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Tuesday, February 21, 2012


आयुर्वेद आयु के ज्ञान का भण्डार है । वास्तव में ज्ञान का निर्माण होता नहीं, प्रत्युत् ज्ञान का सात्विक एवं विमल बुद्धि में प्रादुर्भाव होता है ।

आयुर्वेद संसार का न केवल प्राचीन चिकित्सा विज्ञान है, अपितु वह विज्ञान के साथ-साथ जीवन का दर्शन भी है । आयुर्वेद जो मानव के स्वास्थ्य संरक्षण के साथ-साथ व्यापक रूप से उसके जीवन के आध्यात्मिक, मानसिक, शारीरिक एवं सामाजिक पक्षों से सम्बन्धित है । जीवन को मौलिक रूप से प्रतिपादित करने की परम्परा प्रारम्भ से ही आयुर्वेदज्ञों की ही रही है ।

आयुर्वेद अथर्ववेद का उपवेद एवं विश्व का आदि चिकित्सा विज्ञान है । आयुर्वेद सृष्टि के प्रवाह के साथ प्रवाहित है और इसकी निरन्तरता तब तक रहेगी, जब तक इस धरा पर मानवीय सृष्टि का प्रवाह होता रहेगा; क्योंकि यह पूर्णरूपेण विज्ञान पर आश्रत नहीं, बल्कि शाश्वत, सत्य एवं सदैव अपने में ही परिपूर्ण विज्ञान है । जिसका कारण त्रिकालदर्शी भारतीय ऋषियों ने अपने तपोबल से इसका सम्पूर्ण ज्ञान प्राप्त कर प्राणिमात्र की सेवा का लक्ष्य निर्धारित किया है ।

विश्व की एक मात्र यह विधा जिसकी सम्पूर्णता प्राणिमात्र के हित में ही निहित है, वास्तव में वह है क्या? यह प्रश्न स्वाभाविक है, अतः यह जानना आवश्यक है कि-
आयुर्वेद है क्या? एवं इसकी आज के परिप्रेक्ष्य में जन सामान्य के लिए क्या उपादेयता है? तथा क्या आवश्यकता एवं उपयोगिता है?

आयुर्वेद शब्द आयु और वेद इन दो शब्दों के योग से बना है । आयु का अर्थ जीवन, और वेद जो विद् धातु से बना है, इसका अर्थ होता है- ज्ञान होना, जानना, विचार करना एवं पाना ।
सत्तायां विद्यते ज्ञाने वेत्ति विन्ते विचारणे,

विदन्ते विन्दत्ति प्राप्तौ रूपार्था हि विदः स्मृताः ।
''आयुषो वेदः आयुर्वेदः''
- अर्थात् वेद का अर्थ ज्ञान है, और आयु का ज्ञान जिससे हो, वह आयुर्वेद है । इसका तात्पर्य यह है कि आयुर्वेद आयु से संबंधित समस्त विषयों के ज्ञान का भण्डार है 

पुरातत्त्ववेत्ताओं के अनुसार संसार की प्राचीनतम पुस्तक ऋग्वेद है । विभिन्न विद्वानों ने इसका निर्माण काल ईसा के 3 हजार से 50 हजार वर्ष पूर्व तक का माना है । इस संहिता में भी आयुर्वेद के अति महत्त्व के सिद्धान्त यत्र-तत्र विकीर्ण हैं । अनेक ऐसे विषयों का उल्लेख है, जिसके संबंध में आज के वैज्ञानिक भी सफल नहीं हो पाये हैं । इससे आयुर्वेद की प्राचीनता सिद्ध होती है । अतः हम कह सकते हैं कि आयुर्वेद की रचनाकाल ईसा पूर्व 3 से पहले यानि सृष्टि की उत्पत्ति के आसपास या साथ का ही है ।

2-आयुर्वेद का इतिहास 
पुरातत्ववेत्ताओं के अनुसार संचार की प्राचीनतम् प्रस्तक ऋग्वेद है । विभिन्न विद्वानों ने इसका निर्माण काल ईसा के 3 हजार से 50 हजार वर्ष पूर्व तक का माना है । इस संहिता में भी आयुर्वेद के अतिमहत्त्व के सिद्धान्त यत्र-तत्र विकीर्ण है । अनेक ऐसे विषयों का उल्लेख है जिसके संबंध में आज के वैज्ञानिक भी सफल नहीं हो पाये है ।

इससे आयुर्वेद की प्राचीनता सिद्ध होती है । अतः हम कह सकते हैं कि आयुर्वेद की रचनाकाल ईसा पूर्व 3 हजार से 50 वर्ष पहले यानि सृष्टि की उत्पत्ति के आस-पास या साथ का ही है ।

आयुर्वेद के ऐतिहासिक ज्ञान के संदर्भ में सर्वप्रथम ज्ञान का उल्लेख, चरक मत के अनुसार मृत्युलोक में आयुर्वेद के अवतरण के साथ-अग्निवेश का नामोल्लेख है । सर्वप्रथम ब्रह्मा से प्रजापति ने, प्रजापति से अश्विनी कुमारों ने, उनसे इन्द्र ने और इन्द्र से भारद्वाज ने आयुर्वेद का अध्ययन किया ।

फिर भारद्वाज ने आयुर्वेद के प्रभाव से दीर्घ सुखी और आरोग्य जीवन प्राप्त कर अन्य ऋषियों में उसका प्रचार किया । तदनन्तर पुनर्वसु आत्रेय ने अग्निवेश, भेल, जतू, पाराशर, हारीत और क्षारपाणि नामक छः शिष्यों को आयुर्वेद का उपदेश दिया । इन छः शिष्यों में सबसे अधिक बुद्धिमान अग्निवेश ने सर्वप्रथम एक संहिता का निर्माण किया- अग्निवेश तंत्र का, जिसका प्रतिसंस्कार बाद में चरक ने किया और उसका नाम चरक संहिता पड़ा, जो आयुर्वेद का आधार स्तंभ है ।

सुश्रुत के अनुसार काशीराज दिवोदास के रूप में अवतरित भगवान धन्वन्तरि के पास अन्य महर्षिर्यों के साथ सुश्रुत जब आयुर्वेद का अध्ययन करने हेतु गये और उनसे आवेदन किया । उस समय भगवान धन्वन्तरि ने उन लोगों को उपदेश करते हुए कहा कि सर्वप्रथम स्वयं ब्रह्मा ने सृष्टि उत्पादन पूर्व ही अथर्ववेद के उपवेद आयुर्वेद को एक सहस्र अध्याय- शत सहस्र श्लोकों में प्रकाशित किया और पुनः मनुष्य को अल्पमेधावी समझकर इसे आठ अंगों में विभक्त कर दिया ।

इस प्रकार धन्वन्तरि ने भी आयुर्वेद का प्रकाशन बह्मदेव द्वारा ही प्रतिपादित किया हुआ माना है । पुनः भगवान धन्वन्तरि ने कहा कि ब्रह्मा से दक्ष प्रजापति, उनसे अश्विनीकुमार द्वय तथा उनसे इन्द्र ने आयुर्वेद का अध्ययन किया ।

चरक संहिता तथा सुश्रुत संहिता में वर्णित इतिहास एवं आयुर्वेद के अवतरण के क्रम में क्रमशः आत्रेय सम्प्रदाय तथा धन्वन्तरि सम्प्रदाय ही मान्य है ।
चरक मतानुसार- आत्रेय सम्प्रदाय ।
सुश्रुत मतानुसार- धन्वन्तरि सम्प्रदाय ।

आयुर्वेद अर्थात जीवन रक्षा संबंधी ज्ञान है जो अनादि एवं परम्परागत है । और इसी परम्परागत प्राप्त ज्ञान को ही समय-समय आचार्यों ने लिपिबद्ध कर संहिताओं एवं अन्य ग्रन्थों की रचना कर आयुर्वेद को जनहित में प्रतिपादित किया ।

क्योंकि इतिहास परम्परागत अस्तित्व एवं ज्ञान का द्योतक है तथा परम्परागत ज्ञान का बोध कराता है, इसलिए 'ऐतिह्य' शब्द मात्र ही ज्ञान एवं ऐतिहास शब्द का बोध करा देता है । क्योंकि परम्परागत प्राप्त ज्ञान मौलिक प्रमाण माना जाता है जिसके कारण ही इसको आप्तोपदेश की संज्ञा दी गई है ।
जिस प्रकार गंगा प्रारंभ में स्वल्प धारा के रूप में प्रकट होकर क्रमशः अन्य स्रोतों के मिलने से उपबृंहित हो जाती है, उसी प्रकार ज्ञान गंगा का उपबृंहण भी होता रहता है ।

इसीलिए मौलिक ज्ञान अर्थात वेद को इतिहास और पुराण से उपबृंहित करने का उपदेश है यथा-
''ऐतिहासपुराणाभ्यां वेदं समुपब्रंहयेत् ।''

इस उपबृंहण की स्वाभाविक प्रक्रिया से ही आयुर्वेद सदैव विकसित एवं फलित होता रहा है । क्योंकि आयुर्वेद का संबंध वेदों से है और वेद ज्ञान है इसलिए समय-समय पर आयुर्वेद को सार्थक एवं प्रभावी बनाया जाता रहा, जिसके कारण यह विशाल आयुर्वेद वाङ्गमय आज हमारे समक्ष है और इसीलिए आयुर्वेद अथर्ववेद का उपवेद कहा जाता है ।
चरक, सुश्रुत, काश्यप आदि मान्य ग्रन्थ आयुर्वेद को अथर्ववेद का उपवेद मानते हैं जिनका ऐतिहासिक क्रम इस प्रकार है-

वेदों में आयुर्वेद 
वेदों में रुद्र, अग्नि, वरुण, इन्द्र, मरुत आदि दैव भिषक कहे गये हैं, किन्तु इनमें सर्वाधिक प्रसिद्धि अश्विनी कुमारों की है जो ''देवानां भिषजौ'' के रूप में स्वीकृत हैं ।

ऋग्वेद में इनके जो चमत्कार वर्णित हैं उनसे अनुमान किया जा सकता है कि उस काल में आयुर्विद्या की स्थिति उन्नत थी ।
अश्विनीकुमार आरोग्य, दीर्घायु शक्ति प्रजा वनस्पति तथा समृद्धि शक्ति के प्रदाता कहे गये हैं । वे सभी प्रकार की औषधियों के ज्ञाता थे । आथवर्ण, दधीचि से उन्होंने मधुविद्या और प्रग्वयविद्या की शिक्षा प्राप्त की थी, जिससे वे मधुविद्या विशारद हुए । उनके चिकित्सा चमत्कारों का वर्णन ऋग्वेद में विस्तार से किया गया है ।

अश्विन्नौ अंग प्रत्यारोपण तथा संजीवनी विद्या में कुशल थे, इनके अतिरिक्त वे पशुचिकित्सा में भी दक्ष थे । गौ के बन्ध्यात्व को दूर कर उसे संतान तथा प्रभूत स्तन्य दिया । अश्विनौ के प्रतीक की व्याख्या अनेक प्रकार से की गई है ।

आयुर्वेदीय दृष्टि से ये आदर्शभिषक के प्रतीक हैं जिनका युग्म रूप शल्य एवं चिकित्सा के उभय सम्प्रदायों का अथवा विज्ञान के सैद्धान्तिक एवं व्यावहारिक पक्षों का प्रतिनिधित्व करता है । अश्विनौ पक्षी के दो पंखों के समान कहे गये हैं- ज्ञान (सिद्धांत) एवं कर्म (व्यवहार) भी आयुर्वेद के दो पक्ष कहे गये हैं जिनमें एक भी त्रुटित हो तो गति नहीं हो सकती अतएव भिषक को उभयज्ञ होने का उपदेश किया है-

''उभयज्ञो हि भिषक् राजाहोर् भवति ।'' (सु०सू०३/४५)

अश्विन्नौ के अतिरिक्त इन्द्र के भी चिकित्सा चमत्कार के प्रसंग ऋग्वेद में दृष्टिगोचर होते हैं । यथा-अपाला के चमर्रोग तथा उसके पिता के खालित्य रोग का निवारण, अंधपरावृज को दृष्टिदान तथा पंगु श्रोण को गतिदान देने आदि का चमत्कारिक वर्णन मिलता है ।

औषधियों के संबंध में ऋग्वेद का ओषधिसूक्त (१०-४७-१-२३) महत्वपूर्ण है, इसमें औषधियों के स्वरूप, स्थान, वर्गीकरण तथा उनके कर्मों एवं प्रयोगों का स्पष्ट उल्लेख मिलता है । यह उल्लेख है कि औषधियाँ लेने के बाद अंग-अंग, पर्व-पर्व में फैलकर वे अपना कर्म करती है । आभ्यंतर प्रयोग के साथ-साथ औषधियों का मणि धारण(हाथ में बाँधना) भी किया जाता था । औषधियों के प्रयोग में युक्तिव्यपा श्रय तथा दैवयपाश्रय दोनों तथ्य सन्निहित थे । भिषक् औषधियों का ज्ञाता होता था । जिनके द्वारा वह राक्षसों का नाश तथा रोगों का निवारण करता था, वह रक्षोहा तथा अमीबचातन दोनों था-

यत्रौषधीः समग्मत राजानः समिताविव ।
विप्र स उच्यते भिषग् रक्षोहामीबचातन॥ 
-( ऋ०-१०/१७/६)

रोगों के समवायिकारण (दोष) तथा निमित्त कारण (क्रिमि) औरी दोष प्रयतनीक चिकित्सा का स्पष्ट संकेत है-

साकं यक्ष्म प्रपत चाषेण किकिदीविना ।
साकं वातस्य साकं नश्य निहाकया॥ 
-(ऋ० १०-१७-१३)

त्रिदोषवाद का भी संकेत-
''त्रिधातुवहतं शुभस्पती (१/३/४/६)'' तथा

''इन्द्रं त्रिधातु शरणं'' (४/७/२८) इन मंत्रों में है ।

इस प्रकार सिद्ध होता है कि आयुर्वेद की उपयोगिता एवं महत्ता वेदों में भी सrवर्श्रेष्ठ प्रतिपादित की गई थी ।

आयुर्वेद का लक्षण एवं आयु


हिताहितं सुखं दुःखंआयुस्तस्य हिताहितम्
मानं च तच्च यत्रोक्तमार्युवेदः स उच्यते॥
 (च०सू० १/४१)

- अर्थात् हितायु, अहितायु, सुखायु एवं दुःखायु; इस प्रकार चतुर्विध जो आयु है उस आयु के हित तथा अहित अर्थात् पथ्य और अपथ्य आयु का प्रमाण एवं उस आयु का स्वरूप जिसमें कहा गया हो, वह आर्युवेद कहा जाता है ।

- महर्षि चरक के ही अनुसार- इन्द्रिय, शरीर, मन और आत्मा के संयोग को आयु कहते हैं । धारि, जीवित, नित्यग, अनुबंध और चेतना शक्ति का होना ये आयु के पर्याय हैं ।

शरीरेन्दि्रयसत्वात्मसंयोगो धारि जीवितम्
नित्यगश्चानुबन्धश्च पर्प्यायैरायुरुच्यते ।
 (च०सू० १/४२)

- अर्थात्- शरीर, इन्द्रिय, मन एवं आत्मा के संयोग का नाम ही 'आयु' है और उस आयु के नामान्तर -
१. धारि- अर्थात् 'धारक'शरीर को सड़ने नहीं देता है, अतः शरीर का धारण करता है ।
२. जीवित- प्राण को धारण करता है ।
३. नित्यग- प्रतिदिन आयु आती-जाती रहती है ।
४. आयु का सम्बन्ध पर-अपर शरीर से या प्राण से सदा लगा रहता है ।

इसके अतिरिक्त - तत्रायुश्चेतनानुवृतिः (च०सू० ३०/२२)
अर्थात् गर्भ से मरणपर्यन्त चेतना के रहने को 'आयु' कहा गया है ।

इसी प्रकार शरीर और जीव के योग को जीवन और उसके साथ जुड़े हुए काल को 'आयु' कहते हैं ।

शरीर जीवयोर्योगः जीवनं तदावविच्छन्नकालः आयुः 

महर्षि चरक मतानुसार जो चार प्रकार की आयु बताई गई है उसके सम्बन्ध में कहा गया है

१.सुखायु- जो मनुष्य शारीरिक, मानसिक रोगों से रहित है । विशेषतः युवा है, और उसके शरीर में बलवीर्य है, वह यशस्वी, पुरुषार्थी, पराक्रमी है, ज्ञान, विज्ञान सम्पन्न है । जिसकी इन्दि्रयाँ अपने विषयों के ग्रहण में पूर्ण समर्थ हैं । जो सभी प्रकार की धन सम्पत्ति से युक्त है, और इच्छानुसार जिसके प्रत्येक कार्य सम्पन्न होते हैं । उस मनुष्य की आयु को सुखायु कहा जाता है ।

२. दुःखायु- सुखायु के विपरीत, भिन्न आयु को जिसमें रोगों की अनुभूति हो, दुःखायु कहा जाता है ।

३. हितायु- जो मनुष्य सभी प्राणिमात्र का हितकर्त्ता हो, दूसरे के धन की इच्छा न रखता हो, सत्यवादी हो, शांतिप्रिय हो, विचारपूर्वक कार्य करने वाला हो, सावधानीपूर्वक धर्म, अर्थ, कामका पालन करता हो, पूज्य व्यक्तियों की पूजा करता हो, ज्ञान-विज्ञान एवं श्रमशील हो, वृद्धजनों का सेवक हो, क्रोध, राग, ईर्ष्या, मद और अभिमान जन्य वेगों को धारण करने वाला हो, सदैव अनेक प्रकार की वस्तुओं का दान करता हो, तप, ज्ञान और शान्ति में सदा तत्पर हो, अध्यात्म विद्या का ज्ञाता हो और उसका अनुष्ठान भी करता हो, और जो भी कार्य करता हो उन सभी कार्यों को स्मरणपूर्वक इस मत्यर्लोक एवं परलोक को ध्यान में रखकर करता हो, तो ऐसे मनुष्य की आयु को हित आयु कहा जाता है ।

४. अहित आयु- हित आयु से भिन्न आयु को अहित आयु कहा जाता है ।

इन चारों प्रकार की आयु के लिए हित, अर्थात् जो 'आयुष्य' को आयु को बढ़ाने वाला हो, तथा अहित, 'अनायुष्य' जो आयु का ह्रास करने वाला हो, इन सभी का जिसमें वणर्न हो वह आयुर्वेद है ।

आयुर्वेद का प्रयोजन
विधाता की सवोर्त्कृष्ठ सृष्टि मानव है, और मानव इहलोक में पुरुषाथर् प्राप्ति के लिए स्वभावतः ही प्रयुक्त होता है, और पुरूषार्थ प्राप्ति के लिए आयुवेर्द की आवश्यकता है, और दीघार्यु आरोग्य के संरक्षण से ही प्राप्त हो सकती है ।

अतः आरोग्य संरक्षण तथा अतिर्नाशन के लिए, दीर्घायु रहने के सिद्धान्त, गुण, कर्म विशेष आदि का गुण-कर्म एवं उनका अवयवी सम्बन्ध अथार्त् समवाय आदि का विशेष ज्ञान आयुर्वेद से ही संभव है, और यह सैद्धान्तिक रूप से शाश्वत है । इसके विपरीत विज्ञान के सिद्धान्त समय-समय पर परिवर्तित होते हैं, वह विज्ञान शाश्वत एवं सफल नहीं होता है ।

आयुर्वेद ने अपने अपरिवतर्नीय सिद्धान्तों के आधार पर ही नित्य एवं सत्य विज्ञान सिद्ध किया है । यद्यपि वह विश्व का आदि चिकित्सा विज्ञान है, परन्तु भारतीय ऋषियों द्वारा परिभाषित एवं प्रकाशित होने के कारण ही यह भारतीय चिकित्सा विज्ञान कहा जाता है ।

आयुर्वेद के सिद्धान्त शाश्वत सत्य है । सत्य से लाभ उठाने का अधिकार मानव मात्र को है-

नात्माथर् नाऽपि कामाथर्म् अतभूत दयां प्रतिः
वतर्ते यश्चिकित्सायां स सवर्मति वर्तते ।
 (च० चि० १/४/५८)

जो अर्थ तथा कामना के लिए नहीं, वरन् भूतदया अर्थात् प्राणिमात्र पर दया की दृष्टि से चिकित्सा में प्रवृत्त होता है, वह सब पर विजय प्राप्त करता है । इससे यह पूर्णरूपेण प्रमाणित होता है कि आयुर्वेद प्राणिमात्र के हितार्थ ही प्रकाशित एवं पूर्ण नियोजित है ।

किमथर्मायुवेर्दः (च०सू० ३०/२६)

अर्थात् आयुर्वेद का क्या प्रयोजन है? इस संदर्भ में निहित है कि-

'प्रयोजनं चास्य स्वस्थस्य स्वास्थ्य रक्षणमातुरस्य विकार प्रशमनं च!'

- इस आयुर्वेद का प्रयोजन पुरुष के स्वास्थ्य की रक्षा करना और रोगी व्यक्ति के रोग को दूर करना है ।
- इस संदभर् में आयुर्वेद का प्रयोजन सिद्ध करते हुए कहा गया है-
आयुः कामयमानेन धमार्थर् सुखसाधनम् ।
आयुवेर्दोपदेशेषु विधेयः परमादरः ॥ 
(अ० सं० सू०-१/२)

सिद्धान्त एवं मूल उद्देश्य-
भारतीय विद्वानों का सर्वसम्मत विचार यह है कि आयुर्वेद की जो कुछ विशेषताएँ हैं, वे मौलिक एवं आधारभूत सिद्धान्तों पर ही आधारित है । वही आयुर्वेद की मूल भित्ति या रीढ़ कही गई है ।
इसका स्पष्ट कारण यह है कि इसके सिद्धान्त एवं मूल उद्देश्य सर्वथा अक्षुण्य -अपरिवर्तनीय हैं, जो इस प्रकार है-

१-त्रिगुण - ''सिद्धान्त'' ।
२-पञ्चमहाभूत
३-त्रिदोष
४-सप्तधातु एवं ओज
५-द्रव्यादि षट् पदार्थ
६-द्रवगत (रसादि पञ्च पदार्थ)
७-आत्मा परमात्मा
८-चरकानुमत चतुर्विंशति एवं सुशरुत मतानुसार पञ्चविंशति तत्त्व
९-पुनर्जन्म एवं मोक्ष

आयुर्वेद का सिद्धान्त ही रोगी व्यक्ति के रोग को दूर करना एवं स्वस्थ व्यक्ति के स्वास्थ्य को समुचित रूप से बनाये रखना है । इसलिए आयुर्वेद को व्यावहारिक रूप देने हेतु उसको कई भागों या अंगों में विभाजित किया गया, जिससे संपूर्ण शरीर का यथावत् अध्ययन एवं परीक्षण कर समुचित रोगों की चिकित्सा की जा सके तथा हर दृष्टिकोण से सवर्सुलभ हो सके । कालान्तर में आयुर्वेद को जनोपयोगी बनाने हेतु ही उसके आठ अंग किये गये, जो इसप्रकार हैं-
आयुवेर्द के अंग -
१-काय चिकित्सा
२-शालाक्य तंत्र
३-शल्य तंत्र
४-अगद तंत्र
५-भूत विद्या
६-कौमारभृत्य
७-रसायन
८-बाजीकरण

इस विभाजन का कारण ही शरीर को उचित आरोग्य प्रदान करना था । आयुर्वेद का प्रयोजन मुख्य रूप से धातु साम्य से है, जिसका अर्थ है, आरोग्य उत्पादन करना । मानव या प्राणिमात्र सृष्टि के आरंभ से ही अपने हित-अहित का ज्ञान रखता आया है । अपनी आयु की वृद्धि और हानि करने वाली वस्तुओं का ज्ञान भी रखता आया है तथा उत्तरोत्तर नवीन-नवीन उपायों का अवलम्बन या अनुसंधान करता आया है ।
इसप्रकार आयु और वेद दोनों सदैव रहे हैं और रहेंगे । अर्थात् आयुर्वेद का मुख्य प्रयोजन (ही मानव मात्र को रोग रहित करना, तथा जो रोगी है, उसके रोगों की चिकित्सा एवं मानव के स्वास्थ्य का संरक्षण करना है । अर्थात् ऐसी विद्या का उपदेश जिससे रोग न हो ।) आतुर विकार प्रशमनं तथा स्वास्थ्य रक्षण जो था वह है, और त्रिसूत्र आयुर्वेद के रूप में, प्रथम सिद्धान्त के रूप में प्रचलित हुआ, जिससे रोग का हेतु, लक्षण एवं औषध जानकर रोग का प्रशमन किया जा सके ।

सृष्टि का विकास क्रम
यह कार्य ईश्वर के कार्य करने की इच्छा से होता है । इसका प्रारंभिक क्रम यह है कि यह परमाणुओं में प्रारंभ होती है । परमाणु द्रव्य का अंतिम अवयव है, इससे सूक्ष्म अवयव नहीं होते तथा परमाणु नित्य है-पृथ्वी, जल, तेज, वायु के परमाणु होते हैं । सर्वप्रथम इन्हीं परमाणुओं से क्रिया होती है और दो परमाणुओं के संयोग से द्वयणुक उत्पन्न होते हैं । ऐसे ही तीन द्वयणुकों के संयोग से त्रयणुक बनता है, तत्पश्चात् चतुरणुक आदि क्रम से महती पृथ्वी, महत् आकाश, महत् तेज तथा महत् वायु उत्पन्न होता है ।

ईश्वर जगत् का साक्षी है जिसके सन्निधान मात्र से प्रकृति संसार की रचना में प्रवृत्त होती है । चरक के अनुसार-

ज्ञः साक्षीप्युच्यते नाज्ञः साक्षी ह्यात्मा यतः स्मृतः ।
सवेर् भावा हि सवेर्षां भूतानामात्मसाक्षिकाः॥
 (च०शा०१/८३)

इस प्रकार प्रकृति और पुरुष के संयोग से सृष्टि की उत्पत्ति होती है, पुरुष का संयोग ही सृष्टि के उदय और संयोग निवृत्ति ही सृष्टि प्रलय का कारण है-

रजस्तमोभ्यां युक्तस्य संयोगोऽयमनन्तवात् ।
ताभ्यां निराकृताभ्यां तु सत्ववृद्धया निवतर्ते॥
 (च०शा०१/३६)

रजोगुण और तमोगुण के योग से यह चतुर्विंशति राशि रूप संयोग अनन्त है, सत्वगुण की वृद्धि तथा रजोगुण और तमोगुण की निवृत्ति से पुरुष रूप यह संयोग निवतिर्त होकर मोक्ष हो जाता है ।

अर्थात् अव्यक्त से महान्, महान् से अहंकार, अहंकार से पञ्चतन्मात्रा, पञ्चतन्मात्रा से पंच महाभूत एवं एकादश इन्द्रियाँ इस प्रकार सभी तत्वयुक्त सृष्टि के आदि में पुरुष उत्पन्न होता है । प्रलयकाल में अव्यक्त रूप प्रकृति में बुद्धयादि तत्व लय को प्राप्त हो जाते है ।

इस प्रकार अव्यक्त से व्यक्त और व्यक्त से अव्यक्त का क्रम रजोगुण और तमोगुण से मुक्त होकर पुनः-पुनः उदय प्रलय रूप में चक्र की भाँति घूमता रहता है । यही सृष्टि के विकास अर्थात् उदय महाप्रलय और मोक्ष का क्रम शास्त्र सम्मत है ।

चरक मतानुसार सर्ग क्रम 

महाप्रलय के पश्चात् सृष्टि के प्रारंभ में सवर्प्रथम 'अव्यक्त' तत्व पुनः उसे ''बुद्धि तत्व'' बुद्धि तत्व से ''अहंकार'' उत्पन्न होता है । इसी प्रकार अहंकार से जो त्रिविध होता है, पञ्चतन्मात्राएँ और एकादश इन्द्रियाँ उत्पन्न होते हैं । इस प्रकार सम्पूर्ण सर्वाङ्ग की उत्पत्ति आदि सृष्टि के आरंभ काल में अभ्युदित होती है । यथा-

जायते बुद्धिरव्याक्ताद् बुद्धयाऽहमिति मन्यते । परं खादीन्यहङ्कारादुत्पद्यन्ते यथाक्रमम् । ततः सम्पूणर्सवार्ङ्गो जातोऽभ्यदित उच्यते॥ (च०शा०१/६६)

अव्यक्त-(पुरुष संसृष्ट अव्यक्त नाम मूल प्रकृति)
महान् व बुद्धितत्व
अहंकार
सूक्ष्म पञ्चमहाभूत (पञ्चतन्मात्राएँ)
पञ्चमहाभूत
एकादश इन्दि्रयाँ
इन्द्रियाँ पञ्चमहाभूत से युक्त हैं, चरकानुसार पाञ्चभौतिक हैं ।
सुश्रुत एवं सांख्य सम्मत सृष्टि विकास क्रम 
अव्यक्त नाम की प्रकृति है । मूल प्रकृति इसका अपर पर्याय है । सभी प्राणियों का कारण स्वयं अकारण (कारण रहित सत्व, रज, तम स्वरूप आठों रूपों वाला- अव्यक्त, महान्, अहंकार और पंचतन्मात्रारूप ) सम्पूर्ण संसार की उत्पत्ति का कारण अव्यक्त नाम की प्रकृति है । यह अनेक क्षेत्रज्ञ कर्म पुरुष का अधिष्ठान उसी प्रकार है-जिस प्रकार एक समुद्र अनेक नदियों का स्थान है ।
उस अव्यक्त से उन्हीं लक्षणों वाला अर्थात् सत्व, रज, तम स्वरूप महान कार्य उत्पन्न होता है । उस महान अर्थात् महत् तत्व से सत्व, रज, तम लक्षणों वाला अहंकार उत्पन्न होता है ।

वह अंहकार तीन प्रकार का होता है-१. वैकारिक - (सात्विक), (२) तेजस - (राजस), ३. भूतादि - (तामस) ।
इनमें वैचारिक अंहकार तथा तेजस अंहकार की सहायता से इन्हीं लक्षणों वाली (सात्विक+राजस) एकादश इन्द्रियाँ उत्पन्न होती हैं । ये इन्द्रियाँ इस प्रकार हंै-१. श्रोत, २. त्वक्, ३. चक्षु, ४. रसन एवं ५. घ्राण, ये पाँच ज्ञानेन्दि्रयाँ हैं । १. वाक् (वाणी), २. हस्त, ३. उपस्थ, ४. गुदा एवं ५. पाद(पैर) ये पाँच कर्मेन्द्रियाँ तथा एक मन जो ज्ञानेन्द्रि एवं कर्मेन्द्रि दोनों है, उत्पन्न होते हैं । मन हमारी ज्ञानेन्द्रियोँ-कर्मेन्द्रियोँ का आश्रय पाकर हमारे कार्य-कलापों को सम्पादन करता रहता है ।

इसी प्रकार तामस और राजस, अहंकार की सहायता से इन्हीं लक्षणों से युक्त पञ्चतन्मात्राओं की उत्पत्ति होती है-शब्द, स्पर्श, रूप एवं गंध तन्मात्रा । इन तन्माओं के क्रमशः आकाश, वायु, अग्नि, जल और पृथिवी ये पाँच महाभूत उत्पन्न हुए ।

इस प्रकार ये कुल मिलाकर चौबीस तत्व कहे गये हैं ।
अतः अव्यक्त, महान्, अहंकार तथा पञ्चतन्मात्राएँ ये कुल आठ प्रकृति और शेष षोडश विकार कहे गये हैं ।

सुश्रुत एवं सांख्य सम्मत सृष्टि विकास क्रम- 

अव्यक्त-(मूल प्रकृति एक एवं त्रिगुणात्मक)
महान
अहंकार
वैकारिक (सात्विक)तेजस (राजस)भूतादि (तामस)

सहायता सेसहायता से
१ मन + ५ ज्ञानेन्दि्रयाँ + ५ कमेर्न्दि्रयाँपंच तन्मात्रा = एकादश इन्द्रियाँ पंच महाभूत


प्रकृति एवं पुरुष 
सतवरजस्तमस्यां साम्यावस्था प्रकृतिः । (सा०द०१/६१)
सत्व, रज और तम की साम्यावस्था प्रकृति है । प्रकृति से ही महान्, महान् से अहंकार, अहंकार से पञ्चतन्मात्राएँ एवं दोनों प्रकार की इन्द्रियाँ एवं मन तथा तन्मात्राओं से स्थूल महाभूत इस प्रकार ये २४ तत्व उत्पन्न होते हैं । पच्चीसवाँ तत्व पुरुष है, जो प्रकृति का कारण है । जो प्रकृति के संयोग से ही बनता है ।

सृष्टि के विकास क्रम में प्रकृति एवं पुरूष का संयोग सवर्प्रथम सांख्य दशर्न में वणिर्त है । आयुवेर्द के विद्वानों ने इन दोनों तत्वों को अव्यक्त नाम से एक तत्व माना है । क्योंकि जो मूल प्रकृति होती है वह सदैव अव्यक्त रहती है और सभी का उत्पादक कारण इसलिए इसे अपरा प्रकृति भी कहा जाता है ।

प्रक्ररोरीति प्रकृतिः, -तत्वान्तरोपादानत्व प्रकृतित्वम्, -सत्व रजसतमसां साम्यावस्था प्रकृतिः, -मूल प्रकृति विकृतिः॥ 
अथार्त् जो किसी वस्तु को उत्पन्न करने वाला हो परन्तु उसका कोई उत्पादक कारण न हो उसे प्रकृति कहते हैं या इसे मूल प्रकृति कहते हैं ।

जो अन्य तत्वों का उपादान कारण हो अर्थात् जो तत्वान्तरों को उत्पन्न करता है उसे प्रकृति कहते हैं, जैसे मूल प्रकृति ।
जो तत्वान्तरों को उत्पन्न करते हैं तथा स्वयं भी उत्पन्न होते हैं वही प्रकृति विकृति है ।
प्रकृति के प्रकार-
प्रकृति दो प्रकार की मानी गई है-१. मूल प्रकृति, २. भूत प्रकृति ।
मूल प्रकृति को अव्यक्त माना जाता है । इसे ही सुश्रुत ने कहा है ।
सर्वभूतानां कारणं कारण सत्वरजस्तमो, लक्षणमष्टरूपस्य अखिलस्य जगतः, संभवहेतुरव्यक्तं नाम । (सु०)
इसमें मूल प्रकृति अव्यक्त ही रहती है तथा भूत प्रकृति स्थावर और जंगम भूत द्रव्यों को उत्पन्न करने वाली होती है ।
सांख्यदर्शन के अनुसार सत्व, रज, तम की साम्यावस्था ही प्रकृति है । यथा-

मूल प्रकृतिविकृतिमर्हदाद्या प्रकृति विकृतयः सप्त ।
षोडकस्तु विकारो न प्रकृतिनर् विकृतिः पुरुषः॥ 
(सा०का०३)

ईश्वर कृष्ण ने प्रकृति, विकृति एवं पुरुष को चार भागों में विभक्त कर वणर्न किया है-१. प्रकृति, २. प्रकृति-विकृति, ३. केवल विकृति, ४. न प्रकृति न विकृति ।

यहाँ जो मूल प्रकृति है जिसे अपर माना जाता है और जो हमेशा अव्यक्त रूप में रहती है वही प्रधान प्रकृति कही जाती है । यह किसी से उत्पन्न न होने के कारण विकार रहित होती है, इसीलिए यह समस्त संसार का कारण है । इसी से महदादि तेइस तत्वों की उत्पत्ति होती है । महान् अहंकार तथा पंचतन्मात्राएँ ये सातों तत्व प्रकृति- विकृति उभय रूप हैं ।

कारण यह है कि महान् अव्यक्त से उत्पन्न होता है और अहंकार को उत्पन्न करता है, तथा तन्मात्राएँ अहंकार से उत्पन्न होती हैं तथा महाभूतों को उत्पन्न करती हैं । मन, पाँच ज्ञानेन्द्रियाँ, पाँच कर्मेद्रियाँ तथा पाँच महाभूत, ये सोलह विकार हैं- पच्चीसवां तत्व पुरुष है जो न प्रकृति है न विकृति है अर्थात् पुरुष न किसी को उत्पन्न करता है और न किसी से उत्पन्न ही होता है । यह कार्य कारण रहित है ।
सांख्य दशर्न सम्मत पञ्चविंशति तत्व-

१. अव्यक्त नाम मूल प्रकृति - केवल प्रकृति एक
२. महान् विकृति, प्रकृति अहंकार अभय रूप - सात पञ्चतन्मात्रा
३. पञ्च ज्ञानेन्दि्रय पञ्च कर्मेन्द्रियाँ उभयात्मकं मन केवल विकृति सोलह पञ्च महाभूत
४. पुरुष - प्रकृति- विकृति दोनों से भिन्न एक

समस्त अव्यक्त आदि एकत्व का जो वर्ग होता है वह अचेतन है । पुरुष पच्चीसवाँ तत्व है । वह पुरुष कार्यस्वरूप मूल प्रकृति से संयुक्त होकर अचेतन कर्म का चैतन्य कारक होता है । अचेतन होते हुए भी मूल प्रकृति की प्रवृत्ति पुरुष के मोक्ष के लिए होती है । क्योंकि चैतन्य युक्त पुरुष और प्रकृति के संयोग से उससे उत्पन्न हुए सभी तत्व चेतनायुक्त हो जाते हैं । जब तक प्रकृति पुरुष से अधिष्ठित नहीं होती तब तक उससे महदादि तत्व उत्पन्न नहीं होते । पुरुष सचेतन होते हुए भी निष्क्रय और प्रकृति क्रियावर्ती होते हुए भी अचेतन के कारण दोनों संयुक्त हुए बिना स्वतंत्र रूप से सर्गोत्पत्ति नहीं कर सकते हैं ।

सृष्टि का कार्य सचेतन पुरुष और जड़ प्रकृति के संयोग से ही प्रारंभ होता है ।

प्रकृति-पुरुष का साधर्म्य-वैधर्म्य 
समान धर्म अर्थात् एक जैसे गुण एवं समानताएँ साधर्म्य कही जाती है तथा विपरीत एवं विभिन्न गुण असमान धर्म वैधर्म्य कहा जाता है । पुरुष और प्रकृति में कितनी समानता एवं असमानता है, महर्षि सुश्रुत के अनुसार इस प्रकार है-

साधर्म्यः-प्रकृति एवं पुरुष दोनों अनादि, अनन्त, निराकार, नित्य, अपर तथा सर्वगत एवं सर्वव्यापक है ।

''न विद्यते अपरो याभ्यां तौ अपरौ''
वैधर्म्यः-प्रकृति एक अचेतन त्रिगुणात्मिका सत्वरजस्तमोरुप, बीजधर्मिणी, प्रसवधर्मिणी तथा अमध्यस्थधर्मिणी है । 

बीजधर्मिणी- सभी महदादि विकारों के बीजभाव से अवस्थित अर्थात् ''बीजस्यधर्मो बीजधर्म सोऽस्या अस्तीति बीजधमिर्का ।'' बीज में जैसे वृक्षोस्पत्ति का धर्म होता है, ठीक उसी प्रकार सगोर्त्पत्ति का धर्म जिसमें हो वैसी प्रकृति है ।

प्रसवधर्मिणी- महदादि तत्वों की समस्त चराचर सृष्टि को जन्म देने का धर्म जिसमें उपस्थित हो उसी तरह प्रकृति होती है ।

अमध्यस्थ धर्मिणी- अर्थात् सत्व आदि गुणों की राशि सुखादि रूप से सुख की अभिलाषा करती हुई एवं दुःख से द्वेष करती हुई अमध्यस्थ होती है । प्रकृति सत्वादि रूप होने से मध्यस्थ नहीं है ।

पुरुषः-पुरुष शब्द से महदादि कृत सूक्ष्म लिङ्ग शरीर कहा जाता है, जो योगियों को ही दृश्य है, उस पुर अथार्त् शरीर में सोने से ही पुरुष कहा जाता है ।

पुरुष बहुत चेतनावान, अणुठा, अबीज, धर्मा, अप्रसवधर्मा तथा अमध्यस्थधर्मा और निविर्कार होता है । जिसे कि महर्षि चरक ने कहा है कि- निविर्कारः परस्त्वात्मा सत्वभूत गुणेण्दि्रयैः 

परन्तु महषिर् सुश्रुत ने इसे इस प्रकार माना है कि पुरुष अनुमान ग्राह्य है । वे परम सूक्ष्म चैतन्यस्वरूप तथा नित्य हैं । पञ्चभौतिक शुक्रशोणित संयोग में प्रकट होते हैं । इसी कारण सूक्ष्म पुरुष और पञ्च महाभूत का संयोग ''पञ्चमहाभूत शरीरिसमवाय पुरुष'' कहा गया है । परन्तु पुरुष की उत्पत्ति हुई किससे? इस सम्बन्ध में महर्षि चरक का कहना है कि ''अनादि परमात्मा का प्रभव (कारण) कोई नहीं है, अर्थात् जब उसका कारण हो जाएगा, तो उसे अनादि नहीं कहा जा सकता, क्योंकि उसके पहले कारण वतर्मान रहेगा ।'' अतः राशि पुरुष-मोह, इच्छा, द्वेष कर्म से उत्पन्न होता है ।

''पुरुषो राशिसंज्ञस्तु मोहेच्छादुषकमर्जः'' (च०शा०१/५३)

पुरूष के प्रकार- महर्षि चरक के अनुसार पुरुष तीन प्रकार का माना गया हैः-
१-चेतना धातुज २-षड्धातुज ३-चतुर्विंशति तत्त्वात्मक

इसमें षड्धातुज और चतुर्विंशति तत्त्वात्मक को एक ही माना जाता है, जिसे राशि पुरुष कहते हैं, सकारण होता है । परन्तु चेतना धातु पुरुष जिसे परमात्मा कहते हैं, वह नित्य अनादि होता है । और जो अनादि है, उसका कोई कारण नहीं होता ।

इसी प्रकार सुश्रुत शारीर स्थान में कहा गया है-''सवर्भूतानां कारणमकारणं सत्वरजस्तमो लक्षणं ।'' सु०शा०)
अथार्त- अव्यक्त को सबका कारण और उसका कोई कारण नहीं, ऐसा माना है । सुश्रुत ने अव्यक्त शब्द से प्रकृति और पुरुष दोनों का ग्रहण किया है ।

डल्हण के अनुसार- सूक्ष्म पुरुष और पञ्चमहाभूतों का संयोग ही आयुर्वेद में 'षड्धातुज' पुरुष कहा गया है । यही कर्म पुरुष है, जो कर्मफल भोगता है । यही चिकित्साधिकृत है, अर्थात् इसी की चिकित्सा होती है और यही चिकित्सित कर्मफल को प्राप्त करता है ।

''शरीरादिव्यतिरिक्तिः पुमान्'' (सां०द० १/१३९)
शरीर, (मन) बुद्धि से पुरुष भिन्न है ।
'अधिष्ठानच्येति । ' 
(सा.द. १-१४२)

पुरुष देहादि पर अधिष्ठाता है । अधिष्ठाता होने से भी वह देहादि से भिन्न है । इसीप्रकार आगे भी सांख्यदर्शनकार ने कहा है कि वह भोक्ता होने तथा देह छोड़कर मोह की इच्छा करने से देहादि पर अधिष्ठाता है, अतः वह स्वयं भिन्न है ।
''जन्मादि व्यवस्थातः पुरुषबहुत्वम्'' (सा०द० १/१४९) ।
जन्मादि व्यवस्था- अर्थात् पुरुष के जन्म-मरण से एक शरीर को त्याग कर दूसरे शरीर में जाने से यह सिद्ध होता है कि 'पुरुष' एक विभु सर्वव्यापक होता है, तो देह से निकलना, आना-जाना आदि व्यवस्था न होती । इससे यह सिद्ध होता है कि पुरुष अनेक है, एक नहीं ।

''पुरुष बहुत्वम् व्यवस्थातः'' (सा०द०६/४५)
अतः व्यवस्था से पुरुष का बहुत होना सिद्ध है । यदि पुरुष एक होता तो जन्म-मरण व्यवस्था दृष्टिगोचर न होती । किन्तु व्यवस्था तो ऐसी है कि कोई जन्म लेता है, तो कोई मृत्यु को प्राप्त होता है । इससे पुरुष का बहुत होना पाया जाता है ।

इस प्रकार जितने भी पुरुष तथा उसकी सत्ता है, उन सभी में श्रेष्ठ या चिकित्साधिकृत पुरुष- राशि पुरुष ही है, जिसे आधार माना गया है तथा इसी २४ तत्त्वों के संयोग से जो पुरुष बनता है, उसे राशि पुरुष कहा गया है ।

राशि पुरुष के २४ तत्व- बुद्धि, इंद्रिय (अथार्त पाँच ज्ञानेन्द्रिय तथा पाँच कमे) इनके योग (संयोग अर्थात मिलाप) को धारण करने वाले को 'पर' जानना चाहिए, इस चतुर्विंशति तत्त्व की राशि को पुरुष कहते हैं ।

बुद्धीन्दि्रयमनोऽथार्नां विद्याद्योगधरं परं ।
चतुर्विंशतिको हेष राशिः पुरुषसंज्ञकः ॥ 
(च०शा० १/३५)

इसमें पुरुष को २४ तत्वों की राशि बताई है, परन्तु मूल में २४ तत्व स्पष्ट नहीं है । यहाँ बुद्धि से तात्पर्य- महत् तत्व, अहंकार, पञ्चतन्मात्राएँ ये- ७ लिए जाते हैं । इंद्रिय से ५ ज्ञानेन्द्रिय, ५ कर्मेन्द्रिय तथा १ मन । अर्थ से यहाँ विषय (शब्दादि) न लेकर ५ महाभूत लिए जाते हैं । 'पर' शब्द से अव्यक्त लिया गया है । इसप्रकार बुद्धि से ७+मन सहित इंद्रियाँ ११+५ महाभूत+१ अव्यक्त, ये सब मिलाकर २४ तत्व का यह राशि पुरुष माना जाता है ।

इस राशि पुरुष की परम्परा अनन्त है । रज एवं तम से संयुक्त पुरुष का यह बुद्धि, इंद्रिय, मन और अर्थ का संयोग अथवा २४ तत्वों का संयोग अनन्तवान् होता है । अर्थात् इस संयोग का कभी अंत नहीं होता । रज और तम हट जाने पर और सत्वगुण के बढ़ जाने से तो मोक्ष हो जाता है । सभी कर्मादि का आधार राशि पुरुष ही है । इसलिए-

सत्वमात्मा शरीरं च त्रयमेतत्त्रिण्डवत् ।
लोकस्तिष्ठति संयोगात तत्र सर्व प्रतिष्ठितम्॥ 


पुरुष को प्रकृति का कारण माना जाता है । यदि कर्त्ता और ज्ञाता पुरुष न हो तो 'भा' (प्रतिभा), तम (मोह), सत्य-असत्य, वेद, शुभ- अशुभ कर्म नहीं होंगे । यदि पुरुष को न माना जायगा, तो न आश्रय (आत्मा का आश्रय शरीर), न सुख, न अर्ति (दुःख), न गति (स्वगर् या मोक्ष को प्राप्त करना), न आगति, न पुनर्जन्म, वाक् विज्ञान, जन्म- मृत्यु, बंधन, न ही मोक्ष होगा । इसलिए पुरुष को कारण बताया गया है ।
तीन प्रकार के पुरुषों में २४ तत्वात्मक पुरुष को ही कारण माना गया है, ऐसा गंगाधर का सिद्धान्त है ।
चक्रपाणि के अनुसार अव्यक्त आत्मा- अथार्त् चेतना धातु को कारण माना है, परन्तु केवल आत्मा किसी भी कार्य को करने में समर्थ नहीं होती, क्योंकि आत्मा को तब तक ज्ञान नहीं होता, जब तक वह २४ तत्वों से संयोग नहीं करता है ।

यथाः- ''आत्मा ज्ञः करणैयोर्गाज्ज्ञ्नं त्वस्य प्रवतर्ते'' । 





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INDIA-RUSSIA, India
Researcher of Yog-Tantra with the help of Mercury. Working since 1988 in this field.Have own library n a good collection of mysterious things. you can send me e-mail at alon291@yahoo.com Занимаюсь изучением Тантра,йоги с помощью Меркурий. В этой области работаю с 1988 года. За это время собрал внушительную библиотеку и коллекцию магических вещей. Всегда рад общению: alon291@yahoo.com