कोशी नदी के प्रकोप से जन-मानस को मुक्ति दिलाएं,
शैक्षणिक धरोहर बचाने हेतु बिहार और बिहार से प्रवासित लोग आगे आयें” – नीना, भारती-मंडन विद्या केंद्र के विकास अभियान की प्रमुख
ऐसे हो रही है वेद की शिक्षा: खेत में बैठ कर पढ़ते बच्चे
आप मानें या ना मानें, लेकिन यह सत्य है कि जब आदि शंकराचार्य आज से लगभग 2466 वर्ष पहले धर्म, कर्म, वेद, ज्ञान के प्रचार-प्रसार हेतु विश्व भ्रमण पर निकले अपने उत्तराधिकारी की खोज में, तो उन्हें सफलता मिली पाटलिपुत्र (अब पटना) से करीब 180 किलोमीटर दूर उत्तर बिहार के सहरसा स्थित महिषी गाँव में, मंडन मिश्र के रूप में।
यह भी कहा जाता है कि लगभग 10 किलीमीटर क्षेत्र में फैले बनगांव-महिषी इलाके में जगत जननी के अतिरिक्त माँ सरस्वती का भी आशीष रहा है। इस क्षेत्र में जहाँ प्रत्येक दस में से कम से कम पांच घरों में स्वतंत्र भारत के महान शिक्षाविद, भारतीय प्रशाशनिक सेवा के धनुर्धर, आयुर्विज्ञान क्षेत्र के महारथी उत्पन्न हुए वहीं आज भी यह परंपरा बरक़रार है। लेकिन दुर्भाग्य की बात यह है कि इन सपूतों का अपनी भूमि के प्रति उदासीन रवैया, स्थानीय लोगों की उपेक्षा, सरकारों की राजनितिक चालें और अन्य कारणों से लगभग एक लाख घरों वाले इस इलाके में दो माह तक चूल्हा भी “ठीक से” नहीं जल पाता है। शायद यह उग्रतारा शक्ति पीठ और मंडन मिश्र के रूप में ईश्वर और प्रकृति का प्रकोप है।
तंत्र-मंत्र में सिद्धता हासिल किये लोगों का मानना है कि जब तक बिहार के, खासकर उत्तर बिहार के कोशी क्षेत्र के लोगों की मानसिकता सहरसा के महिषी गाँव स्थित उग्रतारा शक्ति पीठ और महान दार्शनिक तथा आदि शंकराचार्य को लगभग परास्त कर कांची पीठ के द्वितीय शंकराचार्य का कार्य-भार सँभालने वाले मंडन मिश्र की जन्म भूमि को उन्नत करने की नहीं बनेगी, तब तक प्रकृति कोशी नदी के उत्पलावन के रूप में अपना प्रकोप दिखाती रहेगी और प्रत्येक वर्ष वहां के निवासियों को इस अभिशाप को झेलते रहना होगा।
वह स्थान जहाँ मंडन मिश्र और आदि शकाराचार्य के बीच शास्त्रार्थ हुआ था
बिहार के सहरसा स्थित महिषी गाँव (प्राचीन काल में इसे महिष्मा के नाम से जाना जाता था) में विश्व विख्यात दार्शनिक मंडन मिश्र का आविर्भाव हुआ था, साथ ही महामान्य आदि शंकराचार्य के पवित्र चरण भी पड़े थे। इस तथ्य की पुष्टि पुरातत्व वेत्ताओं और इतिहासकारों द्वारा की जा चुकी है। इसी स्थल पर जगत जननी उग्र तारा का प्राचीन मंदिर भी अवस्थित है और इसे “सिद्धता” भी प्राप्त है। यह भी उल्लेख मिलता है कि शिव तांडव में सती कि बायीं आँख इसी स्थान पर गिरी थी, जहाँ अक्षोभ्य ऋषि सहित नील सरस्वती तथा एक जाता भगवती के साथ महिमामयी उग्रतारा की मूर्ति भी विराजमान है।
पौराणिक आख्यानों की मानें तो जब भगवान शिव महामाया सती का शव लेकर विक्षिप्त अवस्था में ब्रह्मांड का विचरण कर रहे थे सती की नाभि महिषी गाँव में गिरी थी। मुनि वशिष्ठ ने उस जगह माँ उग्रतारा पीठ की स्थापना की। इसीलिए यह मंदिर सिद्ध पीठ और तंत्र साधना का केंद्र है। इस मंदिर से सौ कदम दूर लगभग दो एकड़ की एक वीरान भूमि है जहाँ पैर रखते ही एक अदृश्य आकर्षण आज भी होता है, इसी स्थान पर उस महापुरुष मंडन मिश्र का जन्म हुआ था जिनकी पत्नी भारती ने अपने पति के स्वाविमान, उनकी विद्वता और मानव कल्याण की भावना को किसी भी तरह के अधात से बताल , आदि शंकराचार्य को शास्त्रार्थ में पराजित किया था।
इस पराजय के पश्च्यात आदि शंकराचार्य ने मंडन मिश्र को अपना उत्तराधिकारी बनाया जो साठ वर्षों तक द्वितीय शंकराचार्य के रूप में विख्यात हुए। यह घटना आज से लगभग 2400 वर्ष पूर्व की है और तब से लेकर अब तक सत्तर शकाराचार्य हो चुके हैं। अतीत में और पीछे जाएँ तो पाते हैं कि मुनि वशिष्ठ ने हिमालय की तराई तिब्बत में उग्रतारा विद्या की महासिद्धी के बाद धेमुड़ा (धर्ममूला) नदी के किनारे स्थित महिष्मति (वर्तमान महिषी) में माँ उग्रतारा की मूर्ति स्थापित की थी। किंवदंतियां यह भी है कि निरंतर शास्त्रार्थ के कारण यहाँ के तोते और अन्य पक्षी भी शास्त्र की बातें करते थे।
यह मंदिर एक सिद्ध तांत्रिक स्थल है जहाँ साधना करने हेतु दूर दूर से साधू समाज का आगमन होता रहा है। बौद्ध ग्रन्थ में दिए गए विवरण के अनुसार महात्मा बुद्ध ने जब ज्ञान प्राप्ति के बाद अपनी ज्ञान यात्रा प्रारंभ की तो उनके चरण यहाँ भी पड़े थे। उस काल में इस स्थल का नाम “आपण निगम” था। बाद में यहाँ एक अध्यन केंद्र की स्थापना की गई थी। स्वतंत्रता प्राप्ति के उपरांत पुरातत्व विभाग द्वारा जो खुदाई की गई तो बोधिसत्वों की सैकड़ों मूर्तिया भूगर्भ से निकलीं जो आज राज्य और राष्ट्र के विभिन्न संग्रहालयों में रखी हैं। यहाँ की मूर्तियां इतनी महत्वपूर्ण मानी गईं कि इन्हें फ़्रांस और ब्रिटेन में संपन्न भारत महोत्सवों में भी ले जाया गया था।
उग्र तारा माता मंदिर न्यास के उपाध्यक्ष प्रमिल कुमार मिश्र का कहना है कि चूंकि मंदिर बौद्ध मतावलंबियो से भी जुड़ा है इसलिए इस मंदिर को बौद्ध देशों, खासकर चीन, श्रीलंका, जापान व थाइलैंड से संपर्क कर मंदिर के जीर्णोद्धार की योजना तैयार की जा रही है। बताया जाता है कि 16वीं शताब्दी में दरभंगा महाराज की पुत्रवधू रानी पद्मावती ने वास्तु स्थापत्य कला की उत्कृष्ट शैली से महिषी में तारा स्थान मंदिर का निर्माण कराया था।
प्राचीन काल से ही उग्रतारा स्थान धर्म, अर्थ, काम व मोक्ष की प्राप्ति हेतु भारत, नेपाल के श्रद्धालुओं और साधकों का आकर्षण केन्द्र और तपोभूमि रही है। असाधारण काले पत्थरों से बनी सजीव, अलौकिक प्रतीत होती भगवती उग्रतारा की प्रतिमा में ऐश्वर्य, वैभव की पूर्णता, पराकाष्ठा और करुणा बरसाती ममतामयी वात्सल्य रूप की झलक मिलती है। उपासकों को भगवती उग्रतारा की प्रतिमा की भाव-भंगिमा में सुबह बालिका, दोपहर युवती और संध्या समय वृद्ध रूप का आभास होता है। पौराणिक शास्त्रानुसार वशिष्ठ मुनि ने महाचीन देश, तिब्बत में भगवती उग्रतारा की घनघोर तपस्या की थी। वशिष्ठ की तपस्या से प्रसन्न होकर भगवती उग्रतारा जिस रूप में प्रकट हुई थी उसी रूप में वह वशिष्ठ के साथ महिषी आई और यहां उसी रूप में पत्थर में रूपान्तरित हो गयी। उग्रतारा स्थान देश के तीन प्रमुख तारा मंदिरों में से एक है।
प्रोफ़ेसर रमेश ठाकुर का कहना है कुछ वेद और कर्मकांड में महारथ हासिल किये लोगों के सहयोग से सन 1993 से भारती-मंडन वेद विद्या केंद्र नामक संस्था की स्थापना की गई जिसे बाद में कांची कामकोटि पीठं सेवा ट्रस्ट संचालित करने लगी। इस विद्यालय के पास एक एकड़ जमीन भी है जिसे कांची कामकोटि पीठं सेवा ट्रस्ट को 99 वर्षों के लिए लीज पर दिया गया है। सन् 1998 से 2006 तक कांची कामकोटि पीठं सेवा ट्रस्ट ने प्रति माह 5000 रुपये इस विद्यालय के संचालन के लिए भेजती थी जो बाद में 10,000 रुपये हो गई। आज भी इसी वजह से इसे आर्थिक सहायता मिलती है ताकि बच्चों को वेद और कर्मकांड की शिक्षा से जोड़े रखा जा सके।
इसी विद्यालय पर है वेद शिक्षा का दायित्व?: टीन शेड में भारती-मंडन वेद विद्या केंद्र
इस विद्यालय में लगभग 300 छात्र हैं जिन्हें विद्यालय के शिक्षक भोजन और वस्त्र की सुविधा उसी 10,000 की राशि में से प्रदान करते हैं। अनुसंशा के आधार पर उत्तीर्णता प्राप्त छात्रों को प्रतिमाह छात्रवृति भी दी जाती है ताकि बच्चे इस विद्यालय की ओर उन्मुख हों और वेद, कर्म-कांड, धर्म-शास्त्र आदि की धूमिल पड़ती छवि को बचाया जा सके। वर्तमान में मंडल मिश्र की कृतियों पर कई अमेरिकी और ब्रिटिश विद्वानों ने रिसर्च कर रहे हैं।
भारती-मंडन वेद विद्या केंद्र के अध्यक्ष शोभाकांत ठाकुर का कहना है यहाँ संस्कृत विद्या की प्रसिद्द पाठशाला यहाँ चला करती थी। स्वतंत्रता प्राप्ति के उपरांत यहाँ बिहार सरकार ने राजकीय संस्कृत विद्यालय की स्थापना की। बाद में यहाँ संस्कृत महाविद्यालय की भी स्थापना हुई। इन दोनों संस्थानों में वैसे तो वेद विद्या के अध्यापन का प्रावधान भी था, लेकिन सरकारी उपेक्षा के कारण इसकी कमी पूरी नहीं हो सकी। ये दोनों शिक्षण संस्थान पिछले दस वर्षों से बंद पड़े हैं।
बहरहाल, भारती-मंडन वेद विद्या केंद्र के प्रचूर विकास व प्रचार-प्रसार हेतु दिल्ली की संस्था “आन्दोलन:एक पुस्तक से” विश्व के कोने कोने में बसे बिहार के लोगों से अपील कर रही है कि वे अपनी शैक्षणिक धरोहर को बचाने हेतु आगे आयें। इस आन्दोलन की प्रमुख श्रीमती नीना, जो लगभग एक सप्ताह तक इस परिसर के विकास हेतु महिषी गाँव में विराजमान थीं, ने मीडिया दरबार को बताया कि वे भारत सरकार से, और विशेषकर केंद्रीय मानव संसाधन मंत्री कपिल सिबल से आग्रह कर रहीं हैं कि इस भूमि को “राष्ट्रीय धरोहर” के रूप में घोषित किया जाए। इसके साथ ही, वेद, कर्मकांड और धर्म शास्त्र के विकास हेतु और बिहार की पुरानी शैक्षणिक गरिमा को बहाल करने के लिए केंद्रीय कोष से राशि का सीधा आवंटन करे। वैसे, यह संस्था, अपने स्तर से इसके विकास के लिए प्रतिबद्ध है जिसके मंडन मिश्र के जन्म दिन (8 जुलाई) तक पूरे हो जाने की सम्भावना है।
श्रीमती नीना के मुताबिक, “वर्तमान स्थिति को देखते हुए ऐसा प्रतीत होता है कि आने वाले दिनों में बिहार में वेद ज्ञाताओं और कर्म काण्ड करने वाले लोगों का भयंकर अभाव हो जाएगा और इस बात से भी इंकार नहीं किया जा सकता है कि परिणाम स्वरुप हम सभी अपने परिजनों की लाशों को दरवाजे पर रखे रहेंगे और उसका अंतिम संस्कार कराने वाला कोई भी ज्ञानी पुरुष तक नहीं मिलेगा। आइए, हमारा साथ दें, इस ज्ञान के धरोहर को बचाने में।”
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