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Tuesday, February 21, 2012

धातु शब्द की निरुक्ति 

धारणाद् धातवः- इस व्युत्पत्ति के अनुसार जो शरीर का धारण करता है उसको धातु कहते हैं । 
सामान्य रूप से तो मल और दोष भी शरीर को धारण करते हैं; परन्तु धातुएँ शरीर को धारण करती हैं तथा पोषण भी करती हैं । जो धातुएँ शरीर को धारण करती हैं वे ही मुख्य रूप से शरीर का आधार होने के कारण अवलम्बन भी करती हैं । 

- अतः शरीर उन धातुओं पर ही टिका रहता है- अर्थात् धातुओं के बिना शरीर की कोई स्थिति नहीं है । 
- धातुएँ शरीर को धारण करने का कार्य केवल स्थूल रूप से नहीं करती हैं, बल्कि अपने गुण व कर्मों के कारण शरीर को सतत् पोषण प्रदान करती है तथा शरीर अवयवों एवं शरीरगत अन्य भावों की वृद्धि एवं शरीर का उपचय करने में समर्थ होती है । 
- धातु शब्द का जो केवल धारण करने वाला यह शब्दार्थ किया गया है, उससे केवल शरीर में आधार को ही ग्रहण न करके शरीर को बल, स्थिरता, दृढ़ता और पोषण प्रदान करना भी धातु शब्द से अभिप्रेत है । 

धातुओं की संख्या 
शरीर में धातुएँ सामान्यतः सात होती है- रस, रक्त, मांस, मेद, अस्थि, मज्जा और शुक्र । ये सभी दोषों द्वारा दूषित की जाती है अतः दूष्य कहलाती हैं । 

रसाऽसं सृङ्गमांसमेदोअस्थि मज्ज्ा शुक्राणि धातवः सप्त दूष्याः मला (अ. द. सू. १) 

यद्यपि इन सातों धातुओं के कार्य पृथक्-पृथक् रूप से भिन्न-भिन्न होते हैं, किन्तु धारण और पोषण का कार्य सामान्य होने से इन्हें धातु की संज्ञा दी है । ये सातों धातुएँ अपने-अपने भिन्न कर्मों के द्वारा शरीर का उपकार करती हुई शरीर को स्थिरता व दृढ़ता प्रदान करती है । भिन्न-भिन्न रूप से किये जाने वाले इन सातों धातुओं के सभी प्रकार के कार्यों का अंतिम परिणाम एक ही होता है, वह है शरीर को धारण व पोषण प्रदान करना । अतः इन सातों को धातु कहा गया है ।

धातुओं के कार्य 

प्रीणनं जीवनं लेपः स्नेहो धारण पूरणे,
गभोर्त्पादश्च कमार्णि धातूनां क्रमशो विदुः ।
 (अ.स.सू.१) 

-रसादि धातुओं के क्रमशः 
प्रीणन, रस का ग्रहण धारण विवेक कार्य रक्त का । 
लेप मांस । 
स्नेह मेद । 
धारण अस्थि । 
पूरण मज्जा । 
‍गभोर्त्पादन शुक्र का मुख्य कर्म है । 

''शरीरं धरयन्त्येते धात्वाहाराश्च सवर्दा ।'' (अ.स.सू.१) 
ये पूवोर्क्त रसरक्तादि धातुएँ शरीर को धारण करते हैं और धातुओं के आहार हैं- अर्थात् जिस प्रकार प्राणियों की वृद्धि का कारण आहार है । ठीक उसी प्रकार धातुओं की वृद्धि का कारण 'धातु' ही है । पूर्व-पूर्व उत्तरोत्तर धातुओं के आहार हैं । जैसे रस से रक्त का, रक्त से मांस तथा मांससे मेद का इत्यादि । 

धातुओं की उत्पत्ति 
शरीर के समस्त भावों की उत्पत्ति में पंचमहाभूत मूल कारण है । समग्र सृष्टि अथवा सृष्टि के समस्त कार्य द्रव्वों की उत्पत्ति महाभूतों से हुई है । अतः शरीर को धारण करने वाली धातुएँ भी पंच महाभूतों से उत्पन्न होने के कारण अन्य द्रव्यों की भाँति भौतिक कहलाती है । 

महाभूतों के जो स्थूल गुण व कर्म होते हैं वे ही गुण कर्म धातुओं में भी संक्रमित होते हैं । इससे धातुओं का पंच भौतिकत्व स्वयंसिद्ध है ।
१. रस धातु 
सातों ही धातुओं में रस की गणना सबसे पहले की गई है, इस दृष्टि से यह सभी धातुओं में महत्त्वपूर्ण व अग्रणी माना जाता है । इसका एक कारण है कि रस के द्वारा ही समस्त धातुओं का पोषण होता है । 
रस समस्त धातुओं के पोषण का माध्यम है । इसके अतिरिक्त शरीर को धारण करना तथा जीवन पयर्न्त शरीर का यापन करना ये दो इसके मुख्य कार्य हैं । इसके अतिरिक्त रस के माध्यम से ही सम्पूर्ण शरीर में रक्त का परिभ्रमण होता है । 

''तत्र रस गतौ धातुः अहरहगर्च्छतीति रसः ।'' 
अर्थात् रस गत्यर्थक धातु में प्रयुक्त किया जाने वाला शब्द है, जिसके अनुसार जो प्रतिक्षण अहःअहः चलता रहता है, उसे रस कहते हैं 
। 
अर्थात् पांचभौतिक, चतुवध, षडरसयुक्त दो प्रकार के अथवा आठ प्रकार के वीर्य वाले, अनेक गुण युक्त भलीभाँति परिणाम को प्राप्त हुए आहार का जो तेजोभूत सार भाग अत्यन्त सूक्ष्म होता है- वह रस कहलाता है । 

विण्मूत्र आहारमले सारः प्रागीरितो रसः ।
सः तु व्यानेन विक्षिप्तः सवार्न् धातून प्रतपर्येत्॥ 

अर्थात् पुरीष और मूत्र ये दोनों आहार के मल हैं और आहार का सार भाग रस कहलाता है । वह व्यान वायु के द्वारा सम्पूर्ण शरीर में भ्रमित होता है और सर्वशरीर में भ्रमण करता हुआ वह सभी धातुओं का तर्पण करता है । 

शरीर में रस का परिमाण- 
प्रत्येक मनुष्य का शरीर भिन्न-भिन्न आकार-प्रकार और भिन्न-भिन्न परिमाण वाला होता है । प्रत्येक मनुष्य की जठराग्नि और जरण शक्ति में भी भिन्नता पाई जाती है, अतः निश्चित रूप से कह सकना असम्भव है कि प्रत्येक शरीर में रस धातु का कितना प्रमाण है । रस धातु का निर्माण मुख्य रूप से उस आहार रस के द्वारा होता है, जो जाठराग्नि के द्वारा परिपक्व हुए आहार का परिणाम होता है । 
परन्तु आयुर्वेदीय आचार्यों के द्वारा निरुपित मतानुसार रस का परिमाण प्रत्येक मनुष्य की अपनी अंजली में नौ अंजली होता है । 

रस का मुख्य कर्म धारण करने के अलावा अवयवों को पोषण तत्त्व प्रदान करना है । मूल धातु होने के कारण शरीर के लिए आधारभूत है । 

२. रक्त धातु 
जिस प्रकार शरीर में समस्त धातुओं का मूल-रस धातु है, उसी प्रकार शरीर का मूल रक्त धातु है । आयुवेर्द के अनुसार रस का परिणाम ही रक्त है । रस धातु के सूक्ष्म भाग पर रक्त धात्वाग्नि की क्रिया के परिणाम स्वरूप ही रक्त का निमार्ण होता है । 

-रक्त धातु उष्ण और पित्त गुण प्रधान होता है । रक्त धातु का मल पित्त होता है । 

देहस्य रुधिरं मूलं रुधिरेणेव धायर्ते,
तस्माद्यप्नेन रक्तं जीव इति स्थिति ।
(सुश्रुत) 

अर्थात्- रक्त ही शरीर का मूल है और रक्त के द्वारा ही शरीर का धारण किया जाता है, इसलिए इस रक्त की प्रयतनपूवर्क रक्षा करनी चाहिए, क्योंकि रक्त ही प्राण होता है । 

यद्यपि रक्त पित्तदोष एवं तेजोमहाभूत प्रधान है, तथापि इसके भौतिक संगठन में पाँचों महाभूतों के गुणों का संयोग रहता है । यथा- 
विस्रता द्रवता रागः लघुता स्पन्दनं तथा ।
भूम्यादीनां गुणा ह्येते दृश्यन्ते चात्रशोणिते । 

अर्थात्- विस्रगन्धता, द्रवता, अरुणता, लघुता और स्पन्दन ये गुण क्रमशः पृथ्वी, जल, तेज, आकाश और वायु के रक्त में दिखाई पड़ते हैं ।
रक्त का स्वरूप- 
आयुवेर्द मतानुसार रक्त का वर्ण- तपाये हुए स्वर्ण, वीरबहूटी (लाल वर्ण का एक छोटा कृमि, वर्षा ऋतु में जो घास में होता है), रक्त कमल, गुंजाफल के समान, लाल वर्ण का विशुद्ध रक्त होता है । 

तपनीयेन्द्रगोपाभं पद्मालक्तसंतिभम्
गुञ्जाफल सवर्णं च विशुद्ध विद्वि शोणितम् 
(च. सू. २४/२२) 
शुद्ध रक्त का वर्ण लाल होता है, जो समप्रकृति पुरुषों में होता है । 

स्वाभाविक रूप से रक्त में पिच्छिलता और सान्द्रता गुण होने के कारण वह एकदम पतला नहीं होता है, अपितु कुछ गाढ़ापन लिये होता है । 


रक्त का परिमाण- 
''अष्टौ शोणितस्य'' (च. शा. ७/१५) 
अपने हाथ की आठ अंजली प्रमाण होता है । जिसकी उत्पत्ति आयुवेर्द मत से यकृत, प्लीहा और आमाशय में कही गई है । 

रक्त के कार्य- 
रक्तं वर्ण प्रसादं मांसपुष्टि जीवयति च (सु. सू. १५.५) 
अर्थात् रक्त धातु वर्ण की प्रसन्नता या निमर्लता, अग्रिम मांसधातु की पुष्टि और शरीर को जीवित रखता है । इस प्रकार मुख्य तीन कार्य होते हैं, परन्तु सभी धातुओं का क्षय और वृद्धि होना रक्त के अधीन है 

यथा- 
तेषां (धातुनां) क्षयवृद्धौशोणितनिमित्ते । 

३. मांस धातु 
शरीर में सबसे अधिक अंश मांस धातु का होता है और यह शरीर की स्थिरता, दृढ़ता और स्थिति के लिए महत्त्वपूर्ण होता है । मांस धातु के द्वारा शरीर के आकार निर्माण में सहायता प्राप्त होती है । शरीर का गठन, पुष्टता और सुविभक्त गात्रता मांस धातु के द्वारा ही होती है । मांसधातु अस्थियों को भी आधार प्रदान करता है । 

मांसपेशी के अभाव में अस्थि अथवा अस्थि संधि क्रियाशील नहीं हो सकती । अतः सभी सचल सन्धियों को क्रियाशीलता प्रदान करना मांसपेशियों के ही अधीन है । इसके अतिरिक्त अवयवों का निमार्ण मांसपेशियों के द्वारा ही होता है । 

शरीर के कुल भार का ४१ % मांस धातु है- इसमें २१% प्रोटीन तथा ५% जल होता है । यह पेशियों का उपादान धातु है । यह लोहित तंतुमय होता है तथा जोंक के शरीर की तरह सकुंचन प्रसरणशील होता है । 

पेशीनामुपादान धातुर्मृदुलोहित तन्तुमयो
जलौक शरीरवत् संकोचप्रसरण शीलः ।
 (प्र.शा. अ. २) 

मांसधातु का परिमाण- 

शरीर में मांस धातु का परिमाण अन्य धातुओं की अपेक्षा सबसे अधिक होता है । आयुवेर्द में इसका निश्चित प्रमाण नहीं मिला; परन्तु आधुनिक मतानुसार सम्पूर्ण शरीर के भार का ४१ % भाग मांस का होता है ।



मांस धातु का भौतिक संगठन-
शरीर में मांस धातु का आधार मांसपेशी निरुपित किया गया है । यह एक पांचभौतिक द्रव्य है और विभिन्न महाभूतों के गुण इसमें पाये जाते हैं । यही कारण है कि पाँच भौतिक आहार के द्वारा उसका पोषण और वृद्धि होती है; तथापि सबसे अधिक पृथ्वी और जल महाभूतों का अंशमांस में पाया जाता है । मांस सवोर्त्तम मांसवद्धर्क होता है-

१. मांसमात्यायते मांसेन(च.शा.६/१०)
२. शरीरवृहणे नान्पत खाद्यं मांसाद्विशिष्यते (च.सू. २७/२८)
३. शुष्यतां क्षीणमांसनां कल्पितानि विधानवित् दद्यात्मांसादमांसनि वृहणानि विशेषतः (चि.चि. ९/४९) 


मांस धात्वाग्नि की रक्त धातु के अणु भाग पर क्रिया होने के पश्चात् मांस धातु का निमार्ण होता है । मांस धात्वाग्नि की क्रिया के फलस्वरूप उत्पन्न हुआ मांस धातु तीन भागों में विभक्त होता है । अणु, स्थूल और मल भाग- इसमें स्थूल भाग के द्वारा मांस धातु का पोषण होता है ।

मांस धातु के कार्य-
मांस का कार्य चेष्टा करना है-
''मांसं शरीर पुष्टिं मेदसश्च ।'' (पुष्टिं करोति) (सु.सु. १५/५)

शरीर की विभिन्न क्रियाओं का संचालन यथा चलना- फिरना, उठना-बैठना आदि सभी कार्यमांस धातु के संकोच एवं प्रसरण के कारण ही सम्पन्न होते हैं । बिना मांस धातु के चल कार्य नहीं हो सकता ।

४. मेदधातु
मांस धातु के पोषण अंश या अणु भाग से मेद धातु की उत्पत्ति होती है । उस अंश पर मेदोधात्वाग्नि की क्रिया के परिणामस्वरूप जो अणु, स्थूल और मल इन तीन भागों का विभाजन होता है उसमें स्थूल भाग मेद धातु का पोषक होता है और वही मेद धातु की उत्पत्ति करने वाला होता है ।

मेद सान्द्र (घना) घी की तरह होता है और शरीर का स्नेह धातु है । मेद का अधिकांश स्थूलास्थियों (नलकास्थियों) में मज्जा नामक होता है । त्वचा के नीचे और मांस धरा कला के ऊपर मेदोधरा कला होती है । उदर में विशेष रूप से मेद का संग्रह होता है ।

सान्द्रसपस्तुल्यः स्नेहधातुः शरीरस्थ, तस्य स्थानमुदरान्तः त्वचामधश्च (प्र.शा.प्र.ख.अ. २)

मेद धातु का परिमाण के सम्बन्ध में कहीं विशेष विवरण नहीं है, क्योंकि भिन्न-भिन्न शरीर की भिन्न-भिन्न आकृति और प्रकृति होने के कारण मेदो धातु का परिमाण भी अलग-अलग होता है । अतः शारीरिक भिन्नता के कारण मेद धातु की निश्चित मात्रा बताना सम्भव नहीं है ।

मेद धातु के कार्य- मेद शरीर में स्नेह एवं स्वेद उत्पन्न करता है, शरीर को दृढ़ता प्रदान करता है तथा शरीर की अस्थियों को पुष्ट करता है । मेद का कार्य शरीर में स्नेह को उत्पन्न कर सम्पूर्ण अंगों को स्निग्धता प्रदान करना है ।

''मेदः स्नेहस्वेदौ दृढ़त्वं पुष्टिमस्थ्नां च''(सु.सु. १५/५)

धातुओं के सामान्य कार्य के अनुसार शरीर धारण के अतिरिक्त पोषण कार्य भी मेद करता है ।मेद स्वभावतः स्नेह प्रधान होने के कारण शरीर तथा विभिन्न अवयवों का पोषण करता है ।
मेदो धातु में स्थित स्नेहांश सन्धियों के लिए विशेष महत्त्वपूर्ण होता है, क्योंकि वह स्नेहांश ही सन्धियों को संशलिष्ट रखता है और सन्धियों में स्थित शैष्मिक कला के निमार्ण में सहायक होता है । जो हमारी सन्धियों को यथाशक्य स्नेहन कर गति प्रदान करने में सहायक बना रहता है ।

५. अस्थि धातु
शरीर की स्थिति एवं स्थिरता अस्थि संस्थान पर अवलम्बित है । अस्थि पंजर ही शरीर का सुदृढ़, ढाँचा तैयार करता है । जिससे मानव आकृति का निमार्ण होता है । शरीर में यदि अस्थियाँ न हों तो सम्पूर्ण शरीर एक लचीला मांस पिण्ड बनकर ही रह जायेगा, शरीर को अस्थियों के द्वारा ही दृढ़ता और आधार प्राप्त होता है ।
अस्थि में पृथ्वी, आकाश एवं वायु महाभूत की अधिकता होती है । अस्थि में स्थूलता और उसमें प्रतीत होने वाली गंध पृथ्वी महाभूत की स्थिति को बतलाती है । लघुता और सुषिरता आकाश महाभूत तथा रुक्षता वायु महाभूत के कारण होती है-

आकार विशेषतः तेजस महाभूत के कारण होता है । अस्थियाँ स्थिर, कठिन एवं शरीर की अवलम्बक धातु है जो मांसपेशियाँ स्नायुयों द्वारा अस्थियों पर निबद्ध होती है, जिनके समागम स्थल को सन्धि कहते हैं ।

ये संधियाँ दो प्रकार की होती हैं- चल सन्धि और स्थिर सन्धि शाखाओं हनु, कटि, ग्रीवा में चल तथा स्थिर सन्धियाँ होती हैं ।

अस्थिनि नाम स्थिर कठिनावलम्बनोधातुः
कायस्य यमाश्रित्य समग्रं शरीरमवतिष्ठते
(प्र.शा.ख. अ. २)

अस्थियों का ही सजातीय रूप तरुणास्थि है । स्थिति स्थापक और नम्र-लचीली होती हुई भी यह सुदृढ़ होती है-

ये प्रायः समस्त अस्थियों का पूवर्रूप होती है- क्लोम तथा कण्ठ (स्वरयंत्र) तरुणास्थि से ही बने होते हैं ।
पर्शुकाओं का उरः फलक से संधान तरुणास्थि से ही होता है । नासिका का अग्रभाग, कणर्शष्कुली तथा अधिजिह्विका तरुणास्थि से ही बने होते हैं । अस्थियों के सिरे तरुणास्थियों से ही बने होते हैं ।

अस्थियों के कार्य- मूल रूप से दो ही कार्य हैं- देह को धारण करना और मज्जा की पुष्टि करना । शरीर को आधार प्रदान करना और अपने सामान्तर अवयव को पुष्टि करना । शरीर के विभिन्न भागों में स्थित मृदु और आघात असहिष्णु अवयवों की रक्षा करना है ।

मस्तिष्क, हृदय और फुफ्फुस की रक्षा का दायित्व मुख्य रूप से अस्थियों पर ही निभर्र है ।

६ मज्जा धातु
मज्जा धातु मुख्य रूप से स्नेहांश प्रधान द्रवरूप में होता है । यह कुछ पीलापन लिए हुए होता है । यह धातु विशेष रूप से बड़ी अस्थियों में उनके मध्य में पाया जाता है । छोटी अस्थियों में पाई जाने वाली मज्जा का वर्ण कुछ रक्ताभ लिये हुए होता है ।

अस्थि धातु के अणु भाग से मज्जा धातु की उत्पत्ति होती है । इसमें स्नेहांश और द्रवांश की अधिकता के कारण जल महाभूत की अधिकता लक्षित होती है ।

मज्जा के कर्म- शरीर में त्वचा की स्निग्धता मज्जा धातु के ही अधीन है । शरीर में बल उत्पन्न करने का महत्त्वपूर्ण कार्य मज्जा के द्वारा सम्पन्न होता है । मज्जा का अग्रिम धातु शुक्र होती है, अतः उसकी पुष्टि करना भी मज्जा का ही कार्य है । शुक्र की पुष्टि करना, अस्थियों के सुषिर भाग की पूरण करना आदि मज्जा के प्रमुख कार्य हैं ।

यह विशेष रूप से शुक्र धातु का पोषण, शरीर का स्नेहन तथा शरीर में बल सम्पादन का कार्य करता है । मज्जा शरीर के विभिन्न अवयवों को पोषण प्रदान करती है, यह पोषण का कार्य मुख्य रूप से इसके स्नेहांश के द्वारा किया जाता है ।

मज्जा के कारण शरीर और अस्थि दोनों को बल प्राप्त होता है । इस प्रकार यह स्वयं तथा अस्थियों के माध्यम से शरीर को धारण करती है ।

७. शुक्र धातु
शरीर में ऐसा कोई स्थान विशेष नियत नहीं है जहाँ शुक्र विशेष रूप से विद्यमान रहता हो । शुक्र सम्पूर्ण शरीर में व्याप्त रहता है तथा शरीर को बल प्रदान करता है । इसके लिए कहा गया है, जिस प्रकार दूध में घी और गन्ने में गुड़ व्याप्त रहता है, उसी प्रकार शरीर में शुक्र व्याप्त रहता है । महर्षि चरक के अनुसार शुक्र का आधार मनुष्य का ज्ञानवान शरीर है ।

शुक्र का स्वरूप-
स्फटिकामं द्रवं स्निग्धं मधुरं मधुगन्धिच ।
शुक्रमिच्छन्ति केचित्तुु तेलक्षौद्रनिमं तथा॥ 
(सुश्रुत)

स्फटिक के समान श्वेत वर्ण वाला द्रव स्निग्ध, मधुर और मधु के समान गन्धवाला शुक्र होता है । कुछ विद्वानों के अनुसार तैल या मधु के समान शुक्र होता है ।

शुक्र की उत्पत्ति मज्जा धातु के अणु भाग पर शुक्र धात्वाग्नि की क्रिया के परिणाम स्वरूप होता है । शुक्र की उत्पत्ति का कार्य दोनों वृषण करते हैं । शुक्र सवर्शरीस्थ है । जिस प्रकार ईख में रस, दूध या दही में घी या तिल में तेल अदृश्य रूप में सर्वांश में ओत-प्रोत होता है वैसे ही शुक्र मनुष्य के सर्वांग में व्याप्त होता है । यथा-यथा पयसि सपस्तु गूढ़श्चेक्षौ रसो यथा

शरीरेषु तथा शुक्र नृणां विद्यद्भिषग्वरः(सु.शा. ४/२१)
रस इक्षौ यथा दहिन सपस्तैलं तिले यथा ।
सवर्त्रानुगतं देहे शुक्रं संस्पशर्ने तथा॥(च. चि. ४/४६) 


शुक्र के कार्य- धैर्य- अथार्त् सुख, दुःखादि से विचलित न होना, शूरता, निभर्यता, शरीर में बल उत्साह, पुष्टि, गभोर्त्पत्ति के लिए बीज प्रदान तथा शरीर को धारण करना, इन्द्रिय हर्ष, उत्तेजना, प्रसन्नता आदि कार्य शुक्र के द्वारा होते हैं । इस प्रकार शुक्र धातु शरीर के साथ-साथ मन के लिए भी महत्त्वपूर्ण है । इन सबके अतिरिक्त सबसे मुख्य कार्य सन्तानोत्पत्ति है ।

धातु समवृद्धि के लक्षण
१. क्षीण रस के लक्षण
शब्द का सहन न होना, हृदय कम्प, शरीर का कांपना, शोष, शूल, अंगशून्यता (प्रसुप्ति), अंगों का फड़कना, अल्प चेष्टा के करने पर भी थकावट और प्यास का अनुभव होना- ये सब मनुष्य शरीर में क्षीण रस के लक्षण हैं ।

बढ़े हुए रस के कार्य
मुख से लार टपकना, अरुचि मुख की विरसता, लार सहित उबकाई, जी मचलाना, स्रोतों का अवरोध, मधुर रस से द्वेष, अंग-अंग का टूटना तथा कफ के विकारों को करके पीड़ा देता है ।


२. क्षीण रक्त के लक्षण
शरीर में रक्त के क्षीण होने से चमड़ी पर रुखापन खटाई और ठण्डे पदार्थों की इच्छा- सिराओं का ढीला पड़ना, ये लक्षण होते हैं ।

बढ़े हुए रक्त के कार्य
कोढ, विसर्प, फोड़े-फुन्सी, रक्त प्रदर, नेत्र, मुख, लिङ्ग और गुदा का पकना, तिल्ली, बायगोला, बिद्रधि, मुख त्यङ्ग अथार्त् मुख पर काली झांई पड़ना, कामला, अग्निमान्ध, आँखों के सामने अंधियारी आना, शरीर और नेत्रों में ललाई, वातरक्त आदि प्रायः पित्त के विकारों को करके शरीर में पीड़ा बढ़ाता है ।


३. मांस क्षीण के लक्षण
शरीर में मांस के क्षीण होने से स्फिक्र (गण्ड स्थल के पास का भाग) और गण्ड स्थल (पौंर्दा) आदि में शुष्कता (सूख जाना), शरीर में टोचने की सी पीड़ा अंश ग्लानि अथार्त् इन्द्रियों का अपनेकाम करने में असामर्थ्य, सन्धियों के स्थान में पीड़ा और धमनियों में शिथिलता ये ही इसके लक्षण हैं ।



बढ़े हुए मांस के कार्य
गण्डमाला अर्थात् कण्ठमाला, अर्बुद ग्रन्थि तालुरोग, जिह्वा रोग, कण्ठ के रोग, फींचे गाल, ओंठ, बाहु, उदर तथा उरु जंघों में गौरव अर्थात् भारीपन आदि रोगों को करके तथा प्रायः कफरक्त विकारों को करके शरीर को दुखी करता है ।


४. क्षीण मेद के लक्षण
मेद के क्षीण होने से प्लीहा अर्थात् तिल्ली का बढ़ना, कमर में स्वाप अर्थात् सुप्तता अथवा शून्यता, सन्धियों में शून्यता, शरीर में रुक्षता, कृशता, थकावट, शोष, गाढ़े मांस के खाने की इच्छा और उपयुर्क्त क्षीण मांस के कहे हुए लक्षण होते हैं ।

बढ़े हुए मेद के कार्य
बढ़ा हुआ मेद प्रमेह के पूर्वरूप अर्थात् स्वेद अण्डगन्ध आदि स्थूलता के उपद्रपादि और प्रायःकफ रक्त मांस विकारों को करके देह को पीड़ा देता है ।

५. क्षीण अस्थि लक्षण
अस्थि के क्षीण होने से दाँतों, नखों, रोमों और कशों का गिरना, रूक्षता, पारूष्य अर्थात् कड़ा अथवा रूखा बोलना, सन्धियों में ढीलापन, हड्डियों में चुभने की सी पीड़ा, अस्थिबद्ध, मांस खाने की इच्छा का होना ये लक्षण हैं ।

बढ़ी हुई अस्थि के कार्य
बढ़ी हुई अस्थि हड्डियों और दांतों में वृद्धि करके या अस्थि पर अस्थि, दांत पर दांत उत्पन्न करके देह को दुखी करती है ।


६. क्षीण मज्जा के लक्षण
मज्जा के क्षीण होने से अस्थिसौषय अर्थात् हड्डी में पोल का प्रतीत होना, बड़ी पीड़ा, दुबर्लता, चक्कर आना,प्रकाश में भी अंधेरे का अनुभव होना, इसके ये ही लक्षण होते हैं ।

बढ़ी हुई मज्जा के कार्य
नेत्र शरीर तथा रक्त में गुरुता अर्थात् भारीपन अंगुलियों के सन्धियों में स्थूल मूलवाले व्रणों को उत्पन्न करके पीड़ा देती है ।


७. शुक्रक्षय के लक्षण
वीर्य के क्षीण होने पर थकावट, दुबर्लता, मुँह का सूखना, सामने अंधियारी का आना, शरीर का टूटना, शरीर का पीला पड़ जाना, अग्निमान्द्य नपुंसकता, अण्डकोष में टोचन की सी पीड़ा, लिङ्ग में धुवें जैसी प्रतीति अर्थात् दाह होना, स्त्री संग में बड़ी देर से वीयर् का स्खलन होना या वीर्य स्खलन न होकर बड़ी देर के बाद लिङ्ग इन्द्रियों से रक्त सह वीर्य का स्खलन होना- ये लक्षण होते हैं । इस प्रकार रस रक्तादि के क्षीण होने पर उक्त लक्षण होते हैं ।

बढ़े हुए वीर्य के कार्य
‍बढ़ा हुआ शुक्र या वीर्य स्त्री संसर्ग की अतिइच्छा तथा शुक्राश्मरी को उत्पन्न कर देह में पीड़ा कारक

दोष और धातुओं के समान मलों की उपयोगिता भी मानव शरीर के लिए महत्त्वपूर्ण है ।

आयुर्वेद के अनुसार जो शरीर के धातुओं एंव उपधातुओं को मलिन करते हैं वे मल कहलाते हैं ।
'मलिनीकरणान्मलाः' 

स्वेद, मूत्र और पुरीष को मल की संज्ञा दी गई है ।

सुश्रुत के अनुसार- दोष धातुमल मूलं हि शरीरम् ।

मानव शरीर दोष धातु और मल के बिना स्थिर नहीं रह सकता है, इससे मल की उपयोगिता स्वयं ही स्पष्ट हो जाती है । ये तीनों मल जब शरीर को धारण करते हैं तब स्वास्थावस्था होती है और विषम होने पर शरीर में विकृति पैदा होती है ।

शरीर में मल की एक निश्चित मात्रा का होना अनिवार्य है जो शरीर को धारण करती है । शरीर में मल का क्षय होने पर शरीर निर्बल हो जाता है- जिसके लिए अष्टांग हृदय में मल शरीर के लिए उपयोगी होते हैं, उनका क्षय उनकी वृद्धि की अपेक्षा अधिक कष्टकारक होता है ।

मलोचितत्वात् देहस्य क्षयो वृद्धेस्तु पीडनः (अ.छ. २१)
इसके अतिरिक्त धातुओं के क्षय से पीड़ित यक्ष्मा रोगी केवल पुरीष के द्वारा ही बल प्राप्त करता है । यथा-
तस्मात पुरीषं संरक्ष्यं विशेषाद राजयक्षिणः ।
सवर्धातुक्षयात्तर्स्य बलं तस्य हि विड्बलम्॥
(च.चि.अ. ८)

इसी प्रकार स्वेद और मूत्र का भी एक निश्चित परिमाण शरीर की स्थिरता के लिए आवश्यक है ।



१. स्वेद- स्वेद शरीर का वह जलीय अंश है जो त्वचा के सूक्ष्म छिद्रों द्वारा शरीर से बाहर निकलता है । स्वेद की प्रवृत्ति सामान्यतः ग्रीष्म ऋतु में होती है- वातावरण की उष्णता, परिश्रम की अधिकता स्वेद प्रवृत्ति में मुख्य कारण है । कभी-कभी अधिक घबराने तथा भय के कारण भी स्वेद की प्रवृत्ति होती है । अन्य मलों के उत्सर्ग की भाँति स्वेद का उत्सजर्न भी एक नैसर्गिक स्थिति है, क्योंकि स्वेद के माध्यम से शरीर में स्थित विषैले एवं दूषित तत्त्व शरीर से बाहर निकल जाते हैं ।

इस प्रकार स्वेद प्रवृत्ति मानव शरीर के लिए शुद्धिकरण क्रिया है । स्वस्थ मनुष्य के शरीर में उचित समय में उचित परिमाण में पसीना निकलना अत्यन्त आवश्यक है ।

स्वेद मेदोधातु का मल है- स्वेद वह स्रोतों का मूल अर्थात् उत्पत्ति स्थान मेद है । इसका दूसरा छोर रोमकूप में है ।

मलः स्वेदस्तु मेदसः स्वेद वहानां स्रोतसां मेदो मूलं लोमक्पाश्च(च.वि. ५/८)

स्वेद का वहन करने वाले स्रोत असंख्य हैं । अन्तस्त्वक में स्वेद का निमार्ण करने वाली स्वेद ग्रन्थियाँ होती हैं । इनके चारों ओर कोशिकाओं का घना जाल होता है । स्वेद ग्रन्थियाँ कोशिकाओं के रक्त से जल तथा कुछ घनभूत द्रव्यों का सर्वदा निहरर्ण किया करती है । यही जल तथा उसमें विलीन द्रव्य स्वेद कहलाते हैं ।

स्वेद की यथोचित प्रवृत्ति न होने पर मल स्थानों के दूषित होने से त्वचा सम्बन्धी अनेक रोग उत्पन्न होते हैं ।

त्वग्दोषाः संगोऽतिप्रवृर्त्तियथा प्रवृत्तिवार् मलायतन दोषाः । (सु.सू. २४)

स्वेद सवर्दा स्रवित होता रहता है और सामान्यतः उड़ता रहता है, अतः ज्ञान नहीं होता । वातावरण आर्द्र रहने पर या स्वेद का स्राव शीघ्र और अधिक होने पर स्वेद कणिकाओं के रूप में प्रकट होता है ।

शरीर में स्वेद का प्रमाण नियत है- शरीर में जल का प्रमाण अपने हाथ से दश अञ्जलि है ।
तदुदकं दशाञ्जलिप्रमाणम् (च.शा. ७/१५)

जिसमें स्वेद का जल प्रधान है ।
नवीन अन्वेषण के अनुसार एक अहोरात्र में लगभग दो पाउण्ड स्वेद निकलता है ।

स्वेद के कार्य आयुर्वेद के सूत्र
१. 'स्वेदस्य क्लेदविधृति' के अनुसार स्वेद शरीर की क्लिन्नता अथवा त्वचा की आर्द्रता और त्वचा की सुकुमारता को करने वाला होता है ।
''स्वेदः क्लेदत्वक् सौकुमायर्कृत''(सु.सू. १५/५)

२. दुषित एवं विषैले तत्त्वों को शरीर से बाहर निकालता है ।

३. शरीर की उष्मा का नियमन करता है ।

मनुष्य की शारीरिक उष्मा सदैव प्रायः ९८० से ९९० फारेनह्वाइट होती है । व्यायाम या श्रम के कारण शरीर की उष्मा बढ़ने पर या धूप के कारण वातावरण उष्ण होने से उष्मा बढ़ने लगती है । तब त्वचा की कोशिकाओं में रक्त का प्रवाह बढ़ जाता है, जिससे स्वेद ग्रन्थियों में स्वेद का स्राव होने लगता है । वायु लगने से यह स्वेद वाष्प बनकर उड़ जाता है- तब वाष्पीभवन के लिए अपेक्षित ताप त्वचा से मिलता है, जिससे त्वचा की शरीर की उष्मा कम हो जाती है ।

जब स्वेदवह स्रोतों में विकृति या अवरोध उत्पन्न हो जाता है, तो वह उष्मा शरीर के बाहर नहीं निकल पाती और त्वचा में हमकों उस उष्मा की प्रतीति होती है ।

स्वेद क्षय होने पर रोमकूपों का अवरोध, त्वचा की रूक्षता, त्वचा का फटना, स्पर्श ज्ञान न होना तथा रोमपात होता है । अभ्यंग, व्यायाम, मद्य, निद्रा, स्वेदन, निवात ग्रह, निवास एवं स्वेदल द्रव्यों के सेवन से क्षीण स्वेद अपनी साम्यावस्था में आ जाता है ।

स्वेदे रोमच्युतिः स्तवधरोमता स्फुटनं त्व चः (अ.द्व्.सू. ११/१२)
व्यायामाभ्यञ्जनस्वेदमद्यैः स्वेदक्षयोभवान्
(अ.ह.सू. १३/३३)

स्वेद की वृद्धि से त्वचा में दुगर्न्ध और कण्डू (खुजली) उत्पन्न होते हैं ।
स्वेदः (अतिवृद्धिः) त्वचो दौगर्न्ध्यं कण्डूं च(सु.सू.१५/१५)

व्यायाम, धूप, शीत एवं उष्ण का व्यतिक्रम सेवन तथा क्रोध, शोक एवं भय के कारण स्वेद वह स्रोत दूषित होते हैं । स्वेदवह स्रोतों में दुष्टि होने से स्वेद का अवरोध, अतिस्वेद त्वचा की परुषता, त्वचा की अतिस्निग्धता, अंगों में दाह और लोम हर्ष ये लक्षण होते हैं ।
२. मूत्र - आहार का मल है । यह वह निःसार भाग है जो शिश्न के द्वारा द्रवरूप में प्रतिदिन शरीर के बाहर निकाला जाता है । आहार के परिपाक के परिणामस्वरूप जो किट्ट भाग निमत होता है, वह दो भागों में विभक्त हो जाता है- मूत्र और पुरीष ।

अथार्त्- पाचक पित्त की क्रिया से परिपक्व आहार सारभूत रस और किट्ट भूत असार मल के रूप में द्विधा विभक्त हो जाता है । मल दो प्रकार का होता है । घन और द्रव, घन मल पुरीष है तथा द्रव मूत्र अर्थात् (यूरिन) ।

तत्राहार प्रसादाख्यो रसः किट्टं च मलारण्यमभिनिवर्तर्ते । किट्टात स्वेद मूत्र पुरीष पुष्यति(च. सू. २८/४)

सर्व शरीर में अनुधवन (संचरण) करता हुआ रक्त जब वृक्कों को प्राप्त होता है । तो उसके आंत्र नामक स्रोत उसके अन्तर्गत और उचित से अधिक जल के अंश का निर्हरण कर वृक्कों की ओर शोधनार्थ आगे बढ़ाते रहते हैं । यही निवृत द्रव मूत्र है ।

यदान्त्रेषु गवीन्योयर्द वस्तावधि संश्रितम् । एवा ते मूत्रम (अथर्व वेद ११/३)

आयुर्वेद के अनुसार जल महाभूत की अधिकता मूत्र में होती है और उसमें उत्पन्न होने वाली तीव्र गन्ध पृथ्वी महाभूत के कारण होती है । तीक्ष्णता तथा क्षारीयता अग्निमहाभूत के कारण, स्पशर्गुण-वायु तथा शब्द आकाश के कारण होता है ।

इसी प्रकार जल प्रधान होने के कारण-कफदोष, तीक्ष्ण होने के कारण पित्तदोष और गतिमान होने के कारण वायुदोष का प्रत्यक्ष सम्बन्ध मूत्र से परिलक्षित है । इसका मुख्य स्थान बस्ति प्रदेश है और इससे सम्बन्धित अवयव-वृक्क गवीनी और शिश्न है ।
आयुवेर्द के अनुसार मूत्र आहार का मल होता है, जो सार किट्ट विभाजन के बाद पक्वाशय से वृक्कों में आता है ।

मूत्र के कार्य- मुख्य दो कार्य हैं, शरीर को क्लेद युक्त रखना तथा बस्तिपूरण । बस्ति मूत्र का मुख्य स्थान है, जिसमें संचित होता रहता है और अपने प्राकृत कर्म के द्वारा बस्ति को एक क्षण के लिए भी खाली नहीं रहने देता- अन्यथा बस्ति में वायु भरने से वात विकार उत्पन्न हो सकते हैं । इसीलिए बस्ति प्रदेश में कोई भी विकृति जब उत्पन्न होती है तो उसका कारण वायु का प्रकोप अवश्य होता है । क्योंकि और कोई भी ऐसा स्थान नहीं है, जहाँ मूत्र संचय हो सके ।

'मूत्रस्य क्लेदवाहनम्'-क्लेद का सामान्य अर्थ आर्द्रता होता है । मूत्र जलीय होने से शरीर में तथा मूत्रवह स्रोतों से सम्बन्धित अवयवों में आर्द्रता बनाये रखता है तथा शरीरगत विषज पदार्थों को बाहर निकालता रहता है । मूत्र का क्षय होने पर वायु का प्रकोप होता है, जिससे प्रकुपित वायु तीव्र वेदना तथा अन्य विकारों को उत्पन्न करता है । क्षय होने पर बस्ति प्रदेश में सुई चुभने जैसी व्यथा, मूत्र की न्यूनता, मूत्रकृच्छ विवर्णता, अतितृष्णा और मुखशोष ये लक्षण होते हैं ।

मूत्रक्षये वस्तितोदोऽल्पमूत्रता च पिपासा
बाधते चास्य मुखं च परिशुष्यति । 
(च.सू. १७/७१)

मूत्र क्षय होने पर ईख का रस, ताड़ी का रस, मधुर, अम्ल, लवण, रस युक्त पदार्थ तथा द्रव का सेवन करना चाहिए । मूत्र की वृद्धि होने पर अधिक मात्रा में स्राव, बार-बार मूत्रत्याग की इच्छा बस्ति में व्यथा और आहमान ये लक्षण होते हैं ।


''मूत्रं (अतिवृद्धं) मुहुमुर्हुः प्रवृत्ति वस्तितोद माहमानं च'' (सु.सू. १५/१५)

बढ़ा हुआ मूत्र बस्ति प्रदेश में व्यथा कष्ट आदि होती है ।
''मूत्रं तु बस्तिनिस्तोदं कृतेऽत्यकृत संज्ञताम्'' (अ.ह.सू.स. १२)

मूत्र के वेग को रोकने से अंगों का टूटना, पथरी का बन जाना, बस्ति और वक्षण में वेदना होती है एवं कालान्तर में मूत्र से निस्सारित होने वाले विषज पदार्थ नहीं निकल पाते हैं । वही पदार्थ पुनः रक्त में समावेशित होकर अनेकानेक रोगों का कारण बन जाते हैं ।

३. पुरीष- भुक्त आहार का आमाशय, पच्यमानाशय और पक्वाशय में त्रिविध पाक होने के परिणाम स्वरूप जो निःसार भाग मलद्वार से बाहर निकलता है वह पुरीष कहलाता है ।

आचार्यों ने पक्वाशय में स्थित अंश को भी मल की संज्ञा दी है । क्योंकि खाये हुए अन्न का जो परिपाक क्षुद्रान्त में होता है उसके परिणाम स्वरूप प्रसाद भाग के रूप में आहार रस वहीं पर अचूषित होकर धमनियों और रसवाहिनियों के द्वारा सम्पूर्ण शरीर में पहुँचा दिया जाता है । अवशिष्ट किट्ट भाग पक्वाशय में प्रवेश करता है, इस किट्ट भाग में जो स्नेह और क्लेद होता है वह पक्वाशय में स्थित अग्नि के द्वारा परिपक्व एवं शुष्क कर दिया जाता है । जिसके कारण पक्वाशय में प्रवेश के समय जो किट्ट भाग द्रव रूप में था अब वह पक्व होकर पिण्ड रूप में हो जाता है, वह पुरीष संज्ञा को धारण करता है ।

पक्वाशयं तु प्राप्तस्य शोष्यमाणस्य वायुना ।
परिपिण्डितपक्वस्य वायुः स्याद कटुभावतः॥
 (च.चि. १५/११)
पुरीष के कटुरस होने से पक्वाशय में दूषित वायु का प्रादुभार्व होता है और यह वायु अपानवायु होता है । पक्वाशय में स्थित पुरीष यद्यपि मल रूप होता है और निस्सार होने के कारण उसका अधिकांश भाग शरीर के बाहर निकाल दिया जाता है । इसके बाद भी उसका कुछ अंश पक्वाशय में रह जाता है, जिसके द्वारा वह शरीर को धारण करता है । पक्वाशय में पुरीष की समुचित मात्रा निश्चय ही शरीर की प्राकृतिक स्थिति में सहायक होती है । क्योंकि इसका क्षय या अधिक मात्रा में निगर्मन शरीर के लिए हानिकारक होता है । पक्वाशय या स्थुलांग में पुरीष धरा कला स्थित है- यह कोष्ठ में चारों ओर क्षुद्रान्त्र यकृत तथा प्लीहा के ऊपर रहती है । आहार का किट्टांश जो प्रथम दण्डुक में आता है उसे यह कला पुरीष मूत्र और वायु के रूप में विभक्त कर देती है ।

पुरीषधरा कला के दो भाग हैं-
उनका एक मूल गुदा में तथा दूसरा छोर पक्वाशय में होता है ।
१. 'पुरीषवहे द्वे तयोमूर्लं पक्वाशयो गुदं च' ।(सु.शा. ९/१२)
२. 'पुरीषवहानां स्रोतसां पक्वाशयो मूलं गुदे च' ॥ (च.वि. ५/८) 


लक्षण निम्न प्रकार से बतलाये गये हैं- पुरीष के क्षीण होने पर वायु शब्द के साथ आँतों को ऐंठती हुई सी उदर में घूमती है तथा हृदय और पार्श्व को अतिशय दबाती हुई उध्वर्गमन करती है, जिससे हृदय और पार्श्व में अत्यन्त पीड़ा होती है ।


पुरीषे वायुरन्त्राणि सशब्दो वेष्टयत्रिव ।
कुक्षौ भ्रमति यात्थूध्वर् हृदपाश्वर् पीडयते भृशम । 
(अ.छ.)

पुरीष में वृद्धि होने पर- कुक्षि में शूल, अन्त्रकूजन, आहमान तथा शरीर का भारीपन आदि होते हैं । अतिसंचय वायु के प्रकोप का कारण होता है । उदावर्त रोगों को भी उत्पन्न करता है । अग्निमांद्य, अल्पता, अरुचि आदि होती है ।

पुरीष का वेग रोकने से- ऐठन, प्रतिश्याय, सिरःशूल, उद्गार हृदयगति में अवरोध आदि विकार होते हैं ।
प्राणियों का बल शुक्र के अधीन तथा जीवन मल के अधीन होता है । राजयक्ष्मा में अग्नि मंद होने से पोषक तत्त्व प्रायः मलरूप में परिणत हो जाते हैं । अतः मल की रक्षा सावधानी से करने का निर्देश है ।

तस्मात् पुरीषं संरक्ष्यं विशेषाद् राजयक्षिणः सवर्धातुक्षयतिस्य . । (च.चि. ८)

पुरीष का क्षय होने पर अन्त्र हृदय और पर्श्व में पीड़ा ध्वनि गड़गड़ाहट के साथ वायु का ऊपर-नीचे नियर्गमन आहमान आदि होते हैं ।
पुरीषक्षये हृदयपाश्वर्पीड़ा सशवदस्य च ।
वायौरुध्वर्गमनं कुक्षौ संचरणं च॥
(सु.स. १५/१)

पुरीष का ''क्षय प्रकृति'' वाले मनुष्यों के लिए अधिक कष्टदायक होता है । अष्टांगहृदय में पुरीषक्षय से उत्पन्न आयुर्वेद मतानुसार जो कलाएं मानी गई हैं, उनमें एक पुरीषधरा कला भी है जो पुरीष को धारण करती है और इसका मुख्य कार्य अन्तः कोष्ठ में स्थित मल का विभाजन करना है ।

पुरीष के कार्य आयुर्वेद में पुरीष को उपस्तंभ माना है, अर्थात जो आधार रूप होता है । पुरीष शरीरगत वायु एवं अग्नि को भी धारण करता है ।
पुरीषमुपस्तम्भं वारवाग्निधारणञ्च(सु.सु. १५/४/२)

पुरीष में रुक्ष गुण वायु निकटता को बतलाने वाला है ।
अवष्टम्भः पुरीषस्थं अष्टांग हृदय के इस सूत्र के अनुसार पुरीष अवष्टभन (धारण) करने वाला होता है ।


देह प्रकृति
प्रत्येक मनुष्य का शरीर भिन्न-भिन्न आकार-प्रकार एवं परिमाण वाला होता है । इसके अतिरिक्त प्रत्येक मनुष्य में शारीरिक एवं मानसिक गुणों की दृष्टि से भी भिन्नता पाई जाती है । शुक्र, शोणित तथा गभर्वती के आहार-विहार तथा गभार्शय एवं ऋतु दोष होता है, उससे बालक की प्रकृति बनती है ।

मनुष्य का स्वभाव उसके शरीर की आकृति एवं उसके गुण आदि का स्वाभाविक रूप से जो निमार्ण होता है, सामान्यतः उसे ही प्रकृति कहा जाता है ।

प्रकृति शब्द का अर्थ यद्यपि अनेक रूपों में मिलता है, किन्तु

'प्रकरोति इति प्रकृतिः' -इस व्युत्पत्ति के अनुसार हमें जो प्रकृति शब्द का बोध होता है । वह मात्र मानव स्वभाव की ओर ही संकेत करता है । अतः प्रकृति शब्द से अनेक अर्थों को न ग्रहण करते हुए, मनुष्य का स्वभाव, मानव शरीर का आकार-प्रकार एवं परिमाण के रूप में ही ग्रहण करना चाहिए ।
आयुर्वेद के विद्वानों एवं प्राचीन आचार्यों ने भी मनुष्य के विशिष्ट शारीरिक स्वरूप एवंमानसिक स्वभाव को ही प्रकृति की संज्ञा प्रदान की है ।

प्रकृति शब्द के इस अर्थ को दृष्टिगत रखते हुए मूल रूप से प्रकृति के दो भेद किये गये हैं । यथा-
१. गर्भ शरीर प्रकृति
२. जात शरीर प्रकृति 


इसमें गभर् शरीर प्रकृति का निर्माण गर्भधारण होने के समय ही हो जाता है और जात शरीर प्रकृति का निर्माण प्रसव होने के पश्चात् अथवा बालक का जन्म होने के बाद होता है ।

दोषों का प्रकृति से सम्बन्ध- गर्भ शरीर में प्रकृति का जो निर्माण होता है, उसका प्रभाव केवल गर्भकाल तक ही सीमित नहीं रहता; अपितु मनुष्य की आयु पयर्न्त वही प्रकृति उसके साथ रहती है । गर्भ शरीर प्रकृति का स्थायित्व इतना अधिक है कि बाद में अनेक प्रयतन करने पर भी उसमें परिवतर्न सम्भव नहीं होता ।

आयुर्वेदाचार्यों का ऐसा मानना है कि गर्भ शरीर प्रकृति का निर्माण करने में दोष ही सबसे अधिक महत्त्वपूर्ण होते हैं । दोषों के द्वारा गर्भशरीर में प्रकृति निर्माण किस प्रकार होता है, इसका उल्लेख सुश्रुत में इस प्रकार है-
शुक्र शोणित संयोगे यो भवेद् दोष उत्कटः प्रकृतजायते तेन (सु.शा.अ. ४)

अर्थात् शुक्र और शोणित के संयोग होने पर जिस दोष की अधिकता होती है, उसी के अनुसार प्रकृति का निर्माण होता है । इसी सम्बन्ध में आचार्य वाग्भट्ट ने अष्टांगहृदय में अपना मत इस प्रकार व्यक्त किया है ।

शुक्रात्तर्वस्थैजन्मादौ विशेषेण विषक्रिमेः,
तैश्च तिस्रः प्रकृतयोः हीनमध्योत्तमा पृथक ।
समधातुः समस्तासु श्रेष्ठा निंधा द्विदोषजाः॥
(अ.ह.सू.अ. १)
अर्थात् जिस प्रकार विष से विषकृमि उत्पन्न हो जाता है, उसी प्रकार जन्म के समय में शुक्र और आर्तव में स्थित वात, पित्त, कफ से मनुष्यों की तीन प्रकृतियाँ बन जाती हैं ।
ये प्रकृतियाँ वात से हीन, पित्त से मध्यम तथा कफ से उत्तम होती हैं । जब वात, पित्त, कफये तीनों समान होते हैं तो सम प्रकृति होती है । यह सम प्रकृति इन सब में श्रेष्ठ है तथा दो दोषों के संसर्ग से बनी प्रकृतियाँ निन्दित होती हैं । शुक्र और शोणित के संयोग के समय दोष विशेष की अधिकता निम्न बातों पर आधारित होती है-

१. शुक्र शोणित काल की प्रकृति- अर्थात् उस समय दोष विशेष का आधिक्य । उस समय ऋतु अहोरात्र आदि काल में संचित या प्रकूपित दोष का प्रभाव भी तत्कालीन गभर् को प्रभावित करता है ।
२. शुक्र शोणित संयोग के समय तत्कालीन गर्भाशय की प्रकृति, प्रभाव अथवा उस समय गभार्शय में स्थित दोष का प्रभाव गर्भ के ऊपर पड़ता है ।
३. शुक्र शोणित संयोग के पहले माता के आहार-विहार की प्रकृति या उसके कारण उत्पन्न दोष का प्रभाव गर्भ पर पड़ता है ।
४. शुक्र शोणित के संयोग के समय तत्कालीन पंचमहाभूतों की प्रकृति का प्रभाव गर्भ शरीर पर पड़ता है ।
५. शुक्र शोणित के संयोग के समय तत्कालीन मानसिक स्थिति का गर्भ शरीर की प्रकृति को प्रभावित करती है ।

- उपयुर्क्त समस्त प्रकार की स्थिति और वातावरण के अनुसार जिस दोष की बहुलता होती है उसी के अनुसार गभर् शरीर की प्रकृति का निमार्ण होता है । दोषों की न्यूनाधिकता के कारण ही मनुष्यों की प्रकृति में भिन्नता पाई जाती है । इसलिए दोषों को प्रकृति के मूल कारण के रूप में मानने से इनकार नहीं किया जा सकता ।

प्रकृति के प्रकार 
प्रकृति के प्रकार- आयुवेर्द के अनुसार दोषों द्वार निमत होने वाली प्रकृति को सात प्रकार में विभाजित किया गया है ।
''सप्त प्रकृतयोः भवन्ति दोषेः पृथग द्विशः समस्तैश्च'' 

१. पृथक दोषों से उत्पन्न प्रकृति-तीन प्रकार की होती है- वातज, पित्तज, कफज ।
२. संसगर्जन्य या द्वन्द्वज- दो दोषों के संयोग से यह भी तीन प्रकार की होती है ।
३. सान्निपातिक प्रकृति- इसका निमार्ण तीनों दोषों की समानता से होता है ।
इस प्रकार दोषों द्वारा सात प्रकार की प्रकृति का निर्माण होता है । इन सात प्रकार की प्रकृतियों में समान दोष वाली प्रकृति श्रेष्ठ मानी जाती है ।
विषजातो यथा कीटो न विषेण विपद्यते ।
तद्यत प्रकृतयो भत्यर्न शक्नुवन्ति बाधितुम॥ 

अर्थात् जिस प्रकार विष में उत्पन्न हुआ कीड़ा विष के द्वारा विपत्ति को प्राप्त नहीं होता, उसी प्रकार प्रकृति भी मनुष्य को बाधित करने में समर्थ नहीं है ।

१. श्लैष्मिक प्रकृति के लक्ष ‍महष चरक के अनुसार शेष्मा, स्निग्ध, श्क्ष्ण, मृदु, मधुर, सान्द्र, मंद, स्थिर, स्तिमित, गुरु, शीत, पिच्छिल और अच्छे गुण प्रधान होता है । इन गुणों के कारण शेष्मा प्रकृति वाले पुरुष स्निग्ध अंग वाले, श्क्ष्ण अंग वाले, गौर वर्ण वाले, अधिक शुक्रयुक्त, व्यवसाय सक्षम और अधिक संतान वाले, सुगठित और स्थिर शरीर वाले, मंद चेष्टा, आहार-विहार वाले, परिपुष्ट और सम्पूर्ण अंग वाले, विलम्बपूवर्क आरम्भक, क्षोम और विकार वाले, सारवत स्थिति वाले, अल्पक्षुधा, अल्पसन्ताप और अल्पस्वेद वाले चिकनी और सुगठित सन्धिवाले, प्रसन्न मुख, स्निग्ध वर्ण और मधुर स्वर वाले तथा क्षमाशील, भाग्यवान, कृतज्ञ, स्थायी स्वभाव वाले, श्रद्धालु, गुरु परम्परा को मानने वाले सरल स्वभाव के मनुष्य होते हैं ।

२. पित्त प्रकृति के लक्ष
‍पित्त सामान्यतः उष्ण, तीक्ष्ण, विस्र, अम्ल और कटु गुण प्रधान होता है । इन गुणों के आधार पर पित्त प्रकृति वाले मनुष्य उष्ण गुण के कारण गर्मी को सहन न करने वाले, उष्णमुख तथा सुकुमार शरीर वाले, अत्यधिक मस्से और तिल वाले, पिडि़काओं से युक्त अधिक भूख और प्यास वाले, शीघ्र ही बालों का झड़ना, बालों का सफेद होना, बालों पर रुसी पड़ जाना आदि दोषों से युक्त और प्रायः कोमल अल्प कपिल श्मश्रु लोम केश वाले होते हैं । इनकी मध्यम, आयु, मध्यम बल से अनुदित तथा झंझटों से दूर, क्रोध के कारण इनका चेहरा शीघ्र ही तमतमा जाता है । पित्त के तीक्ष्ण गुण के कारण पित्त प्रकृति वाले मनुष्य तीव्र पराक्रम वाले, तीक्ष्ण अग्नि वाले, अधिक भोजन करने वाले तथा सभी कष्टों को सहन करने वाले होते हैं । पित्त के द्रव गुण के कारण मृदु सन्धि और मांस वाले अधिक स्वेदादि विसजर्न करने वाले इस प्रकार विभिन्न गुणों के योग से पित्त प्रकृति वाले मनुष्य मध्यम बल वाले, मध्यम आयुवाले, मध्यम ज्ञान- विज्ञान वाले, मध्यम पित्त वाले तथा मध्यम साधन वाले होते हैं ।

३. वात प्रकृति के लक्षण
वात के गुणों के आधार पर मनुष्य में प्रकृति का निमार्ण होता है । वायु सामान्यतः रुक्ष, शीत, लघु, सूक्ष्म, चल विशद और खर गुण वाला होता है । वायु की रुक्षता के कारण वात प्रकृति वाले मनुष्य रुक्ष, अल्प और दुबर्ल शरीर वाले, रुक्ष, ककर्श, भिन्न और जजर्र स्वर वाले तथा जागरूक होते हैं । पर प्रायः कद में लम्बे, बातुल (बढ़ा-चढ़ाकर बात करने वाले) स्वप्नों के संसार में जीवित रहते हैं । चल गुण के कारण अवस्थित सन्धि अक्षि, भू, कर्ण, ओष्ठ, जिह्वा, सिर, कन्धे और हाथ-पैर वाले होते हैं । बहल गुण होने के कारण अधिक प्रलाप वाले । शीघ्र कुपित होने वाले शीघ्र प्रसन्न होने वाले, सुनी हुई बात को ग्रहण करने वाले और अल्प स्मृति वाले होते हैं, स्फुटित अंग अवयव वाले सदैव सन्धियों के शब्द को सुनने वाले मनुष्य होते हैं । इस प्रकार उपयुर्क्त गुणों के योग से वात प्रकृति वाले मनुष्य प्रायः अल्प बल वाले, अल्पायु, अल्प सन्तान वाले, अल्पधन साधन वाले होते हैं । इस प्रकार दोषों की प्रधानता के कारण प्रकृति का निर्माण होता है- इसमें वात प्रकृति हीन, पित्त प्रकृति मध्य तथा शेष्म प्रकृति मनुष्यों की उत्तम प्रकृति होती है ।

अग्निदेहाग्नि की महत्ता :- मनुष्य के शरीर की आयु, वर्ण, बल, स्वस्थता, उत्साह, शरीर की वृद्धि, कान्ति, ओज, तेज, अग्नियाँ और प्राण ये सभी देह की अग्नि (पाचक अग्नि) के प्रबल होने पर ही स्थिर रहते हैं । यदि जठराग्नि शांत हो जाये (नष्ट हो जाय) तो मनुष्य की मृत्यु हो जाती है और जठराग्नि में विकृति आ जाय तो मनुष्य रोगी हो जाता है । इसलिय अग्नि को आयु, वर्ण, बल आदि का मूल कहा गया है ।
अग्नि प्रकार :- अग्नि के १३ प्रकार हैं

१. पाचकाग्नि या जाठराग्नि
२. सात धातवाग्नि
३. पाँच भूताग्नि


अग्नि के कार्य :- प्रतिक्षण, शारीरिक धातुओं का क्षय होता रहता है । उस क्षय की पूर्ति के लिये आहार की आवश्यकता होती है । जब आहार द्रव्य पाचकाग्नि द्वारा पचित होता है, तब रसधातु का निर्माण होता है और इसके बाद धातुओं की सात धात्वाग्नियों द्वारा पाचन होकर पोषण रूप बनता है, जिनके द्वारा शरीर का पोषण आयु, बल, वर्ण, कान्ति आदि की स्थिति बनी रहती है । किन्तु जब पाचकाग्नि में ही विकृति आ जाती है तो विकृत रस के निमार्ण होने पर सभी धातुएँ विकृत हो जाती है ।

जाठराग्नि का महत्त्व :- जो अन्न शरीर धातु, ओज, बल और वर्ण आदि का पोषक है उसमें अग्नि (जाठराग्नि) ही प्रधान कारण है क्योंकि अपच आहार से इस आदि धातुओं की उत्पत्ति उचित रूप से नहीं हो पाती ।

जाठराग्नि के कार्य :- खाये हुये आहार को आदान कर्मा (ग्रहण करने वाली) प्राण वायु कोष्ठ (आमाशय) में ले जाती है । आमाशय में जब अन्न प्रविष्ट हो जाता है तो आमाशयस्थित द्रव (क्लेदल कफ) द्वारा उसका संघात (कड़ापन) छिन्न-भिन्न हो जाता है । तथा क्लेदल कफ में वतर्मान स्नेहांश से वह आहार कोमल हो जाता है । फिर समान वायु से प्रेरित उदर की अग्नि (पाचकाग्नि) प्रबल होकर उचित समय पर सममात्रा में खाये गये उस अन्न को आयु आदि की वृद्धि के लिये उचित रूप से पकाती है । जिस प्रकार एक पात्र में चूल्हे के ऊपर रखा हुआ जल और चावल को पकाकर बाह्याग्नि भात को पकाती है । उसी प्रकार आमाशय में रहने वाले आहार को आमाशय के अन्धः प्रदेश में रहने वाली पाचकाग्नि उचित रूप में पकाकर रस एवं मल को उत्पन्न करती है ।

भूताग्नि का कार्य- भोजन द्रव्य पाञ्चभौतिक है । फिर भी जिसमें पार्थिव गुण अधिक होते है उन्हें पाथव कहते हैं । इस प्रकार पाथव आहार पाथवोष्मा, आप्य आहार की आप्योष्मा, आग्नेय आहार की आग्नेयोष्मा, वायव्य आहार की वायोष्मा और नाभस आहार की नाभोष्मा, शरीर के पाँच प्रकार की उष्माओं की अथार्त् पाञ्चभौतिक देह की पाथवोष्मा को पाञ्चभौतिक आहार की पाथवोष्मा,पाञ्चभौतिक आहार की आपोष्मा, पाञ्चभौतिक शरीर की आप्योष्मा को, पाञ्चभौतिक आहार की आग्नेयोष्मा पाञ्चभौतिक देह की आग्नेयोष्मा को, पाञ्चभौतिक आहार की वायव्योष्मा पाञ्चभौतिक देह की वायव्योष्मा को, तथा पाञ्चभौतिक आहार की नाभयोष्मा पाञ्चभौतिक देह की नाभयोष्मा को पुष्ट करती है । अतः इस पाञ्चभौतिक देह द्रव्य का पोषण पाञ्चभौतिक आहार (भोजन) द्रव्य से होता है । पोषण का क्रम यह है कि वह पाञ्चभौतिक आहार द्रव्य में जो पाथव आहार है, वह देह के पाथव का और जो आप्य द्रव्य है वह शरीर के आप्य अंश का पोषण या वृद्धि 'सवर्दा सवर् भावानां सामान्यं वृद्धि कारणम्' के नियम से करता है । इस प्रकार पाथवादि आहार द्रव्य का पाचन या पोषण होने के बाद वह आहार द्रव्य शरीर के अनुकूल हो जाता है और आहार रस की उत्पत्ति होती रहती है ।

इस रस से फिर क्रमशः रस इत्यादि धातुओं की अपनी-अपनी अग्नियों द्वारा पाचन होता है और इन धात्वग्नियों द्वारा पाचन होने के बाद वह रस उस धातु के सात्म्य हो जाता है और उस धातु में मिश्रित हो जाता है या शोषित कर लिया जाता है । इस प्रकार क्रमशः सभी धातुओं की या एक ही बार पाचन होने पर उस धातुओं की वृद्धि होती जाती है ।

पाचकाग्नि :- महास्त्रोतस् में क्रियाशील दीपन-पाचन स्राव, जीवन-रसायन -धर्मा या आग्नेय द्रव्य तथा इनके साथ-साथ सदा विद्यमान उष्मा इन सबको समवेत रूप में 'पाचकाग्नि' कहा गया है ।

धान्वन्तर सम्प्रदाय ने इसके द्वारा होने वाले अग्निकर्म (जीव रसायन क्रिया) का विशेष महत्त्व प्रतिपादित करते हुये इसे पाचनकर्म करने वाली अग्नि (पाचकाग्नि) कहा है । आग्नेय सम्प्रदाय ने इसी के भौतिक-आग्नेय द्रव्यमय - रूप को यथायोग्य निधार्रित करने के लिए इसे 'पचाने वाला प्राणिज द्रव्य विशेष' पाचक-पित्त कहकर सम्बोधित किया है । वास्तविकता यह है कि दोनों एक हैं और पाचक पित्त ही पाचकाग्नि है ।

रसाग्निरस धातु में स्थित 'पित्तोष्मा' को रसाग्नि कहा गया है । रसाग्नि से वे 'पाचनांश और ताप' अभिप्रेत है जो देहपोषक रस में रहते हुये कुछ निश्चित रासायनिक क्रियायें सम्पन्न करते है । ये पाचनांश और इनकी क्रियाओं के लिए अपेक्षित ताप, इन दोनों का समवेत रूप रसाग्नि है । जब अन्नरस में नाना भौतिक आहार द्रव्यों के साथ-साथ गयी हुई भूताग्नियाँ, पाचकाग्नि के प्रभाव से प्रदीप्त होकर, उस अन्नरस को 'देहधातुओं का सजातीय' बना देती हैं, तब वह अन्नरस 'देहपोषक रस' कहलाता है ।

रसाग्नि कर्म और इसके परिणाम :- रसाग्नि या 'रसगत पाचनांश और उष्मा' का क्रियाक्षेत्र देहपोषक रस या रस धातु है । रसाग्नि शब्द से अभिहित पूवोर्क्त पाचन द्रव्य रस धातु पर विविध अग्निकर्म या रासायनिक क्रियायें करते हैं । आयुर्वेद के क्रिया शरीर विशारदों का मत रहा है कि इन रस धातुगत रसायन-क्रियाओं के या रसाग्नि कर्म के परिणाम स्वरूप देहपोषकरस के प्रसाद धातु और किट्ट ये तीन रूपान्तर हो जाते हैं । प्रसाद रूप वह, जो कालान्तर में रसउत्कृष्टतर धातु रक्त या रुधिर का रूप ग्रहण कर लेता है, धातु रूप वह जो स्वरूप में स्थायी रसधातु के रूप में परिणत होता है और किट्ट रूप वह जिसे हम स्थूल शेष्मा कहते हैं । रक्ताग्नि आहार द्रव्यों से उत्पन्न 'अन्नरस' जब देह जातीय बनकर रसाग्नि पाक के उपरान्त रस धातु बन जाता है और रक्त में मिश्रित होकर तद्रूप हो लेता है तब इसका रक्ताग्नि से पाक होता है ।

रक्ताग्नि- रक्तगत पित्तोष्मा है अर्थात् रक्त में विद्यमान भिन्न-भिन्न प्रकार के पाचनांश और उनकी क्रियाओं के लिए आपेक्षित ताप का समवेत रूप रक्ताग्नि कहा जा सकता है ।

रक्ताग्नि के कार्य- रक्ताग्नि द्वारा रक्त का पाक कुछ काल तक होता रहता है, और इसके प्रसाद, धातु और किट्ट तीन प्रकार के अंशों का प्रादुभार्व होता है । प्रसाद-रूप अंश से उत्तर धातु-मास के उपादान बनते हैं । धातु रूप भाग वह लालरक्त, श्वेत रक्त और चक्रिकाओं के रूप में यकृत, प्लीहा, मज्जा के भीतर प्रस्तुत होता है । किट्ट भाग से पित्त की उत्पत्ति होती है जो लोहित कणों के टूटने और रक्त रंजक के विघहित होने पर पतले रंजक द्रव्य में तदनन्तर यकृत पित्त स्राव के रूप में परिणत होकर अन्त्र के भीतर परिस्रुत होता रहता है ।


मांसाग्नि- रसाग्नि और रक्ताग्नि के समान मांसाग्नि भी मांसगत पित्तोष्मा है, अथार्त् यह विशिष्ट प्रकार के पाचनांशों और उनकी क्रियाओं के लिए अपेक्षित ताप का समवेत रूप है ।

मांसाग्नि कर्म- मांसाग्नि द्वारा किये जाने वाले अग्निकर्म के दो प्रकार हैं- १. वह अग्नि कर्म, जिसके द्वारा पोषक अंश मांसघटकों को पुष्ट करके, उनकी संतति वृद्धि कराता है, अपने से उच्च कोटि के अर्थात् मेदो जातीय घटों के उपादान का निमार्ण करता है । यह मांसाग्नि का जीवन मूलक और स्थायी कर्म है । २. वह अग्नि कर्म जो मांसपेशियों में नाना प्रकार की चेष्टाएँ उत्पन्न कराते समय होता है । यह मांसाग्नि का चेष्टामूलक और सामयिक या असामयिक कर्म है ।


मेदोग्नि- यह भी अन्य धात्वाग्नियों की तरह कतिपय पाचनांशों का और उष्मा का समवेत रूप है जो मेदोधातु और उसके प्रसाद मल भागों में अपनी क्रिया से एक विशिष्ट अनुपात बनाये रखते हैं ।

मेदाग्नि कर्म
१. प्रसाद अंश की उत्पत्ति अर्थात् मेद से उच्च कोटि के 'अस्थि' धातु के निमार्ण की भूमिका प्रस्तुत करना ।
२. स्वजातीय धातु को- देहगत मेद को पुष्ट करना ।
३. अपने किटांश का निर्माण अर्थात् स्वेद को निमत करना ।


अस्थ्याग्नि- प्रत्येक धातु आहार रस का ही परिवतत रूप है और आहार रस गत धात्वीय अंश पर प्रत्येक धातु की अपनी-अपनी अग्नि की धात्वाग्नि की क्रिया के उपरान्त उस धातु का निमार्ण हो पाता है । धात्वाग्नि के साथ वात का सहयोग अनिवायर् रूप से आवश्यक है । अस्थि धातु के निमार्ण के लिए भी इसके अपने विशिष्ट 'अग्नि' अथार्त् अस्थ्यग्नि इसके अपने घटों में व्यस्त और विलीन रहता है । आवश्यकता के समय अस्थिघट इस अस्थ्यग्नि को प्रकट करते हैं ।

अस्थ्यग्नि कर्म- अस्थ्यग्नि कर्म के स्वाभाविक और सम्यक् रूप में होते रहने के तीन परिणामों का आयुवेर्द में उल्लेख है ।
१. स्वधातु का 'अस्थि' का निर्माण ।
२. प्रसादांश का, अर्थात् अस्थि से उत्कृष्टतर धातु 'मज्जा' के अंश का आविर्भाव ।
३. अस्थि धातु के किट्ट 'केश, रोम, नख' का प्रस्तुति करण ।


मज्जाग्नि अन्य धात्वाग्नियों के सदृश-मज्जागत 'पित्तोष्मा' है । अर्थात् यह भी पित्तवगीर्य आग्नेय द्रव्यों का तथा उष्मा का समवेत रूप हैं ।

मज्जाग्नि कर्म- अन्य धात्वाग्नियों की क्रियाओं से उत्पन्न परिणामों के सदृश मज्जाग्नि की क्रिया के भी तीन परिणाम आयुवेर्द में कहे गये हैं ।
१. स्वधातु का निर्माण (स्थूल भाग)
२. उत्कृष्टतर धातु के अंश का 'शुक्र' का निमार्ण (सूक्ष्म भाग)
३. किट्ट भाग की- इन्द्रिय मलों के स्नेहांश की उत्पत्ति (स्थूल भाग)- नेत्रादि इन्द्रिय मलों का, पुरीष का-त्वचा के किट्ट का परिगणन होता है ।

शुक्राग्नि- शुक्र से सम्बन्धित पित्तोष्मा है । अर्थात् शुक्र निर्माण के लिए उत्तरदायी पित्त या आग्नेय प्रकृति के द्रव्य एवं इनकी रासायनिक क्रियाओं के लिए अपेक्षित उष्मा या ताप ।

शुक्राग्नि कर्म- शुक्रोपादान पर शुक्राग्नि कर्म के परिणाम रूप में इसके केवल दो ही भाग होते हैं । स्थूल भाग- शुक्र धातु (जिसमें शुक्र बीज एवं अन्यान्य स्राव सम्मिलित हैं) और सूक्ष्म भाग शुक्रोज । मल भाग उत्पन्न नहीं होता । शुक्र देह का अन्तिम धातु है । नाना देहाग्नियों द्वारा परिपाक होते-होते उत्यन्त निमर्ल हो चुकने से अन्त में इसका कोई उपमल उत्पन्न नहीं होता । जैसे बहुत बार तपाये हुए स्वर्ण से मैल नहीं निकलता ।

साम-निराम
सामशब्द का अर्थ होता है 'आम सहित' और निराम शब्द का अर्थ होता है 'आम रहित' ।

तीन दोष अथवा कोई एक दोष जब आम से युक्त होता है तो उसे सामदोष कहते हैं ।

आमयुक्त दोष- विकृतावस्था को प्राप्त हो जाते हैं और वे व्याधि को उत्पन्न करते हैं, वही दोष जब आम से रहित होता है तो निराम कहलाता है । निराम दोष सामन्यतः प्राकृत या अविकृत दोषों को कहा जाता है । इस प्रकार दोषों की साम अवस्था विकारोत्पादक और निराम अवस्था विकार शामक होती है ।
जाठराग्नि अथवा धात्वाग्नि की दुबर्लता के कारण अन्न तथा प्रथम धातु अर्थात्-रसधातु या आहार रस का समुचित रूप से पाक न होने के कारण अपक्व रस उत्पन्न होता है, यह अपक्वरस ही आम कहलाता है ।

आम दो प्रकार के होते हैं -
१-अपक्व अन्न रस
२-धात्वाग्नियों की दुबर्लता से अपक्व रस धातु ।

प्रथम जाठराग्नि की दुबर्लता से अवस्थापाक में आम की उत्पत्ति होती है । यह आमोत्पत्ति की अवस्था आमाशय गत होती है । दुसरी अवस्था धात्वाग्नि की दुवर्लता के कारण रस रक्तादि धातुओं के परिपाक में होती है । यह आमोत्पत्ति धातुगत होती है । इस आम को आमविष भी कहते हैं । यही आम दोषों के साथ संयुक्त होकर विकारों को उत्पन्न करता है । यह सभी दोषों का प्रकोपक होता है । अपक्व अन्नरस में सड़न होने से यह शुक्तरूप अथार्त सिरके की तरह होकर विषतुल्य हो जाती है-

'जठरानल दौबर्ल्यात् विपक्वस्तु यो रसः ।'
स आम संज्ञको देहे सवर्दोष प्रकोपणः
अपच्यमानं शुक्तप्वं यात्यन्नं विषरूपताम्॥ 
(च०चि०१५ ।४४)

अग्नि की मंदता के कारण आद्य अपचित धातु जो दूषित अपक्व होकर आमाशय में रहता है वह रस आम कहलाता है-
'उष्मणोऽल्पबलत्वेन धातु माद्यमपचितम्
दुष्टमानाशयगतम् दुष्टमानाशयगतं रसमामं प्रचक्षते ।'
 (अ०छ्र०सू०१३ ।२५)

सामलक्षणः- अपक्व अन्नरस किं वा अपक्व प्रथम रस धातु से मिले हुए दोष-यथा वात, पित्त,कफ और दूष्य यथा रक्तादि धातु-साम कहे जाते हैं और इनसे उत्पन्न रोगों को 'सामरोग' कहा जाता है । जैसे

सामज्वर, सामातिसार, आमेन तेन सम्प्रक्ता दोषा दुष्यश्च दूषिता ।
सामादुत्युपदिश्यन्ते येष रोगास्तदृदभषाः ।
 (अ०छ०सू०१३ । २७)

सामव्याधि-आलस्य, तंद्रा, अरुचि, मुखवैस्य, बेचैनी, शरीर में भारीपन, थकावट और अग्निमांध आदि साम रोग के लक्षण है ।

निरामव्याधि-शरीर में हल्कापन, इन्द्रियों की प्रसन्नता, आहार में रुचि और वायु का अनुलोमन होने पर रोग को निराम जानना चाहिये ।

अन्नरस जब तक आमाशय में रहता है तब तक उसका शरीर में ग्रहण होना सम्भव नहीं होता । वह विशेषकर उदर प्रदेश में ही विभिन्न विकृतियाँ अजीर्ण आदि उत्पन्न करता है । परन्तु इसके सड़ने से उत्पन्न विषद्रव्यों की आंत्रों द्वारा ग्रहण होता है । ग्रहीत होकर ये विष द्रव्य शरीर में पहुंचते हैं और अनेक विकारों को पैदा करते हैं ।

धात्वाग्नियों के दौबर्ल्य वश स्वयं धातुओं में भी रसधातु आमावस्था में रहता है जिससे उत्तरोत्तर धातुओं की पुष्टि नहीं होती जिसके कारण अपोषण जनित विकारों का जन्म होता है ।

सामदोष लक्षण-स्वेद मूत्रादि स्रोतों का अवरोध, बल की हानि, शरीर में भारीपन, वायु का ठीक से न होना, आलस्य, अजीर्ण, थूक या दूषित कफ अधिक निकलना, मल का अवरोध, अरुचि, क्लम अर्थात् इन्द्रियों की अपने विषयों में अप्रवृति और श्रम मालूम होना, ये साम दोषों के लक्षण है-
'स्रोतोवरोध बलभ्रशं गौरवानिल मूढ़ता
आलस्यपक्तिनिष्टीव मलसङ्गा रुचि क्लमाः
लिङ्ग मलानां समानाम् ।'
 (अ०हृ०सू० १३ । २३)

निरामदोष लक्षण-स्रोतों का प्राकृत रूप से कार्य करना, बल का ह्रास न होना, शरीर में हल्कापन, स्फूर्ति, समाग्नि, विषबन्ध न होना, आहार में रूचि और थकावट की प्रतीति न होना, ये निरामदोष के लक्षण होते है - 'निरामाणं विपयर्यः'(अ०ह०)


सामवात के लक्षण-विबन्ध-अग्नि मांद्य, तन्द्रा, आंतों में गुड़गुड़ाहट, अंगवेदना, अंगशोथ, कटि पाश्वार्दि में पीड़ा, उरुस्तम्भ, स्तैमित्य, आरोचक, आलस्यादि सामवायु के लक्षण होते हैं । वायु की वृद्धि होने पर समस्त शरीर में संचरण करता है तथा परिस्थिति अनुसार एकांग या सर्वांग में विकार उत्पन्न करता है ।

निराम वायु लक्षण- निरामवायु विशद रुक्ष, विबन्ध रहित और अल्पवेदना वाला होता है तथा विपरीत गुणोपचार से शांत होता है ।
निरामो विशदोरुक्षो निविर्न्धोऽल्पवेदनः
विपरीत गुणैःशान्ति स्निग्धैयार्ति विशेषतः ।
 (अ०छ०सू० १३ ।)

सामपित्त के लक्षण- सामपित्त दुर्गन्ध युक्त हरित या इषत कृष्ण अम्ल स्थिर अर्थात् जल में न फैलने वाला अम्लोद्गार, कण्ठ और हृदय में दाह उत्पन्न करने वाला होता है ।
''दुगर्न्धं हरितंश्यावं पित्तमम्लं घनं गुरू
अम्लीकाकण्ठहृद्दाहकरं सामं विनिदिर्शेत् ।"
(अ०छ०)

निरामपित्त के लक्षण- किन्चित् ताम्रवणर् या पीतवर्ण, अतिउष्ण, तीक्ष्ण, तिक्तरस, अस्थिर, गन्धहीन तथा रुचि अग्नि एवं बल का वधर्क होता है ।

सामकफ के लक्षण- अस्वच्छ ततुंओं से युक्त सान्द्र कण्ठ को लिप्त करने वाला दुगर्न्धयुक्त भूख और डकार को रोकने वाला होता है ।

निराम कफ लक्षण- फेनवाला, पिण्डरूप अर्थात् जिसमें तंतु नहीं होते हल्का गन्धहीन एवं मुख को शुद्ध करने वाला होता है ।


रस (षट्रस)
वस्तुतः हम जो भी खाद्य पदार्थ एवं वस्तुएँ ग्रहण करते हैं, उनमें से जिस स्वाद का ज्ञान जिह्वा के द्वारा होता है उसे ही रस कहते हैं ।

'रसानार्थो रसः' इस उक्ति के अनुसार शब्द, स्पर्श, रूप आदि अन्य इन्द्रियों के अर्थों के समानरस जिह्वा इन्द्रिय का अर्थ है, क्योंकि रस का निश्चय जिह्वा पर पड़ने से ही होता है । इसलिए इसकी रस संज्ञा होती है तथा- रसेन्द्रिय के विषय को रस कहते हैं ।

रसनाथोर् रसः(च.सू.अ. १)
रसेन्दि्रयग्राह्यो योडर्थः स रसः(शि.)
रसस्तु रसनाग्राह्यो मधुरादिरनेकधा (का.) 


अर्थात् जिस गुण का रसना के द्वारा ग्रहण होता है व रस कहलाता है । मधुर अम्ल आदि में पृथक वैशिष्ट्य होने पर भी सारवाद्यत्व सब में समान रूप से रहता है, अतः ये रस कहलाते हैं ।

रस और उनका आश्रय- द्रव्य में रहने वाले मधुर अम्ल लवण कटु, तिक्त और कषाय ये छः रसहैं तथा इसमें जो रस जिस रस के पूर्व में रहता है, वह उससे बलवान होता है ।
अर्थात् रसों की पहचान जीभ के ग्रहण करने पर ही होती है, यथा स्वाद से जैसी प्रतीति होती है मधुर, अम्ल, लवण या मीठा खट्टा नमकीन आदि ।
'रसा स्वादाम्ललवणतिक्तोष्ण कषायकाः'
षड् द्रव्यमाश्रितास्ते च यथापूवर् बलावहाः ।
(अ.स.सू.अ.१)


रसों की संख्यारस छः हैं- मधुर, अम्ल, लवण, कटु, तिक्त और कषाय ।
रसास्वात् षट् मधुराम्ललवण कटु तिक्त कषायाः (च.चि. १)


इन्हें सामान्य बोलचाल की भाषा में क्रमशः मीठा, खट्टा, नमकीन, कडुआ, तीता और कसैला कहते हैं । इनके उदाहरण इस प्रकार हैं-

मधुर- गुड़, चीनी, घृत, द्राक्षा आदि ।
अम्ल- इमली, नीबू, चांगेरी ।
लवण- सैधंव सामुद्र लवण आदि ।
कटु- निम्ब, चिरायता, करैला आदि ।
तिक्त- मरिच, लंका (लाल मिर्च) पिप्पली ।
कषाय- हरीतकी, बबूल, धातकी । 



रसों की संख्या के विषय में आचार्य कठोरता वादी हैं और उसमें परिवतर्न नहीं हो सकता । इसलिए रस छः ही हैं, न कम न अधिक । यद्यपि रसों की संख्या के सम्बन्ध में विभिन्न मत हैं, परन्तु मान्य छः रस ही हैं ।

रसों का पञ्चभौतिकत्व- द्रव्य के समान रस भी पञ्चभौतिक हैं । जल तो मुख्य रूप से और पृथ्वी जलानु प्रवेश के कारण अप्रत्यक्ष रूप से रस का समवायि कारण है । इसके अतिरिक्त आकाश, वायु और अग्नि ये तीन महाभूत रस की सामान्य अभिव्यक्ति तथा वैशिष्ट्य में निमित्त कारण होते हैं । इस प्रकार पाँचों महाभूत रस के कारण तथा सम्बद्ध है । द्रव्य और रसदोनों पंचभौतिक होने के कारण द्रव्य अनेक रस होते हैं । वस्तुतः रस जलीय है और पहले अव्यक्त रहता है, वही एक आप्य रस काल के छः ऋतुओं में विभक्त होने के कारण पंचमहाभूतों के न्यूनाधिक गुणों से विषम मात्रा में विदग्ध होकर मधुर आदि भेद से अलग छः प्रकारों में परिणत हो जाता है । अतः रसों की उत्पत्ति पंचमहाभूतों के द्वारा ही होती है ।

तत्र भूजलयोबार् छुयान्मधुरो रसः ।
भूतेजसोरम्लः जलतेज सोलर्वणः । वाय्वा काशयोस्तिक्तः । वायु तेजसोः कटुकः । वायुव्योर् कषायः । 


१. मधुर-जल+पृथ्वी
२. अम्ल-पृथ्वी+अग्नि (चरक, वृद्धवाग्भट और वाग्भट) जल+अग्नि (सु.)
३. लवण-जल+अग्नि (चरक, वाग्भट) पृथ्वी+अग्नि(सुश्रुत) अग्नि+जल(नागार्जुन)
४. कटु-वायु+अग्नि
५. तिक्त- वायु+आकाश
६. कषाय-वायु+पृथ्वी

महाभूतों की न्यूनाधिकता ऋतुओं के अनुसार होती है और उसके कारण विभिन्न ऋतुओं में विभिन्न रसों की उत्पत्ति होती है ।
ऋतु महाभूताधिक्य रसोत्पत्ति

१. शिशिरवायु+आकाशतिक्त
२. वसन्तवायु+पृथिवीकषाय
३. ग्रीष्मवायु+अग्निकटु
४. वषार्पृथिवी+अग्निअम्ल
५. शरतजल+अग्निलवण
६. हेमन्तपृथिवी+जलमधुर

रस के भेद-

मधुर रस लक्षण- मधुर रस जिह्वा में डालने पर पैछित्य संयोग से मुँह मे लिपट जाता है, जिससे इन्दि्रयों में प्रसन्नता होती है, गुण भी माधुर्य, स्नेह गौरव, सव्य और मार्दव है, अतः मधुर रस कफवद्धर्क है, इसके सेवन से शरीर में सुख की प्रतीति होती है जो भ्रमर कीट मक्खी आदि को अत्यन्त प्रिय होता है । मूत्र के साथ शकर्रा जाती है जो मधुमेह का एक कारण है ।

कार्य- शरीर के सभी धातुओं को बढ़ाता है तथा धातुओं के सारभूत ओज की वृद्धि करने के कारण यह बल्य जीवन तथा आयुष्य भी है । शरीर पोषक- पुष्टि कारक एवं जीवन प्रद है ।


२. अम्ल रस लक्षण एवं कार्य- जिससे जिह्वा में उद्वेग होता है, छाती और कण्ठ में जलन होती है, मुख से स्राव होता है, आँखों और भौहों में संकोच होता है, दाँतों एवं रोमावली में हर्ष होता है । अम्ल, रस, वायु नाशक तथा वायु को अमुलोमन करने वाला पेट में विदग्धता करने वाला, रक्त पित्त कारक, उष्णवीर्य, शीत स्पर्श, इन्द्रियों में चेतनता लाने वाला होता है ।

३. लवण रस लक्षण- जो मुख में जल पैदा करता है, कण्ठ और गालों पर लगने से जलन सी होती है और जो अन्न में रुचि उत्पन्न करता है, उसे लवण रस कहते हैं ।

कर्म- लवण रस जड़ता को दूर करने वाला, काठिन्य नाशक तथा सब रसों का विरोधी, अग्नि प्रदीपन रुचि कारक, पाचक एवं शरीर में आर्दता लाने वाला, वायुनाशक, कफ को ढीला करने वाला गुरु स्निग्ध तीक्ष्ण और उष्ण है । लवण रस नेत्रों के लिए अवश्य है, सैन्धव लवण अहितकारी नहीं ।


४. तिक्त रस लक्षण एवं कर्म- जो मुख को साफ करता है, कण्ठ को साफ करता है तथा जीभ को अन्य रसों को ग्रहण करने में असमर्थ बना देता है, उसे तिक्त रस कहते हैं ।
तिक्त रस स्वयं अरोचिष्णु, अरुचि, विष कृमि, मूर्च्छा, उत्क्लेद, ज्वर, दाह, तृष्णा, कण्डू आदि को हरने वाला होता है । रुक्ष-शीत और लघु है, कफ का शोषण करने वाला दीपन एवं पाचन होता है ।

५. कटुरस लक्षण एवं कर्म- जो बहुत चरपरा होता है, जीभ के अग्र भाग में चराचराहट पैदा करता है । कण्ठ एवं कपोलों में दाह पैदा करता है । मुख, नाक, आँखों में जिसके कारण पानी बहने लगता है और जो शरीर में जलन पैदा करता है उसे कटु रस कहते हैं ।
दीपन पाचन है । उष्ण होने से प्रतिश्याय कास आदि में उपयोगी है । इन्द्रियों में चैतन्य लाने वाला, जमे हुए रक्त को भेदकर विलयन करने वाला होता है ।

६. कषाय रस लक्षण एवं कर्म- जीभ में जड़ता लाता है । कण्ठ को रोकता है, हृदय में पीड़ा करता है, वह कषाय रस है । स्तभंन होने के कारण रक्तपित्त अतिसार आदि में ये द्रव पुरीष तथा रक्तादि को रोकने के लिए उपयोगी है । शीतवीर्य, तृप्तिदायक, व्रण का रोपण करने वाला तथा लेखन है ।

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INDIA-RUSSIA, India
Researcher of Yog-Tantra with the help of Mercury. Working since 1988 in this field.Have own library n a good collection of mysterious things. you can send me e-mail at alon291@yahoo.com Занимаюсь изучением Тантра,йоги с помощью Меркурий. В этой области работаю с 1988 года. За это время собрал внушительную библиотеку и коллекцию магических вещей. Всегда рад общению: alon291@yahoo.com