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Sunday, August 18, 2013

प्राचीन भारत के प्रमुख शास्त्र

प्राचीन समय में न तो आफसेट प्रिंटिंग की मशीने थीं, न स्क्रिन प्रिटिंग की। न ही इंटरनेट था जहां किसी भी विषय पर असंख्य सूचनाएं उपलब्ध होती हैं। फिर भी प्राचीन काल के ऋषि-मुनियों ने
अपने पुरुषार्थ, ज्ञान और शोध की मदद से कई शास्त्रों की रचना की और उसे विकसित भी किया। इनमें से कुछ प्रमुख शास्त्रों का विवेचन प्रस्तुत है-

आयुर्वेदशास्त्र


आयुर्वेद शास्त्र का विकास उत्तरवैदिक काल में हुआ। इस विषय पर अनेक
स्वतंत्र ग्रंथों की रचना हुई। भारतीय परंपरा के अनुसार आयुर्वेद की रचना
सबसे पहले ब्रह्मा ने की। ब्रह्मा ने प्रजापति को, प्रजापति ने अश्विनी
कुमारों को और फिर अश्विनी कुमारों ने इस विद्या को इन्द्र को प्रदान किया।
इन्द्र के द्वारा ही यह विद्या सम्पूर्ण लोक में विस्तारित हुई। इसे चार
उपवेदों में से एक माना गया है।


कुछ विद्वानों के अनुसार यह ऋग्वेद का उपवेद है तो कुछ का मानना है कि
यह ‘अथर्ववेद’ का उपवेद है। आयुर्वेद की मुख्य तीन परम्पराएं हैं-
भारद्वाज, धनवन्तरि और काश्यप। आयुर्वेद विज्ञान के आठ अंग हैं- शल्य,
शालाक्य, कायचिकित्सा, भूतविधा, कौमारमृत्य, अगदतन्त्रा, रसायन और वाजीकरण।
चरक संहिता, सुश्रुत संहिता, काश्यप संहिता इसके प्रमुख ग्रंथ हैं जिन पर
बाद में अनेक विद्वानों द्वारा व्याख्याएं लिखी गईं।


आयुर्वेद के सबसे महत्वपूर्ण ग्रन्थ चरकसंहिता के बारे में ऐसा माना
जाता है कि मूल रूप से यह ग्रन्थ आत्रेय पुनर्वसु के शिष्य अग्निवेश ने
लिखा था। चरक ऋषि ने इस ग्रन्थ को संस्कृत में रूपांतरित किया। इस कारण
इसका नाम चरक संहिता पड़ गया। बताया जाता है कि पतंजलि ही चरक थे। इस
ग्रन्थ का रचनाकाल ईं. पू. पांचवी शताब्दी माना जाता है।


ज्योतिषशास्त्र


ज्योतिष वैदिक साहित्य का ही एक अंग है। इसमें सूर्य, चन्द्र, पृथ्वी,
नक्षत्र, ऋतु, मास, अयन आदि की स्थितियों पर गंभीर अध्ययन किया गया है। इस
विषय में हमें ‘वेदार्घैं ज्योतिष’ नामक ग्रंथ प्राप्त होता है। इसके रचना
का समय 1200 ई. पू. माना गया है। आर्यभट्ट ज्योतिष गणित के सबसे बड़े
विद्वान के रूप में माने जाते हैं। इनका जन्म 476 ई. में पटना (कुसुमपुर)
में हुआ था। मात्र 23 वर्ष की उम्र में इन्होंने ‘आर्यभट्टीय’ नामक
प्रसिद्ध ज्योतिष ग्रंथ की रचना की। इस ग्रंथ में पूरे 121 श्लोक हैं। इसे
चार खण्डों में बांटा गया है- गीतिकापाद, गणितपाद, कालक्रियापाद और गोलपाद।


वराहमिहिर के उल्लेख के बिना तो भारतीय ज्योतिष की चर्चा अधूरी है। इनका
समय छठी शताब्दी ई. के आरम्भ का है। इन्होंने चार प्रसिद्ध ग्रंथों की
रचना की- पंचसिद्धान्तिका, वृहज्जातक, वृहदयात्रा तथा वृहत्संहिता जो
ज्योतिष को समझने में मदद करती हैं।

गणितशास्त्र


प्राचीन काल से ही भारत में गणितशास्त्र का विशेष महत्व रहा है। यह सभी
जानते हैं कि शून्य एवं दशमलव की खोज भारत में ही हुई। यह भारत के द्वारा
विश्व को दी गई अनमोल देन है। इस खोज ने गणितीय जटिलताओं को खत्म कर दिया।
गणितशास्त्र को मुख्यत: तीन भागों में बांटा गया है। अंकगणित, बीजगणित और
रेखागणित।


वैदिक काल में अंकगणित अपने विकसित स्वरूप में स्थापित था। ‘यजुर्वेद’
में एक से लेकर 10 खरब तक की संख्याओं का उल्लेख मिलता है। इन अंकों को
वर्णों में भी लिखा जा सकता था।


बीजगणित का साधारण अर्थ है, अज्ञात संख्या का ज्ञात संख्या के साथ
समीकरण करके अज्ञात संख्या को जानना। अंग्रेजी में इसे ही अलजेब्रा कहा गया
है। भारतीय बीजगणित के अविष्कार पर विवाद था। कुछ विद्वानों का मानना था
इसके अविष्कार का श्रेय यूनानी विद्वान दिये फान्तस को है। परंतु अब यह
साबित हो चुका है कि भारतीय बीजगणित का विकास स्वतंत्र रूप से हुआ है और
इसका श्रेय भारतीय विद्वान आर्यभट्ट (446 ई.) को जाता है।


रेखागणित का अविष्कार भी वैदिक युग में ही हो गया था। इस विद्या का
प्राचीन नाम है- शुल्वविद्या या शुल्वविज्ञान। अनेक पुरातात्विक स्थलों की
खुदाई में प्राप्त यज्ञशालाएं, वेदिकाएं, कुण्ड इत्यादि को देखने तथा इनके
अध्ययन करने पर हम पाते हैं कि इनका निर्माण रेखागणित के सिद्धांत पर किया
गया है। ब्रह्मस्फुट सिद्धांत, नवशती, गणिततिलक, बीजगणित, गणितसारसंग्रह,
गणित कौमुदी इत्यादि गणित शास्त्र के प्रमुख ग्रन्थ हैं।

कामशास्त्र


भारतीय समाज में पुरुषार्थ का काफी महत्व है। पुरुषार्थ चार हैं- धर्म,
अर्थ, काम, मोक्ष। काम का इसमें तीसरा स्थान है। सर्वप्रथम नन्दी ने 1000
अध्यायों का ‘कामशास्त्र’ लिखा जिसे बाभ्रव्य ने 150 अध्यायों में
संक्षिप्त रूप में लिखा। कामशास्त्र से संबंधित सबसे प्रसिद्ध ग्रंथ है ‘कामसूत्र’।


इसकी रचना वात्स्यायन ने की थी। इस ग्रंथ में 36 अध्याय हैं जिसमें
भारतीय जीवन पद्धति के बारे में बताया गया है। इसमें 64 कलाओं का रोचक
वर्णन है। इसके अलावा एक और प्रसिद्ध ग्रंथ है ‘कुहनीमत’ जो एक लघुकाव्य के
रूप में है। कोक्कक पंडित द्वारा रचित रतिरहस्य को भी बेहद पसंद किया
जाताहै।



रसायनशास्त्र का प्रारंभ वैदिक युग से माना गया है। प्राचीन ग्रंथों में
रसायनशास्त्र के ‘रस’ का अर्थ होता था-पारद। पारद को भगवान शिव का वीर्य
माना गया है। रसायनशास्त्र के अंतर्गत विभिन्न प्रकार के खनिजों का अध्ययन
किया जाता था। वैदिक काल तक अनेक खनिजों की खोज हो चुकी थी तथा उनका
व्यावहारिक प्रयोग भी होने लगा था। परंतु इस क्षेत्र में सबसे ज्यादा काम
नागार्जुन नामक बौद्ध विद्वान ने किया। उनका काल लगभग 280-320 ई. था।
उन्होंने एक नई खोज की जिसमें पारे के प्रयोग से तांबा इत्यादि धातुओं को
सोने में बदला जा सकता था।


रसायनशास्त्र के कुछ प्रसिद्ध ग्रंथों में एक है रसरत्नाकर। इसके रचयिता
नागार्जुन थे। इसके कुल आठ अध्याय थे परंतु चार ही हमें प्राप्त होते हैं।
इसमें मुख्यत: धातुओं के शोधन, मारण, शुद्ध पारद प्राप्ति तथा भस्म बनाने
की विधियों का वर्णन मिलता है।


प्रसिद्ध रसायनशास्त्री श्री गोविन्द भगवतपाद जो शंकराचार्य के गुरु थे,
द्वारा रचित ‘रसहृदयतन्त्र’ ग्रंथ भी काफी लोकप्रिय है। इसके अलावा
रसेन्द्रचूड़ामणि, रसप्रकासुधाकर रसार्णव, रससार आदि ग्रन्थ भी
रसायनशास्त्र के ग्रन्थों में ही गिने जाते हैं।


संगीतशास्त्र


भारतीय परंपरा में भगवान शिव को संगीत तथा नृत्य का प्रथम अचार्य कहा
गया है। कहा जाता है के नारद ने भगवान शिव से ही संगीत का ज्ञान प्राप्त
किया था। इस विषय पर अनेक ग्रंथ प्राप्त होते हैं जैसे नारदशिक्षा,
रागनिरूपण, पंचमसारसंहिता, संगीतमकरन्द आदि।


संगीतशास्त्र के प्रसिद्ध आचार्यों में मुख्यत: उमामहेश्वर, भरत, नन्दी,
वासुकि, नारद, व्यास आदि की गिनती होती है। भरत के नाटयशास्त्र के अनुसार
गीत की उत्पत्ति जहां सामवेद से हुई है, वहीं यजुर्वेद ने अभिनय (नृत्य) का
प्रारंभ किया।

धर्मशास्त्र


प्राचीन काल में शासन व्यवस्था धर्म आधारित थी। प्रमुख धर्म मर्मज्ञों
वैरवानस, अत्रि, उशना, कण्व, कश्यप, गार्ग्य, च्यवन, बृहस्पति, भारद्वाज
आदि ने धर्म के विभिन्न सिद्धांतों एवं रूपों की विवेचना की है। पुरुषार्थ
के चारों चरणों में इसका स्थान पहला है।


उत्तर काल में लिखे गये संग्रह ग्रंथों में तत्कालीन समय की सम्पूर्ण
धार्मिक व्यवस्था का वर्णन मिलता है। स्मृतिग्रंथों में मनुस्मृति,
याज्ञवल्कय स्मृति, पराशर स्मृति, नारदस्मृति, बृहस्पतिस्मृति में लोकजीवन
के सभी पक्षों की धार्मिक दृष्टिकोण से व्याख्या की गई है तथा कुछ नियम भी
प्रतिपादित किये गये हैं।

अर्थशास्त्र


चार पुरुषार्थो में अर्थ का दूसरा स्थान है। महाभारत में वर्णित है कि
ब्रह्मा ने अर्थशास्त्र पर एक लाख विभागों के एक ग्रंथ की रचना की। इसके
बाद शिव (विशालाक्ष) ने दस हजार, इन्द्र ने पांच हजार, बृहस्पति ने तीन
हजार, उशनस ने एक हजार विभागों में इसे संक्षिप्त किया।


अर्थशास्त्र के अंतर्गत केवल वित्त संबंधी चर्चा का ही उल्लेख नहीं किया
गया है। वरन राजनीति, दण्डनीति और नैतिक उपदेशों का भी वृहद वर्णन मिलता
है। अर्थशास्त्र का सबसे प्रसिद्ध ग्रंथ है कौटिल्य का अर्थशास्त्र। इसकी
रचना चाणक्य ने की थी। चाणक्य का जीवन काल चतुर्थ शताब्दी के आस-पास माना
जाता है।


कौटिल्य अर्थशास्त्र में धर्म, अर्थ, राजनीति, दण्डनीति आदि का विस्तृत
उपदेश है। इसे 15 अधिकरणों में बांटा गया है। इसमें वेद, वेदांग, इतिहास,
पुराण, धार्मशास्त्र, अर्थशास्त्र, ज्योतिष आदि विद्याओं के साथ अनेक
प्राचीन अर्थशास्त्रियों के मतों के साथ विषय को प्रतिपादित किया गया है।
इसके अलावा अन्य महत्वपूर्ण ग्रंथ है कामन्दकीय नीतिसार, नीतिवाक्यामृत,
लघुअर्थनीति इत्यादि। (22570)

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INDIA-RUSSIA, India
Researcher of Yog-Tantra with the help of Mercury. Working since 1988 in this field.Have own library n a good collection of mysterious things. you can send me e-mail at alon291@yahoo.com Занимаюсь изучением Тантра,йоги с помощью Меркурий. В этой области работаю с 1988 года. За это время собрал внушительную библиотеку и коллекцию магических вещей. Всегда рад общению: alon291@yahoo.com