भारतीय वांग्मय में विज्ञान कथाएं: पौराणिक सन्दर्भ
दिक वांग्मय, रामायण, महाभारत, पुराणों और श्रीमद्भागवतादि जो चर्चित भारतीय काव्यात्मक रचनाएं हैं, उनमें उल्लेखित विविध आख्यान, कथाएं भारतीय जीवन के संवेग और संकल्प के बिन्दु हैं। यह आख्यान और मनोग्राही विवरण हमारी सांस्कृतिक शाश्वता, निरन्तरता, सतता के ऊर्जा स्त्रोत हैं, भारतीयता की भागीरथी के अक्षुण्ण प्रवाह के कारक हैं। इन विविधवर्णी आख्यानों और कथाओं की मधुमय, अमृतमय शक्ति है कथ्यों एवं तथ्यों का रोचक रूप में मानवीकरण, जिसके परिणाम स्वरूप अतीत की स्मृतियां आज भी जनमानस में रची बसी सुरक्षित हैं।
इन विविध कथाओं में निहित चेतना मूलक इतिहास का प्रभावान अंश अलंकारिक होकर, मिथिक बनकर जनमानस में पैठकर, दुरुह परिस्थितियों में व्यक्ति को जीवन संबल प्रदान करता है, वहीं दूसरी ओर यह अवकाश के क्षणों में हमारा स्वस्थ मनोरंजन करने में सक्षम सिद्ध होता है। इन मिथकों की, कथा की मधुयुक्त नाभि में निहित होता है, वह तथ्य जो सूक्ष्म होते हुए भी, अपना आभास देता है।
जिन कथाओं में यह तथ्य विज्ञान सम्मत है, विज्ञान के ज्ञान का आभास होता है, भविष्य के बिम्ब प्रस्तुत करता है, जिसके कारण यह कथाएं सामान्य कथाओं से भिन्नता प्रदर्शित करती हैं, उनको विज्ञान कथा के नाम से जाना जाता है। इन कथाओं में निहित उस युग की अवधारणानुसार, भविष्य दर्शन का गुण ही उनको विशिष्टता प्रदान करता है तथा यह तथ्य इन कथाओं के सृजनात्मक चिन्तन शक्ति के गुण को भी दर्शाता है।
"वृहत्साम तथा साम्नां गायत्री छन्दसामहम्' (गीता 10/35) हे पार्थ गायन करने योग्य श्रुतियों में मैं वृहत्साम हूं और छन्दों में छन्द गायत्री हूं।" कृष्ण का यह कथन पुरानी वैदिक शब्दावली को विस्तार देता है। संहिता काल और ब्राह्मण और अरण्यक युग के प्रचलित शब्दों को उनके सीमित कर्मकाण्ड युक्त अर्थ को एक मुक्त और व्यापक तात्पर्य देने की प्रचेष्टा ही गीता को सार्वभौम और सार्वकालिक महत्त्व देती है। इसी प्रयास के फलस्वरूप वृहत्साम की मूल प्रवृत्ति गीत-संगीत-काव्य का गुण पाकर विष्णु और उनके अवतार सर्वोच्च हुए। इसी लिए कहा जाता है कि ताक्ष्र्य या सुपर्ण विष्णु के साम का वाहन हैं। विष्णु ताक्ष्र्य-सुपर्ण जो कालान्तर में गरुड़ हो गया, उस पर आसीन होकर चलते हैं तो हवा को चीरते हुए गरुड़ के दोनों पंखों की ध्वनि 'रथन्तर' और 'वृहत' सामों की अनगूंज रचती चलती है। काव्य और संगीत विष्णु के वाहन हैं। वही वैदिक अवधारणा काव्य रूप का विस्तार करती पुराणों की कथाओं को जन्म देती है तथा पुराणों को काव्यात्मक सौन्दर्य प्रदान करती है। इसी कारण पुराण भी वेद मन्त्रों की भान्ति गेय रहे हैं तथ्यत: सामवेद, ऋग्वेद एवं यजुर्वेदीय मन्त्रों से युक्त है। काव्य छन्दों में रचित यह पुराकालीन कथाएं वेद से विस्तृत होकर पुराणों में बिखरी हैं तथा इन कथाओं में निहित विज्ञान सम्मत तथ्यों की खोज चिन्तन परक कार्य है। सम्भवत: यही मुख्य कारण था कि पुराणों में निहित इन पुरा कथाओं पर, इतिहासविदों और साहित्यकारों की दृष्टि पड़ी, उन्होंने इनका अनुशीलन किया परन्तु वैज्ञानिकों ने उन पर दृष्टिपात नहीं किया।
यह सर्व विदित तथ्य है कि 18 पुराणों में पद्मपुराण सर्वश्रेष्ठ पुराण है। यह तथ्य इन श्लोकों से स्पष्ट हो जाता है-
मात्सयं, कौर्मि तथा लैंग शैंव स्कन्दं तथैव च।
आग्नेयं च षडेतानि तामसानि निबोधत।।
वैष्णवं नारदीयं च तथा भागवतं शुभम्।
गरुड़ं च तथा पाद्यं वाराहम् शुभ दर्शने।।
सात्विकानि पुराणानि विज्ञेयानि शुभानि वै।
ब्रह्माण्डं ब्रह्मवैवर्त मार्कण्डेयं तथैव च।
भविष्यं वामनं ब्राह्मं राजसानि निबोधते।।
पुराण केवल भक्ति तत्व का ही नहीं उनकी सब आख्यायिकाओं का मूल, श्रुतियों में भी देखा जा सकता है। इसके कई उदाहरण दिये जा सकते हैं।
पुराणों में गिरिजाकुमारी के उमा के रूप में जन्म लेने की बात आती है। केनोपनिषद में भी ब्रह्मविद्या का हेमवती उमा के रूप में प्रकट होना चर्चित है- "स तिस्मन्नेनकाशे स्त्रियमाजगाम बहुशोभमाना युमाम् हैमवतीम" (केनोपनिषद, 3,12) इसी प्रकार पुराणों में वामन अवतार की चर्चा है, और ऋग्वेद में भी विष्णुतीन पादप्रक्षेप में अपने आश्रित जनों पर अनुग्रह करते हैं- "यस्यत्री पूर्णा मधुना पादान्यक्षीय माणा स्वधाया मदंन्ति। (ऋ.सं.1/21/4) तथा पुराणोक्त महावाराह की कथा वेदों में विद्यमान है- स वाराह रूपं कृत्वा- उपन्यमज्जत स पृथ्वीमध्य आच्दति। (तैतरीय ब्राह्मण) छन्दोग्योपनिषद में 'कृष्णाय देवकी पुत्राय' का उद्घोष है। इसी प्रकार कृष्ण और गोपिकाएं भी वैदिक अलंकारिक भाषा, में सूर्य की किरणों का सविता की रिश्मयों का मूर्त रूप हैं जोकि हिन्दी भाषा एवं साहित्य के प्रसिद्ध समीक्षक डॉ. विश्वम्भरनाथ उपाध्याय के शब्दों "वाममार्ग के बढ़ते प्रभाव को परवर्ती पुराणों में प्रकारान्तर से स्वीकार कर लिया। विशेष रूप से श्रीमद्भागवत, ब्रह्मवैवर्त पुराण आदि में कृष्ण के साथ गोपी-रतिविहार का समूचा पैटर्न तान्त्रिक है (मध्यकालीन हिन्दी काव्य में तान्त्रिक पृष्ठभूमि, पृ. 42), तथा सीरध्वज जनक (सीर अर्थात हल) जो पृथ्वी को जोतता है, सीता अर्थात धान्य लक्ष्मी को प्राप्त करता है, का पिता है। यही सीता कालान्तर में, विष्णु-साम गायन परम्परा में परिवर्तित होकर राम की अधा±गिनी बन लोक मानस में प्रविष्ट हो गई।
इसी प्रकार "आयं गौ: पृशिनरक्रममीदसदन् मातरं पुर:। पितरं च प्रयन्त्स्तव:" (यजुर्वेद 3/6) - जो पृथ्वी सूर्य की परिक्रमा करती है वह पुराणों में स्थिर हो गई और सूर्य गतिशील हो गया। इतना ही नहीं गतिशील पृथ्वी गो बन कर अधर्म से पीड़ित होकर भगवान के पास चली गई। यह अवैज्ञानिक पौराणिक अवधारणा जनमानस में रूढ़ि हो गई और इस यजुर्वेदीय मन्त्र का वैज्ञानिक पक्ष वाष्पित हो गया। इस प्रकार की अनेक अवैज्ञानिक अवधारणाएं पुराणों में यद्यपि विद्यमान हैं परन्तु इसके उपरान्त भी अनेक वैज्ञानिक तथ्य कथारूप में सुरक्षित बचे हुए हैं।
जिन विद्वानों में ऋग्वेद के वृषाकपि सूक्त का अध्ययन किया है, उनका विचार है कि यह सूक्त भारतीय लोककर्म की किसी खोयी हुयी, लुप्त हो गई, श्रंखला के, कड़ी के अंश हैं (ऋग्वेद, 10/86) और इनका रूपान्तर आज के नृ-पशु (आधा मनुष्य और आधा पशु) की आकृति वाले देवता की उपासना में हो गया है। गणपति (गणेश) विष्णु का नृसिंह रूप तथा हनुमान इसी वृषाकपि के आधुनिक प्रतिनिधि हैं। वृषाकपि कोई आदिम आर्य अथवा आर्यतर लोक धर्म का देवता था- उसकी इन्द्र के साथ की मैत्री यह दर्शाती है कि वह आर्य-देवमण्डल में प्रवेश पा रहा था, जो इन्द्र एवं इन्द्राणी के संवाद के रूप में स्पष्ट दिखता है। उदाहरण के लिए इस सूक्त का प्रथम मन्त्र देखिए - "इन्द्र: मैने स्तोताओं से सोम का अभिषव (निष्पडित) करने को कहा था। उन्होंने वृषाकपि की स्तुति की। इन्द्र की नहीं। सोम से प्रवृद्ध होकर इस यज्ञ में वृषाकपि ऐसे सखा होकर सोमपान कर हृष्ट-पुष्ट हुए, तो भी मैं इन्द्र सर्वश्रेष्ठ हूं।"
इन्द्राणी : "हे इन्द्र तुम अत्यन्त गमनशील होकर वृषाकपि के पास जाते हो, तुम सोमपान के लिए नहीं जाते-इन्द्र सर्वश्रेष्ठ है।"
इस प्रकार पुराण वास्तव में हमारी पुरा-वैदिक संस्कृति की सम्वाहक हैं, जिनके द्वारा संरक्षित होकर वैदिक गाथाएं-लोकमानस में आज भी रची-बसी हैं। भारतीय चिन्तन ने विज्ञान के विकास में जो अप्रतिम योगदान दिया है, उसका प्रत्यक्ष प्रमाण हैं यह काव्यात्मक शैली में रचित कथाएं, जो हमारी भविष्य दृष्टा ऋषियों की उर्वर मेघा का परिणाम हैं।
इसी तथ्य की ओर संकेत करते हुए प्रकाण्ड वैदिक विद्वान प्रो. मैक्समूलर ने अपने Biographical essays में लिखा है "To Swami Dayanand everything contained in vedas, was not only perfect truth, but he went one step further and, by their interpretation, succeded in persuading others that every thinq worth knowing even the most recent invenions of modern science were alluded to, in vedas; steam engins, electricity, telegraph and wireless, morco gram were shown to have been known at least in the germs, to the poets of vedas."
प्रख्यात अमेरिकन इन्डालोजिस्ट Mrs. Wheeler Willox ने लिखा है - "We have all hear and read about the ancient relegion of India. It is the land of great vedas the most remarkable work, containing not only relegious ideas or a pertect life, but also facts which all science has since proved true, electricity, radium, electrons, air ships, all seem to be known to Siers, who founded vedas".
वेदों में यह सभी विज्ञान सम्मत तथ्य विविध छन्दों- गायत्री, उष्णित, अनुष्टुप, वृहति, पंक्ति, त्रिष्टुभ एवं जगति के माध्यम से विर्णत हैं। परन्तु पौराणिक संस्कृत वांग्मय में विर्णत विज्ञान कथाओं की चर्चा के पूर्व एक वैदिक राष्ट्रगीत दृष्टव्य है-
आ ब्रह्मा ब्राह्मणों ब्रह्मवर्चसी जागताम।
आ राष्ट्रे राजन्य: इषव्योति ज्योति व्याधी महारथो जायताम।
दोग्ध्री धेनुर्वोदानउवानाशु: सप्ति पुरन्धिर्योषा
विष्णु रथेष्ठा समेयो युवास्य यजमानस्य वीरो जायताम।
निकामें निकामें न: पर्जन्यो वर्षतु फलवत्यो न ओषधाय पच्यन्ताम।
योग क्षेत्रो न: कल्पताम।।
(यजुर्वेद सं. 22/22)
इसका काव्यानुवाद निम्नवत् है-
भारत वर्ष हमारा प्यारा, अखिल विश्व से न्यारा।
सब साधन रहे सम्मुत भगवन! देश हमारा।
हों ब्राह्मण विद्वान राष्ट्र में ब्रह्मतेज व्रतधारी।
महारथी हो शूर धनुर्धर क्षत्रिय लक्ष्य प्रहारी।
गौवें भी अति मधुर दुग्ध की रहें बहाती धारा।।
राष्ट्र के बलवान वृषभ, बोझ उठाएं भारी।
अश्व वायुगामी हो दुर्गम पथ में विचरणकारी।
जिनकी गति लख समीर भी हो लज्जातुर भारी।।
महिलायें हो सती सुन्दरी सद्गुण युक्त सयानी।
रथारूढ़ भारत वीरों की करें विजय अगवानी।
जिनकी गुणगाथा से गुंजित हो दिगन्त यह सारा।।
यज्ञ निरत भारत सुत हों शूर सुकृत अवतारी।
युवक यहां के सौम्य सुशिक्षित बली सरल सुविचारी।
समय-समय पर आवश्यकता वश धन सरस नीर बरसायें।
औषध में लगे प्रचुर फल जो स्वत: पक जायें
योग हमारा क्षेम हमारा स्वत: सिद्ध हो सारा।।
इस यजुर्वेदीय वैदिक उद्घोष को यहां पर देने का उद्देश्य उस तथ्य की ओर युवा पीढ़ी के ध्यान केा आकषिZत करना है जो राष्ट्र की भावना से समय प्रवाह में अपरिचित होती प्राचीन भारतीय संस्कृति को विस्मृति करती, ग्लोबलाइज्ड होती जा रही है।
ऋग्वेद से प्रारम्भ कर विमानों की चर्चा से रामायण, महाभारत अनेक पुराण तथा श्रीमद्भागवत भरे हैं। यह एक सर्वविदित तथ्य है कि इन चर्चाओं की नाभि में विज्ञानमय तथ्य, विद्यमान है जिसके बिम्ब ऋग्वेद में स्पष्ट हैं-
क्रडिं व शर्धो मारुतमनर्वाणं रथे शुभम।..... कण्वा अभिप्रगात।।
"हे मारुत: वायुओं तुम्हारा जो बल है वह हमारी क्रीड़ा का साधन बने, तुम कण्व हो, शब्द करने वाले हो, तुम्हारे बल से रथ- विमान चलते हैं, तुम्हारे बल चलित इन विमानों का कोई प्रतिरोध नहीं कर सकता।"
इसी भान्ति एक अन्य ऋग्वेद का मन्त्र दृष्टव्य है-
युवमेत चक्र थु: सिन्धुव प्लव आत्मन्ते दक्षिण तौरमाय
यन देव मासा निरुहथु: सुवप्तनी पेनथकम क्षोदसो मह:।
(ऋग्वेद 1, 182, 5)
किया स्वाचालित नौका निर्मित, खगसमान उड़नेवाली।
नभ में, सागर में दोनों में, सदृश गमन करने वाली।।
हो करके आरुढ़ उसी पर, नभ से सागर में आये।
तुग्र पुत्र जो भुज्यु भक्त था, व्याकुल उसके प्राण बचाये।।
(डॉ. देवीसहाय पाण्डेय 'दीप')
अब इस आलेख में कुछ चयनित विज्ञानकथाओं की चर्चा करना समीचीन होगा। हम सभी रिमोट चालित ड्रोनोंं रडारों की पहुंच से बाहर रहकर बच निकलने वाले वायुयानों से लम्बी दूरी तक उड़ने वाले तथा वायुमध्य में रिफयूलिंग करने वाले वायुयानों से हम परिचित हैं। ध्वनि की गति से तेज चलने वाले विमानों की चर्चा से अपरिचित कोई नहीं है। मानव प्रौद्योगिकी के माध्यम से इन विमानों को लगातार विकसित कर नया रूप-देने में प्रयासरत है और आशा है कि कोई साईबोंग मनचालित-पुष्पक और सौभ की भान्ति के विमानों का नियन्त्रण भी निकट भविष्य में कर सकेगा, जिनकी चर्चा रामायण और श्रीमद्भागवत आदि ग्रन्थों में है।
पुष्पक-विमान : महर्षी वाल्मीकि के कथनानुसार पुष्पक विमान का प्रत्येक भाग स्वर्ण जड़ित था, जिससे उसकी विचित्र शोभा होती थी। उसमें वैदूर्य मणि की वेदियां थी, उसमें गुप्त कक्ष थे जो चान्दी की भान्ति चमकीले थे। उस पर श्वेतपीत पताकाएं लगी थीं और उसके कंगूरे स्वर्ण सम आभावान थे। सारा विमान छोटी-छोटी घंटियों से, मणियों से सज्जित था। यह विश्व कर्मा रचित विमान मन के समान वेग वाला था। वह सर्वत्र जा सकता था, उसकी गति कहीं रुकती नहीं थी। इस विमान को देखकर भगवान श्रीराम को बड़ा विस्मय हुआ।
तत् पुष्पकं कामगमं विमान मयस्थितं भूधर संनिकाशम्।
दृष्टा तथा विस्मयमाजगाम राम: स सौमित्ररूदए सत्त्व।।
-वाल्मीकि रामायण,
सुं. एवंविशत्माचि शतम्: सर्ग: 20
मनचालित विमान-सौभ: श्रीमद्भागवत के अनुसार शाल्व जिसके पास सौभ नामक विमान था, शिशुपाल का मित्र था और रूक्मणी के स्वयंवर में- शिशुपाल के साथ आया था। कृष्ण के अनुयायी यदुवंशियों ने युद्ध में मगधराज जरासंध के साथ शाल्व को भी पराजित किया था। सभी के सम्मुख उसी समय शाल्व ने प्रतिज्ञा की थी कि मैं धरती से यदुवंशियों को नष्ट कर दूंगा। सभी लोग उस समय मेरे बल पौरुष की सराहना करेंगे। यह कह कर शाल्व, भगवान शंकर की उपासना करने हिमालय पर चला गया। उसकी भीषण तपस्या से प्रसन्न् होकर देवाधिपति शंकर ने उससे वर मांगने को कहा-
शाल्व ने भगवान आशुतोष से कहा "हे प्रभो! आप मुझे एक ऐसा विमान दीजिये जो देवता, असुर, मनुष्य, नाग, गंधर्व और राक्षसों द्वारा तोड़ा न जा सके, जहां मेरे मन में जाने की इच्छा हो वह चला जाय और यदुवंशियों के लिए अति भयंकर हो।" भगवान शंकर ने शाल्व दानव को सौभ नामक लोहे का विमान बनाने का आदेश दिया और उसे शाल्व को देते हुए आशीर्वाद दिया। शाल्व ने उस विमान को ध्यान से देखा। वह विमान क्या एक नगर ही था। वह इतना अंधकारमय था कि उसे देखना अथवा पकड़ना कठिन था। चलाने वाला उसे जहां ले जाना चाहता, वहीं वह उसके इच्छा करते ही चला जाता।
शाल्व ने यह विमान प्राप्त करके द्वारका पर चढ़ाई कर दी, क्योंकि वह कृष्णवंशी यादवों द्वारा किये गये वैर को सदास्मरण रखता था-
तथेति गिरिशादिष्टो मय: पुर पुरजंय:।
पुरं निर्माय शाल्वाय प्रादात्सौभयस्मयम्।।
स लब्धा कामगं यानं तमोधाम दुरासदम।
ययौ द्वारवती शाल्वो वैरं वृष्णि कृंत स्मरम।।
श्रीमद्भागवत् दशम स्कन्ध, 9, 8
अपनी सेना लेकर उस यदुवंश विरोधी शाल्व ने द्वारिका को चारों ओर से घेर लिया और उसी विमान में बैठकर वह सेना का संचालन भी करता और युद्ध भी। उसने फल-फूलों से, वृक्षों से सुशोभित द्वारिका के उद्यानों, नगर, द्वारों, भवनों आदि को नष्ट कर दिया। शाल्व ने विमान में बैठ कर श्रेष्ठ अस्त्रों की वर्षा शुरू कर दी। द्वारिकावासी उसके इस आक्रमण से घबरा उठे।
श्री कृष्ण उन दिनों युधिष्ठर के राजसूय यज्ञ में भाग लेने इन्द्रप्रस्थ गये थे, अत: नगर और नगरवासियों की सुरक्षा का भार कृष्ण पुत्र प्रद्युम्न पर था। सत्ताइस दिनों के इस युद्ध में शाल्व की सेना को प्रद्युम्न ने नष्ट कर दिया था। युद्ध की सूचना प्राप्त कर श्रीकृष्ण तुरन्त बलराम के साथ द्वारिका आ गये।
श्री कृष्ण को देखकर शाल्व ने कहा "हे कृष्ण! तूने हम लोगों के सामने ही हमारे बन्धु, मित्र शिशुपाल की पत्नी को हर लिया तथा युधिष्ठर के राजसूय यज्ञ में तूने असावधान शिशुपाल का वध कर दिया था। तू अपने को अजेय मानता है परन्तु आज मैं तुम्हें तीखे वाणों से मार डालूंगा। श्री कृष्ण ने शाल्व को उत्तर दिया कि शूरवीर बकवाद नहीं करते और यह कहते हुए श्री कृष्ण ने उसके विमान को तीक्ष्ण बाणों से छेद डाला। क्रोधित शाल्व ने एक बाण श्री कृष्ण की दाहिनी भुजा में मारा। श्रीकृष्ण का शार्गं धनुष गिर गया। उन्होंने इसकी परवाह न करते हुए अपनी गदा से शाल्व के जत्रुस्थान-हंसली पर प्रहार किया। रक्तवमन करता शाल्व गिर पड़ा। श्री कृष्ण की गदा के बारम्बार प्रहार करने से शाल्व का विमान दूट गया और वह उठ कर श्रीकृष्ण पर झपटा। श्री कृष्ण ने भल्ल नामक बाण से उसकी गदा उठाये भुजा को काट दिया और फिर चक्र द्वारा उसके किरीट-कुण्डल युक्त मस्तक को भी काट दिया। यादव वीरों ने शाल्व के शेष सैनिकों को मारकर युद्ध जीत लिया।
इस प्रकार शाल्व के साथ उसके मनचालित विमान-सौभ का विनाश हो गया।
त्रिपुर : अन्तरिक्ष में तीन नगर
मय दानव के शिल्प कर्म से जुड़ी हुई अनेक कथाएं हैं और उससे भी अधिक चकित कर देने वाला तथ्य है संयुक्त राज्य अमेरिका के दक्षिण में स्थित मैक्सिको नामक राज्य, उसके आदिवासी तथा उन्हीं से समानता रखते दक्षिणी अमेरिका के वासी मय जाति के लोग। क्या मय दानव, जिसकी चर्चा पुराणों में बारंबार आती है और दक्षिणी अमेरिका के वासियों-मय जाति के लोगों में कुछ साम्य हैर्षोर्षो शोधकर्ताओं के अनुसार मय-सभ्यता अतिविकसित सभ्यता थी और वे बहुत अंशों तक भारतीय सभ्यता से प्रभावित भी थें उत्खनन में प्राप्त विविध मूतियां, गणेश, कनफटे योगियों, शिव की प्रतिमाएं जिस तथ्य की ओर संकेत करती हैं, वह है वहां पर (दक्षिणी अमेरिकी क्षेत्र में) भारतीय संस्कृति का प्रभाव।
पुराणोक्त मय दानव के शिल्प लाघव को निम्नलिखित कथा प्रतिबिंबित ही नहीं करती वरन् यह वैज्ञानिक कथा भविष्य में विकसित होने वाली अन्तरिक्ष बस्तियों, आवासों, होटलों आदि की पूर्वागामी है।
देवताओं और दानवों में, प्राचीन काल में युद्ध हुआ करते थे। दानवराज मय ने माया-युद्ध का प्रयोग किया परन्तु देवताओं की युद्ध कुशलता के कारण दानव हार गए। मय दानव बहुत दुखी हुआ, वह हिमालय पर तपस्या करने चला गया। यह देखकर उसके सहयोगी विद्युन्माली और तारक भी तपस्या करने लगे। समय बीतता रहा, ऋतु परिवर्तन-चक्र चलता रहा, उसका कुछ प्रभाव इन दानवों पर नहीं पड़ा वे तपस्या में अडिग रहे। उनकी इस भीषण तपस्या से प्रभावित होकर ब्रह्मा जी ने उन्हें दर्शन दिए और कहा," तुम्हारा कठोर तप देखकर मैं प्रसन्न् हूं, तुम लोगों को वर देने आया हूं।" मय दानव ने कहा, "पितामह! पिछले युद्ध में हम हार गए थे और देवता हमारा विनाश करने पर तुले हैं। हम पृथ्वी पर नहीं रहना चाहते। आप हमें वरदान दें कि हम पृथ्वी से दूर अन्तरिक्ष में नगर बसा लें।"
उसकी बात सुनकर ब्रह्मा जी मुस्कराए। उसका कपट वे समझ गए और बोले, "मैं तुमको अमर नहीं कर सकता?"
इस पर मय दानव ने विनम्रतापूर्ण स्वर में कहा, "पितामह, आप ठीक कहते हैं, आप मुझे अमर न करें पर युद्ध से छुटकारा पाने का एकमात्र मार्ग यही है।"
ब्रह्मा जी ने सोचा, यदि वे दानवगण दूर रहें तो सब तरफ सुख-संपन्न्ता रहेगी। लड़ाई भी नहीं होगी, और फिर मय दानव से कहने लगे, " तुम तीनों अन्तरिक्ष में अपने नगर बसा लो, उनका नाश एक बाण मात्र द्वारा शंकर जी ही कर सकेंगे। कोई और तुम्हारा अहित नहीं कर सकेगा।"
यह वरदान पाकर मय दानव अति प्रसन्न् हुआ। वह अतिकुशल शिल्पी था, वैज्ञानिक था। उसने सोचा कि मैं ऐसा अन्तरिक्ष नगर बनाउंगा, जो अजेय हो, कोई उसको भेद न सके। तीनों पुरों को एक बाण से बींधना पूर्णत: असम्भव होगा।
मय ने तीन नगरों का निर्माण प्रारंभ किया। उनमें वे सभी सुविधाएं थीं जो पृथ्वी के नगर में सुनी और सोची जा सकती थीं। बहुमंजिले भवन, सड़कें, बाजार, झीलें, तालाब, उद्यान और जीवनयापन की सुविधा के लिए सभी सामिग्रयां वहां उपलब्ध थीं। उनमें विभिन्न् प्रजाति के वृक्ष, लताएं तथ पशु-पक्षी भी थे। उन नगरों में छोटे-छोटे विमान भी थे और उन नगरों के परकोटों को इस प्रकार बनाया गया था कि वे पूर्णरूपेण अभेद्य थे।
मय दानव ने मित्र तारक को 'अयसपुर' का दायित्व देकर उसे अन्तरिक्ष में स्थापित कर दिया। उस लौह-पुर (अयसपुर) में हजारों की संख्या में दानवगण भी थे। रजतपुर, जो चांदी की भांति चमकता था, मय दानव ने अपने सहयोगी विद्युन्माली को दिया। उस नगर में विद्युन्माली के बंधु-बांधव हजारों की संख्या में उपस्थित थे। उसको भी अन्तरिक्ष में स्थापित कर दिया गया।
सुवर्ण की भांति पीत आभा बिखेरता तथा अन्तरिक्ष में गतिमान-नगर में मय दानव स्वयं अपने सगे-सम्बंधियों के साथ था। वे सभी प्रसन्न् थे और आमोद-प्रमोद में व्यस्त थे। पृथ्वी से तारे की भांति दिखते ये तीनों नगर अन्तरिक्ष में सौ योजन की दूरी पर घूमते थे।
दैत्यगण उन नगरों में समस्त सुख-सुविधाओं के साथ रहते थे। परन्तु कभी-कभी अपने स्वभाव के कारण वे आपस में युद्ध करने लगते, तो कभी पृथ्वी के मनुष्यों तथा स्वर्ग के देवताओं को खूब कष्ट देते, प्रताड़ित करते। उन्होंने शान्ति से साधना करते ऋषियों आदि को भी बार-बार पीड़ित किया। दैत्यों के इस प्रकार किए जा रहे कुकृत्यों से सभी त्रस्त थे। वे लोग विचार करने लगे कि किस प्रकार इन दुष्टों से छुटकारा पाया जाय।
देवता और मनुष्य पितामह ब्रह्मा जी के पास गए। उन्होंने सारी व्यथा सुनी और कहा, "इस प्रकरण में मात्र शंकर जी ही तुम्हारी सहायता कर सकते हैं।"
दानवों के अत्याचार से त्रस्त देवतागण ने भगवान् शंकर के पास जाकर अपनी व्यथा सुनाई। शंकर ने ध्यान से बातें सुनीं और बोले, "ठीक है, तुम लोग चिन्ता मत करो, मैं विकल्प निकलूंगा, इस समस्या का समाधान खोज लूंगा।" प्रसन्न् चित्त देवतागण लौट आए कई सप्ताह बाद देवताओं और मनुष्यों ने देखा कि भगवान् शंकर का छोड़ा हुआ बाण तेजी से एक पंक्ति में आए उन तीनों पुरों की ओर चला जा रहा है। थोड़ी देर में ऊपर से अन्तरिक्ष में एक सीध में आए उन त्रिपुरों में, तीनों पुरों में भीषण आग लग गई। वे धू-धू कर जल रहे थे और उनमें रहने वाले दानव और अन्य जीव-जन्तु अग्नि में जलकर भस्म हो रहे थे।
कुछ समय बाद स्वर्ग में देवताओं और धरती पर मनुष्यों ने देखा कि मय दानव द्वारा निर्मित तीनों नगर अन्तरिक्ष से गिरकर धरती पर भस्मीभूत हो चुके थे।
विंध्यगिरि-
पृथ्वी अपने विकास की प्रारंभिक अवस्था में बहुत गरम थी। समय के साथ उसका ऊपरी धरातल ठण्डा हुआ पर उसके केन्द्र में हलचलें चलती रहीं। भूगर्भ केंन्द्र के ऊपर विशाल चट्टानें केन्द्र में हो रहे परिवर्तन के कारण दक्षिणी ध्रुव से उत्तरी ध्रुव की ओर खिसकती रहीं, जिसके कारण पृथ्वी की ऊपर सतह पर पर्वत विकसित हुए।
उस पुराकालीन मानव ने आश्चर्य के साथ इन पर्वतों को उत्पé होते और उनकी ऊंचाई में परिवर्तन होते देखा था। कभी-कभी ये पर्वत कुछ दिनों के बाद पृथ्वी में समा जाते थे।
इसका वर्णन ऋग्वेद में मिलता है। इसमें बताया गया है कि इन्द्र ने उड़ते हुए पर्वतों के पंखों को काटकर स्थिर कर दिया। उस काल के आर्यों का नायक इन्द्र कहलाता था। हमारे वेद, पुराण इन्द्र की गाथाओं से भरे हैं। उसी युग की एक घटना विंध्य पर्वतमाला से जुड़ी हुई अब भी हमारे मानस में रची-बसी है।
हम सभी सुमेरु पर्वत के नाम से परिचित हैं। अनुमान से बीस हजार वर्ष पूर्व उत्तरी ध्रुव प्रदेश हिम से ढका हुआ नहीं था और अपने को आर्य कहने वाले वहां से लेकर उत्तरी भारत का भ्रमण करते थे।
आज के आधुनिक रूस के साइबेरिया क्षेत्र में, उस युग में हिमपात कम होने के कारण आवागमन सरल था। इसका सत्यापन महाभारत में विर्णत अर्जुन की उदीच्य यात्रा के विवरणों से, जो उन्होंने अश्वमेध यज्ञ की पूर्ति हेतु की थी, स्पष्ट हो जाता है।1
रूस की इसीकुल झील, जो साइबेरिया की अल्टाई पर्वत श्रंखला से 1800 मील उत्तर की ओर स्थित है, उसी के समीप 5 हजार फीट की ऊंचाई पर बेलूखा झील विद्यमान है। इसी के तट पर 14784 फीट ऊंचा बेलूखा पर्वत है जिसे आज भी अल्टाई भाषा में उच्च-सुमेर कहा जाता है।2
उस प्राचीन काल में हिमालय आज इतना ऊंचा नहीं था। वह क्रमश: बढ़ रहा था परन्तु विंध्यगिरि पर्वतमाला अवश्य दुर्गम थी, जिसको पार कर आर्यगण दक्षिण की ओर जाने हेतु लालायित रहते थे। आप उसकी वृद्धि रोकने की कृपा करें।" अगस्त ऋषि ने देवताओं का अनुरोध सुना और कुछ समय के उपरान्त वे अपनी पत्नी लोपामुद्रा सहित विंध्यगिरि के पास पहुंचे और उसे संबोधित किया, "हे पर्वत प्रवर! मैं सपत्नी किसी कार्यवश दक्षिण जाना चाहता हूं, इसलिए तुम मुझे दक्षिण दिशा में जाने के लिए मार्ग दो। जब तक मैं लौटकर नहीं आता, उस समय तक तुम मेरी प्रतीक्षा करो और हमारे दक्षिण मार्ग से वापस आने के उपरान्त इच्छानुसार बढ़ते रहना।"
विंध्यगिरि महर्षी अगस्त की बात मान गया और बिना अधिक ऊंचा उठे, वह आज भी ऋषि अगस्त और उनकी पत्नी के वापस आने की प्रतीक्षा अचल रूप में कर रहा है। ऐसा लगता है इसी कारण उस गिरि प्रवर को 'विंध्याचल' कहा जाने लगा।
अचल प्रतीक : ध्रुव- प्राचीन भारतीय वैज्ञानिक और गणितज्ञों के ज्ञान तथा यन्त्रों के निर्माण में उनकी दक्षता की चर्चा विश्वविख्यात है। शून्य के आविष्कारक महर्षी गृत्समद, भारतीय संख्याओं का विकास, उनकी गणना की पद्धति, ज्यामिति का विकसित स्वरूप हमें अपने वैदिक साहित्य में देखने को मिलता है। विख्यात वैदिक गणितज्ञों की श्रंखला में अपनी शुल्व सूत्र में विर्णत उस प्रमेय के कारण देदीप्यमान नक्षत्र की भांन्ति आभायुक्त महर्षी बोधायन अमर हैं, जिसे अंग्रेज महाप्रभुओं ने हमें पायथागोरस की प्रमेय का नाम देकर पढ़ाया है।
गणित ज्योतिष में रुचि रखने वाले व्यक्ति जानते हैं। कि ध्रुव नक्षत्र, जो सप्तर्षी मण्डल से सुदूर उत्तर में स्थित है, एक राशि पर तीन हजार वर्षॊ तक रहता है। इस प्रकार 12 राशियों के चक्र को ध्यान में रखते हुए, हमारे पुराणकारों ने कथोपकथन की उज्जवल परम्परा का पालन करते हुए जनमानस में सरलता से इस गणितीय तथ्य को बैठा दिया कि राजा ध्रुव का शासनकाल 36,000 वर्षॊ का होता है।
उन्होंने पुन: गणितीय तथ्योंं का मानवीकरण कर लिखा है कि राजा ध्रुव की पत्नी का नाम भूमि हैं, जिसका एक अर्थ परिक्रमा भी होता है। इसी भूमि नामक पत्नी से राजा ध्रुव के दो पुत्र उत्पन्न हुए, वे हैं-वत्सर और कल्प। यह सर्वविदित तथ्य है कि पृथ्वी सूर्य की परिक्रमा 365 दिनों में पूरी कर लेती है। भूमि की इस गति को वत्सर कहा जाता है। यही अवधि संवत् से होकर संवत्सर बन गई। सूर्य का अपने अक्ष पर धूमकर पुन: उसी स्थान पर आना एक कल्प कहा जाता है, यही राजा धू्रव का दूसरा पुत्र है। यह कथा कथोपकथन के माध्यम से गणितीय ज्ञान का संचार करती अप्रतिम वैज्ञानिक कथा है। राजा ध्रुव की नारद-विष्णु पुराण में विर्णत कथा इस प्रकार है-
स्वयंभुव मनु के प्रियव्रत और उत्तानपाद नामक दो महाबलशाली और नीति-निपुण पुत्र थे। राजा उत्तानपाद की दो रानियां थीं-प्रेयसी सुरुचि और राजमहिषी सुनीति, जिससे राजा उत्तानपाद को कोई विशेष लगाव नहीं था। प्रेयसी सुरुचि से उत्तम तथा सुनीति से ध्रुव नामक पुत्र उत्पन्न हुए।
एक दिन राजसिंहासन पर बैठे पिता उत्तानपाद की गोद में खेलते हुए उत्तम को देखकर बालक ध्रुव ने भी पिता की गोद में बैठने का प्रयास किया। परन्तु प्रेयसी सुरुचि के साथ बैठे राजा ने ध्रुव को गोद में नहीं बैठाया है। ध्रुव की विमाता ने उसे कठोर वचन भी कहे। दुखी होकर ध्रुव अपनी मां के पास चला गया। माता के बार-बार समझाने पर भी बालक ध्रुव ने अपने निश्चय को नहीं बदला। उसने कहा, "मां, मैं, पिता के राजसिंहासन से भी महान सिंहासन एवं पद प्राप्त करना चाहता हूं। मैं अमर होना चाहता हूं। इस कारण मैं राजभवन का त्याग करता हूं" कहकर उस बालक ने गृह त्याग दिया और तपस्या करने लगा।
उसकी घोर तपस्या से प्रसन्न होकर भगवान विष्णु स्वयं प्रकट हुए और उसे समस्त सांसारिक सुखोंं को प्रदान करना चाहा परन्तु दृढ़निश्चयी बालक ध्रुव ने उसे स्वीकार नहीं किया। फिर भगवान विष्णु ने कहा, "ध्रुव! मेरी कृपा से तू नि:सन्देह उस स्थान में, जो त्रिलोक में सबसे उत्कृष्ट हैं, ग्रह और तारामण्डल का आश्रय बनेगा। मैं तुझे ध्रुव-अटल-निश्चल स्थान देता हूं जो सूर्य, चन्द्र, मंंगल, बुध बृहस्पति, शुक्र और शनि आदि ग्रहों, सभी ऩक्षत्रों, समस्त सप्तऋषियों और समस्त विमानचारी देवगणों से ऊपर है। देवताओं में कोई तो चार युग तक और कोई एक मन्वन्तर तक ही रहता है, परन्तु तुम्हें मैं एक कल्प का समय देता हूं" इस प्रकार पूर्वकाल में भगवान विष्णु का वर पाकर ध्रुव इस अति उत्तम स्थान में स्थित हो गए।
राजा त्रिशंकु -
आज हम सभी इस तथ्य से परिचित हैं कि प्रसिद्ध फ्रांसीसी गणितज्ञ लाग रांज ने गति संबन्धी अपनी खोज में दिखाया था कि सूर्य, पृथ्वी और चन्द्रमा के मध्य बनने वाले त्रिकोण में एक ऐसा बिन्दु है जिस पर इन तीनोंं के गुरुत्वाकर्षण का प्रभाव नगण्य हो जाता है। इसे लाग रांज बिन्दु कहते हैं।
यह स्थिति दो पिण्डों के सापेक्ष में भी सत्यापित होती है। चन्द्रमा तथा पृथ्वी के मध्य दो ऐसे बिन्दु हैं, वहां पर यदि किसी अन्य पिण्ड का वेग किसी भांति शून्य कर दिया जाए तो वह पिण्ड सुदीर्घ काल तक उस बिन्दु-क्षेत्र में बना रहेगा। परिणामस्वरूप भविष्य के होटल तथा आज की उपग्रह प्रणलियों इसी क्षेत्र में विचरण करती हैं। यदि भविष्य का भारत-निर्मित अन्तरिक्ष होटल, त्रिशंकु के नाम पर रखा जाए तो भारतीयोंं के लिए यह गौरव का विषय होगा। तथ्यत: बहुत सम्भव है कि प्रसिद्ध भारतीय गणितज्ञ आर्यभट्ट ने अपने गुरुत्वाकर्षण सिद्धान्त के प्रतिपादन के समय इस बिन्दु की, इस क्षेत्र की गणना की हो, खोज की हो जिसका मानवीकरण राजा त्रिशंकु की कथा के कथा के रूप में विकसित हुआ हो।
"हे ब्राह्मण श्रेष्ठ! मैं आपकी शरण में आया हूं। मुझे सशरीर स्वर्ग जाने की इच्छा है" राजा त्रिशंकु ने अपने गुरु वशिष्ठ जी से अनुरोध किया।
"वत्स! यह सम्भव नहीं है। इन्द्र तुम्हें वहां रहने नहीं देगा" वशिष्ठ जी ने राजा त्रिशंकु को समझाया।
"मैं इन्द्र को वहां-स्वर्ग पहुंचने पर युद्ध में परास्त कर दूंगा" राजा त्रिशंकु ने विश्वास सहित अपने गुरु को बताया।
"यह असम्भव है राजन्! इसे तुम स्पष्ट जान लो।" कहकर वशिष्ठ जी उठ गए।
राजा त्रिशंकु विचलित नहीं हुए। वे महर्षी वशिष्ठ प्रतिद्वन्द्वी महर्षी विश्वामित्र के पास इसी अनुरोध के साथ उपस्थित हुए।
"मैं तुम्हें अपने तपोबल के प्रभाव से स्वर्ग भेज दूंगा" विश्वामित्र ने राजा त्रिशंकु को संबोधित किया।
राजा त्रिशंकु स्वर्ग पहुंचे परन्तु इन्द्र ने इन्हें स्वर्ग से नीचे गिरा दिया। महर्षी विश्वमित्र ने नीचे मुखकर गिरते हुए राजा त्रिशंकु को अन्तरिक्ष में स्थिर कर दिया।
मान्यता है कि त्रिशंकु आज भी उसी क्षेत्र में अधीमुख किए स्थित है।
महर्षी च्यवन-
त्रेता युग के प्रारम्भ में महर्षी भृगु प्रजापति थे। उनकी दो पित्नयां थीं। महर्षी च्यवन पैलोमी के पुत्र थे। इनके वार्द्धक्य नाश की कथा `शतपथ ब्राह्मण´ (4/1/5/1-12), `जैमिनीय ब्राह्मण´ और शाट्टायन ब्राह्मण´ में भी विर्णत है। भारतवर्ष के पश्चिम में पुरातन सुराष्ट्र (सौराष्ट्र-वर्तमान गुजरात) में शर्याति नामक राजा था। अपनी कन्या-सुकन्या-का विवाह उसके पिता ने महर्षी च्यवन (जो अति वृद्ध थे) से कर दिया था। वृद्ध च्यवन ऋषि अश्विनद्वय (अश्विनी कुमारों) की चिकित्सा से स्वस्थ होकर यौवन प्राप्त कर सके। चरक संहिता चिकित्सा संस्थान 1/44 में भी इस घटना का उल्लेख है। अश्विनद्वय द्वारा महर्षी च्यवन के यौवन-प्राप्ति हेतु जो औषधि दी गई थी, वह आज भी `च्यवनप्राश´ के नाम से प्रसिद्व है।
अश्विनद्वय द्वारा महर्षी च्यवन को जो अवलेह पुर्नयौवन प्राप्त करने हेतु दिया गया था, सम्भव है, उसमें अन्य औषधियों के साथ पारसागुंबा के समान गुण-धर्म वाली जड़ी, जो हिमालय की ऊंची चोटियोंं पर आज भी सुलभ है, भी प्रयेाग की जाती रही हो। इस जड़ी में पुनयौंवन उद्दीपन की शक्ति है जो आधुनिक विज्ञान की शोध द्वारा सत्यापित की जा चुकी है। इसी कारण यौवन-सुख प्राप्त करने हेतु इसकी तस्करी की जाती है।
महर्षी च्यवन की कथा महाभारत में इस प्रकार विर्णत है:
महर्षी भृगु का च्यवन नामक एक अतीव तेजस्वी पुत्र था। वह एक सरोवर के किनारे तपस्या करने लगा। वह अचल भाव से तपस्या में लीन था। समय के साथ लता-तृणों ने उसे चारों ओर से ढक लिया और कुछ समय बाद दीमकों ने उसके शरीर पर अपना बसेरा बना लिया। दूर से देखने पर वह मिट्टी का पिण्ड लगने लगा।
एक दिन राजा शर्याति अपनी रानियों और सुन्दर भृकुटियों वाली कन्या (जिसका नाम सुकन्या था) के साथ उस सरोवर के पास क्रीड़ा करने आए।
वह कन्या अपनी सहेलियों के साथ विचरण करती हुई महर्षी च्यवन के ऊपर बनी बांबी के पास जा पहुंची। उसे बांबी से महर्षी च्यवन की आंखे गतिमान दिखीं। उस सुकन्या ने कुतूहलवश उन चमकदार आंखों में, यह जानने के लिए कि वह क्या है, एक कांटा चुभो दिया। महर्षी च्यवन की आंखें फूट गई वे कष्ट से क्रोधित हो उठे। उन्होंने श्राप दिया और राजा शर्याति की सेना तथा उनके परिवार का मल-मूत्र त्याग बन्द हो गया।
राजा ने सभी से पूछा कि किसी ने यहां पर कोई अपराध तो नहीं किया हैं? किसी यदि ऐसा हुआ हो तो वह अविलम्ब बता दे। जब सुकन्या ने यह सुना तो उसने अपने पिता को बताया कि घूमते-घूमते वह एक बांबी के पास गई थी। उसमें दो चमकते जुगनुओं की भांति कुछ दिखाई दिया था, उसे मैंने एक कांटे से बेध दिया था। यह सुनकर तत्काल राजा शर्याति उस बांबी को देखने गए।
वृद्ध च्यवन ऋषि उस बांबी को गिराकर उसके ऊपर बैठे थे। उनके नेत्रों से रक्त बह रहा था। राजा शर्याति ने उन्हें देखकर, हाथ जोड़कर विनम्रता से कहा, "भगवान! इस बालिका से अनजाने में यह अपराध हो गया है, आप उसे क्षमा कर हैं।"
क्रोध-भरे स्वर में महर्षी च्यवन ने कहा, "तुम्हारी गर्वीली पुत्री ने मेरी आंखें फोड़ दी है, उसे प्राप्त करने के बाद ही मैं अपने श्राप का निवारण करूंगा।"
राजा शर्याति ने च्यवन की बात मान ली। ऋषि ने प्रसन्न होकर उसके क्लेश का निवारण कर दिया और राजा शर्याति सेना और रानियों के साथ राजधानी वापस चले गए।
सुकन्या धैर्य से अपने वृद्ध पति-महर्षी च्यवन की सेवा करने लगी। कालान्तर में देवों के वैद्य अश्विनी कुमारों के द्वारा निर्मित औषधि के सेवन के फलस्वरूप महर्षी च्यवन युवा हो गए। उनके नेत्रों की ज्योति वापस आ गई। वह आनन्द से सुकन्या के साथ रहने लगे। वही औषधि 'च्यपनप्राश´ के नाम से विख्यात है।
राजा ककुघ्न-
'सापेक्षता' शब्द से हम सभी परिचित हैं। इस वैज्ञानिक सिद्धान्त को इस प्रकार समझा जा सकता है, पृथ्वी जितने समय में सूर्य की परिक्रमा करती है वह एक वर्ष कहा जाता है। इसी अनुसार सौरमण्डल का एक ग्रह जितने समय में सूर्य की परिक्रमा करता है, वह उसका एक वर्ष होता है। शुक्र ग्रह का एक वर्ष पृथ्वी की अपेक्षा 3/10 गुना तथा शनि का एक वर्ष 29 गुना होता है।
यदि हम यह मान लें कि पृथ्वी के मानव की आयु सौ वर्ष होती है तो शुक्र ग्रंह के 'मानव' की आयु 61 वर्ष तथा शनि के 'मानव' की आयु कई हजार गुना होगी। फिर ब्रह्मा का एक दिन एक कल्प के बराबर होता है। एक कल्प में 4325107 वर्ष होते हैं तथा इतने ही वर्षों की एक रात्रि होती है। अत: ब्रह्मा के दिन-रात का योग 8645107 वर्षों का होता है। इसी को 30 से गुणा करने पर 259205108 वर्षों का ब्रह्मा का एक मास तथा 12 से गुणा करने पर 3110405108 वर्षों का एक ब्रह्म वर्ष होता है। यदि इसे पुन: हम 100 से गुणित कर दें। तो वह ब्रह्मा की आयु हो जाएगी। इस सृष्टि के प्रारंभ से लेकर आज तक 15,55,21,97,29,49,050 वर्ष ब्रह्मा की आयु के बीत चुके हैं।
इसी तथ्य को राजा ककुघ्न की कथा के द्वारा श्रीमद्भागवत पुराण में सुन्दर ढंग से प्रस्तुत किया गया है।
राजा शर्याति के तीन पुत्र थे-उत्तानबर्हि, अनार्त और भूरिषेण। अनार्त के पुत्र थे और इनमें श्रेष्ठ और ज्येष्ठ थे ककुघ्न ।
ककुघ्न अपनी कन्या रेवती के लिए योग्य वर की खोज में थे। इसी क्रम में वे ब्रह्मा जी के पास गए। उस समय ब्रह्मलोक का मार्ग इस प्रकार के लोगों के लिए खुला रहता था। वहां नृत्य-गान की धूम मची थी। बात करने के लिए अवसर न पाकर वे कुछ क्षण वहां ठहर गए। उत्सव के अन्त में उन्होंने ब्रह्मा जी को नमस्कार कर अपना उद्देश्य बताया।
उनकी बात सुनकर ब्रह्मा जी ने हंसकर कहा, "महाराज! तुमने मन में जिन-जिन लोगों का नाम सोच रखा है, वे सब काल के गाल में चले गए है। अब उनके पुत्र-पौत्रोंं आदि की क्या बात करें, उनके गोत्रों का नाम भी अब सुनाई नहीं पड़ता। तुम्हारें यहां आने तक पृथ्वी पर सत्ताईस चतुर्युग बीत चुके हैं। तुम पृथ्वी पर वापस जाओं। वहां पर इस समय द्वापर युग चल रहा है। तुम महाबली श्रीकृष्ण के अग्रज बलराम जी से अपनी कन्या का विवाह कर दो।" राजा ककुघ्न ब्रह्मा को प्रणाम कर पृथ्वी पर चले गए तथा बलराम जी से रेवती का विवाह कर दिया।
शिखण्डी-
आजकल सेक्स-चेंज अथवा लिंग-परिवर्तन को चर्चा मीडिया के माध्यम से सुनने को मिलती है। सम्भवत: यह पर्यावरण में मौजूद लिंग-परिवर्तन करने वाले अनेक रसायन जल वायु तथा खाद्य-पदार्थो के माध्यम से जन सामान्य को प्रभावित कर रहे हैं। इस लिंग-परिवर्तन की पृष्ठभूमि में यदि विविध थैरेपी रसायनों का योगदान है तो आज की वैज्ञानिक चिकित्सा पद्धति हारमोन और सर्जरी द्वारा मन में दमित लिंग भावना को नर अथवा मादा में परिवर्तन कर देना सम्भव हो गया है। यही कारण है कि स्त्री अथवा पुरुष स्वाभाविक संकोच त्यागकर चिकित्सकीय संसाधनों को उपयोग कर रहे है।
लिंग-परिवर्तन कोई आज की समस्या नहीं है प्राचीन काल में भी इस प्रकार की घटनाएं घटित होती थीं और हमारे पुराणों में अनेक आख्यान सुरक्षित हैं। इनमें अधिक प्रचलित है सुग्रीव के जन्म की कथा, राजा इल का इला (स्त्री) और पुन: इल (पुरुष) बनने की कथा तथा शिखण्डी के जन्म के उपरान्त लिंग-परिवर्तन की बहुचर्चित-महाभारत की कथा, जिसमें सम्भवत: यक्ष स्थूणाकर्ण ने उसका लिंग-परिवर्तन औषाधियों के माध्यम से कर दिया था। कथा इस प्रकार है- महाराज द्रपद की रानी को कोई पुत्र नहीं था। राजा ने इस कामना की पूर्ति हेतु भगवान शिव को प्रसन्न कर लिया। भगवान आशुतोष ने कहा, "तुम्हारे यहां एक ऐसा पुत्र होगा जो पहले स्त्री और फिर पुरुष हो जाएगा। अब तुम तपस्या करना बन्द कर दो, मैंने जो वरदान दिया था, वह अन्यथा नहीं होगा।"
ऋतुकाल आने पर महारानी ने गर्भधारण किया। उनके यहां एक रूपवाती कन्या ने जन्म लिया। परन्तु राजा ने प्रचार कर दिया कि उनके यहां पुत्ररत्न की प्राप्ति हुई है। उस कन्या के सभी संस्कार पुत्र की भान्ति किए गए और उसका नामकरण 'शिखडी' कर दिया गया। उसने अपनी समस्त शिक्षा द्रोणाचार्य से प्राप्त की और समय के अनुरूप राजा द्रुपद ने उसका विवाह दशार्णाराज हिरण्यवर्मा की रूपसी कन्या से कर दिया। विवाह के बाद शिखण्डी कंपिल्य नगर में रहने लगा। वहां पर रहते हुए राजा हिरण्यवर्मा की कन्या को शिखण्डी की वास्तविकता का पता चला और उसने अत्यन्त दु:ख के साथ अपने पिता को यह तथ्य बता दिया। क्रोध में भरकर राजा हिरण्यवर्मा ने राजा द्रुपद के पास अपना दूत भेजा। दूत राजा द्रुपद के पास सन्देश लेकर पहुंचा।
दूत ने राजा द्रुपद का एकान्त में ले जाकर कहा, "राजन्! अपने दशार्णराज को धोखा दिया है, इस कारण उन्होंने क्रोध में भरकर कहा है कि आपने किया है। इस अपमान का मैं बदला लूंगा। मैं तुम्हें और तुम्हारे कुटूम्बियों को नष्ट कर दूंगा।"
राजा द्रुपद ने राजा हिरण्यवर्मा को दूत के माध्यम से समझाने का बहुत प्रयास किया परन्तु हिरण्यवर्मा दृढ़निश्चयी था। वह सेना लेकर पांचाल नरेश द्रुपद पर चढ़ाई करने निकल पड़ा। उस समय साथी राजाओं ने निश्चय किया कि यदि शिखण्डी वास्तव में स्त्री है तो हम लोग राजा द्रुपद को बन्दी बनाकर ले आएंगे और किसी अन्य नरेश को पांचाल का राज्य दे देंगे। फिर राजा द्रुपद और शिखण्डी को मार डालेंगे। द्रुपद ने दशार्णराज के पास अपना दूत भेजा और एकान्त में रानी से विचार-विमर्श करने लगे। राजा द्रुपद दुखी भाव से कहने लगे, "इस कन्या के विषय में हमने मूर्खता कर दी है। अब हम क्या करें? राजा हिरण्यवर्मा भी इसी के कारण समझ रहा है कि हमने छल-कपट किया हैं। परिस्थिति विकट है।"
माता-पिता की बातें सुनकर शिखण्डिनी बहुत दुखी हुई और मन में सोचने लगी, '`मेरे कारण मेरे माता-पिता को दु:ख हो रहा है, इस कारण मैं प्राण त्याग दूं।' ऐसा निश्चय कर वह एक निर्जन वन में चली गई। वह वनकी रक्षा का भार स्थूणाकर्ण नामक यक्ष के ऊपर था। वह यक्षराज कुबेर का अनुचर था। शिखण्डिनी निराहर तपस्या करने लगी। एक दिन स्थूणाकर्ण उसके सम्मुख आकर कहने लगा, "कन्ये। यह तेरा अनुष्ठान किस उद्देश्य के लिए है? तू मुझे बतला, मैं तेरा हित करूंगा। मैं तुम्हें वर देने आया हूं। मुझे जो कहना है, उसे बता?"
शिखण्डिनी बोली, "आपने मेरा दु:ख दूर करने का आश्वासन दिया है, अत: कृपा कर मुझे पुरुष बना दो।" यक्ष ने कहा, "तुम्हारा यह काम हो जाएगा परन्तु उसमें एक प्रतिबंध है। मैं अपना पुरुषत्व तुमको कुछ समय के लिए दूंगा और यदि तुम प्रतिज्ञापूर्वक आश्वासन दो कि तुम मुझे वापस करने यहां आओगी तो उतने समय तक मैं स्त्री बना रहूंगा।"
शिखण्डिनी ने कहा, "जब राजा हिरण्यवर्मा वापस दशार्ण देश को चला जाएगा, मैं तुम्हारा पुरुषत्व वापस लौटा दूंगी। मैं स्त्री हो जाऊंगा और तुम पुरुष।"
इस प्रकार का निश्चय कर दोनों ने लिंग-परिवर्तन कर लिया। इस प्रकार पुरुषत्व की प्राप्ति कर प्रसन्नचित शिखण्डी अपने पिता के नगर-पांचाल में आ गया। उसने राजा द्रुपद को विस्तार के सारा वृत्तान्त सुनाया। प्रसन्न द्रुपद को भगवान पशुपति के आशीर्वाद का स्मरण हो गया।
उन्होंने दशार्णराज हिरण्यवर्मा को सन्देश भेजा कि वह आकर शिखण्डी के संबन्ध में तथ्यों को सत्यापन कर लें।
राजा द्रुपद को सन्देश पाकर दशार्णराज ने शिखण्डी की परीक्षा लेने हेतु युवतियोंं को भेजा। उन युवतियों ने राजा हिरण्यवर्मा को बताया कि राजकुमार शिखण्डी वास्तव में पुरुष है। इस समाचार से प्रसन्न होकर राजा हिरण्यवर्मा द्रुपद के पास आए, उनका आतिथ्य स्वीकार किया और शिखण्डी को हाथी, घोड़े, गौ और बहुत-सी सुन्दर दासियों भेंट कर प्रसन्नतापूर्वक नगर चले गए।
इसी अन्तराल में यक्षराज कुबेर विचरण करते हुए स्थूणाकर्ण के रंग-बिरंगे पुष्पों और लताओं से घिरे आवास पर पहुंचे। "महराज! राजा द्रुपद की कन्या शिखण्डिनी को अपना पुरुषत्व दे देने के कारण स्थूणाकर्ण स्त्री-रूप में भीतर ही रहते हैं। इस कारण संकाचवश वह आपकी सेवा में उपस्थित नहीं हो सका।"
यक्षराज कुबेर ने अनुचर से कहा, "स्थूणाकर्ण को मेरे सम्मुख उपस्थित होने के लिए कहो।"
इस प्रकार बुलाए जाने पर अति संकोच के साथ स्थूणाकर्ण कुबेर के सम्मुख उपस्थित उपस्थित हुआ।
यक्षराज कुबेर ने उसे देखकर कहा, "तुम स्त्री-रूप ही रहोगे।"
यह सुनकर स्थूणाकर्ण क्षमा मांगते हुए कहने लगा, "यक्षराज! मुझ पर कृपा कीजिए। उस कन्या शिखण्डिनी की तपस्या से प्रभावित होकर मैंने उसे कुछ समय तक के लिए ही पुरुषत्व प्रदान किया था।"
स्थूणाकर्ण के अनुचर और अन्य यक्ष गणों ने भी यक्षराज कुबेर से स्थूणाकर्ण के स्त्री-रूप में रहने की अवधि को कम करने अथवा निश्चित कर देने के लिए कहा।
इस अनुरोध पर विचार करते हुए यक्षराज कुबेर ने कहा, "जब शिखण्डी युद्ध में मृत्यु को प्राप्त होगा। उसी समय स्थूणाकर्ण पुरुषत्व प्राप्त कर लेना।"
इतना कहकर यक्षराज कुबेर अन्य यक्षों के साथ अपनी राजधानी अलकापुरी चले गए।
विशल्या-
आयुर्वेद को हमारे मनीषियोंं ने पांचवां वेद माना है। आयुर्वेद के महान् ग्रन्थों में 'चरक संहिता' और 'सुश्रुत सहित´ विश्वविख्यात् हैं। यदि 'चरक संहिता´आयुर्वेदिक औषधियों' का विश्वकोश है तो महर्षी सुश्रुत द्वारा रचित `सुश्रुत संहिता´ शल्य-शाल्यक सर्जरी का, वह भी प्राचीन भारतीय सन्दर्भ में, अप्रतिम ग्रन्थ है।
महर्षी चरक द्वारा विरचित और दृढ़ बल प्रतिसंस्कृत `चरक संहिता´ में कई प्रकार की वनस्पतियों, लताओं, द्रुमों, जीवों, जन्तुओं के औषधीय गुणों का वर्णन है। यहां तक कि `नास्ति मूलं तू ओषधम्´ कहा जाता है। कोई जड़ ऐसी नहीं है जो औषधि नहीं है। इसी प्रसिद्ध ग्रंथ में, प्राचीन ग्रन्थ में प्राचीन युग में बाणों द्वारा घायल हो जाने पर, मूर्छित हो जाने पर, हडिडयों के टूट जाने पर उन्हें ठीक कर देने वाली औषधियोंं का वर्णन है, जिनका लोग प्रयोग करते थे। आधुनिक वनस्पति शास्त्रियों ने इन औषधियों की पुन: खोज मध्य प्रदेश में ही की, वरन् उनका प्रवर्धन भी करना प्रारंभ कर दिया है-इन्हीं में है विशल्या-जो घाव को तुरन्त भर देती है तथा संजीवनी-जिसका प्रवर्धन राष्ट्रीय वनस्पति उद्यान लखनऊ में हो रहा है। ये सभी औषधियां हमारी पारंपरिक धरोहर हैं। आज भी कांटों के शरीर में धंस जाने और न निकलने की स्थिति में मन्दार पौधे का दूध लगा देने से कांटा या अन्य धंसी हुई वस्तु शरीर के प्रभावित अंग से बाहर निकल आती है। यह ग्रामीण क्षेत्र में विशल्यीकरण की प्रचलित प्रथा है, जो आज भी सुरक्षित है।
रावण से युद्ध करते समय उसके फेंकी गई गड़गड़ाहट उत्पन्न करने वाली भयानक, शक्तिशाली, शत्रु त्रासदायक शक्ति लक्ष्मण की छाती मेंं धंस गई और रक्त से भीगे लक्ष्मण युद्धभूमि में, विभीषण को रावण के प्रचण्ड प्रहार से सुरक्षित करने के प्रयास में, धरा पर गिर पड़े।
वाल्मीकि रामायण में विर्णत है कि उस शक्ति को लक्ष्मण की छाती से निकालते का प्रयास वानर-वीरों ने किया परन्तु ने अपने प्रयास में सफल नहीं हुए। तब महाबली रामचन्द्र ने अपने दोनों हाथों से शक्ति लगाकर उस भयंकर शक्ति को लक्ष्मण की छाती से निकाल कर तोड़ डाला।
भगवान् राम जब लक्ष्मण के शरीर से उस भयंकर शक्ति को निकाल रहे थे, उस समय महाबली रावण उनके शरीर पर बाणों की वर्षा कर रहा था। उन बाणों की चिन्ता न कर राम ने महाकपि सुग्रीव से कहा, "तुम लोग लक्ष्मण को घेरे खड़े रहो अब यह अवसर मेरे लिए उस पराक्रम को दिखाने का है जिसकी मुझे इतने दिनों से प्रतीक्षा थी।"
इस भीषण संग्राम में जैसे वायु के थपेड़ों से मेघ उड़ जाता है, उसी प्रकार श्रीराम के बाणों की वर्षा से घायल और पीड़ित होकर रावण भाग गया।
घायल पड़े लक्ष्मण को देखकर वैद्यराज सुषेण ने हनुमान से कहा, "सौम्य, शीघ्र मतो गत्वा पर्वत हि महोदयम्।। हे हनुमान! तुम शीघ्र महोदधि पर्वत, जिसका पता जाम्बवान तुम्हें बता चुके हैं। जाओ और उसके दक्षिणी शिखर पर उगी हुई विशल्यकरणी (शरीर में धंसे बाणों और पीड़ा दूर करने वाली), तथा शरीर को पूर्व की भांति शक्ति देने वाली सावण्र्यकरणी (शरीर को पूर्व की भांति शक्ति देने वाली), मूच्छाZ दूर कर चेतना प्रदान करने वाली), संधानी टूटी हुई हडिडयों को जोड़ने वाली औषाधियों को यहां ले आओ। उनसे वीरवर लक्ष्मण की प्राण-रक्षा होगी।"
हनुमान जी महोदधि गिरि के पर्वत पर पहुंच जाते हैं परन्तु उन औषाधियों को पहचान न पाने के कारण उस गिरि शिखर को हिलाकर उखाड़ लाते हैं। वैद्यराज सुषेण द्वारा उन औषाधियों के प्रयोग के परिणाम से लक्ष्मण जी स्वस्थ हो जाते हैं। भीषण युद्ध के उपरान्त दुरात्मा रावण का वध भगवान् राम के द्वारा कर दिया जाता है।
अश्विद्वय-
प्रजापति कश्यप और अदिति के आठवें पुत्र का नाम विवस्वान था। विवस्वान की प्रथम पत्नी सरायू से यम, यमी और अश्विद्वय तथा उनकी द्वितीय भार्या सवर्णा से मनु उत्पन्न हुए थे।
इनमें से मनु द्वारा भारत में मनु पुत्रों-मानवों को तथा यम द्वारा आदि पारसियों आधुनिक ईरानियों को संरक्षण प्राप्त हुआ। विवस्वान तथा उनके पुत्रों का जन्म देवयुग में हुआ था।
इन्हीं अश्विद्वय की उपस्थिति में समुद्र-मन्थन, अमृत-प्राप्ति और तदुपरान्त चौथा देवासुर संग्राम हुआ था।
अश्विद्वय-देवभिषक-देवताओं के चिकित्सक थे। उनके चिकित्सा कृत्यों की झलक ऋग्वेद से लेकर अथर्ववेद तक में यत्र-तत्र बिखरी पड़ी है-कुछ संक्षिप्त हैं तो कुछ सांकेतिक। इसको ध्यान में रखकर उनकी चिकित्सकीय उपलब्धियों निम्नवत् हैं।
स जल में डूबे रेभ को बाहर निकालकर स्वस्थ बनाया।
स वन्दन को कैद से छुड़ाकर युवा बनाया।
स अन्तक को गड्ढे से बाहर निकालकर स्वस्थ बनाया।
स पंश्रकुलोत्पन्न कक्षीवानको पुनर्युवा बनाया।
स वृद्ध कलि को पुनर्योवन प्रदान कर उसको सुन्दर पत्नी के योग्य बनाया।
स वघिरमति का वंध्यात्व दूर कर पुत्रवती बनाया।
स दुर्बल और अशक्त राजा वश को युद्ध योग्य बनाया।
स राजा कक्षीवान की कन्या घोषा का कुष्ठ रोग दूर किया।
स श्राव का कुष्ठ रोग दूर उसे स्वस्थ बनाया।
स राजा मान को पुत्र दिया।
स सहदेव पुत्र सोमक को दीर्घायु बनाया।
स भरद्वाज को दीर्घायु बनाया।
स वामदेव को माता के गर्भ से निकला।
स सोम के राजयक्ष्मा को दूर किया तथा इनमें से महर्षी च्यवन पुनर्योवन प्राप्ति की कथा से सभी परिचित हैं।
अश्विद्वय के शल्य कर्म (सर्जरी) से सम्बन्धित कुछ कथाएं इस प्रकार हैं:
स अग्नि से जले अत्री को चिकित्सा द्वारा युवा बनाया।
स अंधे कण्व को नेत्र ज्योति दी।
स राजा खेल की कन्या विशाला की टूटी टांग को ठीक किया।
स वेन के पुत्र पृथु, जो घोड़े से गिर गया था, उसकी चिकित्सा की।
स घायल शर्याति को स्वस्थ किया।
स घायल कृशानु को बचाया।
स वज्राश्व को नेत्र ज्योति दी।
स नृशद के पुत्र का बहरापन ठीक किया।
स घायल श्यान को स्वस्थ किया।
स सोमारि के घावों को ठीक किया।
स ऋषि श्रोण के घुटनों के दर्द को दूर किया।
स इन्द्र के अण्डकोशों को प्रत्यारोपण किया।
स पूषा के टूटे हुए दांतों को ठीक किया।
स इन्द्र के भुज स्तम्भ की चिकित्सा की।
अश्विद्वय अंग-प्रत्योरोपण एवं संजीवनी विद्या में निपुण थे। वे कुशल पशु चिकित्सक थे तथा गौ के वंध्यात्व को भी दूर किया था। प्रारम्भ में अश्विद्वय को यज्ञों में भाग नहीं मिलता था। अर्थात् वे अपने समय के समाज में प्रतिष्ठित नहीं माने जाते थे परन्तु महर्षी च्यवन को पुनयौंवन प्रदान करने के उपरान्त उन्हें यज्ञों में भाग मिलने लगा औ वे प्रतिष्ठित, आदरणीय तथा सर्वमान्य चिकित्सक के रूप मे भी स्वीकार कर लिए गए थे।
वेद, पुराण, रामायण, महाभारतादि काव्य होते हुए भी विज्ञान कथाओं से ओत-प्रोत हैं। इसी तथ्य को ध्यान में रखते हुए प्रस्तुत आलेख लिखा में भारतीय वाग्मय में बिखरे अनेक आख्यानों में से कुछ को चयनित कर उल्लेखित किया गया है।
जिन कथाओं में यह तथ्य विज्ञान सम्मत है, विज्ञान के ज्ञान का आभास होता है, भविष्य के बिम्ब प्रस्तुत करता है, जिसके कारण यह कथाएं सामान्य कथाओं से भिन्नता प्रदर्शित करती हैं, उनको विज्ञान कथा के नाम से जाना जाता है। इन कथाओं में निहित उस युग की अवधारणानुसार, भविष्य दर्शन का गुण ही उनको विशिष्टता प्रदान करता है तथा यह तथ्य इन कथाओं के सृजनात्मक चिन्तन शक्ति के गुण को भी दर्शाता है।
"वृहत्साम तथा साम्नां गायत्री छन्दसामहम्' (गीता 10/35) हे पार्थ गायन करने योग्य श्रुतियों में मैं वृहत्साम हूं और छन्दों में छन्द गायत्री हूं।" कृष्ण का यह कथन पुरानी वैदिक शब्दावली को विस्तार देता है। संहिता काल और ब्राह्मण और अरण्यक युग के प्रचलित शब्दों को उनके सीमित कर्मकाण्ड युक्त अर्थ को एक मुक्त और व्यापक तात्पर्य देने की प्रचेष्टा ही गीता को सार्वभौम और सार्वकालिक महत्त्व देती है। इसी प्रयास के फलस्वरूप वृहत्साम की मूल प्रवृत्ति गीत-संगीत-काव्य का गुण पाकर विष्णु और उनके अवतार सर्वोच्च हुए। इसी लिए कहा जाता है कि ताक्ष्र्य या सुपर्ण विष्णु के साम का वाहन हैं। विष्णु ताक्ष्र्य-सुपर्ण जो कालान्तर में गरुड़ हो गया, उस पर आसीन होकर चलते हैं तो हवा को चीरते हुए गरुड़ के दोनों पंखों की ध्वनि 'रथन्तर' और 'वृहत' सामों की अनगूंज रचती चलती है। काव्य और संगीत विष्णु के वाहन हैं। वही वैदिक अवधारणा काव्य रूप का विस्तार करती पुराणों की कथाओं को जन्म देती है तथा पुराणों को काव्यात्मक सौन्दर्य प्रदान करती है। इसी कारण पुराण भी वेद मन्त्रों की भान्ति गेय रहे हैं तथ्यत: सामवेद, ऋग्वेद एवं यजुर्वेदीय मन्त्रों से युक्त है। काव्य छन्दों में रचित यह पुराकालीन कथाएं वेद से विस्तृत होकर पुराणों में बिखरी हैं तथा इन कथाओं में निहित विज्ञान सम्मत तथ्यों की खोज चिन्तन परक कार्य है। सम्भवत: यही मुख्य कारण था कि पुराणों में निहित इन पुरा कथाओं पर, इतिहासविदों और साहित्यकारों की दृष्टि पड़ी, उन्होंने इनका अनुशीलन किया परन्तु वैज्ञानिकों ने उन पर दृष्टिपात नहीं किया।
यह सर्व विदित तथ्य है कि 18 पुराणों में पद्मपुराण सर्वश्रेष्ठ पुराण है। यह तथ्य इन श्लोकों से स्पष्ट हो जाता है-
मात्सयं, कौर्मि तथा लैंग शैंव स्कन्दं तथैव च।
आग्नेयं च षडेतानि तामसानि निबोधत।।
वैष्णवं नारदीयं च तथा भागवतं शुभम्।
गरुड़ं च तथा पाद्यं वाराहम् शुभ दर्शने।।
सात्विकानि पुराणानि विज्ञेयानि शुभानि वै।
ब्रह्माण्डं ब्रह्मवैवर्त मार्कण्डेयं तथैव च।
भविष्यं वामनं ब्राह्मं राजसानि निबोधते।।
पुराण केवल भक्ति तत्व का ही नहीं उनकी सब आख्यायिकाओं का मूल, श्रुतियों में भी देखा जा सकता है। इसके कई उदाहरण दिये जा सकते हैं।
पुराणों में गिरिजाकुमारी के उमा के रूप में जन्म लेने की बात आती है। केनोपनिषद में भी ब्रह्मविद्या का हेमवती उमा के रूप में प्रकट होना चर्चित है- "स तिस्मन्नेनकाशे स्त्रियमाजगाम बहुशोभमाना युमाम् हैमवतीम" (केनोपनिषद, 3,12) इसी प्रकार पुराणों में वामन अवतार की चर्चा है, और ऋग्वेद में भी विष्णुतीन पादप्रक्षेप में अपने आश्रित जनों पर अनुग्रह करते हैं- "यस्यत्री पूर्णा मधुना पादान्यक्षीय माणा स्वधाया मदंन्ति। (ऋ.सं.1/21/4) तथा पुराणोक्त महावाराह की कथा वेदों में विद्यमान है- स वाराह रूपं कृत्वा- उपन्यमज्जत स पृथ्वीमध्य आच्दति। (तैतरीय ब्राह्मण) छन्दोग्योपनिषद में 'कृष्णाय देवकी पुत्राय' का उद्घोष है। इसी प्रकार कृष्ण और गोपिकाएं भी वैदिक अलंकारिक भाषा, में सूर्य की किरणों का सविता की रिश्मयों का मूर्त रूप हैं जोकि हिन्दी भाषा एवं साहित्य के प्रसिद्ध समीक्षक डॉ. विश्वम्भरनाथ उपाध्याय के शब्दों "वाममार्ग के बढ़ते प्रभाव को परवर्ती पुराणों में प्रकारान्तर से स्वीकार कर लिया। विशेष रूप से श्रीमद्भागवत, ब्रह्मवैवर्त पुराण आदि में कृष्ण के साथ गोपी-रतिविहार का समूचा पैटर्न तान्त्रिक है (मध्यकालीन हिन्दी काव्य में तान्त्रिक पृष्ठभूमि, पृ. 42), तथा सीरध्वज जनक (सीर अर्थात हल) जो पृथ्वी को जोतता है, सीता अर्थात धान्य लक्ष्मी को प्राप्त करता है, का पिता है। यही सीता कालान्तर में, विष्णु-साम गायन परम्परा में परिवर्तित होकर राम की अधा±गिनी बन लोक मानस में प्रविष्ट हो गई।
इसी प्रकार "आयं गौ: पृशिनरक्रममीदसदन् मातरं पुर:। पितरं च प्रयन्त्स्तव:" (यजुर्वेद 3/6) - जो पृथ्वी सूर्य की परिक्रमा करती है वह पुराणों में स्थिर हो गई और सूर्य गतिशील हो गया। इतना ही नहीं गतिशील पृथ्वी गो बन कर अधर्म से पीड़ित होकर भगवान के पास चली गई। यह अवैज्ञानिक पौराणिक अवधारणा जनमानस में रूढ़ि हो गई और इस यजुर्वेदीय मन्त्र का वैज्ञानिक पक्ष वाष्पित हो गया। इस प्रकार की अनेक अवैज्ञानिक अवधारणाएं पुराणों में यद्यपि विद्यमान हैं परन्तु इसके उपरान्त भी अनेक वैज्ञानिक तथ्य कथारूप में सुरक्षित बचे हुए हैं।
जिन विद्वानों में ऋग्वेद के वृषाकपि सूक्त का अध्ययन किया है, उनका विचार है कि यह सूक्त भारतीय लोककर्म की किसी खोयी हुयी, लुप्त हो गई, श्रंखला के, कड़ी के अंश हैं (ऋग्वेद, 10/86) और इनका रूपान्तर आज के नृ-पशु (आधा मनुष्य और आधा पशु) की आकृति वाले देवता की उपासना में हो गया है। गणपति (गणेश) विष्णु का नृसिंह रूप तथा हनुमान इसी वृषाकपि के आधुनिक प्रतिनिधि हैं। वृषाकपि कोई आदिम आर्य अथवा आर्यतर लोक धर्म का देवता था- उसकी इन्द्र के साथ की मैत्री यह दर्शाती है कि वह आर्य-देवमण्डल में प्रवेश पा रहा था, जो इन्द्र एवं इन्द्राणी के संवाद के रूप में स्पष्ट दिखता है। उदाहरण के लिए इस सूक्त का प्रथम मन्त्र देखिए - "इन्द्र: मैने स्तोताओं से सोम का अभिषव (निष्पडित) करने को कहा था। उन्होंने वृषाकपि की स्तुति की। इन्द्र की नहीं। सोम से प्रवृद्ध होकर इस यज्ञ में वृषाकपि ऐसे सखा होकर सोमपान कर हृष्ट-पुष्ट हुए, तो भी मैं इन्द्र सर्वश्रेष्ठ हूं।"
इन्द्राणी : "हे इन्द्र तुम अत्यन्त गमनशील होकर वृषाकपि के पास जाते हो, तुम सोमपान के लिए नहीं जाते-इन्द्र सर्वश्रेष्ठ है।"
इस प्रकार पुराण वास्तव में हमारी पुरा-वैदिक संस्कृति की सम्वाहक हैं, जिनके द्वारा संरक्षित होकर वैदिक गाथाएं-लोकमानस में आज भी रची-बसी हैं। भारतीय चिन्तन ने विज्ञान के विकास में जो अप्रतिम योगदान दिया है, उसका प्रत्यक्ष प्रमाण हैं यह काव्यात्मक शैली में रचित कथाएं, जो हमारी भविष्य दृष्टा ऋषियों की उर्वर मेघा का परिणाम हैं।
इसी तथ्य की ओर संकेत करते हुए प्रकाण्ड वैदिक विद्वान प्रो. मैक्समूलर ने अपने Biographical essays में लिखा है "To Swami Dayanand everything contained in vedas, was not only perfect truth, but he went one step further and, by their interpretation, succeded in persuading others that every thinq worth knowing even the most recent invenions of modern science were alluded to, in vedas; steam engins, electricity, telegraph and wireless, morco gram were shown to have been known at least in the germs, to the poets of vedas."
प्रख्यात अमेरिकन इन्डालोजिस्ट Mrs. Wheeler Willox ने लिखा है - "We have all hear and read about the ancient relegion of India. It is the land of great vedas the most remarkable work, containing not only relegious ideas or a pertect life, but also facts which all science has since proved true, electricity, radium, electrons, air ships, all seem to be known to Siers, who founded vedas".
वेदों में यह सभी विज्ञान सम्मत तथ्य विविध छन्दों- गायत्री, उष्णित, अनुष्टुप, वृहति, पंक्ति, त्रिष्टुभ एवं जगति के माध्यम से विर्णत हैं। परन्तु पौराणिक संस्कृत वांग्मय में विर्णत विज्ञान कथाओं की चर्चा के पूर्व एक वैदिक राष्ट्रगीत दृष्टव्य है-
आ ब्रह्मा ब्राह्मणों ब्रह्मवर्चसी जागताम।
आ राष्ट्रे राजन्य: इषव्योति ज्योति व्याधी महारथो जायताम।
दोग्ध्री धेनुर्वोदानउवानाशु: सप्ति पुरन्धिर्योषा
विष्णु रथेष्ठा समेयो युवास्य यजमानस्य वीरो जायताम।
निकामें निकामें न: पर्जन्यो वर्षतु फलवत्यो न ओषधाय पच्यन्ताम।
योग क्षेत्रो न: कल्पताम।।
(यजुर्वेद सं. 22/22)
इसका काव्यानुवाद निम्नवत् है-
भारत वर्ष हमारा प्यारा, अखिल विश्व से न्यारा।
सब साधन रहे सम्मुत भगवन! देश हमारा।
हों ब्राह्मण विद्वान राष्ट्र में ब्रह्मतेज व्रतधारी।
महारथी हो शूर धनुर्धर क्षत्रिय लक्ष्य प्रहारी।
गौवें भी अति मधुर दुग्ध की रहें बहाती धारा।।
राष्ट्र के बलवान वृषभ, बोझ उठाएं भारी।
अश्व वायुगामी हो दुर्गम पथ में विचरणकारी।
जिनकी गति लख समीर भी हो लज्जातुर भारी।।
महिलायें हो सती सुन्दरी सद्गुण युक्त सयानी।
रथारूढ़ भारत वीरों की करें विजय अगवानी।
जिनकी गुणगाथा से गुंजित हो दिगन्त यह सारा।।
यज्ञ निरत भारत सुत हों शूर सुकृत अवतारी।
युवक यहां के सौम्य सुशिक्षित बली सरल सुविचारी।
समय-समय पर आवश्यकता वश धन सरस नीर बरसायें।
औषध में लगे प्रचुर फल जो स्वत: पक जायें
योग हमारा क्षेम हमारा स्वत: सिद्ध हो सारा।।
इस यजुर्वेदीय वैदिक उद्घोष को यहां पर देने का उद्देश्य उस तथ्य की ओर युवा पीढ़ी के ध्यान केा आकषिZत करना है जो राष्ट्र की भावना से समय प्रवाह में अपरिचित होती प्राचीन भारतीय संस्कृति को विस्मृति करती, ग्लोबलाइज्ड होती जा रही है।
ऋग्वेद से प्रारम्भ कर विमानों की चर्चा से रामायण, महाभारत अनेक पुराण तथा श्रीमद्भागवत भरे हैं। यह एक सर्वविदित तथ्य है कि इन चर्चाओं की नाभि में विज्ञानमय तथ्य, विद्यमान है जिसके बिम्ब ऋग्वेद में स्पष्ट हैं-
क्रडिं व शर्धो मारुतमनर्वाणं रथे शुभम।..... कण्वा अभिप्रगात।।
"हे मारुत: वायुओं तुम्हारा जो बल है वह हमारी क्रीड़ा का साधन बने, तुम कण्व हो, शब्द करने वाले हो, तुम्हारे बल से रथ- विमान चलते हैं, तुम्हारे बल चलित इन विमानों का कोई प्रतिरोध नहीं कर सकता।"
इसी भान्ति एक अन्य ऋग्वेद का मन्त्र दृष्टव्य है-
युवमेत चक्र थु: सिन्धुव प्लव आत्मन्ते दक्षिण तौरमाय
यन देव मासा निरुहथु: सुवप्तनी पेनथकम क्षोदसो मह:।
(ऋग्वेद 1, 182, 5)
किया स्वाचालित नौका निर्मित, खगसमान उड़नेवाली।
नभ में, सागर में दोनों में, सदृश गमन करने वाली।।
हो करके आरुढ़ उसी पर, नभ से सागर में आये।
तुग्र पुत्र जो भुज्यु भक्त था, व्याकुल उसके प्राण बचाये।।
(डॉ. देवीसहाय पाण्डेय 'दीप')
अब इस आलेख में कुछ चयनित विज्ञानकथाओं की चर्चा करना समीचीन होगा। हम सभी रिमोट चालित ड्रोनोंं रडारों की पहुंच से बाहर रहकर बच निकलने वाले वायुयानों से लम्बी दूरी तक उड़ने वाले तथा वायुमध्य में रिफयूलिंग करने वाले वायुयानों से हम परिचित हैं। ध्वनि की गति से तेज चलने वाले विमानों की चर्चा से अपरिचित कोई नहीं है। मानव प्रौद्योगिकी के माध्यम से इन विमानों को लगातार विकसित कर नया रूप-देने में प्रयासरत है और आशा है कि कोई साईबोंग मनचालित-पुष्पक और सौभ की भान्ति के विमानों का नियन्त्रण भी निकट भविष्य में कर सकेगा, जिनकी चर्चा रामायण और श्रीमद्भागवत आदि ग्रन्थों में है।
पुष्पक-विमान : महर्षी वाल्मीकि के कथनानुसार पुष्पक विमान का प्रत्येक भाग स्वर्ण जड़ित था, जिससे उसकी विचित्र शोभा होती थी। उसमें वैदूर्य मणि की वेदियां थी, उसमें गुप्त कक्ष थे जो चान्दी की भान्ति चमकीले थे। उस पर श्वेतपीत पताकाएं लगी थीं और उसके कंगूरे स्वर्ण सम आभावान थे। सारा विमान छोटी-छोटी घंटियों से, मणियों से सज्जित था। यह विश्व कर्मा रचित विमान मन के समान वेग वाला था। वह सर्वत्र जा सकता था, उसकी गति कहीं रुकती नहीं थी। इस विमान को देखकर भगवान श्रीराम को बड़ा विस्मय हुआ।
तत् पुष्पकं कामगमं विमान मयस्थितं भूधर संनिकाशम्।
दृष्टा तथा विस्मयमाजगाम राम: स सौमित्ररूदए सत्त्व।।
-वाल्मीकि रामायण,
सुं. एवंविशत्माचि शतम्: सर्ग: 20
मनचालित विमान-सौभ: श्रीमद्भागवत के अनुसार शाल्व जिसके पास सौभ नामक विमान था, शिशुपाल का मित्र था और रूक्मणी के स्वयंवर में- शिशुपाल के साथ आया था। कृष्ण के अनुयायी यदुवंशियों ने युद्ध में मगधराज जरासंध के साथ शाल्व को भी पराजित किया था। सभी के सम्मुख उसी समय शाल्व ने प्रतिज्ञा की थी कि मैं धरती से यदुवंशियों को नष्ट कर दूंगा। सभी लोग उस समय मेरे बल पौरुष की सराहना करेंगे। यह कह कर शाल्व, भगवान शंकर की उपासना करने हिमालय पर चला गया। उसकी भीषण तपस्या से प्रसन्न् होकर देवाधिपति शंकर ने उससे वर मांगने को कहा-
शाल्व ने भगवान आशुतोष से कहा "हे प्रभो! आप मुझे एक ऐसा विमान दीजिये जो देवता, असुर, मनुष्य, नाग, गंधर्व और राक्षसों द्वारा तोड़ा न जा सके, जहां मेरे मन में जाने की इच्छा हो वह चला जाय और यदुवंशियों के लिए अति भयंकर हो।" भगवान शंकर ने शाल्व दानव को सौभ नामक लोहे का विमान बनाने का आदेश दिया और उसे शाल्व को देते हुए आशीर्वाद दिया। शाल्व ने उस विमान को ध्यान से देखा। वह विमान क्या एक नगर ही था। वह इतना अंधकारमय था कि उसे देखना अथवा पकड़ना कठिन था। चलाने वाला उसे जहां ले जाना चाहता, वहीं वह उसके इच्छा करते ही चला जाता।
शाल्व ने यह विमान प्राप्त करके द्वारका पर चढ़ाई कर दी, क्योंकि वह कृष्णवंशी यादवों द्वारा किये गये वैर को सदास्मरण रखता था-
तथेति गिरिशादिष्टो मय: पुर पुरजंय:।
पुरं निर्माय शाल्वाय प्रादात्सौभयस्मयम्।।
स लब्धा कामगं यानं तमोधाम दुरासदम।
ययौ द्वारवती शाल्वो वैरं वृष्णि कृंत स्मरम।।
श्रीमद्भागवत् दशम स्कन्ध, 9, 8
अपनी सेना लेकर उस यदुवंश विरोधी शाल्व ने द्वारिका को चारों ओर से घेर लिया और उसी विमान में बैठकर वह सेना का संचालन भी करता और युद्ध भी। उसने फल-फूलों से, वृक्षों से सुशोभित द्वारिका के उद्यानों, नगर, द्वारों, भवनों आदि को नष्ट कर दिया। शाल्व ने विमान में बैठ कर श्रेष्ठ अस्त्रों की वर्षा शुरू कर दी। द्वारिकावासी उसके इस आक्रमण से घबरा उठे।
श्री कृष्ण उन दिनों युधिष्ठर के राजसूय यज्ञ में भाग लेने इन्द्रप्रस्थ गये थे, अत: नगर और नगरवासियों की सुरक्षा का भार कृष्ण पुत्र प्रद्युम्न पर था। सत्ताइस दिनों के इस युद्ध में शाल्व की सेना को प्रद्युम्न ने नष्ट कर दिया था। युद्ध की सूचना प्राप्त कर श्रीकृष्ण तुरन्त बलराम के साथ द्वारिका आ गये।
श्री कृष्ण को देखकर शाल्व ने कहा "हे कृष्ण! तूने हम लोगों के सामने ही हमारे बन्धु, मित्र शिशुपाल की पत्नी को हर लिया तथा युधिष्ठर के राजसूय यज्ञ में तूने असावधान शिशुपाल का वध कर दिया था। तू अपने को अजेय मानता है परन्तु आज मैं तुम्हें तीखे वाणों से मार डालूंगा। श्री कृष्ण ने शाल्व को उत्तर दिया कि शूरवीर बकवाद नहीं करते और यह कहते हुए श्री कृष्ण ने उसके विमान को तीक्ष्ण बाणों से छेद डाला। क्रोधित शाल्व ने एक बाण श्री कृष्ण की दाहिनी भुजा में मारा। श्रीकृष्ण का शार्गं धनुष गिर गया। उन्होंने इसकी परवाह न करते हुए अपनी गदा से शाल्व के जत्रुस्थान-हंसली पर प्रहार किया। रक्तवमन करता शाल्व गिर पड़ा। श्री कृष्ण की गदा के बारम्बार प्रहार करने से शाल्व का विमान दूट गया और वह उठ कर श्रीकृष्ण पर झपटा। श्री कृष्ण ने भल्ल नामक बाण से उसकी गदा उठाये भुजा को काट दिया और फिर चक्र द्वारा उसके किरीट-कुण्डल युक्त मस्तक को भी काट दिया। यादव वीरों ने शाल्व के शेष सैनिकों को मारकर युद्ध जीत लिया।
इस प्रकार शाल्व के साथ उसके मनचालित विमान-सौभ का विनाश हो गया।
त्रिपुर : अन्तरिक्ष में तीन नगर
मय दानव के शिल्प कर्म से जुड़ी हुई अनेक कथाएं हैं और उससे भी अधिक चकित कर देने वाला तथ्य है संयुक्त राज्य अमेरिका के दक्षिण में स्थित मैक्सिको नामक राज्य, उसके आदिवासी तथा उन्हीं से समानता रखते दक्षिणी अमेरिका के वासी मय जाति के लोग। क्या मय दानव, जिसकी चर्चा पुराणों में बारंबार आती है और दक्षिणी अमेरिका के वासियों-मय जाति के लोगों में कुछ साम्य हैर्षोर्षो शोधकर्ताओं के अनुसार मय-सभ्यता अतिविकसित सभ्यता थी और वे बहुत अंशों तक भारतीय सभ्यता से प्रभावित भी थें उत्खनन में प्राप्त विविध मूतियां, गणेश, कनफटे योगियों, शिव की प्रतिमाएं जिस तथ्य की ओर संकेत करती हैं, वह है वहां पर (दक्षिणी अमेरिकी क्षेत्र में) भारतीय संस्कृति का प्रभाव।
पुराणोक्त मय दानव के शिल्प लाघव को निम्नलिखित कथा प्रतिबिंबित ही नहीं करती वरन् यह वैज्ञानिक कथा भविष्य में विकसित होने वाली अन्तरिक्ष बस्तियों, आवासों, होटलों आदि की पूर्वागामी है।
देवताओं और दानवों में, प्राचीन काल में युद्ध हुआ करते थे। दानवराज मय ने माया-युद्ध का प्रयोग किया परन्तु देवताओं की युद्ध कुशलता के कारण दानव हार गए। मय दानव बहुत दुखी हुआ, वह हिमालय पर तपस्या करने चला गया। यह देखकर उसके सहयोगी विद्युन्माली और तारक भी तपस्या करने लगे। समय बीतता रहा, ऋतु परिवर्तन-चक्र चलता रहा, उसका कुछ प्रभाव इन दानवों पर नहीं पड़ा वे तपस्या में अडिग रहे। उनकी इस भीषण तपस्या से प्रभावित होकर ब्रह्मा जी ने उन्हें दर्शन दिए और कहा," तुम्हारा कठोर तप देखकर मैं प्रसन्न् हूं, तुम लोगों को वर देने आया हूं।" मय दानव ने कहा, "पितामह! पिछले युद्ध में हम हार गए थे और देवता हमारा विनाश करने पर तुले हैं। हम पृथ्वी पर नहीं रहना चाहते। आप हमें वरदान दें कि हम पृथ्वी से दूर अन्तरिक्ष में नगर बसा लें।"
उसकी बात सुनकर ब्रह्मा जी मुस्कराए। उसका कपट वे समझ गए और बोले, "मैं तुमको अमर नहीं कर सकता?"
इस पर मय दानव ने विनम्रतापूर्ण स्वर में कहा, "पितामह, आप ठीक कहते हैं, आप मुझे अमर न करें पर युद्ध से छुटकारा पाने का एकमात्र मार्ग यही है।"
ब्रह्मा जी ने सोचा, यदि वे दानवगण दूर रहें तो सब तरफ सुख-संपन्न्ता रहेगी। लड़ाई भी नहीं होगी, और फिर मय दानव से कहने लगे, " तुम तीनों अन्तरिक्ष में अपने नगर बसा लो, उनका नाश एक बाण मात्र द्वारा शंकर जी ही कर सकेंगे। कोई और तुम्हारा अहित नहीं कर सकेगा।"
यह वरदान पाकर मय दानव अति प्रसन्न् हुआ। वह अतिकुशल शिल्पी था, वैज्ञानिक था। उसने सोचा कि मैं ऐसा अन्तरिक्ष नगर बनाउंगा, जो अजेय हो, कोई उसको भेद न सके। तीनों पुरों को एक बाण से बींधना पूर्णत: असम्भव होगा।
मय ने तीन नगरों का निर्माण प्रारंभ किया। उनमें वे सभी सुविधाएं थीं जो पृथ्वी के नगर में सुनी और सोची जा सकती थीं। बहुमंजिले भवन, सड़कें, बाजार, झीलें, तालाब, उद्यान और जीवनयापन की सुविधा के लिए सभी सामिग्रयां वहां उपलब्ध थीं। उनमें विभिन्न् प्रजाति के वृक्ष, लताएं तथ पशु-पक्षी भी थे। उन नगरों में छोटे-छोटे विमान भी थे और उन नगरों के परकोटों को इस प्रकार बनाया गया था कि वे पूर्णरूपेण अभेद्य थे।
मय दानव ने मित्र तारक को 'अयसपुर' का दायित्व देकर उसे अन्तरिक्ष में स्थापित कर दिया। उस लौह-पुर (अयसपुर) में हजारों की संख्या में दानवगण भी थे। रजतपुर, जो चांदी की भांति चमकता था, मय दानव ने अपने सहयोगी विद्युन्माली को दिया। उस नगर में विद्युन्माली के बंधु-बांधव हजारों की संख्या में उपस्थित थे। उसको भी अन्तरिक्ष में स्थापित कर दिया गया।
सुवर्ण की भांति पीत आभा बिखेरता तथा अन्तरिक्ष में गतिमान-नगर में मय दानव स्वयं अपने सगे-सम्बंधियों के साथ था। वे सभी प्रसन्न् थे और आमोद-प्रमोद में व्यस्त थे। पृथ्वी से तारे की भांति दिखते ये तीनों नगर अन्तरिक्ष में सौ योजन की दूरी पर घूमते थे।
दैत्यगण उन नगरों में समस्त सुख-सुविधाओं के साथ रहते थे। परन्तु कभी-कभी अपने स्वभाव के कारण वे आपस में युद्ध करने लगते, तो कभी पृथ्वी के मनुष्यों तथा स्वर्ग के देवताओं को खूब कष्ट देते, प्रताड़ित करते। उन्होंने शान्ति से साधना करते ऋषियों आदि को भी बार-बार पीड़ित किया। दैत्यों के इस प्रकार किए जा रहे कुकृत्यों से सभी त्रस्त थे। वे लोग विचार करने लगे कि किस प्रकार इन दुष्टों से छुटकारा पाया जाय।
देवता और मनुष्य पितामह ब्रह्मा जी के पास गए। उन्होंने सारी व्यथा सुनी और कहा, "इस प्रकरण में मात्र शंकर जी ही तुम्हारी सहायता कर सकते हैं।"
दानवों के अत्याचार से त्रस्त देवतागण ने भगवान् शंकर के पास जाकर अपनी व्यथा सुनाई। शंकर ने ध्यान से बातें सुनीं और बोले, "ठीक है, तुम लोग चिन्ता मत करो, मैं विकल्प निकलूंगा, इस समस्या का समाधान खोज लूंगा।" प्रसन्न् चित्त देवतागण लौट आए कई सप्ताह बाद देवताओं और मनुष्यों ने देखा कि भगवान् शंकर का छोड़ा हुआ बाण तेजी से एक पंक्ति में आए उन तीनों पुरों की ओर चला जा रहा है। थोड़ी देर में ऊपर से अन्तरिक्ष में एक सीध में आए उन त्रिपुरों में, तीनों पुरों में भीषण आग लग गई। वे धू-धू कर जल रहे थे और उनमें रहने वाले दानव और अन्य जीव-जन्तु अग्नि में जलकर भस्म हो रहे थे।
कुछ समय बाद स्वर्ग में देवताओं और धरती पर मनुष्यों ने देखा कि मय दानव द्वारा निर्मित तीनों नगर अन्तरिक्ष से गिरकर धरती पर भस्मीभूत हो चुके थे।
विंध्यगिरि-
पृथ्वी अपने विकास की प्रारंभिक अवस्था में बहुत गरम थी। समय के साथ उसका ऊपरी धरातल ठण्डा हुआ पर उसके केन्द्र में हलचलें चलती रहीं। भूगर्भ केंन्द्र के ऊपर विशाल चट्टानें केन्द्र में हो रहे परिवर्तन के कारण दक्षिणी ध्रुव से उत्तरी ध्रुव की ओर खिसकती रहीं, जिसके कारण पृथ्वी की ऊपर सतह पर पर्वत विकसित हुए।
उस पुराकालीन मानव ने आश्चर्य के साथ इन पर्वतों को उत्पé होते और उनकी ऊंचाई में परिवर्तन होते देखा था। कभी-कभी ये पर्वत कुछ दिनों के बाद पृथ्वी में समा जाते थे।
इसका वर्णन ऋग्वेद में मिलता है। इसमें बताया गया है कि इन्द्र ने उड़ते हुए पर्वतों के पंखों को काटकर स्थिर कर दिया। उस काल के आर्यों का नायक इन्द्र कहलाता था। हमारे वेद, पुराण इन्द्र की गाथाओं से भरे हैं। उसी युग की एक घटना विंध्य पर्वतमाला से जुड़ी हुई अब भी हमारे मानस में रची-बसी है।
हम सभी सुमेरु पर्वत के नाम से परिचित हैं। अनुमान से बीस हजार वर्ष पूर्व उत्तरी ध्रुव प्रदेश हिम से ढका हुआ नहीं था और अपने को आर्य कहने वाले वहां से लेकर उत्तरी भारत का भ्रमण करते थे।
आज के आधुनिक रूस के साइबेरिया क्षेत्र में, उस युग में हिमपात कम होने के कारण आवागमन सरल था। इसका सत्यापन महाभारत में विर्णत अर्जुन की उदीच्य यात्रा के विवरणों से, जो उन्होंने अश्वमेध यज्ञ की पूर्ति हेतु की थी, स्पष्ट हो जाता है।1
रूस की इसीकुल झील, जो साइबेरिया की अल्टाई पर्वत श्रंखला से 1800 मील उत्तर की ओर स्थित है, उसी के समीप 5 हजार फीट की ऊंचाई पर बेलूखा झील विद्यमान है। इसी के तट पर 14784 फीट ऊंचा बेलूखा पर्वत है जिसे आज भी अल्टाई भाषा में उच्च-सुमेर कहा जाता है।2
उस प्राचीन काल में हिमालय आज इतना ऊंचा नहीं था। वह क्रमश: बढ़ रहा था परन्तु विंध्यगिरि पर्वतमाला अवश्य दुर्गम थी, जिसको पार कर आर्यगण दक्षिण की ओर जाने हेतु लालायित रहते थे। आप उसकी वृद्धि रोकने की कृपा करें।" अगस्त ऋषि ने देवताओं का अनुरोध सुना और कुछ समय के उपरान्त वे अपनी पत्नी लोपामुद्रा सहित विंध्यगिरि के पास पहुंचे और उसे संबोधित किया, "हे पर्वत प्रवर! मैं सपत्नी किसी कार्यवश दक्षिण जाना चाहता हूं, इसलिए तुम मुझे दक्षिण दिशा में जाने के लिए मार्ग दो। जब तक मैं लौटकर नहीं आता, उस समय तक तुम मेरी प्रतीक्षा करो और हमारे दक्षिण मार्ग से वापस आने के उपरान्त इच्छानुसार बढ़ते रहना।"
विंध्यगिरि महर्षी अगस्त की बात मान गया और बिना अधिक ऊंचा उठे, वह आज भी ऋषि अगस्त और उनकी पत्नी के वापस आने की प्रतीक्षा अचल रूप में कर रहा है। ऐसा लगता है इसी कारण उस गिरि प्रवर को 'विंध्याचल' कहा जाने लगा।
अचल प्रतीक : ध्रुव- प्राचीन भारतीय वैज्ञानिक और गणितज्ञों के ज्ञान तथा यन्त्रों के निर्माण में उनकी दक्षता की चर्चा विश्वविख्यात है। शून्य के आविष्कारक महर्षी गृत्समद, भारतीय संख्याओं का विकास, उनकी गणना की पद्धति, ज्यामिति का विकसित स्वरूप हमें अपने वैदिक साहित्य में देखने को मिलता है। विख्यात वैदिक गणितज्ञों की श्रंखला में अपनी शुल्व सूत्र में विर्णत उस प्रमेय के कारण देदीप्यमान नक्षत्र की भांन्ति आभायुक्त महर्षी बोधायन अमर हैं, जिसे अंग्रेज महाप्रभुओं ने हमें पायथागोरस की प्रमेय का नाम देकर पढ़ाया है।
गणित ज्योतिष में रुचि रखने वाले व्यक्ति जानते हैं। कि ध्रुव नक्षत्र, जो सप्तर्षी मण्डल से सुदूर उत्तर में स्थित है, एक राशि पर तीन हजार वर्षॊ तक रहता है। इस प्रकार 12 राशियों के चक्र को ध्यान में रखते हुए, हमारे पुराणकारों ने कथोपकथन की उज्जवल परम्परा का पालन करते हुए जनमानस में सरलता से इस गणितीय तथ्य को बैठा दिया कि राजा ध्रुव का शासनकाल 36,000 वर्षॊ का होता है।
उन्होंने पुन: गणितीय तथ्योंं का मानवीकरण कर लिखा है कि राजा ध्रुव की पत्नी का नाम भूमि हैं, जिसका एक अर्थ परिक्रमा भी होता है। इसी भूमि नामक पत्नी से राजा ध्रुव के दो पुत्र उत्पन्न हुए, वे हैं-वत्सर और कल्प। यह सर्वविदित तथ्य है कि पृथ्वी सूर्य की परिक्रमा 365 दिनों में पूरी कर लेती है। भूमि की इस गति को वत्सर कहा जाता है। यही अवधि संवत् से होकर संवत्सर बन गई। सूर्य का अपने अक्ष पर धूमकर पुन: उसी स्थान पर आना एक कल्प कहा जाता है, यही राजा धू्रव का दूसरा पुत्र है। यह कथा कथोपकथन के माध्यम से गणितीय ज्ञान का संचार करती अप्रतिम वैज्ञानिक कथा है। राजा ध्रुव की नारद-विष्णु पुराण में विर्णत कथा इस प्रकार है-
स्वयंभुव मनु के प्रियव्रत और उत्तानपाद नामक दो महाबलशाली और नीति-निपुण पुत्र थे। राजा उत्तानपाद की दो रानियां थीं-प्रेयसी सुरुचि और राजमहिषी सुनीति, जिससे राजा उत्तानपाद को कोई विशेष लगाव नहीं था। प्रेयसी सुरुचि से उत्तम तथा सुनीति से ध्रुव नामक पुत्र उत्पन्न हुए।
एक दिन राजसिंहासन पर बैठे पिता उत्तानपाद की गोद में खेलते हुए उत्तम को देखकर बालक ध्रुव ने भी पिता की गोद में बैठने का प्रयास किया। परन्तु प्रेयसी सुरुचि के साथ बैठे राजा ने ध्रुव को गोद में नहीं बैठाया है। ध्रुव की विमाता ने उसे कठोर वचन भी कहे। दुखी होकर ध्रुव अपनी मां के पास चला गया। माता के बार-बार समझाने पर भी बालक ध्रुव ने अपने निश्चय को नहीं बदला। उसने कहा, "मां, मैं, पिता के राजसिंहासन से भी महान सिंहासन एवं पद प्राप्त करना चाहता हूं। मैं अमर होना चाहता हूं। इस कारण मैं राजभवन का त्याग करता हूं" कहकर उस बालक ने गृह त्याग दिया और तपस्या करने लगा।
उसकी घोर तपस्या से प्रसन्न होकर भगवान विष्णु स्वयं प्रकट हुए और उसे समस्त सांसारिक सुखोंं को प्रदान करना चाहा परन्तु दृढ़निश्चयी बालक ध्रुव ने उसे स्वीकार नहीं किया। फिर भगवान विष्णु ने कहा, "ध्रुव! मेरी कृपा से तू नि:सन्देह उस स्थान में, जो त्रिलोक में सबसे उत्कृष्ट हैं, ग्रह और तारामण्डल का आश्रय बनेगा। मैं तुझे ध्रुव-अटल-निश्चल स्थान देता हूं जो सूर्य, चन्द्र, मंंगल, बुध बृहस्पति, शुक्र और शनि आदि ग्रहों, सभी ऩक्षत्रों, समस्त सप्तऋषियों और समस्त विमानचारी देवगणों से ऊपर है। देवताओं में कोई तो चार युग तक और कोई एक मन्वन्तर तक ही रहता है, परन्तु तुम्हें मैं एक कल्प का समय देता हूं" इस प्रकार पूर्वकाल में भगवान विष्णु का वर पाकर ध्रुव इस अति उत्तम स्थान में स्थित हो गए।
राजा त्रिशंकु -
आज हम सभी इस तथ्य से परिचित हैं कि प्रसिद्ध फ्रांसीसी गणितज्ञ लाग रांज ने गति संबन्धी अपनी खोज में दिखाया था कि सूर्य, पृथ्वी और चन्द्रमा के मध्य बनने वाले त्रिकोण में एक ऐसा बिन्दु है जिस पर इन तीनोंं के गुरुत्वाकर्षण का प्रभाव नगण्य हो जाता है। इसे लाग रांज बिन्दु कहते हैं।
यह स्थिति दो पिण्डों के सापेक्ष में भी सत्यापित होती है। चन्द्रमा तथा पृथ्वी के मध्य दो ऐसे बिन्दु हैं, वहां पर यदि किसी अन्य पिण्ड का वेग किसी भांति शून्य कर दिया जाए तो वह पिण्ड सुदीर्घ काल तक उस बिन्दु-क्षेत्र में बना रहेगा। परिणामस्वरूप भविष्य के होटल तथा आज की उपग्रह प्रणलियों इसी क्षेत्र में विचरण करती हैं। यदि भविष्य का भारत-निर्मित अन्तरिक्ष होटल, त्रिशंकु के नाम पर रखा जाए तो भारतीयोंं के लिए यह गौरव का विषय होगा। तथ्यत: बहुत सम्भव है कि प्रसिद्ध भारतीय गणितज्ञ आर्यभट्ट ने अपने गुरुत्वाकर्षण सिद्धान्त के प्रतिपादन के समय इस बिन्दु की, इस क्षेत्र की गणना की हो, खोज की हो जिसका मानवीकरण राजा त्रिशंकु की कथा के कथा के रूप में विकसित हुआ हो।
"हे ब्राह्मण श्रेष्ठ! मैं आपकी शरण में आया हूं। मुझे सशरीर स्वर्ग जाने की इच्छा है" राजा त्रिशंकु ने अपने गुरु वशिष्ठ जी से अनुरोध किया।
"वत्स! यह सम्भव नहीं है। इन्द्र तुम्हें वहां रहने नहीं देगा" वशिष्ठ जी ने राजा त्रिशंकु को समझाया।
"मैं इन्द्र को वहां-स्वर्ग पहुंचने पर युद्ध में परास्त कर दूंगा" राजा त्रिशंकु ने विश्वास सहित अपने गुरु को बताया।
"यह असम्भव है राजन्! इसे तुम स्पष्ट जान लो।" कहकर वशिष्ठ जी उठ गए।
राजा त्रिशंकु विचलित नहीं हुए। वे महर्षी वशिष्ठ प्रतिद्वन्द्वी महर्षी विश्वामित्र के पास इसी अनुरोध के साथ उपस्थित हुए।
"मैं तुम्हें अपने तपोबल के प्रभाव से स्वर्ग भेज दूंगा" विश्वामित्र ने राजा त्रिशंकु को संबोधित किया।
राजा त्रिशंकु स्वर्ग पहुंचे परन्तु इन्द्र ने इन्हें स्वर्ग से नीचे गिरा दिया। महर्षी विश्वमित्र ने नीचे मुखकर गिरते हुए राजा त्रिशंकु को अन्तरिक्ष में स्थिर कर दिया।
मान्यता है कि त्रिशंकु आज भी उसी क्षेत्र में अधीमुख किए स्थित है।
महर्षी च्यवन-
त्रेता युग के प्रारम्भ में महर्षी भृगु प्रजापति थे। उनकी दो पित्नयां थीं। महर्षी च्यवन पैलोमी के पुत्र थे। इनके वार्द्धक्य नाश की कथा `शतपथ ब्राह्मण´ (4/1/5/1-12), `जैमिनीय ब्राह्मण´ और शाट्टायन ब्राह्मण´ में भी विर्णत है। भारतवर्ष के पश्चिम में पुरातन सुराष्ट्र (सौराष्ट्र-वर्तमान गुजरात) में शर्याति नामक राजा था। अपनी कन्या-सुकन्या-का विवाह उसके पिता ने महर्षी च्यवन (जो अति वृद्ध थे) से कर दिया था। वृद्ध च्यवन ऋषि अश्विनद्वय (अश्विनी कुमारों) की चिकित्सा से स्वस्थ होकर यौवन प्राप्त कर सके। चरक संहिता चिकित्सा संस्थान 1/44 में भी इस घटना का उल्लेख है। अश्विनद्वय द्वारा महर्षी च्यवन के यौवन-प्राप्ति हेतु जो औषधि दी गई थी, वह आज भी `च्यवनप्राश´ के नाम से प्रसिद्व है।
अश्विनद्वय द्वारा महर्षी च्यवन को जो अवलेह पुर्नयौवन प्राप्त करने हेतु दिया गया था, सम्भव है, उसमें अन्य औषधियों के साथ पारसागुंबा के समान गुण-धर्म वाली जड़ी, जो हिमालय की ऊंची चोटियोंं पर आज भी सुलभ है, भी प्रयेाग की जाती रही हो। इस जड़ी में पुनयौंवन उद्दीपन की शक्ति है जो आधुनिक विज्ञान की शोध द्वारा सत्यापित की जा चुकी है। इसी कारण यौवन-सुख प्राप्त करने हेतु इसकी तस्करी की जाती है।
महर्षी च्यवन की कथा महाभारत में इस प्रकार विर्णत है:
महर्षी भृगु का च्यवन नामक एक अतीव तेजस्वी पुत्र था। वह एक सरोवर के किनारे तपस्या करने लगा। वह अचल भाव से तपस्या में लीन था। समय के साथ लता-तृणों ने उसे चारों ओर से ढक लिया और कुछ समय बाद दीमकों ने उसके शरीर पर अपना बसेरा बना लिया। दूर से देखने पर वह मिट्टी का पिण्ड लगने लगा।
एक दिन राजा शर्याति अपनी रानियों और सुन्दर भृकुटियों वाली कन्या (जिसका नाम सुकन्या था) के साथ उस सरोवर के पास क्रीड़ा करने आए।
वह कन्या अपनी सहेलियों के साथ विचरण करती हुई महर्षी च्यवन के ऊपर बनी बांबी के पास जा पहुंची। उसे बांबी से महर्षी च्यवन की आंखे गतिमान दिखीं। उस सुकन्या ने कुतूहलवश उन चमकदार आंखों में, यह जानने के लिए कि वह क्या है, एक कांटा चुभो दिया। महर्षी च्यवन की आंखें फूट गई वे कष्ट से क्रोधित हो उठे। उन्होंने श्राप दिया और राजा शर्याति की सेना तथा उनके परिवार का मल-मूत्र त्याग बन्द हो गया।
राजा ने सभी से पूछा कि किसी ने यहां पर कोई अपराध तो नहीं किया हैं? किसी यदि ऐसा हुआ हो तो वह अविलम्ब बता दे। जब सुकन्या ने यह सुना तो उसने अपने पिता को बताया कि घूमते-घूमते वह एक बांबी के पास गई थी। उसमें दो चमकते जुगनुओं की भांति कुछ दिखाई दिया था, उसे मैंने एक कांटे से बेध दिया था। यह सुनकर तत्काल राजा शर्याति उस बांबी को देखने गए।
वृद्ध च्यवन ऋषि उस बांबी को गिराकर उसके ऊपर बैठे थे। उनके नेत्रों से रक्त बह रहा था। राजा शर्याति ने उन्हें देखकर, हाथ जोड़कर विनम्रता से कहा, "भगवान! इस बालिका से अनजाने में यह अपराध हो गया है, आप उसे क्षमा कर हैं।"
क्रोध-भरे स्वर में महर्षी च्यवन ने कहा, "तुम्हारी गर्वीली पुत्री ने मेरी आंखें फोड़ दी है, उसे प्राप्त करने के बाद ही मैं अपने श्राप का निवारण करूंगा।"
राजा शर्याति ने च्यवन की बात मान ली। ऋषि ने प्रसन्न होकर उसके क्लेश का निवारण कर दिया और राजा शर्याति सेना और रानियों के साथ राजधानी वापस चले गए।
सुकन्या धैर्य से अपने वृद्ध पति-महर्षी च्यवन की सेवा करने लगी। कालान्तर में देवों के वैद्य अश्विनी कुमारों के द्वारा निर्मित औषधि के सेवन के फलस्वरूप महर्षी च्यवन युवा हो गए। उनके नेत्रों की ज्योति वापस आ गई। वह आनन्द से सुकन्या के साथ रहने लगे। वही औषधि 'च्यपनप्राश´ के नाम से विख्यात है।
राजा ककुघ्न-
'सापेक्षता' शब्द से हम सभी परिचित हैं। इस वैज्ञानिक सिद्धान्त को इस प्रकार समझा जा सकता है, पृथ्वी जितने समय में सूर्य की परिक्रमा करती है वह एक वर्ष कहा जाता है। इसी अनुसार सौरमण्डल का एक ग्रह जितने समय में सूर्य की परिक्रमा करता है, वह उसका एक वर्ष होता है। शुक्र ग्रह का एक वर्ष पृथ्वी की अपेक्षा 3/10 गुना तथा शनि का एक वर्ष 29 गुना होता है।
यदि हम यह मान लें कि पृथ्वी के मानव की आयु सौ वर्ष होती है तो शुक्र ग्रंह के 'मानव' की आयु 61 वर्ष तथा शनि के 'मानव' की आयु कई हजार गुना होगी। फिर ब्रह्मा का एक दिन एक कल्प के बराबर होता है। एक कल्प में 4325107 वर्ष होते हैं तथा इतने ही वर्षों की एक रात्रि होती है। अत: ब्रह्मा के दिन-रात का योग 8645107 वर्षों का होता है। इसी को 30 से गुणा करने पर 259205108 वर्षों का ब्रह्मा का एक मास तथा 12 से गुणा करने पर 3110405108 वर्षों का एक ब्रह्म वर्ष होता है। यदि इसे पुन: हम 100 से गुणित कर दें। तो वह ब्रह्मा की आयु हो जाएगी। इस सृष्टि के प्रारंभ से लेकर आज तक 15,55,21,97,29,49,050 वर्ष ब्रह्मा की आयु के बीत चुके हैं।
इसी तथ्य को राजा ककुघ्न की कथा के द्वारा श्रीमद्भागवत पुराण में सुन्दर ढंग से प्रस्तुत किया गया है।
राजा शर्याति के तीन पुत्र थे-उत्तानबर्हि, अनार्त और भूरिषेण। अनार्त के पुत्र थे और इनमें श्रेष्ठ और ज्येष्ठ थे ककुघ्न ।
ककुघ्न अपनी कन्या रेवती के लिए योग्य वर की खोज में थे। इसी क्रम में वे ब्रह्मा जी के पास गए। उस समय ब्रह्मलोक का मार्ग इस प्रकार के लोगों के लिए खुला रहता था। वहां नृत्य-गान की धूम मची थी। बात करने के लिए अवसर न पाकर वे कुछ क्षण वहां ठहर गए। उत्सव के अन्त में उन्होंने ब्रह्मा जी को नमस्कार कर अपना उद्देश्य बताया।
उनकी बात सुनकर ब्रह्मा जी ने हंसकर कहा, "महाराज! तुमने मन में जिन-जिन लोगों का नाम सोच रखा है, वे सब काल के गाल में चले गए है। अब उनके पुत्र-पौत्रोंं आदि की क्या बात करें, उनके गोत्रों का नाम भी अब सुनाई नहीं पड़ता। तुम्हारें यहां आने तक पृथ्वी पर सत्ताईस चतुर्युग बीत चुके हैं। तुम पृथ्वी पर वापस जाओं। वहां पर इस समय द्वापर युग चल रहा है। तुम महाबली श्रीकृष्ण के अग्रज बलराम जी से अपनी कन्या का विवाह कर दो।" राजा ककुघ्न ब्रह्मा को प्रणाम कर पृथ्वी पर चले गए तथा बलराम जी से रेवती का विवाह कर दिया।
शिखण्डी-
आजकल सेक्स-चेंज अथवा लिंग-परिवर्तन को चर्चा मीडिया के माध्यम से सुनने को मिलती है। सम्भवत: यह पर्यावरण में मौजूद लिंग-परिवर्तन करने वाले अनेक रसायन जल वायु तथा खाद्य-पदार्थो के माध्यम से जन सामान्य को प्रभावित कर रहे हैं। इस लिंग-परिवर्तन की पृष्ठभूमि में यदि विविध थैरेपी रसायनों का योगदान है तो आज की वैज्ञानिक चिकित्सा पद्धति हारमोन और सर्जरी द्वारा मन में दमित लिंग भावना को नर अथवा मादा में परिवर्तन कर देना सम्भव हो गया है। यही कारण है कि स्त्री अथवा पुरुष स्वाभाविक संकोच त्यागकर चिकित्सकीय संसाधनों को उपयोग कर रहे है।
लिंग-परिवर्तन कोई आज की समस्या नहीं है प्राचीन काल में भी इस प्रकार की घटनाएं घटित होती थीं और हमारे पुराणों में अनेक आख्यान सुरक्षित हैं। इनमें अधिक प्रचलित है सुग्रीव के जन्म की कथा, राजा इल का इला (स्त्री) और पुन: इल (पुरुष) बनने की कथा तथा शिखण्डी के जन्म के उपरान्त लिंग-परिवर्तन की बहुचर्चित-महाभारत की कथा, जिसमें सम्भवत: यक्ष स्थूणाकर्ण ने उसका लिंग-परिवर्तन औषाधियों के माध्यम से कर दिया था। कथा इस प्रकार है- महाराज द्रपद की रानी को कोई पुत्र नहीं था। राजा ने इस कामना की पूर्ति हेतु भगवान शिव को प्रसन्न कर लिया। भगवान आशुतोष ने कहा, "तुम्हारे यहां एक ऐसा पुत्र होगा जो पहले स्त्री और फिर पुरुष हो जाएगा। अब तुम तपस्या करना बन्द कर दो, मैंने जो वरदान दिया था, वह अन्यथा नहीं होगा।"
ऋतुकाल आने पर महारानी ने गर्भधारण किया। उनके यहां एक रूपवाती कन्या ने जन्म लिया। परन्तु राजा ने प्रचार कर दिया कि उनके यहां पुत्ररत्न की प्राप्ति हुई है। उस कन्या के सभी संस्कार पुत्र की भान्ति किए गए और उसका नामकरण 'शिखडी' कर दिया गया। उसने अपनी समस्त शिक्षा द्रोणाचार्य से प्राप्त की और समय के अनुरूप राजा द्रुपद ने उसका विवाह दशार्णाराज हिरण्यवर्मा की रूपसी कन्या से कर दिया। विवाह के बाद शिखण्डी कंपिल्य नगर में रहने लगा। वहां पर रहते हुए राजा हिरण्यवर्मा की कन्या को शिखण्डी की वास्तविकता का पता चला और उसने अत्यन्त दु:ख के साथ अपने पिता को यह तथ्य बता दिया। क्रोध में भरकर राजा हिरण्यवर्मा ने राजा द्रुपद के पास अपना दूत भेजा। दूत राजा द्रुपद के पास सन्देश लेकर पहुंचा।
दूत ने राजा द्रुपद का एकान्त में ले जाकर कहा, "राजन्! अपने दशार्णराज को धोखा दिया है, इस कारण उन्होंने क्रोध में भरकर कहा है कि आपने किया है। इस अपमान का मैं बदला लूंगा। मैं तुम्हें और तुम्हारे कुटूम्बियों को नष्ट कर दूंगा।"
राजा द्रुपद ने राजा हिरण्यवर्मा को दूत के माध्यम से समझाने का बहुत प्रयास किया परन्तु हिरण्यवर्मा दृढ़निश्चयी था। वह सेना लेकर पांचाल नरेश द्रुपद पर चढ़ाई करने निकल पड़ा। उस समय साथी राजाओं ने निश्चय किया कि यदि शिखण्डी वास्तव में स्त्री है तो हम लोग राजा द्रुपद को बन्दी बनाकर ले आएंगे और किसी अन्य नरेश को पांचाल का राज्य दे देंगे। फिर राजा द्रुपद और शिखण्डी को मार डालेंगे। द्रुपद ने दशार्णराज के पास अपना दूत भेजा और एकान्त में रानी से विचार-विमर्श करने लगे। राजा द्रुपद दुखी भाव से कहने लगे, "इस कन्या के विषय में हमने मूर्खता कर दी है। अब हम क्या करें? राजा हिरण्यवर्मा भी इसी के कारण समझ रहा है कि हमने छल-कपट किया हैं। परिस्थिति विकट है।"
माता-पिता की बातें सुनकर शिखण्डिनी बहुत दुखी हुई और मन में सोचने लगी, '`मेरे कारण मेरे माता-पिता को दु:ख हो रहा है, इस कारण मैं प्राण त्याग दूं।' ऐसा निश्चय कर वह एक निर्जन वन में चली गई। वह वनकी रक्षा का भार स्थूणाकर्ण नामक यक्ष के ऊपर था। वह यक्षराज कुबेर का अनुचर था। शिखण्डिनी निराहर तपस्या करने लगी। एक दिन स्थूणाकर्ण उसके सम्मुख आकर कहने लगा, "कन्ये। यह तेरा अनुष्ठान किस उद्देश्य के लिए है? तू मुझे बतला, मैं तेरा हित करूंगा। मैं तुम्हें वर देने आया हूं। मुझे जो कहना है, उसे बता?"
शिखण्डिनी बोली, "आपने मेरा दु:ख दूर करने का आश्वासन दिया है, अत: कृपा कर मुझे पुरुष बना दो।" यक्ष ने कहा, "तुम्हारा यह काम हो जाएगा परन्तु उसमें एक प्रतिबंध है। मैं अपना पुरुषत्व तुमको कुछ समय के लिए दूंगा और यदि तुम प्रतिज्ञापूर्वक आश्वासन दो कि तुम मुझे वापस करने यहां आओगी तो उतने समय तक मैं स्त्री बना रहूंगा।"
शिखण्डिनी ने कहा, "जब राजा हिरण्यवर्मा वापस दशार्ण देश को चला जाएगा, मैं तुम्हारा पुरुषत्व वापस लौटा दूंगी। मैं स्त्री हो जाऊंगा और तुम पुरुष।"
इस प्रकार का निश्चय कर दोनों ने लिंग-परिवर्तन कर लिया। इस प्रकार पुरुषत्व की प्राप्ति कर प्रसन्नचित शिखण्डी अपने पिता के नगर-पांचाल में आ गया। उसने राजा द्रुपद को विस्तार के सारा वृत्तान्त सुनाया। प्रसन्न द्रुपद को भगवान पशुपति के आशीर्वाद का स्मरण हो गया।
उन्होंने दशार्णराज हिरण्यवर्मा को सन्देश भेजा कि वह आकर शिखण्डी के संबन्ध में तथ्यों को सत्यापन कर लें।
राजा द्रुपद को सन्देश पाकर दशार्णराज ने शिखण्डी की परीक्षा लेने हेतु युवतियोंं को भेजा। उन युवतियों ने राजा हिरण्यवर्मा को बताया कि राजकुमार शिखण्डी वास्तव में पुरुष है। इस समाचार से प्रसन्न होकर राजा हिरण्यवर्मा द्रुपद के पास आए, उनका आतिथ्य स्वीकार किया और शिखण्डी को हाथी, घोड़े, गौ और बहुत-सी सुन्दर दासियों भेंट कर प्रसन्नतापूर्वक नगर चले गए।
इसी अन्तराल में यक्षराज कुबेर विचरण करते हुए स्थूणाकर्ण के रंग-बिरंगे पुष्पों और लताओं से घिरे आवास पर पहुंचे। "महराज! राजा द्रुपद की कन्या शिखण्डिनी को अपना पुरुषत्व दे देने के कारण स्थूणाकर्ण स्त्री-रूप में भीतर ही रहते हैं। इस कारण संकाचवश वह आपकी सेवा में उपस्थित नहीं हो सका।"
यक्षराज कुबेर ने अनुचर से कहा, "स्थूणाकर्ण को मेरे सम्मुख उपस्थित होने के लिए कहो।"
इस प्रकार बुलाए जाने पर अति संकोच के साथ स्थूणाकर्ण कुबेर के सम्मुख उपस्थित उपस्थित हुआ।
यक्षराज कुबेर ने उसे देखकर कहा, "तुम स्त्री-रूप ही रहोगे।"
यह सुनकर स्थूणाकर्ण क्षमा मांगते हुए कहने लगा, "यक्षराज! मुझ पर कृपा कीजिए। उस कन्या शिखण्डिनी की तपस्या से प्रभावित होकर मैंने उसे कुछ समय तक के लिए ही पुरुषत्व प्रदान किया था।"
स्थूणाकर्ण के अनुचर और अन्य यक्ष गणों ने भी यक्षराज कुबेर से स्थूणाकर्ण के स्त्री-रूप में रहने की अवधि को कम करने अथवा निश्चित कर देने के लिए कहा।
इस अनुरोध पर विचार करते हुए यक्षराज कुबेर ने कहा, "जब शिखण्डी युद्ध में मृत्यु को प्राप्त होगा। उसी समय स्थूणाकर्ण पुरुषत्व प्राप्त कर लेना।"
इतना कहकर यक्षराज कुबेर अन्य यक्षों के साथ अपनी राजधानी अलकापुरी चले गए।
विशल्या-
आयुर्वेद को हमारे मनीषियोंं ने पांचवां वेद माना है। आयुर्वेद के महान् ग्रन्थों में 'चरक संहिता' और 'सुश्रुत सहित´ विश्वविख्यात् हैं। यदि 'चरक संहिता´आयुर्वेदिक औषधियों' का विश्वकोश है तो महर्षी सुश्रुत द्वारा रचित `सुश्रुत संहिता´ शल्य-शाल्यक सर्जरी का, वह भी प्राचीन भारतीय सन्दर्भ में, अप्रतिम ग्रन्थ है।
महर्षी चरक द्वारा विरचित और दृढ़ बल प्रतिसंस्कृत `चरक संहिता´ में कई प्रकार की वनस्पतियों, लताओं, द्रुमों, जीवों, जन्तुओं के औषधीय गुणों का वर्णन है। यहां तक कि `नास्ति मूलं तू ओषधम्´ कहा जाता है। कोई जड़ ऐसी नहीं है जो औषधि नहीं है। इसी प्रसिद्ध ग्रंथ में, प्राचीन ग्रन्थ में प्राचीन युग में बाणों द्वारा घायल हो जाने पर, मूर्छित हो जाने पर, हडिडयों के टूट जाने पर उन्हें ठीक कर देने वाली औषधियोंं का वर्णन है, जिनका लोग प्रयोग करते थे। आधुनिक वनस्पति शास्त्रियों ने इन औषधियों की पुन: खोज मध्य प्रदेश में ही की, वरन् उनका प्रवर्धन भी करना प्रारंभ कर दिया है-इन्हीं में है विशल्या-जो घाव को तुरन्त भर देती है तथा संजीवनी-जिसका प्रवर्धन राष्ट्रीय वनस्पति उद्यान लखनऊ में हो रहा है। ये सभी औषधियां हमारी पारंपरिक धरोहर हैं। आज भी कांटों के शरीर में धंस जाने और न निकलने की स्थिति में मन्दार पौधे का दूध लगा देने से कांटा या अन्य धंसी हुई वस्तु शरीर के प्रभावित अंग से बाहर निकल आती है। यह ग्रामीण क्षेत्र में विशल्यीकरण की प्रचलित प्रथा है, जो आज भी सुरक्षित है।
रावण से युद्ध करते समय उसके फेंकी गई गड़गड़ाहट उत्पन्न करने वाली भयानक, शक्तिशाली, शत्रु त्रासदायक शक्ति लक्ष्मण की छाती मेंं धंस गई और रक्त से भीगे लक्ष्मण युद्धभूमि में, विभीषण को रावण के प्रचण्ड प्रहार से सुरक्षित करने के प्रयास में, धरा पर गिर पड़े।
वाल्मीकि रामायण में विर्णत है कि उस शक्ति को लक्ष्मण की छाती से निकालते का प्रयास वानर-वीरों ने किया परन्तु ने अपने प्रयास में सफल नहीं हुए। तब महाबली रामचन्द्र ने अपने दोनों हाथों से शक्ति लगाकर उस भयंकर शक्ति को लक्ष्मण की छाती से निकाल कर तोड़ डाला।
भगवान् राम जब लक्ष्मण के शरीर से उस भयंकर शक्ति को निकाल रहे थे, उस समय महाबली रावण उनके शरीर पर बाणों की वर्षा कर रहा था। उन बाणों की चिन्ता न कर राम ने महाकपि सुग्रीव से कहा, "तुम लोग लक्ष्मण को घेरे खड़े रहो अब यह अवसर मेरे लिए उस पराक्रम को दिखाने का है जिसकी मुझे इतने दिनों से प्रतीक्षा थी।"
इस भीषण संग्राम में जैसे वायु के थपेड़ों से मेघ उड़ जाता है, उसी प्रकार श्रीराम के बाणों की वर्षा से घायल और पीड़ित होकर रावण भाग गया।
घायल पड़े लक्ष्मण को देखकर वैद्यराज सुषेण ने हनुमान से कहा, "सौम्य, शीघ्र मतो गत्वा पर्वत हि महोदयम्।। हे हनुमान! तुम शीघ्र महोदधि पर्वत, जिसका पता जाम्बवान तुम्हें बता चुके हैं। जाओ और उसके दक्षिणी शिखर पर उगी हुई विशल्यकरणी (शरीर में धंसे बाणों और पीड़ा दूर करने वाली), तथा शरीर को पूर्व की भांति शक्ति देने वाली सावण्र्यकरणी (शरीर को पूर्व की भांति शक्ति देने वाली), मूच्छाZ दूर कर चेतना प्रदान करने वाली), संधानी टूटी हुई हडिडयों को जोड़ने वाली औषाधियों को यहां ले आओ। उनसे वीरवर लक्ष्मण की प्राण-रक्षा होगी।"
हनुमान जी महोदधि गिरि के पर्वत पर पहुंच जाते हैं परन्तु उन औषाधियों को पहचान न पाने के कारण उस गिरि शिखर को हिलाकर उखाड़ लाते हैं। वैद्यराज सुषेण द्वारा उन औषाधियों के प्रयोग के परिणाम से लक्ष्मण जी स्वस्थ हो जाते हैं। भीषण युद्ध के उपरान्त दुरात्मा रावण का वध भगवान् राम के द्वारा कर दिया जाता है।
अश्विद्वय-
प्रजापति कश्यप और अदिति के आठवें पुत्र का नाम विवस्वान था। विवस्वान की प्रथम पत्नी सरायू से यम, यमी और अश्विद्वय तथा उनकी द्वितीय भार्या सवर्णा से मनु उत्पन्न हुए थे।
इनमें से मनु द्वारा भारत में मनु पुत्रों-मानवों को तथा यम द्वारा आदि पारसियों आधुनिक ईरानियों को संरक्षण प्राप्त हुआ। विवस्वान तथा उनके पुत्रों का जन्म देवयुग में हुआ था।
इन्हीं अश्विद्वय की उपस्थिति में समुद्र-मन्थन, अमृत-प्राप्ति और तदुपरान्त चौथा देवासुर संग्राम हुआ था।
अश्विद्वय-देवभिषक-देवताओं के चिकित्सक थे। उनके चिकित्सा कृत्यों की झलक ऋग्वेद से लेकर अथर्ववेद तक में यत्र-तत्र बिखरी पड़ी है-कुछ संक्षिप्त हैं तो कुछ सांकेतिक। इसको ध्यान में रखकर उनकी चिकित्सकीय उपलब्धियों निम्नवत् हैं।
स जल में डूबे रेभ को बाहर निकालकर स्वस्थ बनाया।
स वन्दन को कैद से छुड़ाकर युवा बनाया।
स अन्तक को गड्ढे से बाहर निकालकर स्वस्थ बनाया।
स पंश्रकुलोत्पन्न कक्षीवानको पुनर्युवा बनाया।
स वृद्ध कलि को पुनर्योवन प्रदान कर उसको सुन्दर पत्नी के योग्य बनाया।
स वघिरमति का वंध्यात्व दूर कर पुत्रवती बनाया।
स दुर्बल और अशक्त राजा वश को युद्ध योग्य बनाया।
स राजा कक्षीवान की कन्या घोषा का कुष्ठ रोग दूर किया।
स श्राव का कुष्ठ रोग दूर उसे स्वस्थ बनाया।
स राजा मान को पुत्र दिया।
स सहदेव पुत्र सोमक को दीर्घायु बनाया।
स भरद्वाज को दीर्घायु बनाया।
स वामदेव को माता के गर्भ से निकला।
स सोम के राजयक्ष्मा को दूर किया तथा इनमें से महर्षी च्यवन पुनर्योवन प्राप्ति की कथा से सभी परिचित हैं।
अश्विद्वय के शल्य कर्म (सर्जरी) से सम्बन्धित कुछ कथाएं इस प्रकार हैं:
स अग्नि से जले अत्री को चिकित्सा द्वारा युवा बनाया।
स अंधे कण्व को नेत्र ज्योति दी।
स राजा खेल की कन्या विशाला की टूटी टांग को ठीक किया।
स वेन के पुत्र पृथु, जो घोड़े से गिर गया था, उसकी चिकित्सा की।
स घायल शर्याति को स्वस्थ किया।
स घायल कृशानु को बचाया।
स वज्राश्व को नेत्र ज्योति दी।
स नृशद के पुत्र का बहरापन ठीक किया।
स घायल श्यान को स्वस्थ किया।
स सोमारि के घावों को ठीक किया।
स ऋषि श्रोण के घुटनों के दर्द को दूर किया।
स इन्द्र के अण्डकोशों को प्रत्यारोपण किया।
स पूषा के टूटे हुए दांतों को ठीक किया।
स इन्द्र के भुज स्तम्भ की चिकित्सा की।
अश्विद्वय अंग-प्रत्योरोपण एवं संजीवनी विद्या में निपुण थे। वे कुशल पशु चिकित्सक थे तथा गौ के वंध्यात्व को भी दूर किया था। प्रारम्भ में अश्विद्वय को यज्ञों में भाग नहीं मिलता था। अर्थात् वे अपने समय के समाज में प्रतिष्ठित नहीं माने जाते थे परन्तु महर्षी च्यवन को पुनयौंवन प्रदान करने के उपरान्त उन्हें यज्ञों में भाग मिलने लगा औ वे प्रतिष्ठित, आदरणीय तथा सर्वमान्य चिकित्सक के रूप मे भी स्वीकार कर लिए गए थे।
वेद, पुराण, रामायण, महाभारतादि काव्य होते हुए भी विज्ञान कथाओं से ओत-प्रोत हैं। इसी तथ्य को ध्यान में रखते हुए प्रस्तुत आलेख लिखा में भारतीय वाग्मय में बिखरे अनेक आख्यानों में से कुछ को चयनित कर उल्लेखित किया गया है।
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