युद्ध का दर्शन विकसित करना चाहिए
दुर्भाग्य से हम अपने एक पड़ोसी देश, जो कल तक इस देश का ही एक अंग था, के साथ ऐसी स्थिति में जीने के लिए मजबूर हो गये हैं, जिसमें स्त्रायुतोड़क तनाव में जीना इस देश की नियति बन गया है। यह तनाव केवल भारत का ही नहीं है, पाकिस्तान भी इसमें पूरी तरह डूबा हुआ है। दोनों ही देशों के प्रबुद्ध नागरिकों की सद्इच्छाओं और सद्प्रयासों के बावजूद इस तनावपूर्ण स्थिति से मुक्ति का कोई उपाय नहीं दिखता। दोनों देशों की बिडम्बना यह है कि वे किसी क्षण आंखों में आंसू भरकर एक-दूसरे के गले लग जाते हैंऔर दूसरे क्षण आखें लाल कर, मुटि्ठयां भींचकर नथुनों से फुफकारते हुए एक-दूसरे पर झपट पड़ते हैं, प्रेम और घृणा का ऐसा ही खेल इस देश में कई हजार वर्ष पहले कौरवों और पाण्डवों के माध्यम से भी खेला गया था परिणाम, महाभारत जैसी त्रासदी थी। शांति की कितनी भी कामना क्यों न की जाए, युद्ध मनुष्य की नियति है। इसके बिना वह कभी जिया नहीं, न ही इसके बिना वह कभी जी सकेगा। पश्चिमी देशों में युद्ध के मनोविज्ञान पर बहुत काम हुआ है और वहां युद्ध के विभिन्न पहलुओं पर अनेक दृष्टियों और कोणों के आधार पर विचार किया गया है। हमारे देश में इस दृष्टि से विशेष चिंतन नहीं हुआ। जो थोड़ा-बहुत हुआ भी, वह गंभीर विचार या दर्शन के स्तर पर कभी नहीं उभरा। इस देश में भी बड़े-बड़े युद्ध हुए। महाभारत का युद्ध तो मनाव इतिहास की अद्वितीय घटना है। शायद उस युद्ध में हुए विनाश का व्याघात इतना प्रबल था कि इस देश की पूरी मानसिकता युद्ध-कर्म से केवल विरत ही नहीं हुई, उससे विरक्ति भी अनुभव करने लगी। हमारा संपूर्ण चिंतन आत्मा, परमात्मा, मोक्ष, माया और सृष्टि की उत्पत्ति की गुत्थियों से सुलझाने की ओर मुड़ गया। यह चिंतन बढ़ते-बढ़ते इस स्थिति तक पहुंच गया, जहां सारा संसार और उसके सभी कार्य-कलाप मिथ्या दिखने लगे, केवल ब्रह्मा ही एक मात्र सत्य रह गया।
इस देश में सुगठित ढंग से युद्ध दर्शन का विकास न हो पाने का एक प्रमुख कारण यह है कि यहां जीवन-मृत्यु की सभी समस्याओं का अंतर्भेदन व्यक्ति मुखी हुआ, समाजमुखी नहीं। आध्यात्मिक और भौतिक क्षेत्रों के विविध आयामों पर चिंतन-मनन करते हुए इस देश में अनेक शास्त्रों की रचना हुई, किन्तु युद्ध-दर्शन पर कोई उल्लेखनीय शास्त्र नहीं रचा गया। युद्ध का अपना एक कौशल है। इससे आगे बढ़कर उसका एक पूरा दर्शन है। इस बात पर इस देश में गंभीर चिंतन नहीं हुआ। प्राचीनकाल से यहां चार पुरुषार्थों की चर्चा होती रही, जिन्हें पुरुषार्थ चतुष्ट कहा जाता है। ये हैं धर्म, अर्थ, काम और मोक्ष। यदि ध्यान से देखा जाए तो ये चारों पुरुषार्थ व्यक्ति के निजी जीवन से ही अधिक संबंध रखते हैं, इनका पूरे समाज, पूरे देश, पूरे राष्ट्र के साथ संबंध होना आवश्यक नहीं हैं, किन्तु युद्ध एकाकी संक्रिया न होकर सामूहिक कर्म है। युद्ध कर्म पूरे समाज के साथ जुड़कर ही पूर्ण होता है। इस देश में धर्म पर बहुत कुछ सोचा और लिखा गया। मोझ की कामना से हमारे शास्त्र भरे पड़े हैं। अर्थक और कुटिल राजनीति पर चाणाक्य जैसे मनीषियों ने बहुत कुछ लिखा। काम की तो यहां पूजा होती रही। हमारे अनेक मंदिरों में निर्मित मिथुन-मूर्तियां इस बात का प्रमाण हैं। ॠषि वात्सायन का ‘काम सूत्र’संसार की बेजोड़ रचना है, परंतु मुझे ऐसा कोई ग्रंथ याद नहीं आता जो युद्ध, युद्ध-कला और युद्ध दर्शन की व्यापकता को समाहित करता हो। इस देश की समाज-व्यवस्था में युद्ध धर्म, समाज के केवल एक वर्ग, क्षत्रियों, तक ही सीमित रह गया । पूरे समाज में यह वर्ग कभी दस प्रतिशत से अधिक नहीं था। नब्बे प्रतिशत जनता इससे विरत थी और इसे अपना काम नहीं मानती थी। क्षत्रिय वर्ग में परंपरा के रूप में शस्त्र-पूजा अवश्य होती थी, किन्तु उनके लिए भी यह मात्र एक रुढ़ी बनकर रह गई थी। संसार के विभिन्न भागों में किस प्रकार के नए अस्त्र-शस्त्र बन रहे हैं, इसके विषय में उन्हें कोई जानकारी नहीं थी।
युद्ध एक पूरा दर्शन है, जीवन दृष्टि है, इस बात को संभवतः सबसे पहले गुरुगोविन्द सिंह ने, तीन सौ वर्ष पहले, आत्मसात किया था। उन्होंने अनुभव किया था कि कृपाण हाथ में लेकर युद्ध भूमि में जाकर शत्रु से भिड़ जाना ही पर्याप्त नहीं है। यह काम तो इस देश की क्षत्रिय जातियां सदियों से करती आ रही हैं। आवश्यकता यह थी कि युद्ध-कर्म को किस प्रकार लोगों की मानसिकता का हिस्सा बना दिया जाए, उनके लिए यह एक पूरा जीवन दर्शन बन जाए। सबसे बड़ी बात यह है कि इस कर्म में केवल दस प्रतिशत लोगों को नहीं, शत-प्रतिशत लोगों की भागीदारी कैसे प्राप्त की जाए।
गुरुगोविन्द सिंह ने इस कार्य को संपन्न करने के लिए व्यक्ति और समाज के उद्देश्य बदल दिये। ‘जब आव (आयु) की अवधि निदान बने अति ही रण में जूझ मरो’ का आदर्श लोगों के सामने रख दिया। ‘सवा लाख से एक लड़ाऊं’ का निश्चय प्रकट किया। हरि, बनवारी, गोपाल, केशव, माधव बंशीधर, रण छोड़दास, रास बिहारी जैसे इष्टनामों के स्थान पर खड्गकेतु, असिपाणि, बाणपाणि, चक्रपाणि, दुष्टहंता, अरिदमन, सर्वकाल, महाकाल जैसे युद्ध-प्रकृति के नाम प्रचारित किये और इस दर्शन की पुष्टि आश्रय में रखे हुए कवियों से करवाई। उन्होंने लोगों के नाम बदल दिए। गुरुगोविन्द सिंह ने सबसे महत्वपूर्ण कार्य यह किया कि उन्होंने पिछड़े हुए दलित, उपेक्षित, पीड़ित और कमजोर लोगों में ऐसा आत्मविश्वास उत्पन्न कर दिया कि कुछ समय बाद ही दुर्दान्त आक्रमणकारियों का मुकाबला करने, उन्हें पराजित करने और विश्व के सर्वश्रेष्ठ सैनिक होने का गौरव प्राप्त करने में सफल हो गए। युद्ध दर्शन का मूलमंत्र यह है कि इतने दुर्बल कभी न बनो कि किसी के मन में आपको लूटने और गुलाम बनाने का लोभ उत्पन्न हो जाए। गुरू तेगबहादुर की उक्ति है-’भय काहू को देति नहि, ना भय मानत आनि’ किसी को भयभीत करो, न ही किसी का भय मानो। इस कथन में किसी को भयभीत न करो, न किसी का भय मानो, जीतना किसी से भयभीत न होना है। दुर्बल व्यक्ति या राष्ट्र किसी को भयभीत कैसे करेगा। शक्तिशाली व्यक्ति या राष्ट्र ही, किसी का भय नहीं मानता, वहीं किसी को भयभीत न करने की समझ और सामर्थ्य प्राप्त कर सकता है। भारत की राष्ट्रनीति शान्ति, अहिंसा और विश्व बंधत्व के आदर्श पर आग्रहशील रही है। ये महत्वपूर्ण मानवीय मूल्य हैं। हमारी अपेक्षा यही रही है कि संसार के सभी लोग, सभी राष्ट्र इन आदर्शों को अपनाएं और इन पर चलें,किन्तु इतिहास का अनुभव कुछ और ही प्रमाणित करता है। हम ऊंचे-ऊंचे आदर्शों की बातें करते रहे और सदियों तक बाहरी आक्रमणकारी आततायी बनकर हमें लूटते रहे, गुलाम बनाते रहे और हमारा शोषण करते रहे। पिछले वर्षों का इतिहास भी तो यही प्रमाणित करता है। यह देश पंचशील के आदर्श को सारे संसार के सम्मुख रखा और विश्व शांति की कामना की। अभी पंचशील के घोषणा पत्र की स्याही सूखी भी नहीं थी कि इस घोषणा पत्र के एक प्रमुख भागीदार चीन ने भारत की उत्तरी-पूर्वी सीमाओं को अपने सैन्य बल से रौंद दिया और हम बुरी तरह पिट गए।
जनता भी इस देश के साथ अपने अच्छे संबंध बनाना चाहती है, किन्तु दुर्भाग्य से इन दो देशों के मध्य कश्मीर की समस्या गले की ही हड्डी बन कर फंसी हुई है। राजनीतिक स्तर पर कूटनीतिक वार्ता द्वारा शायद इसका कोई समाधान निकल भी आता, किन्तु दोनों देशों की राजनीतिक स्थितियां ऐसी हैं कि सभी प्रयास सफलता की किसी मंजिल पर पहुंचने से पहले ही बिखर जाते हैं। भारत में, सभी संकटों के बावजूद लोकतंत्र बना रहा है, किन्तु पाकिस्तान में लोकतंत्र का कदम चलता है फिर लड़खड़ा कर सैनिक शासन की गोद में जा गिरा। सैनिक शासन की अपनी कुछ प्राथमिकताएं होती हैं और मजबूरियां भी। उसे सदैव यह अशंका बनी रहती है कि हल्का सा भी ‘साफ्ट’ रुख जनता में उसकी साख को बिगाड़ देगा। इसीलिए कठोर भाषा बोलना, आक्रमक तेवर बनाए रखना और कुछ न कुछ दुस्साहन प्रदर्शित करते रहना उसके लिए आवश्यक है। एक बिडम्बना यह भी है कि पाकिस्तान में जब भी लोकतंत्र आया, वह भी वहां की सेना की धौंस भय से कभी मुक्त नहीं हुआ। लोकतांत्रिक पद्धति से चुनी हुई सरकार भी सेना की ठकुरसुहाती करते रहने में ही अपनी खैरियत समझती रही है। यदि कोई राष्ट्रपति या प्रधानमंत्री सेना के प्रभाव को कम करना चाहता है तो सेना द्वारा तख्ता पलट की तलवार उसे भयभीत किए रखती है। आजकल तो वहां की सरकार तालिबानी उग्रवादियों की आतंकी घटनाओं से बुरी तरह संशकित है। एक बात और ध्यान में रखने की है, जो जनसमूह कबायली मानसिकता में पलता है वह अधिक दुर्दान्त और आक्रामक होता है। भारत की समृध्दि और उसकी शांति प्रियता, प्राचीनकाल से मध्य एशिया के विभिन्न कबीलों को इस देश पर आक्रमण करने, इसे लूटने, इस पर शासन करने के लिए लालायित करती रही। यूनानियों, हूणों और शकों के बाद अरबों, तुर्कों, पठानों, मुगलों के कबीले लगभग एक हजार वर्षाें तक इस देश में हमलावर बनकर आते रहे और इस देश की समृध्दि को तहस-नहस करते रहे। इन कबीलों ने इस्लाम धर्म स्वीकार कर लिया था। ये कबीले इस्लाम धर्म स्वीकार न भी करते तो भी वही करते जो इन्होंने किया। चंगेज खां जैसा आक्रान्ता मुसलमान नहीं था। उसके वंशजों ने बाद में इस्लाम स्वीकार किया। तैमूर लंग, बाबर और नादिरशाह की सेनाओं के हाथों भारत के मुसलमान भी उतने ही पीड़ित हुए थे, जितने हिन्दू।
पाकिस्तान आज भी कबाइली मानसिकता से बुरी तरह ग्रस्त है। उत्तरी-पश्चिमी सरहदी सूबे के पठान कबाइली उसी परिवेश और मानसिकता में आज भी जी रहे हैं, जिसमें कई सौ वर्ष पहले जी रहे थे। इन्हें लड़ने-भिड़ने, युद्ध करने और अपनी कबाइली मानसिकता को तृप्त करने के लिए सदैव दुश्मन की जरूरत रहती है-वह चाहे अपने घर का हो या बाहर का। अफगानिस्तान के विभिन्न कबीले कितने ही वर्षो से आपस में लड़ रहे हैं और इस संघर्ष में लाखों लोगों की आहूति दे चुके हैं। पाकिस्तान के शासक यह अच्छी तरह जनते हैं कि यदि इन कबाइलियों का मुख किसी दूसरे देश की ओर न मोड़ा गया तो ये खुद पाकिस्तान के लिए बड़ी मुसीबत बन जाएंगे। यह निशाना भारत के अतिरिक्त दूसरा कौन सा देश हो सकता है? स्वतंत्रता प्राप्त होने के दो महीने बाद ही पाकिस्तानी शासकों ने इस कबाइलियों का मुंह कश्मीर की तरफ मोड़ दिया था। उस समय इन लोगोें ने कश्मीरियों पर जो जुल्म ढाये थे, उनकी यादें आज भी रोंगटे खड़े कर देती हैं। पिछली आधी सदी से पाकिस्तान कश्मीर में जो प्राक्सी वार लड़ रहा है। भारत का पिछले एक हजार वर्ष का इतिहास कबाइलियों के हाथों त्रस्त होने का है। ये लोग अहिंसा, शांति, बंधुता, सद्भाव की भाषा नहीं सकझते। इनके संस्कार हिंसा और युद्ध को, इनकी मानसिकता का अविभाज्य अंग बना देते हैं। इसीलिए इनसे इसी भाषा में संवाद करना होता है। गुरुगोविन्द सिंह ने इस मानसिकता को इच्छी तरह समझा था। उनके युद्ध दर्शन की प्रेरक भूमिका यह मानसिकता ही थी। उन्होंने जो मंत्र दिया, उसके परिणामस्वरूप इतिहास की धारा ही बदल गई। हरि सिंह नलवा जैसे सेनानियों ने इन कबाइलियों की ऐसी गति बनाई कि वे अपने ही घर में पनाह मांगने लगे। नलवे की सेनाओं ने उन्हें दर्रा खैबर के उस ओर खंदेड़ दिया। इतिहास आज भी वैसे ही युद्ध दर्शन की अपेक्षा कर रहा है।
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