्तर छह कोस भूमि प्रतिदिन तैयार करते रहे। कहा जाता है कि इस प्रकार उन्होंने 48 कोस भूमि 8 दिनों में तैयार की। उस समय भगवान विष्णु वहां पधारे तथा उन्होंने भी राजा कुरु से प्रश्न किया कि 'राजन! क्या कर रहे हो?' राजा कुरु ने इन्द्र के प्रश्न करने पर जो उत्तर दिया था, वही इनसे भी निवेदन कर दिया। भगवान विष्णु ने कहा, 'राजन! आप बीज मुझे दे दें, मैं इसे आपके लिए बो दूंगा।' इतना सुनकर राजा कुरु ने अपनी दाहिनी भुजा फैला दी। भगवान विष्णु ने अपने चक्र से उसके सहस्रों टुकड़े किए तथा उन टुकड़ों को कृषि क्षेत्र में बो दिया। इसी प्रकार राजा ने बीजारोपण के निमित्त अपनी बायीं भुजा, दोनों पैर तथा अन्त में अपना सिर भी भगवान विष्णु को अर्पण कर दिया। भगवान विष्णु ने राजा से अत्यन्त प्रसन्न होकर उनसे वर मांगने को कहा। राजा ने निवेदन किया- हे भगवन! जितनी भूमि मैंने जोती है वह सब पुण्यक्षेत्र, धर्मक्षेत्र होकर मेरे नाम से विख्यात हो, भगवान शिव समस्त देवताओं सहित यहां पर वास करें तथा यहां किया हुआ स्नान, उपवास, तप, यज्ञ शुभ हो तथा अशुभ जो भी कर्म किया जाए वह अक्षम हो जाए, जो भी यहां मृत्यु को प्राप्त हो, वह अपने पाप-पुण्य के प्रभाव से रहित होकर स्वर्ग को प्राप्त हो। भगवान ने 'तथास्तु' कहकर राजा के वचनों का अनुमोदन किया।
महाभारत में प्रसंग आता है कि पावन सरस्वती नदी के तट पर ऋषिगण अपने आश्रमों में सहस्रों विद्यार्थियों सहित निवास किया करते थे तथा ऋषि आश्रम ही धर्म तथा संस्कृति की शिक्षा के सर्वोत्तम केन्द्र थे। भगवान श्रीकृष्ण ने महाभारत युद्ध के जिस पावन स्थान पर गीता का यह अमर संदेश दिया, सरस्वती नदी के तट पर यह पुण्य स्थान 'ज्योतिसर' के नाम से विख्यात हुआ तथा आने वाली सन्तति के लिए तीर्थ बन गया। इस घटना का साक्षी वह स्थान तथा वटवृक्ष वर्तमान कुरुक्षेत्र रेलवे स्टेशन से लगभग पांच मील दूर पेहोवा जाने वाले मार्ग पर स्थित है।
आधुनिक ऐतिहासिक युग
प्राचीन ग्रंथों के आधार पर कहा जा सकता है कि महाभारत काल से लेकर महाराजा हर्षवर्धन पर्यन्त यह क्षेत्र सांस्कृतिक तथा सामाजिक दोनों ही दृष्टिकोणों से उन्नति के शिखर पर था।
महाभारत के इस प्राचीन क्षेत्र का हमारे देश के इतिहास की प्रमुख घटनाओं से घनिष्ठतम संबंध है। थानेसर, तरावड़ी, कैथल तथा करनाल, पानीपत इत्यादि प्रसिद्ध युद्ध मैदान कुरुक्षेत्र की इस पवित्र भूमि पर स्थित हैं। 326 ई.पू. से लेकर सन् 480 ई. तक प्रथम तो यह क्षेत्र मौर्य राजाओं के अधिकार में था। तत्पश्चात् इस पर गुप्त राजाओं का अधिकार हुआ, जिनका शासनकाल भारतीय इतिहास में 'स्वर्ण-युग' कहा जाता है। उस समय भी थानेसर ऐश्वर्यशाली तथा वैदिक साहित्य की शिक्षा का सर्वश्रेष्ठ केन्द्र माना जाता था। हर्ष के दरबारी कवि बाणभट्ठ ने अपनी पुस्तक 'हर्षचरितम्' में इस क्षेत्र के ऐश्वर्य का विस्तार से वर्णन किया है। उन्होंने लिखा है, 'थानेसर सरस्वती नदी के तट पर बसा है तथा धार्मिक शिक्षा एवं व्यापार का प्रमुख केन्द्र है। यहां का समस्त वायुमण्डल वेदमंत्रों की ध्वनियों से परिपूर्ण है।'
इसके बाद कुरुक्षेत्र का इतिहास तो बर्बर आक्रमणों एवं पैशाचिक विनाश का इतिहास है। यह पवित्र भूमि बराबर रक्त-स्नात हुई, बार-बार इसके पुनीत स्थल आततायी आक्रमणकारियों द्वारा ध्वस्त किये गये।
अब इस क्षेत्र में जो अवशेष तीर्थ रूप में बचे हैं उनका संरक्षण व पुनरुद्धार 'कुरुक्षेत्र विकास मण्डल' द्वारा किया जा रहा है। इसका निर्माण पूर्व प्रधानमंत्री स्व. गुलजारी लाल नंदा ने किया था। वे आजीवन इस मण्डल के अध्यक्ष पद पर रहकर कार्य करते रहे। अब हरियाणा का राज्यपाल इस मण्डल का अध्यक्ष होता है।
वर्तमान में कुरुक्षेत्र विकास मण्डल के अन्तर्गत ब्रह्मसरोवर, सन्निहित सरोवर, स्थाणीश्वर तीर्थ, भद्रकाली मंदिर, नाभि कमल तीर्थ, कुबेर तीर्थ, चन्द्रकूप, बाणगंगा, कर्णटीला, आपगा तीर्थ, विमल तीर्थ, बिरला मंदिर, गीता भवन, रत्नयक्षतीर्थ, मारकण्डा तीर्थ, दधीचि तीर्थ, ज्योतिसर तीर्थ, काम्यक तीर्थ, अभिमन्यु टीला आदि बहुत से प्राचीन तीर्थ स्थल हैं, जो अपनी ऐतिहासिकता से सबको सराबोर कर रहे हैं।
यहां पर ब्रह्मसरोवर नाम से एक आदिकाल का सरोवर है। वामनपुराण के अनुसार यहां पर ब्रह्मा जी ने सृष्टि रचना से पूर्व यज्ञ किया था जो 'उत्तरवेदी' के नाम से जाना जाने लगा व आज इस स्थान पर एक विशाल सरोवर विद्यमान है जिसे ब्रह्मसर या ब्रह्मसरोवर भी कहा जाता है। अकबर के दरबारी कवि अबुल फजल ने इस सरोवर की विशालता को देखते हुए इसे लघु समुद्र की संज्ञा दी थी। वर्तमान में इसके दो भाग कर दिए गए हैं, जिसके पूर्वी भाग की लम्बाई 1800 फुट व चौड़ाई 1500 फुट तथा पश्चिमी सरोवर या भाग की लम्बाई व चौड़ाई 1500 फुट है। इन दोनों जलाशयों की गहराई 15 फुट है। दोनों सरोवरों के चारों ओर लाल पत्थर से निर्मित 40 फुट चौड़ा परिक्रमा पथ है। सरोवर के चारों ओर यात्रियों के ठहरने के लिए बरामदों का निर्माण भी करवाया गया है।
सूर्य ग्रहण के अवसर पर ब्रह्मसरोवर में बहुत बड़ा भारी मेला लगता है, जिसमें भारत व विदेशों से श्रद्धालु यहां स्नान के लिए आते हैं। श्री मद्भागवत महापुराण के दशम स्कन्ध में भी उल्लेख मिलता है कि महाभारत युद्ध से पूर्व सूर्य ग्रहण के अवसर पर भगवान श्रीकृष्ण सभी यदुवंशियों सहित द्वारका से कुरुक्षेत्र पधारे थे। यहीं पर उनकी भेंट नन्द बाबा, यशोदा, रोहिणी तथा अन्य बाल शाखाओं के साथ हुई थी। सोमवती अमावस्या को ब्रह्मसरोवर में स्नान करने से सभी तीर्थों के स्नान का फल प्राप्त होता है।
ठीक इसी प्रकार यहां पर सन्निहित सरोवर नाम से एक और सरोवर है। पौराणिक मान्यता के अनुसार पृथ्वी पर जितने भी पवित्र जलाशय व नदियां हैं वे प्रत्येक अमावस्या को सन्निहित सरोवर में आ मिलती हैं, इसलिए इस सरोवर का नाम सन्निहित पड़ा। आधुनिक समय में यहां पर यात्रियों के ठहरने के लिए धर्मशालाएं, मठ, विद्यापीठ व बहुत से व्यावसायिक होटल भी हैं।
उपरोक्त तीर्थ स्थलों के अतिरिक्त यहां पर सप्तवन (काम्यक वन, अदिति वन, व्यास वन, फलकी वन, सूर्य वन, मधु वन, शीत वन), चार कूप (विष्णु कुप, रुद्र कूप, चन्द्रकूप, देवी कूप), सप्त नदियां (सरस्वती, वैतरणी, आपगा, मधुस्रवा, कौशिकी, दृषदवती, हिरण्यवती) विद्यमान हैं। परन्तु कालान्तर में नदियां तो लुप्तप्राय: हो गई हैं। आज भी इस भू-भाग पर 360 प्राचीन तीर्थस्थल हैं।
कुरुक्षेत्र दिल्ली से 160 किमी की दूरी पर है। रेल मार्ग या बस मार्ग से कुरुक्षेत्र पहुंचा जा सकता है।

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INDIA-RUSSIA, India
Researcher of Yog-Tantra with the help of Mercury. Working since 1988 in this field.Have own library n a good collection of mysterious things. you can send me e-mail at alon291@yahoo.com Занимаюсь изучением Тантра,йоги с помощью Меркурий. В этой области работаю с 1988 года. За это время собрал внушительную библиотеку и коллекцию магических вещей. Всегда рад общению: alon291@yahoo.com