भोपाल। मध्यप्रदेश में पर्यटन को बढ़ावा देने के लिए 10 विशेष पर्यटन क्षेत्र बनाए जा रहे हैं। मुख्यमंत्री शिवराज सिंह चौहान ने राज्य पर्यटन विकास परिषद की बैठक में इससे संबंधित प्रस्ताव को मंजूरी दी है। ये विशेष पर्यटन क्षेत्र हैं- इंदिरा सागर, गांधी सागर, बाण सागर, सांची, ओरछा, मांडू, खजुराहो, दतिया, तवा नगर-मड़ई, और तामिया-पातालकोट।
इनमें से पातालकोट सबसे अद्भुत और विचित्रताओं भरा है। यह धरती का पाताल है, जिसमें नागराज बसते हैं। छिंदवाड़ा जि़ले में स्थित पातालकोट क्षेत्र प्राकृतिक संरचना का एक अजूबा है. सतपुड़ा पर्वत श्रेणियों की गोद में बसा यह क्षेत्र भूमि से एक हजार से 1700 फीट तक गहराई में बसा हुआ है। इस क्षेत्र में 40 से ज्यादा मार्ग लोगों की पहुंच से दूर हैं।
यानी यहां अब तक कोई नहीं पहुंचा है। बारिश में यह क्षेत्र दुनिया से अलग-थलग पड़ जाता है। पातालकोट में गोंड और भारिया जनजाति सालों से निवास कर रही है। ऐसा माना जाता है कि दुर्लभ जड़ी-बूटियों और प्राकृतिक खान-पान पर निर्भर ये आदिवासी आमतौर पर बीमार नहीं पड़ते। थोड़ा-बहुत कुछ हुआ, तो जड़ी-बूटियों से जल्द ठीक हो जाते हैं। यानी उन्हें शहरी जिंदगी की तरह बीमारियां नहीं घेरतीं
इनमें से पातालकोट सबसे अद्भुत और विचित्रताओं भरा है। यह धरती का पाताल है, जिसमें नागराज बसते हैं। छिंदवाड़ा जि़ले में स्थित पातालकोट क्षेत्र प्राकृतिक संरचना का एक अजूबा है. सतपुड़ा पर्वत श्रेणियों की गोद में बसा यह क्षेत्र भूमि से एक हजार से 1700 फीट तक गहराई में बसा हुआ है। इस क्षेत्र में 40 से ज्यादा मार्ग लोगों की पहुंच से दूर हैं।
यानी यहां अब तक कोई नहीं पहुंचा है। बारिश में यह क्षेत्र दुनिया से अलग-थलग पड़ जाता है। पातालकोट में गोंड और भारिया जनजाति सालों से निवास कर रही है। ऐसा माना जाता है कि दुर्लभ जड़ी-बूटियों और प्राकृतिक खान-पान पर निर्भर ये आदिवासी आमतौर पर बीमार नहीं पड़ते। थोड़ा-बहुत कुछ हुआ, तो जड़ी-बूटियों से जल्द ठीक हो जाते हैं। यानी उन्हें शहरी जिंदगी की तरह बीमारियां नहीं घेरतीं
आमतौर पर दुनिया तीन लोक में बंटी हुई है। पहला इंद्रलोक यानी अनंत तक फैला आसमान। दूसरा मृत्युलोक यानि अनंत तक फैली हुई धरती, जबकि पाताल लोक किसी ने नहीं देखा होगा। यदि देखना है, तो पातालकोट आइए।
पातालकोट भोपाल से तकरीबन 300 किलोमीटर के फासले पर बस अद्भुत क्षेत्र है। यहां प्रकृति के नजारे ऐसे होते हैं, कि आप कह उठेंगे वाह!
पातालकोट जाने के लिए पांच रास्ते हैं। आप किसी भी रास्ते में जाइए आपको गहरी घाटी में पांच किलोमीटर का सफर तो पैदल तय करना ही होगा। हालांकि हम जैसे आम लोगों के लिए यह दुर्गम मार्ग हो सकता है, लेकिन यहां रहने वाले आदिवासी सरपट दौड़ते-भागते यहां पहुंच जाते हैं। वैसे जब आप धरती से पातालकोट पहुंचेंगे, तो आपकी थकान स्वत: काफूर हो जाएगी।
कहते हैं पातालकोट नागदेवता का घर है। वैसे पातालकोट में नाग देवता के बाद अगर कोई भगवान माना जाता है तो वो हैं भूमका(वैद्य)। ये भूमका ही हैं जो पातालकोट के बाशिंदों की सेहत का याल रखते हैं। साथ ही वे कुछ ऐसे रहस्य भी जानते हैं, जिन्हें पातालकोट के आम लोग नहीं जानते।
आदिवासियों के भगवान भूमका पातालकोट की हर जड़ी-बूटी की खासियत समझते हैं। यूं तो पातालकोट में अमूमन कोई बीमार नहीं होता। लेकिन अगर किसी को कोई परेशानी हो जाती है, तो वो सीधे भूमका के पास पहुंचता है।
पातालकोट में दुनिया की दुर्लभ जड़ी-बूटियां उगती हैं, जिन पर लगातार रिसर्च चल रहा है। इनसे मीजल्स, हाइपरटेंशन, डायबिटीज यहां तक कि सांप के काटने की दवा भी भूमका के पास होती है। लेकिन भूमकाओं का पारंपरिक हुनर सीखने की ललक नई पीढ़ी में उतनी नहीं है जिसकी वजह से इसके खत्म होने का खतरा पैदा हो गया है। खतरा जड़ी-बूटियों पर भी मंडरा रहा है, जिनकी तलाश में दूर-दूर से लोग यहां आते हैं।
प्रशासन को भी जड़ी बूटियों पर मंडरा रहे खतरे का अहसास है, इसलिए अब वो इन जड़ी-बूटियों को सहेजने की योजना बना रहा है। प्रकृति पातालकोट पर मेहरबान हैं और पातालकोट के लोग प्रकृति पर। पातालकोट के निवासी धरती को मां मानते हैं, और उस पर हल चलाने से परहेज करते हैं। जो भी खेती होती है, खुर्पी के सहारे होती है। पातालकोट में फसल पकने और शादी-ब्याह के वक्त करमा नाच होता है। गोंड और भारिया आदिवासी सैकड़ों साल से पातालकोट में रह रहे हैं। यही उनकी जिंदगी है। बाकी दुनिया की तरक्की इन्हें जरा भी नहीं लुभाती। इनके लिए तो पातालकोट का सुख ही सबकुछ है। ये सुख उनका अपना है जो बाकी दुनिया के लिए शायद सपना है।
पातालकोट 89 वर्ग किलोमीटर क्षेत्र में फैला हुआ है। यहां कुल 12 गांव और 27 छोटी-छोटी बस्तियां हैं। आजादी के 40 वर्ष बाद 1985 में इस क्षेत्र के सबसे बड़े गांव गैलडुब्बा को पक्की सड़क से जोड़ा गया।
भारत 15 अगस्त 1947 को आजाद हुआ था, लेकिन पातालकोट में 50 साल बाद 1997 में पहली बार स्वतंत्रता दिवस के दिन स्कूल में तिरंगा झंडा फहराया गया।
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