कैलाश के शिखर का आकार है शिवलिंग समान
हिंदुस्तान के नक्शे को यदि उल्टा पकडें, तो उसका आकार शिवलिंग के जैसा मालूम होगा। उत्तर का हिमालय उसका पाया है और दक्षिण की ओर का कन्याकुमारी का हिस्सा उसका शिखर है।
गुजरात के नक्शे को जरा-सा घुमाएं और पूर्व के हिस्से को नीचे की ओर और सौराष्ट्र के छोर यानी ओखा मंडल को ऊपर की ओर ले जाएं तो यह भी शिवलिंग के जैसा ही मालूम होगा। हमारे यहां पहाडों के जितने भी शिखर हैं, सब शिवलिंग ही हैं। कैलाश के शिखर का आकार भी शिवलिंग के समान ही है।
इन पहाडों के जंगलों से जब कोई नदी निकलती है, तब कवि लोग यह कहे बिना नहीं रहते कि शिवजी की जटाओं से गंगाजी निकलती है! चंद लोग पहाडों से आने वाली पानी के प्रवाह को अप्सरा (अप्-सरा) कहते हैं और चंद लोग पर्वत की इन तमाम लडकियों को पार्वती कहते हैं। ऐसी ही अप्सरा-जैसी एक नदी के चर्चा इस लेख में की गई है। महादेव के पहाड के समीप मेकल या मेखल पर्वत की तलहटी में अमरकंटक नामक एक तालाब है। वहां से नर्मदा का उद्गम हुआ है। जो अच्छा घास उगाकर गायों की संख्या में वृद्धि करती है, उस नदी को गो-दा कहते हैं। यश देनेवाली को यशो-दा, और जो अपने प्रवाह तथा तट की सुंदरता के द्वारा नर्म यानी आनंद देती है, वह है नर्म-दा। इसके किनारे घूमते-घामते जिसको बहुत ही आनंद मिला, ऐसे किसी ऋषि ने इस नदी को यह नाम दिया होगा। उसे मेखल-कन्या या मेखला भी कहते हैं।
जिस प्रकार हिमालय का पहाड तिब्बत और चीन को हिंदुस्तान से अलग करता है, उसी प्रकार हमारी यह नर्मदा नदी उत्तर भारत अथवा हिंदुस्तान और दक्षिण भारत या दक्खन के बीच आठ सौ मील की एक चमकती, नाचती, दौडती सजीव रेखा खींचती है और कहीं इसको कोई मिटा न दे, इस ख्याल से भगवान ने इस नदी के उत्तर की ओर विंध्य तथा दक्षिण की ओर सतपुडा के लंबे-लंबे पहाडों को नियुक्त किया है। ऐसे समर्थ भाइयों की रक्षा के बीच नर्मदा दौडती-कूदती अनेक प्रांतों को पार करती हुई भृगुकच्छ यानी भडौंच के समीप समुद्र से जा मिलती है।
अमरकंटक के पास नर्मदा का उद्गम समुद्र की सतह से करीब पांच हजार फुट की ऊंचाई पर होता है। अब आठ सौ मील में पांच हजार फुट उतरना कोई आसान काम नहीं है। इसलिए नर्मदा जगह-जगह छोटी-बडी छलांगें मारती हैं। इसी पर से हमारे कवि-पूर्वजों ने नर्मदा को दूसरा नाम दिया रेवा। संस्कृत में रेव् धातु का अर्थ है कूदना।
जो नदी कदम-कदम पर छलांगें मारती है, वह नौकानयम के लिए यानी किश्तियों के द्वारा दूर तक की यात्रा करने के लिए काम की नहीं। समुद्र से जो जहाज आता है वह नर्मदा में मुश्किल से तीस-पैंतीस मील अंदर आ जा सकता है। वर्षा ऋतु के अंत में ज्यादा से ज्यादा पचास मील तक पहुंचता है। जिस नदी के उत्तर और दक्षिण की ओर दो पहाड खडे हैं, उसका पानी भला नहर खोदकर दूर तक कैसे लाया जा सकता है? अत: नर्मदा जिस प्रकार नाव खेने के लिए बहुत काम की नहीं है, उसी प्रकार खेतों की सिंचाई के लिए विशेष काम की नहीं है। फिर भी इस नदी की सेवा दूसरी दृष्टि से कम नहीं है। उसके पानी में विचरने वाले मगरों और मछलियों की, उसके तट पर चरने वाले ढोरों और किसानों की, और तरह-तरह के पशुओं की तथा उसके आकाश में कलरव करने वाले पक्षियों की वह माता है।
भारतवासियों ने अपनी सारी भक्ति भले गंगा पर उडेल दी हो, पर हमारे लोगों ने नर्मदा के किनारे कदम-कदम पर जितने मंदिर खडे किए हैं, उतने अन्य किसी नदी के किनारे नहीं किए होंगे।
पुराणकारों ने गंगा, यमुना, गोदावरी, कावेरी, गोमती, सरस्वती और नदियों के स्नान-पान का और उनके किनारे किए हुए दान के माहात्म्य का वर्णन भले चाहे जितना किया हो, किंतु इन नदियों की प्रदक्षिणा करने की बात किसी भक्त ने नहीं सोची, जबकि नर्मदा के भक्तों ने कवियों को ही सूझने वाले नियम बनाकर सारी नर्मदा की परिक्रमा या परिकम्मा करने का प्रकार चलाया है।
नर्मदा के उद्गम से प्रारंभ करके दक्षिण-तट पर चलते हुए सागर-संगम तक जाइए, वहां से नाव में बैठकर उत्तर के तट पर जाइए और वहां से फिर पैदल चलते हुए अमरकंटक तक जाइए- एक परिक्रमा पूरी होगी। नियम बस इतना ही है कि परिकम्मा के दरम्यान नदी के प्रवाह को कहीं भी लांघना नहीं चाहिए, न प्रवाह से बहूत दूर ही जाना चाहिए। हमेशा नदी के दर्शन होने चाहिए। पानी केवल नर्मदा का ही पीना चाहिए। अपने पास धन-दौलत रखकर ऐश-आराम में यात्रा नहीं करनी चाहिए। नर्मदा के किनारे जंगल में बसने वाले आदिम निवासियों के मन में यात्रियों की धन-दौलत के प्रति विशेष आकर्षण होता है। आपके पास यदि अधिक कपडे बर्तन या पैसे होंगे, तो वे आपको इस बोझ से अवश्य मुक्त कर देंगे।
हमारे लोगों को ऐसे अकिंचन और भूखे भाइयों का पुलिस द्वारा इलाज करने की बात कभी सूझी ही नहीं और निवासी भाई ही मानते आए हैं कि यात्रियों पर उनका यह हक है। जंगलों में लूटे गए यात्री जब जंगल से बाहर आते हैं, तब दानी लोग यात्रियों को नए कपडे और अन्न देते हैं।
श्रद्धालु लोग सब नियमों का पालन करके खास तौर पर ब्रह्मचर्य का आग्रह रखकर नर्मदा की परिक्रमा धीरे-धीरे तीन साल में पूरी करते हैं। चौमासे में वे दो-तीन माह कहीं रहकर साधु-संतों के सत्संग से जीवन का रहस्य समझने का आग्रह रखते हैं। ऐसी परिक्रमा के दो प्रकार होते हैं। उनमें जो कठिन प्रकार है, उसमें सागर के पास भी नर्मदा को लांघा नहीं जा सकता। उद्गम से मुख तक जाने के बाद फिर उसी रास्ते से उद्गम तक लौटना तथा उत्तर के तट से सागर तक जाना और फिर उसी रास्ते से उद्गम तक लौटना यह परिक्रमा इस प्रकार दूनी होती है। इसी का नाम है जलेरी।
मौज और आराम को छोडकर तपस्यापूर्वक एक ही नदी का ध्यान करना, उसके किनारे के मंदिरों के दर्शन करना, आसपास रहने वाले संत-महात्माओं के वचनों को श्रवण-भक्ति से सुनना और प्रकृति की सुंदरता तथा भव्यता का सेवन करते हुए जीवन के तीन साल बिताना कोई मामूली प्रवृत्ति नहीं है। इसमें कठोरता है, तपस्या है, बहादुरी है, अंतर्मुख होकर आत्म-चिंतन करने की और गरीबों के साथ एकरूप होने की भावना है, प्रकृतिमय बनने की दीक्षा है और प्रकृति के द्वारा प्रकृति में विराजमान भगवान के दर्शन करने की साधना है। इस नदी के किनारे की समृद्धि मामूली नहीं है।
(गांधीवादी चिंतक कालेलकर ने यह आलेख अगस्त, 1955 में लिखा था। सस्ता साहित्य मंडल, नई दिल्ली से प्रकाशित उनकी पुस्तक सप्त सरिता से साभार)
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