पंञ्चमहाभूतभूत शब्द की निरुक्ति- भू+क्तः = भूतः ।
भूः सत्तायाम् इस धातु में क्त प्रत्यय लगाकर भूत शब्द बनता है ।
भूत- अर्थात् जिसकी सत्ता हो या जो विद्यमान रहता हो, उसे भूत कहते हैं ।
भूत किसी के कार्य नहीं होते- अर्थात् किसी से उत्पन्न नहीं होते, अपितु महाभूतों के ये उपादान कारण होते हैं ।
किन्तु पंचभूत स्वयं किसी से उत्पन्न नहीं होते, इसलिए ये नित्य हैं । यथा-
१. न जायतेऽन्यतो यन्तु यस्मादन्यत प्रजायते्
सगुणानां उपादानं तद्भूतम इति कश्यते्(पञ्चभूत वि०)
२.यस्योत्पत्तिविनाशौ स्तः तन्नादिकारणं भवेत्
आदिकारणभूतानि नित्यानीत्यनुमीयते ।(प०वि०)
- महषिर् चरक ने भूतों को सुसूक्ष्म एवं इन्दि्रयातीत कहा है ।
अर्थाः शब्दादयो ज्ञेया गोचरा विषया गुणाः(च० शा०१/३१)
- पञ्चभूत कारण द्रव्य नित्य अतिसूक्ष्म एवं इन्द्रियातीत हैं ।
''महन्ति भूतानि महाभूतानि ।''
- महान् भूतों को महाभूत कहते हैं ।
- महत्त्व या स्थूलत्त्व आने के कारण इनकी महाभूत संज्ञा है ।
उक्त महाभूत संसार के सभी चल-अचल वस्तुओं में व्याप्त है, अतः इन्हें महाभूत कहते हैं ।
''इह हि द्रव्यं पञ्चमहाभूतात्मकम्''(अ०सं०सू०१७/३)
इस पृथ्वी के समस्त जीवों का शरीर और निजीर्व सभी पदाथर् पंच महाभूतों द्वारा निमिर्त हैं ।
''सवर्द्रव्यं पाञ्चभौतिकमस्मिन्नथेर्''(च०सू० ३६)
अर्थात् संसार के समस्त द्रव्य पञ्चभौतिक है । आयुवेर्द का मुख्य प्रयोजन रोग प्रशमन और रोगी के स्वास्थ्य की रक्षा करना है; परन्तु जिस पुरुष के स्वास्थ्य की रक्षा की जाती है, वह पञ्चभितिक होता है । उसका आरोग्य-अनारोग्य पञ्चमहाभूत से है, तथा उसके विकारग्रस्त होने पर जो द्रव्य चिकित्सा हेतु प्रयुक्त किये जाते हैं, वे भी पञ्चभौतिक होते हैं । शरीर को धारण करने वाले दोष धातु और मलों की उत्पत्ति भी पञ्चमहाभूतों से ही होती है । अतः इस पृथ्वी पर जो सत्ता है सभी में पञ्चमहाभूतों का समावेश सम्पूर्ण रूप से सन्निहित है ।
पञ्चमहाभूतों की उत्पत्ति
प्रकृति का पुरुष से सम्पर्क होता है तो उससे सवर्प्रथम महत्तत्त्व या महान् की उत्पत्ति होती है-महत् से अहंकार । चूँकि प्रकृति त्रिगुणात्मिका होती है अतः उससे उत्पन्न हुए महत् तत्व तथा अहंकार भी त्रिगुणात्मक होते हैं ।
१. वैकारिक २. तैजस ३. भूतादि
तैजस अहंकार की सहायता से भूतादि अहंकार द्वारा पञ्च तन्मात्राएँ उत्पन्न होती है ।
भूतादेरपि तैजसहायात् तल्लक्षणान्येव
पञ्चतन्मात्राणि उत्पद्यन्ते .................... (सु०शा०१)
भूतादि अहंकार से ही पञ्चमहाभूतों की उत्पत्ति हुई इसीलिए उनकी संज्ञा भूत हुई । आकाश से वायु, वायु से अग्नि, अग्नि से जल, जल से पृथ्वी की उत्पत्ति हुई । तथा शब्द, स्पर्श, रूप, रस, गन्ध ये क्रमशः महाभूतों के गुण हैं । इन्हें ही पञ्चतन्मात्रा भी कहा जाता है । पञ्चतन्मात्रा का दूसरा नाम अविशेष या सूक्ष्मभूत है ।
इसी को महर्षि चरक ने इस प्रकार कहा हैः-
महाभूतानि रवं वायुरग्निरापः क्षितिस्तथा,
शब्द स्पशर्श्च रूपं च रसो गन्धश्च तद्गुणाः । (च०शा०१)
पञ्चमहाभूतों की रचना एवं गुणोत्पत्ति
१.० तन्मात्रा (१ शब्द तन्मात्रा)= आकाश (व्यापक)
२.१ शब्द तन्मात्रा+ २स्पर्श तन्मात्रा=वायु (शब्द प्रधान स्पर्श गुण युक्त)
अणुसमुदाय
भौतिकशारीरिक
(४९ रूप)(पञ्चरूप)
३.१ शब्द तन्मात्रा+ स्पर्श तन्मात्रा+ रूप तन्मात्रा=अग्नि (शब्द, स्पर्श, रूप, गुण प्रधान) अणु समुदाय ।
४.१ शब्द तन्मात्रा+ स्पर्श तन्मात्रा+ रूप तन्मात्रा + २ रस तन्मात्रा=अप
(शब्द, स्पर्श, रूप, रस प्रधान) अणु समुदाय
५.१ शब्द तन्मात्र १स्पशर् तन्मात्रा +रूप त०मा० + १ रस त०मा०+२गंध तन्मात्रा= पृथ्वी (शब्द, स्पशर्, रूप, रस, गन्ध प्रधान) अणु समुदाय ।
इस प्रकार सूक्ष्म महाभूत अर्थात् तन्मात्राओं से पहले तत्वों की एक मात्रा अपने तत्वों के दो भाग से आकाश आदि स्थूल महाभूतों की क्रमशः उत्पत्ति होती है । यह त्रिवृत्तिकरण दार्शनिकों का 'अणु' है ।
यह समस्त विश्व पञ्चमहाभूतों की ही खेल है । इन पञ्चमहाभूतों का जो इन्द्रियग्राह्य विषय नहीं है, वही तन्मात्रा महाभूत है और जो इन्द्रियग्राह्य है वे ही भूत है । आत्मा, आकाश अव्यक्त तत्व है और शेष व्यक्त तत्त्व है ।
यह हमारी सृष्टि भूतों का समुदाय है । पृथ्वी में गति वायु से तथा अवयवों का मेल एवं संगठन जल से और उष्णता अग्नि से आई । पृथ्वी अंतिम तत्त्व है, अर्थात् उससे किसी नये तत्त्व की उत्पत्ति नहीं होती है ।
तेषामेकगुणं पूर्वो गुणवृद्धि परे परे,
पूर्वः पूवर्गुणश्चैव क्रमशो गुणिषु स्मृतः(च०शा० १/२८)
इनमें प्रथम भूत आकाश गुण वाला आर्थात् शब्द । आकाश का केवल एक ही गुण होता है- शब्द, और पिछले प्रत्येक भूत में अपने पूवर् भूत के गुणों के प्रवेश से गुण की वृद्धि रहती है ।
अर्थात्- सृष्टि के आदि में आकाश स्वयं सिद्ध रहता है । जिस प्रकार आकाश को नित्य माना जाता है उसी प्रकार शब्द भी नित्य है ।
उसके बाद 'आकाशद्वायुः' आकाश से वायु की उत्पत्ति होती है, तो उसमें अपना गुण स्पर्श एवं आकाश का शब्द रहता ही है जिससे वायु में शब्द एवं स्पर्श दो गुण हो जाते हैं । इसी प्रकार-
'वायोरग्नि' :- तो वायु से अग्नि की उत्पत्ति । इसमें-शब्द, स्पर्श, रूप, तीन गुण हुए ।
'अग्नेराप' :- अग्नि से जल की उत्पत्ति- शब्द, स्पर्श, रूप, रस ४ गुण हुए ।
'अद्भयः पृथ्वी' :- जल से पृथ्वी की उत्पत्ति जिसमें-शब्द, स्पर्श, रूप, रस, गन्ध ये पाँच गुण होते हैं ।
इस प्रकार महाभूतों की क्रमशः उत्पत्ति और तदनुसार उनमें क्रमशः गुणवृद्धि होती है । इसके अतिरिक्त महाभूतों में कुछ अन्य गुण भी पाए जाते हैं जिनका ज्ञान स्पशेर्न्दि्रय के द्वारा होता है
।
महाभूतों के गुण- गंधत्व, द्रवत्व, उष्णत्व, चलत्व गुण क्रमशः पृथ्वी, जल, तेज और वायु के होते हैं ।
आकाश का गुण अप्रतिघात (प्रतिघात=रुकावट) होता है ।
शरीर में सूक्ष्म महाभूतों के गुणों को चिह्न ही निदेर्श किया है ।
गुणाः शरीरे गुणिनां निदिर्ष्टश्चिह्नमेव च् (च०शा०)
अथार्त् खर होना, द्रव होना, चंचल होना, उष्ण होना, इनका ज्ञान त्वचा से ही होता है ।
महाभूतों का सत्व, रज और तम से भी घनिष्ठ संबंध है । शास्त्रों में उल्लेख मिलता है । यथा क्रमशः-
१.'सत्वबहुलमाकाशम्'- अथार्त् सत्व गुण की अधिकता वाला आकाश होता है ।
२. 'रजोबहुलोवायुः'- रजो गुण की अधिकता वाला वायु होता है ।
३. 'सत्वोरजो बहुलोऽग्निः'- अथार्त् सत्व और रजोगुण की अधिकता वाला अग्नि महाभूत होता है ।
४. 'सत्वतमोबहुलाऽऽपः'- अथार्त् सत्व और तमोगुण की अधिकता वाला जल महाभूत होता है ।
५.'तमोबहुला पृथिवीति'- अथार्त् तमोगुण की प्रधानता वाला पृथ्वी होती है ।
इस प्रकार आकाशादि पञ्चमहाभूतों में सत्वादिगुण विद्यमान रहते हैं ।
पञ्चमहाभूतों से द्रव्यों की उत्पत्ति के ज्ञान हेतु इसकी तीन अवस्थाएँ होती हैः-
भूत, महाभूत और दृश्यभूत
- भूत या तन्मात्रा की अवस्था में- आकाश, वायु, अग्नि, जल, पृथ्वी में उनके शब्द, स्पर्श, रूप, रस, गन्ध- ये गुण अव्यक्तावस्था में रहते हैं, यह परमाणुक अथवा सूक्ष्मतम से भी सूक्ष्म अवस्था होती है । यह स्थिति प्रलय की है ।
वैशेषिक दर्शन के अनुसार प्रलय की स्थिति में जब परमात्मा को सृष्टि निर्माण की इच्छा हुई, तब आकाश महाभूत के दो परमाणुओं में परस्पर आकषर्ण के द्वारा संयोग होने लगा । द्वयणुक की रचना हुई तथा तीन द्वयणुक के मिलने से त्रसरेणुकी निर्मित हुई । द्वयणुक तक गुणों में सूक्ष्मता तथा भूत में अव्यक्तावस्था रहती है, तथा त्रसरेणु में यह (भूत) प्रत्यक्षयोग्यता तथा महत् परिमाण वाला हो जाता है । महत्त्व या स्थूलत्व आ जाने के कारण ही इनको महाभूत कहते हैं ।
चरक के अनुसार महाभूतों के गुण इस प्रकार है-
खरद्रवचलोष्णत्वं भूजलानिलतेजसाम्
आकाशस्याप्रतिघातो दृष्टं लिङ्गं यथाक्रमम् ।(च०शा०१/२९)
महाभूतों की उपयोगिता-
१. गर्भविकास एवं पञ्चमहाभूत
२. शरीरावयव एवं पञ्चमहाभूत
३. त्रिदोष एवं महाभूत
४. देह प्रकृति एवं पञ्चमहाभूत
५. षड्रस एवं पञ्चमहाभूत
६. भूताग्नि एवं पञ्चमहाभूत
- संसार के स्थूल से स्थूल तथा सूक्ष्म से सूक्ष्म द्रव्य की निष्पत्ति पञ्चमहाभूत से ही होती है; किन्तु पञ्चभौतिक होते हुए भी जिस महाभूत का प्राधान्य जिस द्रव्य में होगा उसकी अभिव्यक्ति उसी महाभूत के गुणों के द्वारा होती है तथा महाभूत की अधिकता के अनुसार ही आकाशीय वायव्य तैजस या आग्नेय आदि कहा जाता है । |
त्रिदोष
परिचय एवं लक्षण
त्रिदोष अथार्त तीन दोष यानि वात, पित्त, कफ इसी को महर्षि वाग्भट्ट ने कहा है कि
वायुः पित्तं कफश्चेति त्रयो दोषाः समासताः ।(अ.स.सू.प्र.अ.)
क्योंकि ये शरीर को दूषित करते हैं इसलिए इन्हें दोष कहा जाता है ।
''दूषणाद्दोषाः'' - इस व्युत्पत्ति के अनुसार जो शरीर को दूषित करते हैं वे दोष हैं, ये दोष शरीर को तभी दूषित करते हैं जब स्वयं विकृत हो जाते हैं ।
प्राकृतावस्था में तो दोष धातु, मल ही शरीर को धारण करते हैं ।
इसीलिए ''दोष धातु मल मूलं हि शरीरम्'' कहा गया है । किन्तु शरीर को दूषित करने के कारण ही इन्हें दोष नाम से वणिर्त किया गया है । परन्तु सदैव ये इसी रूप में नहीं रहते ।
साम्यावस्था प्रकृति- जब ये प्राकृतावस्था में रहते हैं, तब शरीर को धारण करते हैं, इसीलिए समअवस्था में स्थित वात्, पित्त, कफ को धातु कहते हैं ।
और जब ये शरीर धारण के लिए अनुपयुक्त होकर शरीर को मलिन करते हैं तब इन्हें मल कहते हैं ।
इस प्रकार अवस्था भेद से वात, पित्त और कफ के लिए दोष, धातु और मल इन तीनों संज्ञाओं का व्यवहार होता है । ये दोष शरीर को तभी दूषित करते हैं जब स्वयं विकृत होते हैं । दूषित होने पर शरीर में अनेक तरह के विकार उत्पन्न करते हैं ।
वैदिक वाङ्गमय में त्रिदोष संबंधी निम्न मत मिलते हैं :- यथा- अथवर्वेद में वात, पित्त, कफ को रसादि सप्तधातुओं का निमार्णकत्तार् तथा शरीरोत्पत्ति का कारण कहा गया है ।
चरक संहिता में कहा गया है कि वात, पित्त और कफ ये त्रिदोष प्राणियों के शरीर में सर्वदा रहते हैं । शरीर के प्रकृतिभूत ये त्रिदोष आरोग्य प्रदान करते हैं तथा विकृत होने पर ये विकार कहे जाते हैं । 'त्रिदोष का प्रकृतिस्थ रहना ही आरोग्य है । '
दोषा पुनस्त्रयो वात पित्त श्लेष्माणः ।
ते प्रकृति भूताः शरीरोपकारका भवन्ति ।
विकृतिमापन्नास्तु खलु नानाविधैविर्कारेः शरीरमुपतापयन्ति ।(च०वि०अ०१)
अर्थात्- प्राकृतावस्था में लाभकारी और विकृति आने पर शरीर में रोगोत्पत्ति दोषों के ही परिणामस्वरूप होती है । अर्थात् इनकी साम्यावस्था ही स्वस्थता का प्रतीक है और इसमें परिवतर्न होना विकार का कारण । यथा-''रोगस्तु दोषवैषम्यं दोषसाम्यरोगतां ।''
अतः इन दोषों में परिवतर्न आना ही रोग का मूल कारण होता है । अनेक प्रकार के मिथ्याहार-विहारों के सेवन करने पर भी यदि मनुष्य की क्षमता के आधार कारण दोष का कोप न हो अथवा स्वल्प मात्रा में दोष कुपित हो, तब रोग की संभावना नहीं होती । इसी बात को वाग्भट्ट ने कहा है-
सवेर्षामेव रोगाणां निदानं कुपिता मलाः ।
तत प्रकोपस्य तु प्रोक्तं विविधः हितसेवनम् ।
महर्षि सुश्रुत अपनी संहिता के सूत्रस्थान में एक स्थान पर लिखते हैं कि-
''विसगार्दानविक्षेपैः सोमसूयार्निला यथा ।
धारयन्ति जगद्देहं वात पित्त कपस्तथा । ।'' (सु०सू०२१)
अथार्त् जैसे वायु, सूर्य, चंद्रमा परस्पर विसर्ग आदान और विक्षेप करते हुए जगत को धारण करते हैं, उसी प्रकार वात, पित्त और कफ शरीर को धारण करते हैं । इस प्रकार शरीर में दोषों की उपयोगिता और महत्त्व इनके प्राकृत और अप्राकृतिक कर्मों के आधार पर है । यानि प्राकृतावस्था में शरीर का धारण तथा विकृतावस्था में विनाश ।
वात् पित्त श्लेष्मणां पुनः सवर्शरीरचराणां ।
सर्वाणि स्रोतांस्ययनभूतानि (च०वि०५/५)
''वातपित्तकफा देहे सवर्स्रोतोऽनुसारिणः'' (च०चि०२८/५९)
वात, पित्त और कफ का स्थान समग्र शरीर है । सारे ही स्रोत इनके स्रोत हैं । यद्यपि इनकी उत्पत्ति और संचय का एक मूल स्थान है; परन्तु समग्र शरीर ही इनका स्थान है ।
त्रिदोष का पञ्चमहाभूत से सम्बन्ध-
मानव शरीर का निर्माण पंच महाभूतों से होता है । शरीर का एक भी अणु महाभूतों का संगठन से रहित नहीं है । जब संपूर्ण शरीर ही पंचभौतिक है, तो शरीर में रहने वाले तथा शरीर के विभिन्न क्रियाकलापों में सक्रिय रूप से सहयोग करने वाले त्रिदोष का पंचभौतिक संगठन भी स्वाभाविक है । तीनों दोषों में जो गुण और कर्म विद्यमान हैं, उनका आधार पंचमहाभूत ही है । पंच महाभूत सृष्टि के सूक्ष्म तत्त्व हैं, जिनमें संपूर्ण सृष्टि एवं सृष्टि के संपूर्ण चराचर द्रव्य प्रभावित है और उन संपूर्ण तत्त्वों में पंचमहाभूत व्याप्त हैं ।
महाभारत में लिखा है कि-''शरीर में चेष्टाकर्म वायु का है । अवकास (पोलापन) आकाश है । उष्णता अग्नि है । द्रव रूप जल है और स्थूलता पृथ्वी है । इस प्रकार इन पाँचों भूतों से स्थावर और जंगम अथार्त् चर और अचर जगत् व्याप्त है ।'' यथा-
चेष्टा वायुः खभाकाशमूष्माग्निः सलिलंद्रवम् ।
पृथिवी चात्र संघातः शरीरं पाञ्चभौतिकम्॥
इत्येते पञ्चभिभूतेर्युर्क्तं स्थावर जङ्गमम् ।(महाभारत)
इसप्रकार संसार के समस्त द्रव्य पाँच भौतिक होते हैं । इसलिए आयुवेर्द में कहा गया है-
सवर्द्रव्यं पाञ्चभौतिकमस्मिन्नथेर् । (च०सू०अ०४१)
पंचमहाभूतों से तीनों दोषों की उत्पत्ति महाभूतों के गुणों के आधार पर ही होती है । आकाश व वायु से वात की उत्पत्ति । तेज से पित्त की तथा पृथ्वी व जल से कफ, दोष की उत्पत्ति होती है ।
''आकाश मारुताभ्याम् वातः ।''
वह्नि-जलाभ्यां पित्तं, अदभ्यः पृथिवीभ्यां श्लेष्मा । (अ०हृ०सू०)
इसी प्रकार सुश्रुत ने भी कहा है-
''वायौरात्मैवात्मा, पित्तमाग्नेयम् श्लेष्मा सौम्य इति ।'' (सु०सू०अ०४२)
यद्यपि तीनों दोषों की पृथक-पृथक उत्पत्ति में पृथक-पृथक महाभूत कारण होते हैं; किन्तु प्रत्येक महाभूत का अल्पांश भी होता है । फिर भी जिसकी अधिकता होगी, उसी महाभूत का व्यपदेश किया जाता है ।
त्रिदोष का सत्व, रज और तम से संबंध
जिस प्रकार शरीर के वात, पित्त और कफ प्राकृतावस्था में धारण करने वाले और विकृतावस्था में व्याधित करने वाले होते हैं, उसी शरीर में मन से संबंध रखने वाले रज और तम ये दो दोष होते हैं । यद्यपि सत्व का संबंध मन से होता है, किन्तु वह दोष न कहलाकर गुण शब्द से व्यवहृत होता है । ये तीनों सत्व, रज और तम मानस भावों को उत्पन्न करने वाले होते हैं । अतः इन्हें मानसिक गुण या मानसिक दोष कहा जाता है । सत्व में कभी विकृति न होने के कारण वह हमेशा गुण ही रहता है तथा रज और तम जब विकृत होकर मन को दूषित करके विभिन्न मानसिक व्याधियों को उत्पन्न करते हैं, तो इनकी दोष संज्ञा हो जाती है । वात, पित्त एवं कफ का सीधा संबंध सत्व, रज और तम से है । क्योंकि शरीर में जब किसी भी मानसिकभाव की उत्पत्ति होती है, अथवा कोई मानसिक विकार उत्पन्न होता है, तो उसका प्रभाव शारीरिक दोषों पर पड़ता है । इसके अतिरिक्त सत्व, रज, तम के गुणों में समानता है । वात, पित्त, कफ के सदृश ही लक्षण होते हैं । अतः शारीरिक एवं मानसिक गुणों में परस्पर संबंध होना स्वाभाविक है । साथ ही त्रिदोष पंचभौतिक संगठन वाले होते हैं तथा पंचमहाभूत त्रिगुणात्मक अर्थात् सत्व, रज तमयुक्त होते हैं । वायु-रजोगुण प्रधान है । सत्व और रजोगुणयुक्त अग्नि है । जल-सत्व और तमोगुण बहुल है । इसप्रकार ऋतुओं से त्रिदोष का घनिष्ठ संबंध है । दोषों का संचय, प्रकोप तथा शमन स्वभावतः ऋतुओं के अनुसार होता है ।
वात का संचय ग्रीष्म में, प्रकोप वर्षा में तथा शमन शरद ऋतु में होता है । पित्त का संचय वर्षा, प्रकोप शरद एवं शमन हेमन्त ऋतु में होता है । कफ का संचय हेमन्त प्रकोप, बसन्त तथा शमन ग्रीष्म ऋतु में होता है ।
दोषसंचयप्रकोप शमन
वातग्रीष्मवषार्शरद
पित्तवषार्शरदहेमन्त
कफहेमन्तबसन्तग्रीष्म
यद्यपि ये वात, पित्त, कफ संज्ञक तीनों दोष सर्वशरीर व्यापी है परन्तु क्रमशः हृदय और नाभि के नीचे तथा पृथ्वी तमोगुण प्रधान है । अतः त्रिदोष का त्रिगुणात्मक होना संदेहरहित है । अथार्त् शरीर की प्राकृत एवं वैकृत अवस्था दोनों में ही मानसिक दोष एवं शारीरिक दोष का न्यूनाधिक रूप में कुछ न कुछ पारस्परिक संबंध अवश्य रहता है ।
संक्षेप में हम यह कह सकते हैं कि वात, पित्त और कफ ये तीन दोष है, परन्तु वृद्धि, क्षय तथा साम्यभेद से इनमें का एक-एक दोष तीन-तीन प्रकार का होता है । जैसे कि वृद्धि भेद से वृद्ध वायु, वृद्ध पित्त तथा वृद्ध कफ । इसीप्रकार क्षय भेद से तीन प्रकार तथा साम्यभेद से तीन प्रकार होते हैं । दोष वृद्धि की तरह क्षीणता भी तीन ही प्रकार की होती हैं- उत्कृष्ट, मध्यम तथा अल्प । यथा-
वायुः पित्तं कपश्चेति त्रयोदोषाः समासतः
प्रत्येक ते त्रिधा वृद्धिक्षयसाम्यविभेदतः ।
उत्कृष्टमध्याल्पतया त्रिधा वृद्धि क्षयावपि
विकृताविकृता देहं घ्नान्ति ते वतर्यन्ति च॥ -(अ०सं०सू०१)
त्रिदोष का आयु, अहोरात्रि भोजन और ऋतु से संबंध
वयोऽहोरात्रिमुक्तानां तेऽन्तमध्यादिगाः क्रमात् । (अ०सं०सू०)
आचार्य वाग्भट्ट के अनुसार आयु, अहोरात्रि (दिन और रात्रि) और भोजनकाल में दोषों की स्थिति क्रमशः उसके आदि, मध्य और अंत में होती है । अर्थात् आयु के अंत में या वृद्धावस्था में 'वात का प्रकोप' । आयु के मध्य युवावस्था में 'पित्त का प्रकोप' तथा आयु के आदि अथार्त् बाल्यावस्था में 'कफ का प्रकोप' होता है ।
इसी प्रकार दिन के अंत में सन्ध्याकाल में 'वायु का', दिन के मध्य, मध्याह्न में 'पित्त का' और दिन के आदि-प्रातःकाल में 'कफ का प्रकोप' होता है । रात्रि के अंतिम प्रहर में 'वायु का', मध्य रात्रि में 'पित्त का' और रात्रि के प्रारंभिक भाग में 'कफ का प्रकोप' होता है । इसी प्रकार भोजन के अंतिम काल या परिपक्वावस्था में 'वायु का', मध्य यानि पच्यमानावस्था में 'पित्त का' तथा आदि में अर्थात् आमावस्था में 'कफ का' प्रकोप होता है ।
स्थिति वात पित्त कफ
आयुवृद्धावस्थायुवावस्था बाल्यावस्था
दिनसन्ध्याकालमध्याह्न प्रातःकाल
रात्रिअंतिम प्रहरमध्य रात्रि प्रारंभिक काल
भोजनपरिपक्वावस्थापच्यमानावस्था आमावस्था
तेव्यापिनोऽपि हृन्नाभियोरधोमहयोर्ध्वर् संश्रयाः (अ०स०सू०१)
इस प्रकार वात, पित्त, कफ के दूषित यानि विकृत होने पर रोगोत्पत्ति होती है जिसके फलस्वरूप चिकित्सा सिद्धान्त का प्रथम सूत्र त्रिदोष चिकित्सा सूत्र पर आधारित होता है । कारण कि समस्त रोगों का मूल त्रिदोष में विकृति ही है, तथा इनकी चिकित्सा भी देश, काल, ऋतु, रोगी एवं आहार- विहार के अनुसार ही होती है ।
वायु या वात
वायु या वात शब्द का निमार्ण ''वा गतिगन्धनयोः ।'' धातु में 'वत' प्रत्यय लगाकर हुआ है । जिसका ज्ञान मुख्य रूप से त्वचा द्वारा होता है । वायु एक अमूर्त द्रव्य है, जिसका संगठन पंचभौतिक है । अमूर्त होने के कारण उसका कोई रूप या आकृति हमको दिखाई नहीं देती है । किन्तु वायु का ज्ञान उसके गुण कर्मों के द्वारा किया जाता है ।
गुण एवं कर्म
वायुस्तंत्रयन्त्रधरः................................
प्रवतर्कश्चेष्टानामुच्चावचानां नियतां
प्रणेता च मनसः सवेर्न्दि्रयाणामुद्योजक.... (च०सू०१२/८)
वायु शरीर रूपी यंत्र का संचालन करने वाला है । वही प्राणि मात्र की स्थिति उत्पत्ति का हेतु है और वायु ही संयोग विभाग और प्राक्तन कर्म के द्वारा गर्भ को विभिन्न आकृतियाँ प्रदान करती हैं । शरीर में प्रत्येक धातु स्थूल और सूक्ष्म रचना का कारण वायु ही है । प्रत्येक अवयव का अन्य अवयवों के साथ रचनात्मक तथा कर्म विषयक संधान वायु की ही प्रेरणा से होती है । शरीर की सभी चेष्टाएँ वायु द्वारा ही होती है । इसी को चरक ने कहा है कि-
उत्साहोच्छवासनिः श्वासचेष्टा धातुगतिः समा
समो मोक्षो गतिमतां वायोः कमार्विकारजम् । (च०सू०१८/४९)
अर्थात् वायु से ही उच्छवास- निःश्वास आदि जीवनोपयोगि-अनैच्छिक स्वतंत्र चेष्टाएँ होती हैं । वायु ही मन को उसके विषयों में नियोजित करता है । वायु ही वाणी का प्रवत्तर्क है । स्पशर् और शब्द का ज्ञान वायु के द्वारा ही होता है । सभी प्राणियों में चेष्टा ज्ञान का मूल वायु ही होता है ।
सर्वा ही चेष्टा वातेन स प्राणः प्राणिनांस्मृतः ।
तेनैव रोगा जायन्ते तेन चैवोपरुध्यते॥ (च०सू०१७/११८)
अर्थात् शरीर में समस्त प्रकार की क्रियाएँ वायु के द्वारा ही होती है । यह वायु प्राणियों का प्राण माना जाता है । उसी वायु के द्वारा विभिन्न प्रकार के रोग उत्पन्न होते हैं; किन्तु रोगों के शमन भी वायु के द्वारा ही होता है । वायु ही दोष और मलों को स्व स्थान पर रखता है और आवश्यकता होने पर योग्य स्थान पर पहुँचाता है । वायु के बिना पित्त और कफ पंगु है ।
पित्तं पंगु कफः प्ङ्गः प्ङ्गवो मलधातवः ।
वायुना यत्र नीयन्ते तत्र गच्छन्ति मेधवत् ।-(शा०पू०५/४३)
सर्व अवयव और चेष्टाओं का निमित्त भूत होने से वायु सवार्त्म (विश्वरूप) है । वायु ही बल है । वायु ही आयु है । वायु ही प्राणियों का प्राण है । वायु ही हर्ष और उल्लास का हेतु है ।
वायुरायुबलं वायुवार्युधाता शरीरिणाम् ।
वायुविर्श्वमिदं सवर् प्रभुवार्युश्च कीतिर्तः ।-(च०चि०२८/३४)
वायु के मुख्य गुण
वायु के मुख्य सात गुण हैं । अर्थात्-''रुक्षः शीतो लघुः सूक्ष्मः चलोऽथ विशद खरः'' । रुक्ष, शीत, लघु, सूक्ष्म, विशद और खर, इनका सम्बन्ध विशेषतः पाँचों महाभूतों से होने के कारण इनको भौतिक गुण कहा गया है । इसलिए इन द्रव्यों में स्थित गुण वायु के भौतिक गुणों को प्रभावित करते हैं । शरीर में वात दोष के क्षय या वृद्धि का जो स्वरूप होता है, वह इन गुणों पर ही आधारित होता है । महाभूतों के कारण इन गुणों की क्षय या वृद्धि होती है । इसलिए ही इन्हें भौतिक गुण कहा गया है । वायु के उपऋर्युक्त सात गुणों के अतिरिक्त अन्य चार गुणों को और स्वीकार किया गया है । ये गुण- परुष, दारुण, अनवस्थित और अमूत्तर्त्व है । इनका सामंजस्य इस प्रकार हैः-
परुष-खर
दारुण-खर+रुक्ष
अनवस्थित-चल
अमूत्तर्त्व-यह कोई गुण नहीं, क्योंकि इसका कोई कर्म नहीं ।
तत्रशैक्ष्यं शैत्यंलाधवं वैशद्यं गतिः ।
अमूत्तर्त्वं वायोरात्मरुपाणि॥
अथार्त् रूक्षता, शीतता, लघुता, विशदता, गति और अमूर्त्तता, ये सब वायु के आत्म रूप हैं । वायु का ग्रहण सामान्यतया त्वक इन्द्रिय के द्वारा किया जाता है । किन्तु शरीर में विद्यमानवात दोष जो कि शरीर को धारण करता है, उसका ज्ञान इन आत्म रूपों द्वारा ही हो सकता है ।
वात के भेद एवं स्थान
शरीर में स्थित वायु सवर्त्र एक ही रूप में रहता है । अतः उसको विभाजित नहीं किया जा सकता, किन्तु भिन्न-भिन्न स्थानों में स्थित होकरके वह वायु भिन्न-भिन्न प्रकार के कर्मों को करता है । इसलिए उसके स्थान और कर्मों के आधार पर वायु के पाँच प्रकार बताये गये हैं ।
प्राणोदानौ समानश्च व्यानश्चापान एव च ।
स्थानस्था मारुताः पञ्च यापयन्ति शरीरिणाम्॥ (सु०नि०अ०१)
अर्थात् प्राण, उदान, समान, व्यान और अपान यह पाँच प्रकार का वायु विभिन्न स्थानों में स्थित रहता हुआ मनुष्यों के जीवन का यापन करता है । ये वायु के पाँच भेद हैं तथा कर्मानुसार इनका स्थान भिन्न-भिन्न है; परन्तु स्वतंत्र रूप जीवन स्वरूप जो वायु है, उसका स्थान भी नियत है, जहाँ पर वायु स्थित रहता है और उन स्थानों में स्थित वायु अपने प्राकृत कर्मो द्वारा शरीर का अनुग्रह करता है ।
सामान्यतः निम्नलिखित स्थान वायु के हैं-
पक्वाशय कटिसक्थि श्रोतास्थिस्पशर्नेन्दि्रयम् ।
स्थानं वातस्य तत्रापि पक्वाधानं विशेषतः॥
अथार्त् पक्वाशय, कटि, सक्थि, श्रोत्र, अस्थि स्पर्शेन्द्रिय- ये वायु के स्थान हैं । इनमें भी पक्वाशय वायु का विशेष स्थान है । चूँकि पक्वाशय में वायु ग्रहण किये आहार से उत्पन्न होता है । इसलिए पक्वाशय को वायु का विशेष स्थान बताया गया है । इसी प्रकार पाँच प्रकार की वायु के स्थान हैः- परन्तु वायु का विशेष स्थान हृदय और नाभि प्रदेश मुख्य है ।
१-प्राण वायु- शरीर के लिए अत्यन्त महत्त्वपूर्ण है, क्योंकि इसके द्वारा संपन्न होने वाली क्रियाएँ शरीर के जीवनयापन से सम्बन्ध रखती हैं । क्योंकि शरीर में चेतनता इसी के द्वारा रहती है ।
वायुर्यो वक्त्रसंचारी सप्राणो नामदेहधृक ।
सोडन्नं प्रवेशयत्यतः प्राणीश्चात्यवलम्बते॥ (सु०नि०अ०१)
अथार्त् जो वायु मुख प्रदेश में संचरण करता है, वह प्राण वायु कहलाता है और वह शरीर को धारण करता है । इसके अतिरिक्त यह वायु मुख द्वारा ग्रहण किये हुए आहार को अंदर प्रविष्ट करता है ।
स्थानं प्राणस्य मूधोर्रः कण्ठजिह्वास्यनासिकाः ।
ष्ठीवन क्षवथुद्गार श्वासाहारादि कमर् च॥ (च०चि०अ०२८)
अथार्त् प्राण, वायु के मूर्धा, वक्षप्रदेश, कण्ठ, जिह्वा, मुख, नासिका स्थान है । छींकना, थूकना, उद्गार, श्वास, आहारादि को ग्रहण करने का कार्य प्राण वायु के द्वारा किया जाता है । अष्टांग हृदयकार प्राण वायु के स्थान-मूर्धा, उरः प्रदेश, कण्ठ प्रदेश बतलाते हैं और यह बुद्धि, हृदय, इंद्रिय और चित्त को धारण करता है ।
प्राणोऽत्र मूधर्जः उरः कण्ठचरो बुद्धिहृदयेन्दि्रय चित्तधृक । (अ०हृ०सू०अ०१२)
प्राण वायु मुख्य रूप से वक्ष प्रदेश, कण्ठ प्रदेश और कण्ठ से ऊपर शिरःप्रदेश में स्थित रहता है । यह मुख द्वारा ग्रहण किये हुए अन्न को अंतःप्रवेश कराने में सहायक होता है । फुफ्फुसों की गति और क्रिया में सहायक होता है । विकृत होने पर श्वास कास, प्रतिश्याय, स्वरभङ्ग आदि होते हैं ।
२-उदान वायु- महर्षि चरक के अनुसार उदान वायु का स्थान नाभि प्रदेश, वक्ष एवं कण्ठ है । इसके द्वारा किये गये कर्मों में वाणी की प्रवृत्ति, शरीर की शक्ति प्रदान करना मुख्य है तथा शरीर के बल और वर्ण को स्थित रखना है ।
उदानस्य पुनः स्थानं नाम्यूरः कण्ठ एव च ।
वाक्प्रवृत्ति प्रयत्नोजार् बल वणार्दि कमर् च । (च०चि०अ०२८)
विकृत होने पर नेत्र, मुख, नासिका, कर्ण और शिरो रोग होते हैं ।
३- समान वायु- समान वायु पाचक अग्नि के समीप आमाशय और ग्रहणी में रहती है । इसका कार्य अन्न को पचाना, अग्नि को बल प्रदान करना तथा रस पुरीष और मूत्र को पृथक करना है । यह स्वेदवह, अम्बुवह स्रोतों का नियामक है ।
स्वेद दोषाम्बुवाहीति स्रोतांसि समधिष्ठितः ।
अन्तरग्नेश्च पाश्वर्स्थः समानोऽग्नि बलप्रदः॥(च०चि०अ०२८)
चरक के अनुसार स्थान जठराग्नि के समीप है । मुख्य कार्य अग्नि को बल प्रदान करना, परिपक्व आहार को सार एवं किट्ट भाग में विभाजित करना है । इसमें विकृति आने पर गुल्म मांद्य अग्नि अतिसारादि रोगों का प्रादुभार्व होता है ।
४-व्यान वायु- व्यान वायु को सवर्शरीर व्यापी बताया गया है और इसके द्वारा मुख्य रूप से शरीर में रस के संवहन का कार्य किया जाता है । स्वेद और रुधिर का स्राव करता है ।
सवर्देहचरो व्यानो रससंवहनोधतः ।
स्वेदा सृक्स्रावणश्चापि पञ्चधर चेष्टयत्यपि॥ (सु०नि०अ०१)
महर्षि चरक के अनुसार शरीर के प्रत्येक अवयव में होने वाली क्रिया व्यान वायु के आधीन है । चाहे वह क्रिया ऐच्छिक हो या अनैच्छिक व्यान वायु के द्वारा उसे गति प्राप्त होती है । इस प्रकार व्यान वायु के द्वारा संपूर्ण चेष्टाएँ होती है और शरीर में रस का संवहन होता है । इसके कुपित होने पर ज्वर अतिसार रक्तपित्त यक्ष्मा प्रभृति सर्वाङ्गत रोग होते हैं ।
५-अपान वायु- अपान वायु मुख्य रूप से शरीर के अधोभाग में रहती है और अधोमार्ग से बाहर निकलने वाले द्रव्यों के निष्कासन का कार्य करता है ।
वृष्णौ बस्तिमेद्रं च नाम्यूरुवंक्षणोर् गुदम् ।
अपानस्थानमन्त्रस्थः शुक्र मूत्र शकृन्ति च
सृजत्यात्तर्व गर्मों च......(च०चि०अ०२८)
अथार्त् दोनों अण्डकोष, बस्ति प्रदेश, शिश्न, नाभि, उरु, वंक्षण प्रदेश, गुदप्रदेश और बृहदन्त्र है । इन स्थानों में स्थित रहता हुआ अपान वायु, शुक्र, मूत्र, पुरीष, आर्त्तव और गर्भ को बाहर निकालता है । कुपित होने पर यह अश्मरी, मूत्रकृच्छ, शुक्रदोष, अर्श, भगन्दर, गुदपाक आदि रोग उत्पन्न करता है ।
क्षय एवं वृद्धि रूप वायु के लक्षण
क्षीण वात के लक्षण- मुख से लार टपकना, अरूचि, उबकाई, जी मचलाना, संज्ञा मोह अर्थात् बुद्धि की विचार शक्ति में अक्षमता, अल्पवाक्यता, जाठर अग्नि की विषमता आदि विकारों को उत्पन्न करके क्षीण हुआ वायु पीड़ाकारक होता है ।
बढ़े हुए वायु के लक्षण
शरीर में बढ़ा हुआ वायु कृशता पैदा करता है । वर्ण्य में कालापन, शरीर का काँपना, अंगों का फड़कना, उष्णता की अभिलाषा, संज्ञा और निद्रा की नाश, बल एवं इंद्रियों की हानि, मज्ज्शोष, मलमूत्र, स्वेद की अवरोध, पेट फूलना, पेट की गुड़गुड़ाहट, मूर्च्छा, दैन्य, भय, शोक, प्रलाप आदि करके शरीर को पीड़ा देता है । |
पित्त
पित्त शब्द की निरुक्ति
'तप संतापे' धातु से कृदन्त विहित प्रत्यय द्वारा 'तपति इति पित्तं' जो शरीर में ताप, गर्मी उत्पन्न करे उसे पित्त कहते हैं । शरीर में पित्त शब्द से उस स्थान का बोध होता है, जो उष्णता प्रदान करता है ।
''तस्मात् तेजोमयं पित्तं पित्तोष्मा यः स पक्तिमान'' (भोज)
पित्त के द्वारा शरीर में जो कुछ भी कार्य संपन्न होता है, वह अग्नि के समान गुण, कर्म वाला होता है इसलिए पित्त शरीर में अग्निभाव का द्योतक है ।
पित्त का स्वरूप
पित्त शरीरान्तर्गत एक ऐसा महत्त्वपूर्ण धातु है जो शरीर को धारण करता है और अपने प्राकृत कर्मों द्वारा शरीर का उपकार करता है । शरीर को धारण करने के कारण पित्त धातु भी कहलाता है । पित्त के विशिष्ट गुणों के आधार पर ही उसके स्वरूप का निर्धारण किया गया है ।
तत्र औष्ण्यं तैक्ष्ण्यं लाघवं द्रवमनतिस्नेहो ।
वणर्श्चाशुक्लः गन्धश्च विस्रः रसः कटुकाम्लौ सरश्च पित्तस्यात्मरूपाणि ।
अथार्त्- उष्णता, तीक्ष्णता, लघुता, द्रवता, अनतिस्निग्धता, शुक्लरहित वर्ण, विस्रगंध, कटु और अम्ल रस तथा सर के पित्त के आत्मरूप है । अतः इन गुणों से युक्त जो भी कोई द्रव्य है वह पित्त है । वाह्य लोक में जो अग्नि का महत्त्व है, वही शरीर में पित्त का है ।
पित्त के गुण
पित्त, तीक्ष्ण, द्रव, दुर्गन्धित, नील, पीत वर्ण, उष्ण, कटु, सर विदग्ध और अम्ल रस वाला होता है ।
पित्तं तीक्ष्णं द्रवं पूति नीलं पीतं तथैव च ।
उष्णं कटुरसं चैव विदग्धं चाम्लमेव च॥
ये गुण पित्त में विशेष रूप से होते हैं । तीक्ष्णता होना इस बात की ओर संकेत करता है कि पित्त में मंदता के विपरीत तीव्र रूप से छेदन-भेदन करने की प्रक्रिया इसी गुण के कारण होती है । पित्त का कोई प्राकृत वर्ण न होने के कारण, उसमें नील और पीत वर्ण का संयोजन होने के ही कारण इन दोनों वर्णों को बताया है । उष्ण गुण के कारण पित्त उष्णता, ताप दहन- पाचन आदि क्रियाओं को करने में समर्थ होता है ।
महर्षि चरक के अनुसार-स्नेह, तीक्ष्ण, उष्ण, द्रव, अम्ल, सर और कटुरस वाला पित्त होता है । यथा- सस्नेहमुष्णं तीक्ष्णं च द्रवमग्लं सरं कटु । (चरक)
उपयुर्क्त गुण पित्त के भौतिक गुण हैं, क्योंकि पित्त में इन गुणों का समावेश महाभूतों के कारण होता है । परन्तु इन सभी में अग्नि गुणों की अधिकता है । इसलिए पित्त, अग्नि महाभूत का प्रतिनिधि द्रव्य है । पित्त के नैसगिर्क गुणों में शब्द, स्पर्श और रूप ये तीन गुण होते हैं । पित्त के प्राकृत गुणों में सत्व और रज प्रधान है, क्योंकि अग्नि महाभूत में इन दोनों गुणों का निदेर्श किया गया है ।
''सत्वरजोबहुलोऽग्नः ।''
पित्त के कर्म
पित्त के कर्म भी दो प्रकार के होते हैं । प्राकृत कर्म एवं वैकृत कर्म । जब पित्त प्राकृतावस्था में रहता है, तब उसके द्वारा संपन्न होने वाला प्रत्येक कर्म शरीर के लिए उपयोगी और शरीर को स्वस्थ रखने वाला होता है । किन्तु वही पित्त जब विकृत हो जाता है, तब उसके द्वारा किये जाने वाला कर्म शरीर को विकारग्रस्त बनाता है, जिससे शरीर में पित्तजनित रोग उत्पन्न होते हैं ।
महर्षि चरक के अनुसार-
नेत्रों के द्वारा देखने की क्रिया, खाये हुए आहार का परिपाक करना, शरीर में उष्मा का निर्माण करना, यथावश्यक भूख उत्पन्न करना, प्यास लगाना, शरीर में मृदुता उत्पन्न करना, शरीर को प्रसन्न रखना और बुद्धि उत्पन्न करना, ये प्राकृत पित्त के कर्म हैं ।
दशर्नं पक्तिरुष्मा च क्षुत्तृष्णा देहमादर्वम् ।
प्रभा प्रसादो मेधा च पित्त कमार्विकारजम् ॥ (च०स०अ०१८)
उष्ण गुण वाले पित्त से ही मनुष्यों के शरीर में सभी प्रकार का पाक होता है और वही पित्त कुपितावस्था में अनेक विकारों को उत्पन्न करता है । यथा-
पित्तदेवोष्मणः पक्तिनर्राणामुपजायते ।
पित्तं चैव प्रकुपितं विकारान् कुरुते बहून । (चरक)
पित्त के भेद एवं कर्म
स्थान एवं कमार्नुसार पित्त पाँच प्रकार का होता है । यथा-पाचक, रंजक, आलोचक, साधक और भ्राजक पित्त ।
१. पाचक पित्त-शरीर के सूक्ष्मतम भाग में होने वाले पाक का आधार यही पाचक पित्त है । यह पित्त शरीर में मुख्य रूप से पक्वाशय और आमाशय के मध्य भाग में स्थित ग्रहणी प्रदेश में होता है । इसी पाचक पित्त के कारण धात्वग्नि और भौतिक अग्नियों के नाम रहते हैं । पाचक पित्त अन्न का पाचन (जरण) करके उसके अवयवों को सूक्ष्म रूप प्रदान करता है, जिससे धात्वग्नियाँ सरलतापूवर्क उनका परिपाक करके धातुओं में परिवतिर्त कर देती हैं ।
तच्चादृष्टहेतुकेन विशेषेण पक्वाशयमहपस्थ
पित्तं चतुविर्धमन्नपानं पचति (सुश्रुत )
अथार्त् पक्वाशय और आमाशय के मध्य में स्थित चार प्रकार के अन्नपान का पाचन करता है, और दोष रस मूत्र पुरीष का विवेचना करता है । वहीं पर स्थित रहता हुआ पित्त अपनी शक्ति से शरीर के शेष पित्त स्थानों का और शरीर का अग्नि कर्म के द्वारा अनुग्रह करता है । स्थान भेद से पाचक पित्त के निम्न भेद हैं ।
मुखगत पाचक पित्त, आमाशयगत पाचक पित्त, यकृतगत पाचक पित्त । क्लोम या पित्ताशयगत पाचक पित्त, क्षुद्रान्तगत पाचक पित्त । इन समस्त पाचक पित्तों का कार्य, ग्रहण किये हुए आहार का परिपाक करना एवं उसे अवस्थान्तर प्रदान करना है ।
२. रंजक पित्त- यकृत प्लीहा में जो पित्त स्थित रहता है, उसकी रंजकाग्नि संज्ञा है । वह रसका रंजन कर उसे लाल वर्ण प्रदान करता है । इसके अनुसार रंजक पित्त का मुख्य स्थान यकृत और प्लीहा माना गया है । किन्तु कुछ आचार्यों ने रंजक पित्त का स्थान आमाशय और हृदयप्रदेश भी माना है ।
''यत्तु यकृत प्लीहोः पित्तं तस्मिन रंजकोग्नि रिति संज्ञा । स सरसस्य राग कृदुक्तः ।''
आचार्य वाग्भट्ट के अनुसार आमाशय में आश्रत पित्त रस का रंजन करने से रंजक पित्त कहलाता है । ''आमाशयाश्रितं पित्तं रज्जकं रसरज्जनात्'' इसी प्रकार आचार्य शाङ्ग्र्रर्धर नेरस के रंजन का कार्य हृदयप्रदेश में बतलाया है-
रसस्तु हृदयंगति समान मारुतेरीतः ।
रज्जितः पाचितस्त्र पित्तेनायति रक्तताम् । (शा०स०)
महर्षि सुश्रुत के अनुसार रंजक पित्त की मुख्य स्थान यकृत एवं प्लीहा है । अतः रस के रंजन का कार्य इन्हीं स्थानों में होता है । रंजक पित्त रस का ही नहीं, वरन् मूत्र एवं पुरीष का भी रंजन करता है । जिसका स्पष्ट प्रतीति पाण्डु रोग में होती है । रंजक पित्त का एक मुख्य कार्य त्वचा को वर्ण प्रदान करना है । इस प्रकार रंजक पित्त के द्वारा रस, मूत्र, पुरीष, त्वचा, केश और नेत्रों को वर्ण प्रतीत होता है ।
३. साधक पित्त- शरीर के सबसे महत्त्वपूर्ण स्थान हृदय में साधक पित्त का स्थान है ।
यत्पित्तं हृदयस्थितं तस्मिन साधकोऽग्नि रितिसंज्ञा ।
सोऽभिप्राथिर्त मनोरथ साधन कृयुक्तः ।
अथार्त् जो पित्त हृदय में स्थित रहता है, उसकी साधकाग्नि संज्ञा है । वह इच्छित मनोरथों का साधन करने वाला होता है । आचार्य डल्हण ने इसका स्पष्टीकरण करते हुए लिखा है-हृदय में जो पित्त या द्रव्य विशेष होता है, वह धर्म, अर्थ, काम और मोक्ष इन चार पुरुषार्थ का साधन करने वाला होने से, उसे साधक पित्त या साधकाग्नि की संज्ञा दी गई है ।
यह हृदय के आवश्यक कफ और तम को दूर कर मन को विमल और उत्कृष्ट करता है । जिससे हृदय में अन्य कलुषित भाव उत्पन्न नहीं होते और निद्रा, आलस्य आदि विभाव स्वतः नष्ट हो जाते हैं ।
आचार्य वाग्भट्ट ने साधक पित्त को निम्न कार्यों का साधन करने वाला बताया है-
बुद्धि, मेधा और अभिधान (स्मृति) आदि के द्वारा अभिलषित विषयों का साधन करने से साधक पित्त कहलाता है तथा हृदय में स्थित रहता है ।
बुद्धिमेधाभिधानाद्यैरभिप्रेताथर् साधनात् साधकं हृदगतं पित्तं (वाग्भट्ट)
४. आलोचक पित्त- जो पित्त नेत्र में रहता है, उसका नाम आलोचक पित्त है । इसका कार्य नेत्र को ज्योति प्रदान करना है । महर्षि सुश्रुत ने इसे आलोचकाग्नि की संज्ञा दी है ।
''यद्दृष्टयां पित्तं तस्मिन् आलोचकोऽग्निरिति संज्ञा- सरूपग्रहणेऽधिकृतः (सु०)''
अर्थात् दृष्टि में जो पित्त रहता है, उसकी आलोचकाग्नि संज्ञा दी है । वह विषयों के रूप को ग्रहण करने में अधिकृत है ।
५. भ्राजक पित्त-यह पित्त शरीर के त्वचा प्रदेश में रहता है । इसका मुख्य कार्य त्वचा का भ्राजन (रंजन) करना है । भ्राजक पित्त के द्वारा शरीर के त्वचा का वर्ण प्रकाशित होता है । महर्षि सुश्रुत ने भ्राजक पित्त के संबंध में कहा है-
यत् त्वचि पित्तं तस्मिन भ्राजकोऽग्निरिति संज्ञा ।
सोऽभ्यंगपरिषेकावगाहनलेपादि द्रव्याणां व्यक्ता छायानां च प्रकाशकः (सुश्रुत)
अर्थात् त्वचा में जो पित्त रहता है, उसकी भ्राजकाग्नि संज्ञा है । वह अभ्यंग, परिषेक, अवगाहन और लेप आदि में प्रयुक्त किये हुए द्रव्यों का पाचन करता है तथा छायायों का प्रकाशक है । भ्राजक पित्त अथार्त् स्वेद का वहन करने वाले ।
कफ की निरक्ति
दिवाद्वि गण में पठित श्लिष आलिंग ने दो चीजों को मिलाने वाली इस धातु से 'कृदन्तविहित' प्रत्यय द्वारा 'श्लिष्यतेऽनेनेति श्लेष्मा' जो मिलाता है वह श्लेष्मा कहलाता है । इस व्युत्पत्ति से श्लेष्मा शब्द बनता है ।
''केन जलेन फलति इति कफः'' जिस जल से जो फलीभूत होता है, अथवा जिसमें जल होता है, उसको कफ कहते हैं । इस व्युत्पत्ति से कफ शब्द बनता है ।
''यश्चाश्लिष्य कफः सदा रसयति प्रीणयति सोऽयं कफः ।'' अर्थात् जो परस्पर विघटित अणुओं को आपस में संश्लिष्ट करके उन्हें मिलाने वाला होता है, वह कफ कहलाता है । शरीर के विभिन्न अवयवों को रस के द्वारा उपश्लेषण तथा पोषण करने वाला श्लेष्मा ही होता है । अर्थात् श्लेष्मा के द्वारा शरीर में जो भाव उत्पन्न किये जाते हैं, वे शरीर के पोषण के लिए आवश्यक होते हैं । प्राकृत श्लेष्मा के द्वारा जो शरीर को पोषण प्राप्त होता है, वह शरीर की पुष्टि स्थिरता दृढ़ता के लिए अत्यन्त आवश्यक है ।
श्लेष्मा को शरीर के बल का आधार माना गया है । अर्थात् शारीरिक बल की पूर्ति के लिए कफकी विशेष उपयोगिता है । इसी तथ्य को निरुपित करते हुए महषिर् चरक ने लिखा है-
''प्राकृतस्तु बलं श्लेष्मा विकृतो मल उच्यते'' (च०सू०)
कफ का स्वरूप
वस्तुतः जो श्लेष्मा हमें स्थूल रूप से दिखाई देता है,केवल वही उसका स्वरूप नहीं है । अपितु जिन गुण और कर्मों के आधार पर शरीर में व्याप्त होकर शरीर का उपकार करता है, वे गुण और कर्म ही उसके स्वरूप के प्रतिपादक है । सामान्यतः जो श्लक्ष्ण, मृदु, स्थिर, श्वेत, स्निग्ध, सान्द्र और गुरु गुण वाला होता है, वही श्लेष्मा कहलाता है और यही शरीर को धारण करता है । यद्यपि श्लेष्मा पांचभौतिक है, तथापि इसमें जल महाभूत की प्रधानता होती है
।
कफ के गुण एवं कर्म
गुरूशाीतो मृदु स्निग्धः मधुरः पिच्छिलस्तथा ।
श्लेष्मणः प्रथमं यानि विपरीत गुणैगुर्णाः ॥
अथार्त्-गुरू, शीत, मृदु, स्निग्ध, मधुर और पिच्छिल ये श्लेष्मा के गुण होते हैं । इसके विपरीत गुण वाले द्रव्यों का सेवन करने से श्लेष्मा का शमन होता है ।
स्नेहोबन्धः स्थिरत्वं च गौरवं वृषता बलम् ।
क्षमाधृतिश्लोभश्च कफकमार्विकारजम् ॥ (च०सू०१८/५१)
स्नेह बन्ध, दृढ़ता, गुरुता, वृषता, बल, क्षमा, धैर्य और अलोभ ये कफ के प्राकृत कर्म होते हैं ।
कफ स्वभावतः स्निग्ध गुण वाला होता है और अपनी स्निग्धता के कारण शरीर को निरंतर स्नेह प्रदान करता रहता है । इस स्नेह कर्म के द्वारा शरीर में स्निग्धता बनी रहती है और वायु की रूक्षताजनित विकृति शरीर में उत्पन्न नहीं होने पाती । स्नेह के द्वारा शरीर को पयार्प्त पोषण भी प्राप्त होता है । कफ का दूसरा कार्य शरीर के समस्त विघटित अणुओं को परस्पर संश्लिष्ट करना एवं उन्हें बाँधकर रखना है । श्लेष्मा के बंधन कर्म के द्वारा शरीर के प्रत्येक अवयव एक दूसरे से चिपके हुए रहते हैं, जिससे उनका स्थान भ्रंश नहीं होता । श्लेष्मा अपने स्थिर गुण के कारण शरीर को दृढ़त-स्थिरता प्रदान करता है । मुख्य रूप से मांस पेशियों की दृढ़ता श्लेष्मा के कारण ही होती है ।
स्नेहमङ्गेषु सन्धीनां स्थैयर् बलमुदीणर्ताम्
करोत्यन्यान् गुुणांश्चापि बलासः स्वाः सिराश्चरन । (सु०शा०७/११)
प्राकृत अवस्था में श्लेष्मा बल की पूर्ति करने वाला होता है । इसलिए कफ को बलकारक कहा गया है । कफ मंद गुण वाला होने से पित्त के तीक्ष्ण आदि गुणों का शामक होता है । कफ के द्वारा सात्विक भाव उत्पन्न होने से रजो दोषजनित तीव्रता कम होती है, जिससे मनुष्य के हृदय में क्षमा, धैर्य और अलोभ की वृत्ति का उदय होता है ।
कफ के स्थान
यद्यपि संपूणर् शरीर में श्लेष्मा व्याप्त रहता है, किन्तु कुछ स्थान नियत हैं, जहाँ विशेष रूप से पाया जाता है । इन विशिष्ट स्थानों में रहता हुआ श्लेष्मा अपने प्राकृत कर्मों को करता है ।
उरः कण्ठशिरः क्लोमपवार्व्यामशयौ रसः ।
मेदो घ्राणं च जिह्वा च कफस्य सुतरामुरः ॥ (अ०स०सू०१२/३)
अर्थात् उरः प्रदेश, कण्ठ शिर, क्लोम पर्व (अंगुलियों के पोर), रस मेद घ्राण (नाक) और जिह्वा येकफ के स्थान है, उनमें भी उरः प्रदेश श्लेष्मा का विशेष स्थान है, अथार्त् अन्य स्थानों की अपेक्षा श्लेष्मा वक्ष प्रदेश में विशेष रूप से पाया जाता है ।
श्लेष्मा के भेद
स्थान और कार्य की भिन्नता के आधार पर श्लेष्मा पाँच प्रकार का होता है । क्लेदक, अवलम्बक, बोधक, तपर्क और श्लेषक कफ ।
''मेदः शिरः उरोग्रीवा सन्धिबाहुः कफाश्रयः ।
हृदयं तु विशेषेण श्ेष्मणः स्थानमुच्यते॥ '' (का.सू. २७-११)
१. क्लेदक कफ- यह श्लेष्मा आमाशय में स्थित रहता है और खाये हुए आहार का क्लेदक करके उसे पचाने में सहायक होता है । आमाशय में क्लेदक कफ के कारण वहाँ जो पाक होता है, वह प्रथम अवस्था पाक कहलाता है । इस अवस्थापाक के मधुर होने के कारण खाया हुआ छः रसों वाला आहार मधुर रस प्रधान होता है ।
क्लैदकः सोऽन्नः संघात क्लेदनात् रसबोधनात् । (आ.स.सू.१२/१५/१)
क्योंकि प्रथम अवस्था पाक में श्लेष्मा का उदीरण होने से उस आहार का तथा वहाँ पर हुए अवस्थापाक का रस भी स्वभावतः मधुर होता है । इस मधुर विपाक के कारण भोजन करने के बाद प्रारंभिक अवस्था में दो ढाई घंटे बाद तक आमाशय में मधुर और शीतल गुण वाले कफ की वृद्धि होती है । इसलिए भोजन के तत्काल बाद मनुष्य में आलस्य और निद्रा का प्रभाव देखा जाता है । इस प्रकार क्लेदक कफ के द्वारा आमाशय में प्रथम अवस्था पाक होता है । क्लेदककफ का प्रकोप होने से अरूचि एवं मंदाग्नि आदि पाचन संबंधी विकार होते हैं ।
२.अवलम्बक कफ- यह शरीर के हृदय प्रदेश में रहता हुआ हृदय और शरीर का अवलम्बन करता है । यह उर (छाती) में रहता है । यह वात प्राण वायु और पित्त साधक पित्त की सहायता से हृदय में सात्विक भावों को उत्पन्न करता है, तथा हृदय की प्राकृतावस्था में सहायक होता है । इसके क्षय व वृद्धि के कारण हृदय की गति हृदय संबंधी विभन्न रोग तथा मानसिक भाव प्रभावित होते हैं ।
''प्राकृतं तु बलं श्लेष्मा'' बल को ही आचार्यों ने ओज माना है तथा ओज का स्थान भी हृदय बतलाया है और यह श्लेष्मा भी हृदय में ही स्थित रहता है । अतः यह कफ ओज का पूरक माना जाता है । क्योंकि ओज एवं अवलंबक कफ के गुण-धर्मों में बहुत कुछ साम्य होता है ।
३. बोधक कफ- जिह्वा में स्थिर रहने वाला यह जिह्वा के माध्यम से विभिन्न रसों का ज्ञान कराने में सहायक होता है । जिह्वा के प्राकृत रहने पर भी बोधक कफ की क्षय वृद्धि रस ज्ञान को प्रभावित करती है । इसलिए कई बार मनुष्य स्वस्थ होते हुए भी रसज्ञान करने में समर्थ नहीं होता । इसका कारण बोधक कफ का क्षय होता है । ''रसबोधनात् बोधको रसनास्थायी'' । रसना इंद्रिय यद्यपि रस को ग्रहण करती है, परन्तु बोधक कफ उसके ज्ञान में सहायक होता है ।
४. तर्पक कफ- यह सिर में रहता है और वहाँ से इंद्रियों का तर्पण करता है । यद्यपि आचार्य के वचनानुसार ''शिरः संस्थोऽक्षितपर्णात् तपर्कः'' अर्थात् अस्थि का तपर्ण करने के कारण सिर में स्थित रहने वाला कफ तपर्क कफ कहलाता है । यह कफ सभी इंद्रियों का तर्पक करता है ।
सिर में स्थित तर्पक कफ के द्वारा बुद्धि तथा उससे संबंधित स्मृति आदि अन्य भावों का तर्पक होता है । इस प्रकार तर्पक कफ के द्वारा सभी इंद्रियों एवं समस्त बौद्धिक भावों का तर्पण किया जाता है तथा मानसिक भावों को स्थिर बनाता है ।
५. श्लेषक कफ- इसका स्थान मुख्य रूप से संधियों में बताया गया है । विशेष रूप से चल संधियाँ ही इसका स्थान है । संधियों में निरन्तर गति होने के कारण वहाँ स्नेह तत्व की आवश्यकता रहती है । स्नेह तत्व के बिना संधियों में प्राकृतिक रूप से गति नहीं होती और वेदना आदि विकार वहाँ उत्पन्न हो जाते हैं । श्लेषक कफ संधियों के आवश्यक स्नेहांश की पूर्ति करता है और उनके सुचारु रूप से संचालन में सहायक होता है । श्लेषक कफ का क्षय होने पर तज्जनित विकृति कारक परिणाम उत्पन्न होते हैं और उसकी पूर्ति हो जाने पर वहाँ विकृति दूर हो जाती है ।
विशेष- कफ हमारे शरीरगत दोषों में ''वात-पित्त-कफ'' से होने वाली व्याधियों में अपना विशिष्ट कार्य करता रहता है । यथा कफ श्ष्मानुबन्धित दोषों के कारण वृद्धिगत सभी स्रोतों को अधिक रूप से बन्द करते हुए चेष्टा का नाश, मूर्छा आना, वाणी वैषम्य, शब्दों का ठीक न निकलना, अटपटा बोलना आदि लक्षणों को दूर करता है ।
क्षीण कफ के लक्षण
शरीर में क्षीण हुआ कफ भ्रम, उद्वेष्टन- अर्थात् रस्सी से बाँधने के समान अंग-उपांग तथा पिण्डलियों का जकड़ना, नींद का न लगना, शरीर का फूटना, परिप्लोष- अर्थात् संताप के कारण त्वचा में दाह, कम्प, धूमायन, कण्ठ की जलन, संधियों का ढीला पड़ना, हृदय का काँपना , हृदय, कंठ आदि कफाशय का सूना सा हो जाना ।
वृद्ध कफ के लक्षण
शरीर में श्वेत वणर्ता, शैत्य, स्थूलता, आलस्य, शरीर में भारीपन, शिथिलता, स्रोतों में रुकावट, मूर्च्छा, निद्रा, तंद्रा, श्वास, मुख से लार टपकना, अग्निमांध, सन्धियों की जकड़ जाना आदि विकार कफ के बढ़ने पर होते हैं । स्वेद ग्रन्थियों को भी प्रभावित करता है । भ्राजक पित्त पर अधिक गर्मी, तीव्र-धूप अग्नि सन्ताप आदि का प्रभाव पड़ने से उसमें वृद्धि होती है ।
मानस दोष
रजस्तमश्च् मानसौ दोषौ-तयोवकारा काम, क्रोध, लोभ, माहेष्यार्मानमद शोक चित्तोस्तो द्वेगभय हषार्दयः ।
रज और तम ये दो मानस रोग हैं । इनकी विकृति से होने वाले विकास मानस रोग कहलाते हैं ।
मानस रोग-
काम, क्रोध, लोभ, मोह, ईष्यार्, मान, मद, शोक, चिन्ता, उद्वेग, भय, हषर्, विषाद, अभ्यसूया, दैन्य, मात्सयर् और दम्भ ये मानस रोग हैं ।
१. काम- इन्द्रियों के विषय में अधिक आसक्ति रखना 'काम' कहलाता है ।
२. क्रोध- दूसरे के अहित की प्रवृत्ति जिसके द्वारा मन और शरीर भी पीड़ित हो उसे क्रोध कहते हैं ।
३. लोभ- दूसरे के धन, स्त्री आदि के ग्रहण की अभिलाषा को लोभ कहते हैं ।
४. ईर्ष्या- दूसरे की सम्पत्ति-समृद्धि को सहन न कर सकने को ईर्ष्या कहते हैं ।
५. अभ्यसूया- छिद्रान्वेषण के स्वभाव के कारण दूसरे के गुणों को भी दोष बताना अभ्यसूया या असूया कहते हैं ।
६. मात्सर्य- दूसरे के गुणों को प्रकट न करना अथवा कू्ररता दिखाना 'मात्सर्य' कहलाता है ।
७. मोह- अज्ञान या मिथ्या ज्ञान (विपरीत ज्ञान) को मोह कहते हैं ।
८. मान- अपने गुणों को अधिक मानना और दूसरे के गुणों का हीन दृष्टि से देखना 'मान' कहलाता है ।
९. मद- मान की बढ़ी हुई अवस्था 'मद' कहलाती है ।
१०. दम्भ- जो गुण, कमर् और स्वभाव अपने में विद्यमान न हों, उन्हें उजागरकर दूसरों को ठगना 'दम्भ' कहलाता है ।
११. शोक- पुत्र आदि इष्ट वस्तुओं के वियोग होने से चित्त में जो उद्वेग होता है, उसे शोक कहते हैं ।
१२. चिन्ता- किसी वस्तु का अत्यधिक ध्यान करना 'चिन्ता' कहलाता है ।
१३. उद्वेग- समय पर उचित उपाय न सूझने से जो घबराहट होती है उसे 'उद्वेग' कहते हैं ।
१४. भय- अन्य आपत्ति जनक वस्तुओं से डरना 'भय' कहलाता है ।
१५. हर्ष- प्रसन्नता या बिना किसी कारण के अन्य व्यक्ति की हानि किए बिना अथवा सत्कर्म करके मन में प्रसन्नता का अनुभव करना हषर् कहलाता है ।
१६. विषाद- कार्य में सफलता न मिलने के भय से कार्य के प्रति साद या अवसाद-अप्रवृत्ति की भावना 'विषाद' कहलाता है ।
१७. दैन्य- मन का दब जाना- अथार्त् साहस और धर्य खो बैठना दैन्य कहलाता है ।
ये सब मानस रोग 'इच्छा' और 'द्वेष' के भेद से दो भागों में विभक्त किये जा सकते हैं । किसी वस्तु (अथर्) के प्रति अत्यधिक अभिलाषा का नाम 'इच्छा' या 'राग' है । यह नाना वस्तुओं और न्यूनाधिकता के आधार पर भिन्न-भिन्न होती है ।
हर्ष, शोक, दैन्य, काम, लोभ आदि इच्छा के ही दो भेद हैं । अनिच्छित वस्तु के प्रति अप्रीति या अरुचि को द्वेष कहते हैं । वह नाना वस्तुओं पर आश्रत और नाना प्रकार का होता है । क्रोध, भय, विषाद, ईर्ष्या, असूया, मात्सर्य आदि द्वेष के ही भेद हैं ।
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