शरीर में छिपे सप्त चक्र
मनुष्य शरीर स्थित कुंडलिनी शक्ति
में जो चक्र स्थित होते
हैं उनकी संख्या कहीं छ: तो कहीं सात
बताई गई है। इन'
चक्रों के विषय में अत्यंत
महत्वपूर्ण एवं गोपनीय
जानकारी यहां दी गई है। यह जानकारी
शास्त्रीय, प्रामाणिक
एवं तथ्यात्मक है-
(1) मूलाधार चक्र -
गुदा और लिंग के बीच चार पंखुरियों
वाला 'आधार चक्र' है । आधार चक्र का
ही एक दूसरा नाम मूलाधार चक्र भी
है। वहाँ वीरता और आनन्द भाव का
निवास है ।
(2) स्वाधिष्ठान चक्र -
इसके बाद स्वाधिष्ठान चक्र लिंग
मूल में है । उसकी छ: पंखुरियाँ हैं ।
इसके जाग्रत होने पर क्रूरता,गर्व,
आलस्य, प्रमाद, अवज्ञा, अविश्वास
आदि दुर्गणों का नाश होता है ।
(3) मणिपूर चक्र -
नाभि में दस दल वाला मणिचूर चक्र है
। यह प्रसुप्त पड़ा रहे तो तृष्णा,
ईष्र्या, चुगली, लज्जा, भय, घृणा, मोह,
आदि कषाय-कल्मष मन में लड़ जमाये
पड़े रहते हैं ।
(4) अनाहत चक्र -
हृदय स्थान में अनाहत चक्र है । यह
बारह पंखरियों वाला है । यह सोता
रहे तो लिप्सा, कपट, तोड़ -फोड़,
कुतर्क, चिन्ता, मोह, दम्भ, अविवेक
अहंकार से भरा रहेगा । जागरण होने
पर यह सब दुर्गुण हट जायेंगे ।
(5) विशुद्धख्य चक्र -
कण्ठ में विशुद्धख्य चक्र यह
सरस्वती का स्थान है । यह सोलह
पंखुरियों वाला है। यहाँ सोलह
कलाएँ सोलह विभूतियाँ विद्यमान है
(6) आज्ञाचक्र -
भू्रमध्य में आज्ञा चक्र है, यहाँ '?'
उद्गीय, हूँ, फट, विषद, स्वधा स्वहा,
सप्त स्वर आदि का निवास है । इस
आज्ञा चक्र का जागरण होने से यह सभी
शक्तियाँ जाग पड़ती हैं ।
(7) सहस्रार चक्र -
सहस्रार की स्थिति मस्तिष्क के
मध्य भाग में है । शरीर संरचना में
इस स्थान पर अनेक महत्वपूर्ण
ग्रंथियों से सम्बन्ध रैटिकुलर
एक्टिवेटिंग सिस्टम का अस्तित्व
है । वहाँ से जैवीय विद्युत का
स्वयंभू प्रवाह उभरता है ।
कुण्डलिनी जागरण: विधि और विज्ञान
कुंडलिनी जागरण का अर्थ है मनुष्य
को प्राप्त महानशक्ति को जाग्रत
करना। यह शक्ति सभी मनुष्यों में
सुप्त पड़ी रहती है। कुण्डली शक्ति
उस ऊर्जा का नाम है जो हर मनुष्य में
जन्मजात पायी जाती है। यह शक्ति
बिना किसी भेदभाव के हर मनुष्य को
प्राप्त है। इसे जगाने के लिए
प्रयास या साधना
करनी पड़ती है। जिस प्रकार एक
नन्हें से बीज में वृक्ष बनने की
शक्ति या क्षमता होती है। ठीक इसी
प्रकार मनुष्य में महान बनने की,
सर्वसमर्थ बनने की एवं शक्तिशाली
बनने की क्षमता होती है। कुंडली
जागरण के लिए साधक को शारीरिक,
मानसिक एवं आत्मिक स्तर पर साधना या
प्रयास पुरुषार्थ करना पड़ता है।
जप, तप, व्रत-उपवास, पूजा-पाठ, योग आदि
के माध्यम से साधक अपनी शारीरिक एवं
मानसिक, अशुद्धियों, कमियों और
बुराइयों को दूर कर सोई पड़ी
शक्तियों को जगाता है। अत: हम कह
सकते हैं कि विभिन्न उपायों से अपनी
अज्ञात, गुप्त एवं सोई पड़ी
शक्तियों का जागरण ही कुंडली जागरण
है। योग और अध्यात्म की भाषा में इस
कुंडलीनी शक्ति का निवास रीढ़ की
हड्डी के समानांतर स्थित छ: चक्रों
में माना गया है। कुण्डलिनी की
शक्ति के मूल तक पहुंचने के मार्ग
में छ: फाटक है अथवा कह सकते हैं कि छ:
ताले लगे हुए है। यह फाटक या ताले
खोलकर ही कोई जीव उन शक्ति केंद्रों
तक पहुंच सकता है। इन छ: अवरोधों को
आध्यात्मिक भाषा में षट्-चक्र कहते
हैं। ये चक्र क्रमश: इस प्रकार है:
मूलधार चक्र, स्वाधिष्ठान चक्र,
मणिपुर चक्र, अनाहत चक्र,
विशुद्धाख्य चक्र, आज्ञाचक्र।
साधक क्रमश: एक-एक चक्र को जाग्रत
करते हुए। अंतिम आज्ञाचक्र तक
पहुंचता है। मूलाधार चक्र से
प्रारंभ होकर आज्ञाचक्र तक की
सफलतम यात्रा ही कुण्डलिनी जागरण
कहलाता है।
-----------------------------------------------
कुण्डलिनी के षटचक्र ओर उनका
वेधन
अखिल विश्व गायत्री परिवार
सांस्कृतिक धरोहर गायत्री
महाविद्या सावित्री कुण्डलिनी
एवं तंत्र कुण्डलिनी में षठ चक्र
और उनका भेदन
सुषुप्तिरत्र तृष्णा
स्यादीष्र्या पिशुनता तथा॥
(१) गुदा और लिंग के बीच चार
पंखुरियों वाला 'आधार चक्र' है ।
वहाँ वीरता और आनन्द भाव का निवास
है ।
(२) इसके बाद स्वाधिष्ठान चक्र लिंग
मूल में है । उसकी छः पंखुरियाँ हैं
। इसके जाग्रत होने पर क्रूरता,
गर्व, आलस्य, प्रमाद, अवज्ञा,
अविश्वास आदि दुर्गणों का नाश होता
है ।
(३) नाभि में दस दल वाला मणिचूर चक्र
है । यह प्रसुप्त पड़ा रहे तो
तृष्णा, ईर्ष्या, चुगली, लज्जा, भय,
घृणा, मोह, आदि कषाय-कल्मष मन में लड़
जमाये पड़े रहते हैं
(४) हृदय स्थान में अनाहत चक्र है ।
यह बारह पंखरियों वाला है । यह सोता
रहे तो लिप्सा, कपट, तोड़-फोड़,
कुतर्क, चिन्ता, मोह, दम्भ, अविवेक
अहंकार से भरा रहेगा । जागरण होने
पर यह सब दुर्गुण हट जायेंगे ।
(५) कण्ठ में विशुद्धख्य चक्र यह
सरस्वती का स्थान है । यह सोलह
पंखुरियों वाला है । यहाँ सोलह
कलाएँ सोलह विभतियाँ विद्यमान है
(६) भू्रमध्य में आज्ञा चक्र है, यहाँ
'ॐ' उद्गीय, हूँ, फट, विषद, स्वधा
स्वहा, सप्त स्वर आदि का निवास है ।
इस आज्ञा चक्र का जागरण होने से यह
सभी शक्तियाँ जाग पड़ती हैं ।
***श्री हडसन ने अपनी पुस्तक 'साइन्स
आव सीयर-शिप' में अपना मत व्यक्त
किया है । प्रत्यक्ष शरीर में
चक्रों की उपस्थिति का परिचय तंतु
गुच्छकों के रूप में देखा जा सकता
है । अन्तः दर्शियों का अनुभव
इन्हें सूक्ष्म शरीर में उपस्थिति
दिव्य शक्तियों का केन्द्र
संस्थान बताया है । ***
कुण्डलिनी के बारे में उनके
पर्यवेक्षण का निष्कर्ष है कि वह एक
व्यापक चेतना शक्ति है । मनुष्य के
मूलाधार चक्र में उसका सम्पर्क
तंतु है जो व्यक्ति सत्ता को विश्व
सत्ता के साथ जोड़ता है । कुण्डलिनी
जागरण से चक्र संस्थानों में
जागृति उत्पन्न होती है । उसके
फलस्वरूप पारभौतिक (सुपर फिजीकल) और
भौतिक (फिजीकल) के बीच आदान-प्रदान
का द्वार खुलता है । यही है वह
स्थिति जिसके सहारे मानवी सत्ता
में अन्तर्हित दिव्य शक्तियों का
जागरण सम्भव हो सकता है ।
चक्रों की जागृति मनुष्य के गुण,
कर्म, स्वभाव को प्रभावित करती है ।
स्वाधिष्ठान की जागृति से मनुष्य
अपने में नव शक्ति का संचार हुआ
अनुभव करता है उसे बलिष्ठता बढ़ती
प्रतीत होती है । श्रम में उत्साह
और गति में स्फूर्ति की अभिवृद्धि
का आभास मिलता है । मणिपूर चक्र से
साहस और उत्साह की मात्रा बढ़ जाती
है । संकल्प दृढ़ होते हैं और
पराक्रम करने के हौसले उठते हैं ।
मनोविकार स्वयंमेव घटते हैं और
परमार्थ प्रयोजनों में अपेक्षाकृत
अधिक रस मिलने लगता है ।
अनाहत चक्र की महिमा हिन्दुओं से भी
अधिक ईसाई धर्म के योगी बताते हैं ।
हृदय स्थान पर गुलाब से फूल की
भावना करते हैं और उसे महाप्रभु ईसा
का प्रतीक 'आईचीन' कनक कमल मानते हैं
। भारतीय योगियों की दृष्टि से यह
भाव संस्थान है । कलात्मक
उमंगें-रसानुभुति एवं कोमल
संवेदनाओं का उत्पादक स्रोत यही है
। बुद्धि की वह परत जिसे विवेकशीलता
कहते हैं । आत्मीयता का विस्तार
सहानुभूति एवं उदार सेवा
सहाकारिता क तत्त्व इस अनाहत चक्र
से ही उद्भूत होते हैं
कण्ठ में विशुद्ध चक्र है । इसमें
बहिरंग स्वच्छता और अंतरंग
पवित्रता के तत्त्व रहते हैं । दोष
व दुर्गुणों के निराकरण की प्रेरणा
और तदनुरूप संघर्ष क्षमता यहीं से
उत्पन्न होती है । शरीरशास्त्र में
थाइराइड ग्रंथि और उससे स्रवित
होने वाले हार्मोन के
संतुलन-असंतुलन से उत्पन्न
लाभ-हानि की चर्चा की जाती है ।
अध्यात्मशास्त्र द्वारा
प्रतिपादित विशुद्ध चक्र का स्थान
तो यहीं है, पर वह होता सूक्ष्म शरीर
में है । उसमें अतीन्द्रिय
क्षमताओं के आधार विद्यमान हैं ।
लघु मस्तिष्क सिर के पिछले भाग में
है । अचेतन की विशिष्ट क्षमताएँ उसी
स्थान पर मानी जाती हैं ।
मेरुदण्ड में कंठ की सीध पर अवस्थित
विशुद्ध चक्र इस चित्त संस्थान को
प्रभावित करता है । तदनुसार चेतना
की अति महत्वपूर्ण परतों पर
नियंत्रण करने और विकसित एवं
परिष्कृत कर सकने सूत्र हाथ में आ
जाते हैं । नादयोग के माध्यम से
दिव्य श्रवण जैसी कितनी ही
परोक्षानुभूतियाँ विकसित होने
लगती हैं ।
सहस्रार की मस्तिष्क के मध्य भाग
में है । शरीर संरचना में इस स्थान
पर अनेक महत्वपूर्ण ग्रंथियों से
सम्बन्ध रैटिकुलर एक्टिवेटिंग
सिस्टम का अस्तित्व है । वहाँ से
जैवीय विद्युत का स्वयंभू प्रवाह
उभरता है । वे धाराएँ मस्तिष्क के
अगणित केन्द्रों की ओर दौड़ती हैं ।
इसमें से छोटी-छोटी चिनगारियाँ
तरंगों के रूप में उड़ती रहती हैं ।
उनकी संख्या की सही गणना तो नहीं हो
सकती, पर वे हैं हजारों । इसलिए हजार
या हजारों का उद्बोधक 'सहस्रार'
शब्द प्रयोग में लाया जाता है ।
सहस्रार चक्र का नामकरण इसी आधार पर
हुआ है सहस्र फन वाले शेषनाग की
परिकल्पना का यही आधार है ।
--------------------------------मनुष्य शरीर स्थित
कुंडलिनी शक्ति में जो चक्र स्थित
होते हैं उनकी संख्या कहीं छ: तो
कहीं सात बताई गई है। इन चक्रों के
विषय में अत्यंत महत्वपूर्ण एवं
गोपनीय जानकारी यहां दी गई है। यह
जानकारी शास्त्रीय, प्रामाणिक एवं
तथ्यात्मक है-
(1) मूलाधार चक्र- गुदा और लिंग के
बीच चार पंखुरियों वाला 'आधार चक्र'
है । आधार चक्र का ही
एक दूसरा नाम मूलाधार चक्र भी है।
वहाँ वीरता और आनन्द भाव का निवास
है ।
(2) स्वाधिष्ठान चक्र- इसके बाद
स्वाधिष्ठान चक्र लिंग मूल में है ।
उसकी छ: पंखुरियाँ हैं । इसके
जाग्रत
होने पर क्रूरता,गर्व, आलस्य,
प्रमाद, अवज्ञा, अविश्वास आदि
दुर्गणों का नाश होता है ।
(3)मणिपूर चक्र- नाभि में दस दल वाला
मणिचूर चक्र है । यह प्रसुप्त पड़ा
रहे तो तृष्णा, ईष्र्या, चुगली,
लज्जा, भय,
घृणा, मोह, आदि कषाय-कल्मष मन में
लड़ जमाये पड़े रहते हैं ।
(4) अनाहत चक्र- हृदय स्थान में अनाहत
चक्र है । यह बारह पंखरियों वाला है
। यह सोता रहे तो लिप्सा,
कपट, तोड़ -फोड़, कुतर्क, चिन्ता,
मोह, दम्भ, अविवेक अहंकार से भरा
रहेगा । जागरण होने पर यह
सब दुर्गुण हट जायेंगे ।
(5) विशुद्धख्य चक्र- कण्ठ में
विशुद्धख्य चक्र यह सरस्वती का
स्थान है । यह सोलह पंखुरियों वाला
है।
यहाँ सोलह कलाएँ सोलह विभूतियाँ
विद्यमान है
(6) आज्ञाचक्र- भू्रमध्य में आज्ञा
चक्र है, यहाँ '?' उद्गीय, हूँ, फट, विषद,
स्वधा स्वहा, सप्त स्वर आदि का
निवास है । इस आज्ञा चक्र का
जागरण होने से यह सभी शक्तियाँ जाग
पड़ती हैं ।
(७)सहस्रार चक्र-सहस्रार की स्थिति
मस्तिष्क के मध्य भाग में है । शरीर
संरचना में इस स्थान पर अनेक
महत्वपूर्ण ग्रंथियों से
सम्बन्ध रैटिकुलर एक्टिवेटिंग
सिस्टम का अस्तित्व है । वहाँ से
जैवीय विद्युत का
स्वयंभू प्रवाह उभरता है ।
मनुष्य शरीर स्थित कुंडलिनी शक्ति
में जो चक्र स्थित होते
हैं उनकी संख्या कहीं छ: तो कहीं सात
बताई गई है। इन'
चक्रों के विषय में अत्यंत
महत्वपूर्ण एवं गोपनीय
जानकारी यहां दी गई है। यह जानकारी
शास्त्रीय, प्रामाणिक
एवं तथ्यात्मक है-
(1) मूलाधार चक्र -
गुदा और लिंग के बीच चार पंखुरियों
वाला 'आधार चक्र' है । आधार चक्र का
ही एक दूसरा नाम मूलाधार चक्र भी
है। वहाँ वीरता और आनन्द भाव का
निवास है ।
(2) स्वाधिष्ठान चक्र -
इसके बाद स्वाधिष्ठान चक्र लिंग
मूल में है । उसकी छ: पंखुरियाँ हैं ।
इसके जाग्रत होने पर क्रूरता,गर्व,
आलस्य, प्रमाद, अवज्ञा, अविश्वास
आदि दुर्गणों का नाश होता है ।
(3) मणिपूर चक्र -
नाभि में दस दल वाला मणिचूर चक्र है
। यह प्रसुप्त पड़ा रहे तो तृष्णा,
ईष्र्या, चुगली, लज्जा, भय, घृणा, मोह,
आदि कषाय-कल्मष मन में लड़ जमाये
पड़े रहते हैं ।
(4) अनाहत चक्र -
हृदय स्थान में अनाहत चक्र है । यह
बारह पंखरियों वाला है । यह सोता
रहे तो लिप्सा, कपट, तोड़ -फोड़,
कुतर्क, चिन्ता, मोह, दम्भ, अविवेक
अहंकार से भरा रहेगा । जागरण होने
पर यह सब दुर्गुण हट जायेंगे ।
(5) विशुद्धख्य चक्र -
कण्ठ में विशुद्धख्य चक्र यह
सरस्वती का स्थान है । यह सोलह
पंखुरियों वाला है। यहाँ सोलह
कलाएँ सोलह विभूतियाँ विद्यमान है
(6) आज्ञाचक्र -
भू्रमध्य में आज्ञा चक्र है, यहाँ '?'
उद्गीय, हूँ, फट, विषद, स्वधा स्वहा,
सप्त स्वर आदि का निवास है । इस
आज्ञा चक्र का जागरण होने से यह सभी
शक्तियाँ जाग पड़ती हैं ।
(7) सहस्रार चक्र -
सहस्रार की स्थिति मस्तिष्क के
मध्य भाग में है । शरीर संरचना में
इस स्थान पर अनेक महत्वपूर्ण
ग्रंथियों से सम्बन्ध रैटिकुलर
एक्टिवेटिंग सिस्टम का अस्तित्व
है । वहाँ से जैवीय विद्युत का
स्वयंभू प्रवाह उभरता है ।
कुण्डलिनी जागरण: विधि और विज्ञान
कुंडलिनी जागरण का अर्थ है मनुष्य
को प्राप्त महानशक्ति को जाग्रत
करना। यह शक्ति सभी मनुष्यों में
सुप्त पड़ी रहती है। कुण्डली शक्ति
उस ऊर्जा का नाम है जो हर मनुष्य में
जन्मजात पायी जाती है। यह शक्ति
बिना किसी भेदभाव के हर मनुष्य को
प्राप्त है। इसे जगाने के लिए
प्रयास या साधना
करनी पड़ती है। जिस प्रकार एक
नन्हें से बीज में वृक्ष बनने की
शक्ति या क्षमता होती है। ठीक इसी
प्रकार मनुष्य में महान बनने की,
सर्वसमर्थ बनने की एवं शक्तिशाली
बनने की क्षमता होती है। कुंडली
जागरण के लिए साधक को शारीरिक,
मानसिक एवं आत्मिक स्तर पर साधना या
प्रयास पुरुषार्थ करना पड़ता है।
जप, तप, व्रत-उपवास, पूजा-पाठ, योग आदि
के माध्यम से साधक अपनी शारीरिक एवं
मानसिक, अशुद्धियों, कमियों और
बुराइयों को दूर कर सोई पड़ी
शक्तियों को जगाता है। अत: हम कह
सकते हैं कि विभिन्न उपायों से अपनी
अज्ञात, गुप्त एवं सोई पड़ी
शक्तियों का जागरण ही कुंडली जागरण
है। योग और अध्यात्म की भाषा में इस
कुंडलीनी शक्ति का निवास रीढ़ की
हड्डी के समानांतर स्थित छ: चक्रों
में माना गया है। कुण्डलिनी की
शक्ति के मूल तक पहुंचने के मार्ग
में छ: फाटक है अथवा कह सकते हैं कि छ:
ताले लगे हुए है। यह फाटक या ताले
खोलकर ही कोई जीव उन शक्ति केंद्रों
तक पहुंच सकता है। इन छ: अवरोधों को
आध्यात्मिक भाषा में षट्-चक्र कहते
हैं। ये चक्र क्रमश: इस प्रकार है:
मूलधार चक्र, स्वाधिष्ठान चक्र,
मणिपुर चक्र, अनाहत चक्र,
विशुद्धाख्य चक्र, आज्ञाचक्र।
साधक क्रमश: एक-एक चक्र को जाग्रत
करते हुए। अंतिम आज्ञाचक्र तक
पहुंचता है। मूलाधार चक्र से
प्रारंभ होकर आज्ञाचक्र तक की
सफलतम यात्रा ही कुण्डलिनी जागरण
कहलाता है।
-----------------------------------------------
कुण्डलिनी के षटचक्र ओर उनका
वेधन
अखिल विश्व गायत्री परिवार
सांस्कृतिक धरोहर गायत्री
महाविद्या सावित्री कुण्डलिनी
एवं तंत्र कुण्डलिनी में षठ चक्र
और उनका भेदन
सुषुप्तिरत्र तृष्णा
स्यादीष्र्या पिशुनता तथा॥
(१) गुदा और लिंग के बीच चार
पंखुरियों वाला 'आधार चक्र' है ।
वहाँ वीरता और आनन्द भाव का निवास
है ।
(२) इसके बाद स्वाधिष्ठान चक्र लिंग
मूल में है । उसकी छः पंखुरियाँ हैं
। इसके जाग्रत होने पर क्रूरता,
गर्व, आलस्य, प्रमाद, अवज्ञा,
अविश्वास आदि दुर्गणों का नाश होता
है ।
(३) नाभि में दस दल वाला मणिचूर चक्र
है । यह प्रसुप्त पड़ा रहे तो
तृष्णा, ईर्ष्या, चुगली, लज्जा, भय,
घृणा, मोह, आदि कषाय-कल्मष मन में लड़
जमाये पड़े रहते हैं
(४) हृदय स्थान में अनाहत चक्र है ।
यह बारह पंखरियों वाला है । यह सोता
रहे तो लिप्सा, कपट, तोड़-फोड़,
कुतर्क, चिन्ता, मोह, दम्भ, अविवेक
अहंकार से भरा रहेगा । जागरण होने
पर यह सब दुर्गुण हट जायेंगे ।
(५) कण्ठ में विशुद्धख्य चक्र यह
सरस्वती का स्थान है । यह सोलह
पंखुरियों वाला है । यहाँ सोलह
कलाएँ सोलह विभतियाँ विद्यमान है
(६) भू्रमध्य में आज्ञा चक्र है, यहाँ
'ॐ' उद्गीय, हूँ, फट, विषद, स्वधा
स्वहा, सप्त स्वर आदि का निवास है ।
इस आज्ञा चक्र का जागरण होने से यह
सभी शक्तियाँ जाग पड़ती हैं ।
***श्री हडसन ने अपनी पुस्तक 'साइन्स
आव सीयर-शिप' में अपना मत व्यक्त
किया है । प्रत्यक्ष शरीर में
चक्रों की उपस्थिति का परिचय तंतु
गुच्छकों के रूप में देखा जा सकता
है । अन्तः दर्शियों का अनुभव
इन्हें सूक्ष्म शरीर में उपस्थिति
दिव्य शक्तियों का केन्द्र
संस्थान बताया है । ***
कुण्डलिनी के बारे में उनके
पर्यवेक्षण का निष्कर्ष है कि वह एक
व्यापक चेतना शक्ति है । मनुष्य के
मूलाधार चक्र में उसका सम्पर्क
तंतु है जो व्यक्ति सत्ता को विश्व
सत्ता के साथ जोड़ता है । कुण्डलिनी
जागरण से चक्र संस्थानों में
जागृति उत्पन्न होती है । उसके
फलस्वरूप पारभौतिक (सुपर फिजीकल) और
भौतिक (फिजीकल) के बीच आदान-प्रदान
का द्वार खुलता है । यही है वह
स्थिति जिसके सहारे मानवी सत्ता
में अन्तर्हित दिव्य शक्तियों का
जागरण सम्भव हो सकता है ।
चक्रों की जागृति मनुष्य के गुण,
कर्म, स्वभाव को प्रभावित करती है ।
स्वाधिष्ठान की जागृति से मनुष्य
अपने में नव शक्ति का संचार हुआ
अनुभव करता है उसे बलिष्ठता बढ़ती
प्रतीत होती है । श्रम में उत्साह
और गति में स्फूर्ति की अभिवृद्धि
का आभास मिलता है । मणिपूर चक्र से
साहस और उत्साह की मात्रा बढ़ जाती
है । संकल्प दृढ़ होते हैं और
पराक्रम करने के हौसले उठते हैं ।
मनोविकार स्वयंमेव घटते हैं और
परमार्थ प्रयोजनों में अपेक्षाकृत
अधिक रस मिलने लगता है ।
अनाहत चक्र की महिमा हिन्दुओं से भी
अधिक ईसाई धर्म के योगी बताते हैं ।
हृदय स्थान पर गुलाब से फूल की
भावना करते हैं और उसे महाप्रभु ईसा
का प्रतीक 'आईचीन' कनक कमल मानते हैं
। भारतीय योगियों की दृष्टि से यह
भाव संस्थान है । कलात्मक
उमंगें-रसानुभुति एवं कोमल
संवेदनाओं का उत्पादक स्रोत यही है
। बुद्धि की वह परत जिसे विवेकशीलता
कहते हैं । आत्मीयता का विस्तार
सहानुभूति एवं उदार सेवा
सहाकारिता क तत्त्व इस अनाहत चक्र
से ही उद्भूत होते हैं
कण्ठ में विशुद्ध चक्र है । इसमें
बहिरंग स्वच्छता और अंतरंग
पवित्रता के तत्त्व रहते हैं । दोष
व दुर्गुणों के निराकरण की प्रेरणा
और तदनुरूप संघर्ष क्षमता यहीं से
उत्पन्न होती है । शरीरशास्त्र में
थाइराइड ग्रंथि और उससे स्रवित
होने वाले हार्मोन के
संतुलन-असंतुलन से उत्पन्न
लाभ-हानि की चर्चा की जाती है ।
अध्यात्मशास्त्र द्वारा
प्रतिपादित विशुद्ध चक्र का स्थान
तो यहीं है, पर वह होता सूक्ष्म शरीर
में है । उसमें अतीन्द्रिय
क्षमताओं के आधार विद्यमान हैं ।
लघु मस्तिष्क सिर के पिछले भाग में
है । अचेतन की विशिष्ट क्षमताएँ उसी
स्थान पर मानी जाती हैं ।
मेरुदण्ड में कंठ की सीध पर अवस्थित
विशुद्ध चक्र इस चित्त संस्थान को
प्रभावित करता है । तदनुसार चेतना
की अति महत्वपूर्ण परतों पर
नियंत्रण करने और विकसित एवं
परिष्कृत कर सकने सूत्र हाथ में आ
जाते हैं । नादयोग के माध्यम से
दिव्य श्रवण जैसी कितनी ही
परोक्षानुभूतियाँ विकसित होने
लगती हैं ।
सहस्रार की मस्तिष्क के मध्य भाग
में है । शरीर संरचना में इस स्थान
पर अनेक महत्वपूर्ण ग्रंथियों से
सम्बन्ध रैटिकुलर एक्टिवेटिंग
सिस्टम का अस्तित्व है । वहाँ से
जैवीय विद्युत का स्वयंभू प्रवाह
उभरता है । वे धाराएँ मस्तिष्क के
अगणित केन्द्रों की ओर दौड़ती हैं ।
इसमें से छोटी-छोटी चिनगारियाँ
तरंगों के रूप में उड़ती रहती हैं ।
उनकी संख्या की सही गणना तो नहीं हो
सकती, पर वे हैं हजारों । इसलिए हजार
या हजारों का उद्बोधक 'सहस्रार'
शब्द प्रयोग में लाया जाता है ।
सहस्रार चक्र का नामकरण इसी आधार पर
हुआ है सहस्र फन वाले शेषनाग की
परिकल्पना का यही आधार है ।
--------------------------------मनुष्य शरीर स्थित
कुंडलिनी शक्ति में जो चक्र स्थित
होते हैं उनकी संख्या कहीं छ: तो
कहीं सात बताई गई है। इन चक्रों के
विषय में अत्यंत महत्वपूर्ण एवं
गोपनीय जानकारी यहां दी गई है। यह
जानकारी शास्त्रीय, प्रामाणिक एवं
तथ्यात्मक है-
(1) मूलाधार चक्र- गुदा और लिंग के
बीच चार पंखुरियों वाला 'आधार चक्र'
है । आधार चक्र का ही
एक दूसरा नाम मूलाधार चक्र भी है।
वहाँ वीरता और आनन्द भाव का निवास
है ।
(2) स्वाधिष्ठान चक्र- इसके बाद
स्वाधिष्ठान चक्र लिंग मूल में है ।
उसकी छ: पंखुरियाँ हैं । इसके
जाग्रत
होने पर क्रूरता,गर्व, आलस्य,
प्रमाद, अवज्ञा, अविश्वास आदि
दुर्गणों का नाश होता है ।
(3)मणिपूर चक्र- नाभि में दस दल वाला
मणिचूर चक्र है । यह प्रसुप्त पड़ा
रहे तो तृष्णा, ईष्र्या, चुगली,
लज्जा, भय,
घृणा, मोह, आदि कषाय-कल्मष मन में
लड़ जमाये पड़े रहते हैं ।
(4) अनाहत चक्र- हृदय स्थान में अनाहत
चक्र है । यह बारह पंखरियों वाला है
। यह सोता रहे तो लिप्सा,
कपट, तोड़ -फोड़, कुतर्क, चिन्ता,
मोह, दम्भ, अविवेक अहंकार से भरा
रहेगा । जागरण होने पर यह
सब दुर्गुण हट जायेंगे ।
(5) विशुद्धख्य चक्र- कण्ठ में
विशुद्धख्य चक्र यह सरस्वती का
स्थान है । यह सोलह पंखुरियों वाला
है।
यहाँ सोलह कलाएँ सोलह विभूतियाँ
विद्यमान है
(6) आज्ञाचक्र- भू्रमध्य में आज्ञा
चक्र है, यहाँ '?' उद्गीय, हूँ, फट, विषद,
स्वधा स्वहा, सप्त स्वर आदि का
निवास है । इस आज्ञा चक्र का
जागरण होने से यह सभी शक्तियाँ जाग
पड़ती हैं ।
(७)सहस्रार चक्र-सहस्रार की स्थिति
मस्तिष्क के मध्य भाग में है । शरीर
संरचना में इस स्थान पर अनेक
महत्वपूर्ण ग्रंथियों से
सम्बन्ध रैटिकुलर एक्टिवेटिंग
सिस्टम का अस्तित्व है । वहाँ से
जैवीय विद्युत का
स्वयंभू प्रवाह उभरता है ।
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