गणित शास्त्र: पाइथागोरस से पहले आर्यभट्ट, न्यूटन से पहले भास्कराचार्य
हमारे यहां धनुष की चाप को ज्या कहते हैं। रेखागणित में इस शब्द का प्रयोग हमारे यहां ही हुआ। यहां से जब यह अरबस्तान में गया, तो वहां ई,ऊ आदि स्वर अक्षर नहीं हैं, अत: उन्होंने इसे ज-ब के रूप में लिखा। यह जब यूरोप पहुंचा तो वे जेब कहने लगे। जेब का अर्थ वहां छाती होता है। लैटिन में छाती के लिए सिनुस शब्द है। अत: इसका संक्षिप्त रूप हुआ साइन। ऐसे अनेक शब्दों ने भारत से यूरोप तक की यात्रा अरबस्तान होकर की है। इसे
हमारे यहां धनुष की चाप को ज्या कहते हैं। रेखागणित में इस शब्द का प्रयोग हमारे यहां ही हुआ। यहां से जब यह अरबस्तान में गया, तो वहां ई,ऊ आदि स्वर अक्षर नहीं हैं, अत: उन्होंने इसे ज-ब के रूप में लिखा। यह जब यूरोप पहुंचा तो वे जेब कहने लगे। जेब का अर्थ वहां छाती होता है। लैटिन में छाती के लिए सिनुस शब्द है। अत: इसका संक्षिप्त रूप हुआ साइन। ऐसे अनेक शब्दों ने भारत से यूरोप तक की यात्रा अरबस्तान होकर की है। इसे
कहते हैं एक शब्द की विश्व यात्रा।
पाइथागोरस प्रमेय या बोधायन प्रमेय
कल्पसूत्र ग्रंथों के अनेक अध्यायों में एक अध्याय शुल्ब सूत्रों का होता है। वेदी नापने की रस्सी को रज्जू अथवा शुल्ब कहते हैं। इस प्रकार ज्यामिति को शुल्ब या रज्जू गणित कहा जाता था। अत: ज्यामिति का विषय शुल्ब सूत्रों के अन्तर्गत आता था। उनमें बोधायन ऋषि का बोधायन प्रमेय निम्न है-
दीर्घचतुरस स्याक्ष्णया रज्जू:
पार्श्वमानी तिर्यक्मानी
यत्पृथग्भूते कुरुतस्तदुभयं
करोति। (बोधायन शुलब सूत्र १-१२)
इसका अर्थ है, किसी आयात का कर्ण क्षेत्रफल में उतना ही होता है, जितना कि उसकी लम्बाई और चौड़ाई होती है। बोधायन ने शुल्ब-सूत्र में यह सिद्धान्त दिया गया है। इसको पढ़ते ही तुरंत समझ में आता है कि यदि किसी आयत का कर्ण ब स, लम्बाई अ ब तथा चौड़ाई अ स है तो बोधायन का प्रमेय ब स२ उ अ ब२ अ अ स२ बनता है। इस प्रमेय को आजकल के विद्यार्थियों को पाइथागोरस प्रमेय नाम से पढ़ाया जाता है, जबकि यूनानी गणितज्ञ पाइथागोरस से कम से कम एक हजार साल पहले बोधायन ने इस प्रमेय का वर्णन किया है। यह भी हो सकता है कि पाइथागोरस ने शुल्ब-सूत्र का अध्ययन करने के पश्चात अपनी पुस्तक में यह प्रमेय दिया हो। जो भी हो, यह निर्विवाद है कि ज्यामिति के क्षेत्र में भारतीय गणितज्ञ आधुनिक गणितज्ञों से भी आगे थे।
बोधायन ने उक्त प्रसिद्ध प्रमेय के अतिरिक्त कुछ और प्रमेय भी दिए हैं- किसी आयत का कर्ण आयत का समद्विभाजन करता है आयत के दो कर्ण एक दूसरे का समद्विभाजन करते हैं। समचतुर्भुज के कर्ण एक दूसरे को समकोण पर विभाजित करते हैं आदि। बोधायन और आपस्तम्ब दोनों ने ही किसी वर्ग के कर्ण और उसकी भुजा का अनुपात बताया है, जो एकदम सही है।
शुल्ब-सूत्र में किसी त्रिकोण के क्षेत्रफल के बराबर क्षेत्रफल का वर्ग बनाना, वर्ग के क्षेत्रफल के बराबर का वृत्त बनाना, वर्ग के दोगुने, तीन गुने या एक तिहाई क्षेत्रफल के समान क्षेत्रफल का वृत्त बनाना आदि विधियां बताई गई हैं। भास्कराचार्य की ‘लीलावती‘ में यह बताया गया है कि किसी वृत्त में बने समचतुर्भुज, पंचभुज, षड्भुज, अष्टभुज आदि की एक भुजा उस वृत्त के व्यास के एक निश्चित अनुपात में होती है।
आर्यभट्ट ने त्रिभुज का क्षेत्रफल निकालने का सूत्र भी दिया है। यह सूत्र इस प्रकार है-
त्रिभुजस्य फलशरीरं समदल कोटी भुजार्धासंवर्ग:।
त्रिभुज का क्षेत्रफल उसके लम्ब तथा लम्ब के आधार वाली भुजा के आधे के गुणनफल के बराबर होता है। साथ दिए चित्र के अनुसार अबस उ१/२ अ ब न् स प। पाई ( ) का मान- आज से १५०० वर्ष पूर्व आर्यभट्ट ने का मान निकाला था।
किसी वृत्त के व्यास तथा उसकी परिधि के (घेरे के) प्रमाण को आजकल पाई कहा जाता है। पहले इसके लिए माप १० (दस का वर्ग मूल) ऐसा अंदाजा लगाया गया। एक संख्या को उसी से गुणा करने पर आने वाले गुणनफल की प्रथम संख्या वर्गमूल बनती है। जैसे- २न्२ उ ४ अत: २ ही ४ का वर्ग मूल है। लेकिन १० का सही मूल्य बताना यद्यपि कठिन है, पर हिसाब की दृष्टि से अति निकट का मूल्य जान लेना जरूरी था। इसे आर्यभट्ट ऐसे कहते हैं-
चतुरधिकम् शतमष्टगुणम् द्वाषष्ठिस्तथा सहस्राणाम्
अयुतद्वयनिष्कम्भस्यासन्नो वृत्तपरिणाह:॥
(आर्य भट्टीय-१०)
अर्थात् एक वृत्त का व्यास यदि २०००० हो, तो उसकी परिधि ६२२३२ होगी।
परिधि - ६२८३२
व्यास - २००००
आर्यभट्ट इस मान को एकदम शुद्ध नहीं परन्तु आसन्न यानी निकट है, ऐसा कहते हैं। इससे ज्ञात होता है कि वे सत्य के कितने आग्रही थे।
अकबर के दरबार में मंत्री अबुल फजल ने अपने समय की घटनाओं को ‘आईने अकबरी‘ में लिखा है। वे लिखते हैं कि यूनानियों को हिन्दुओं द्वारा पता लगाये गए वृत्त के व्यास तथा उसकी परिधि के मध्य सम्बंध के रहस्य की जानकारी नहीं थी। इस बारे में ठोस परिज्ञान प्राप्त करने वाले हिन्दू ही थे। आर्यभट्ट को ही पाई का मूल्य बताने वाला प्रथम व्यक्ति बताया गया है।
।। जयतु संस्कृतम् । जयतु भारतम् ।।
पाइथागोरस प्रमेय या बोधायन प्रमेय
कल्पसूत्र ग्रंथों के अनेक अध्यायों में एक अध्याय शुल्ब सूत्रों का होता है। वेदी नापने की रस्सी को रज्जू अथवा शुल्ब कहते हैं। इस प्रकार ज्यामिति को शुल्ब या रज्जू गणित कहा जाता था। अत: ज्यामिति का विषय शुल्ब सूत्रों के अन्तर्गत आता था। उनमें बोधायन ऋषि का बोधायन प्रमेय निम्न है-
दीर्घचतुरस स्याक्ष्णया रज्जू:
पार्श्वमानी तिर्यक्मानी
यत्पृथग्भूते कुरुतस्तदुभयं
करोति। (बोधायन शुलब सूत्र १-१२)
इसका अर्थ है, किसी आयात का कर्ण क्षेत्रफल में उतना ही होता है, जितना कि उसकी लम्बाई और चौड़ाई होती है। बोधायन ने शुल्ब-सूत्र में यह सिद्धान्त दिया गया है। इसको पढ़ते ही तुरंत समझ में आता है कि यदि किसी आयत का कर्ण ब स, लम्बाई अ ब तथा चौड़ाई अ स है तो बोधायन का प्रमेय ब स२ उ अ ब२ अ अ स२ बनता है। इस प्रमेय को आजकल के विद्यार्थियों को पाइथागोरस प्रमेय नाम से पढ़ाया जाता है, जबकि यूनानी गणितज्ञ पाइथागोरस से कम से कम एक हजार साल पहले बोधायन ने इस प्रमेय का वर्णन किया है। यह भी हो सकता है कि पाइथागोरस ने शुल्ब-सूत्र का अध्ययन करने के पश्चात अपनी पुस्तक में यह प्रमेय दिया हो। जो भी हो, यह निर्विवाद है कि ज्यामिति के क्षेत्र में भारतीय गणितज्ञ आधुनिक गणितज्ञों से भी आगे थे।
बोधायन ने उक्त प्रसिद्ध प्रमेय के अतिरिक्त कुछ और प्रमेय भी दिए हैं- किसी आयत का कर्ण आयत का समद्विभाजन करता है आयत के दो कर्ण एक दूसरे का समद्विभाजन करते हैं। समचतुर्भुज के कर्ण एक दूसरे को समकोण पर विभाजित करते हैं आदि। बोधायन और आपस्तम्ब दोनों ने ही किसी वर्ग के कर्ण और उसकी भुजा का अनुपात बताया है, जो एकदम सही है।
शुल्ब-सूत्र में किसी त्रिकोण के क्षेत्रफल के बराबर क्षेत्रफल का वर्ग बनाना, वर्ग के क्षेत्रफल के बराबर का वृत्त बनाना, वर्ग के दोगुने, तीन गुने या एक तिहाई क्षेत्रफल के समान क्षेत्रफल का वृत्त बनाना आदि विधियां बताई गई हैं। भास्कराचार्य की ‘लीलावती‘ में यह बताया गया है कि किसी वृत्त में बने समचतुर्भुज, पंचभुज, षड्भुज, अष्टभुज आदि की एक भुजा उस वृत्त के व्यास के एक निश्चित अनुपात में होती है।
आर्यभट्ट ने त्रिभुज का क्षेत्रफल निकालने का सूत्र भी दिया है। यह सूत्र इस प्रकार है-
त्रिभुजस्य फलशरीरं समदल कोटी भुजार्धासंवर्ग:।
त्रिभुज का क्षेत्रफल उसके लम्ब तथा लम्ब के आधार वाली भुजा के आधे के गुणनफल के बराबर होता है। साथ दिए चित्र के अनुसार अबस उ१/२ अ ब न् स प। पाई ( ) का मान- आज से १५०० वर्ष पूर्व आर्यभट्ट ने का मान निकाला था।
किसी वृत्त के व्यास तथा उसकी परिधि के (घेरे के) प्रमाण को आजकल पाई कहा जाता है। पहले इसके लिए माप १० (दस का वर्ग मूल) ऐसा अंदाजा लगाया गया। एक संख्या को उसी से गुणा करने पर आने वाले गुणनफल की प्रथम संख्या वर्गमूल बनती है। जैसे- २न्२ उ ४ अत: २ ही ४ का वर्ग मूल है। लेकिन १० का सही मूल्य बताना यद्यपि कठिन है, पर हिसाब की दृष्टि से अति निकट का मूल्य जान लेना जरूरी था। इसे आर्यभट्ट ऐसे कहते हैं-
चतुरधिकम् शतमष्टगुणम् द्वाषष्ठिस्तथा सहस्राणाम्
अयुतद्वयनिष्कम्भस्यासन्नो वृत्तपरिणाह:॥
(आर्य भट्टीय-१०)
अर्थात् एक वृत्त का व्यास यदि २०००० हो, तो उसकी परिधि ६२२३२ होगी।
परिधि - ६२८३२
व्यास - २००००
आर्यभट्ट इस मान को एकदम शुद्ध नहीं परन्तु आसन्न यानी निकट है, ऐसा कहते हैं। इससे ज्ञात होता है कि वे सत्य के कितने आग्रही थे।
अकबर के दरबार में मंत्री अबुल फजल ने अपने समय की घटनाओं को ‘आईने अकबरी‘ में लिखा है। वे लिखते हैं कि यूनानियों को हिन्दुओं द्वारा पता लगाये गए वृत्त के व्यास तथा उसकी परिधि के मध्य सम्बंध के रहस्य की जानकारी नहीं थी। इस बारे में ठोस परिज्ञान प्राप्त करने वाले हिन्दू ही थे। आर्यभट्ट को ही पाई का मूल्य बताने वाला प्रथम व्यक्ति बताया गया है।
।। जयतु संस्कृतम् । जयतु भारतम् ।।
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