सदियों तक अंग्रेजी गुलामियत और उस दौर की अनपढ़ता ने हमारी संस्कृति को भुलाने का पूरा भरसक प्रयत्न किया है रही-सही कसर कांग्रेस ने हमें मातृभाषा में शिक्षा न देकर निकाल दी।
हम वैदिक संस्कृति वाले लोग अपने धर्म को भुलने लगे और अपने पूर्वजों को नकली और न होने की बात तक स्वीकार करने को तैयार होने लगे। बहुत विदेशियों ने इस देश पर आक्रमण किये और धर्म परिवर्तन के पूरे हत्कन्डे अपनाए। बहुत मात्रा में मूल भारतियों का धर्म परिवर्तन भी समय-अमय पर करते रहे।मेरा मानना है कि आज भारतवर्ष में दूसरे धर्म 33% हैं तो इसमें से 30% के पूर्वज वैदिक संस्कृति वाले लोग हैं। केरल व अन्य प्रान्तों में बसने वाले इसाईयों को देखें और सोचें कि क्या इनकी शक्ल किसी अंग्रेज से मिलती है क्योंकि अंग्रेजों के भारत में आने से पहले भारत के लोग इसाई धर्म के बारे में जानते तक नहीं थे। तो उत्तर होगा कि नहीं तो फ़िर ये यूरोप से आए हुए इसाई तो नहीं हैं फ़िर कहाँ से आए? कहीं से नहीं ये हैं मूल भारतीय,इनकी शक्ल भी भारतीय। दूसरा------हरियाणा का मेवात जिला इसका परिपूर्ण उदाहरण है। इन लोगों को ओरंगजेब ने मुस्लमान बनाया था।
लेकिन कुछ बात है कि हस्ती मिटती नहीं हमारी
इस 315 साल के अर्से में हमारा धर्म कमजोर हुआ और साथ-साथ कुछ कुरितियों ने भी इस धर्म में जगह बनाई। इन कुरीतियों को लेकर कई समाजसुधारक भी हमारे देश में अपने समय के अनुसार कार्य करके जाते रहे। जब हम आजाद हुए तो हम पढ़ने-लिखने लगे और अपनी संस्कृति का अध्ययन करने लगे।लेकिन जो सम्पर्क हमारा ज्ञान प्रवाह से टुट गया था उसका खामियाजा तो हमें भुगतना ही था। हमें वेद,पुराण,योग,आयुर्वेद,संस्कृत भाषा,हिन्दु ग्रन्थ समझ नहीं आये और हमें ये सब झुठा सा लगने लगा और काँग्रेस,मुस्लिम और ईसाइ धर्म ने इसका फ़ायदा उठाया और हिन्दु को आज तक भारी मात्रा में धर्म परिवर्तन करा रहे हैं और हमारा भोला-भाला हिन्दु इनके झांसे में आता जा रहा है।
काँग्रेस ने हमारे धर्म में जातिप्रथा को बढ़ावा दिया और सीधे ही हमारे संविधान में जातिगत आरक्षण देकर हिन्दु को जातियों में विभाजित ही रखा।पहली कक्षा में जब बच्चे किसी अध्यापक के पास पढ़ने आते हैं तो वे नहीं जानते किस जाति विशेष से सम्बन्ध रखते हैं लेकिन शिक्षक उन्हें पाँचवीं तक आते-आते बता देता है कि आप हरिजन हो बाल्मिकी हो,आप एस सी हो और नाई,धोबी,कुम्हार हो तो आप बी सी हो और आप को जाति के आधार पर आरक्षण मिलेगा और बाकी को नहीं। आप को वर्दी और वजीफ़ा मिलेगा और आप ब्राह्मण हो आप को ये सब कुछ नहीं मिलेगा। इस हत्थकन्डे ने हिन्दु धर्म में घृणा और द्वेष को भरपूर पोषित किया है। परिणामस्वरुप कुछ दलित और हरिजन जातियों को हिन्दु धर्म से घृणा होने लगी। जिसके कारण आज तक धर्मपरिवर्तन चला आ रहा है।बुरी घृणा से इन नेताओं ने जातिवाद को बढ़ावा दिया।जबकि पुराचीन भारत में चार वर्णों का उल्लेख आता है उनका सच्चा अर्थ बिगड़कर रह गया।
उनका अर्थ है कि ब्रह्मिन , क्षत्रिय, वैश्य और शूद्र जातीय भेद नहीं , बल्कि व्यावसायिक भेद थे. कोई जन्म से ब्राह्मिन नहीं होता और कोई जन्म से शूद्र नहीं होता। सिर्फ गुरु , चिकित्सक, वैज्ञानिक और बुद्धिजीव ही ब्राह्मण है . केवल सैनिक और खिलाडी ही क्षत्रिय और केवल व्यवसायी ही वैश्य हैं। हम में से ज्यादातर दूसरो (companies या सरकार ) के लिए काम करके पैसे कमाने वाले शुद्र हैं। और इन वर्णों में कोई किसी से श्रेष्ठ नहीं है।
लेकिन कुछ बात है के हस्ती मिटती नहीं हमारी
वेद,योग,पुराण और आयुर्वेद को हमारे पूर्वजों ने एक महान अविष्कार के रुप में प्रतिस्थापित करके रख छोड़ा था। आप जानते हैं कि तक्षशिला और नालन्दा उस समय के विश्वविद्यालय थे। पूरे विश्व में उस समय कहीं भी शिक्षा नहीं थी तो आप कैसे कह सकते हैं कि आपके पूर्वज अज्ञानी रहे होंगे।या उन्होंने आप को गलत धर्म दिया होगा,गलती आप कर रहे हो और दोष धर्म या पूर्वजों को दे रहे हो।
अब हम मूल विषय पर आते हैं
वैदिक संस्कृति को समझना इतना आसान काम नहीं है अगर होता तो स्वामी रामदेवजी की जरुरत ना पड़तीं। ना आचार्य बालकृष्ण जी की पड़ती। हमारे पूर्वज बड़े ज्ञानी और महान थे।
उन्होंने दो पद्धति विकसित की थी। सम्मान और भक्ति। इन दोनों को समझने में हमने भुल की है। हमने इन दोनों को एक ही समझ लिया है और दोनों के लिए एक माप बनाया।जो कह्लाया पूजा। हमने भक्ति को त्याग दिया और पूजा को अपना लिया क्योंकि भक्ति की अपेक्षा पूजा आसान काम है।परिणामस्वरूप पूजा हमें अन्धविस्वास जैसी प्रतीत होने लगी।
अब आप समझें। हम सभी जानते हैं कि हमारे पूर्वज जब भगवान की प्राप्ति करना चाहते थे तो वो वनों में जाकर ध्यान और समाधि के माध्यम से ये कार्य करते थे।मैं आपको साफ़ कर देना चाहता हूँ कि मैने दो पहलुओं का पहले जिकर किया है सम्मान और भक्ति। जब हमने अनपढ़ता का दौर पार किया तो हम एक बात करते रहे वो थी पूजा। इस पूजा नाम के यन्त्र ने हमें आज तक बचाकर रखा हुआ है। अगर हम पूजा छोड़ देते तो पक्का ह्मारी हस्ती मिट गई होती। लेकिन हमने पूजा नहीं छोड़ी बल्कि जिनकी पूजा पूर्वजों ने कही थी, उनके इलावा की भी पूजा करने लग गए। हमने आजकल मुस्लिम पीरों को भी पूजना शुरू कर दिया है।जिसके कारण कुछ पूजाएँ अन्धविश्वास से जुड़ गई।
अब मैं आपका ध्यान पहले पहलु की तरफ़ खेंचना चाहूँगा। सम्मान जिसको हम आज तक नहीं समझ पाए। हमारे पूर्वजों ने महान अविष्कार करके मानव कल्याण के लिए आयुर्वेद की रचना की थी।इस चिकित्सा प्रणाली का कोई तोड़ नही है।प्रकृति में उस समय जिन औषधिय पौधों, जीव जन्तुओं और पदार्थों को मानव कल्याण के लिए हमारे पूर्वजों ने उपयोगी पाया उनके संरक्षण के लिए उनको कुछ करना था। दूसरी समस्या उनके सामने यह थी कि इन पौधों,जीव-जन्तुओं और पदार्थों को कालान्तर तक कैसे बना कर रखा जाये ताकि ये संसार से लुप्त ना हों।
इसलिए उन महान ज्ञानियों ने समाज के सामने एक आदर्श रखा कि सारी वैदिक सभ्यता उन दुर्लभ पौधों,जीव-जन्तुओं और पदार्थों को सम्मान देगी अर्थात पूजा किया करेगी।ताकि वे कालान्तर तक प्रकृति में बने रहें। उसी समय से भारतवर्ष में तुलसी,पीपल,गऊ माता,अन्न देवता,सूर्य नमस्कार,वैष्णवी,नीम,अमृत बेल, जल देवता,अग्नि देवता,सान्ड देवता,गरुड़ देवता,सरस्वती आदि को सम्मान देने की प्रथा शुरु हुई है।यानि के पूजा करने की प्रथा शुरु हुई। और इनको तभी से लोग बहुत ज्यादा प्रेम करने लगे। घरों के ज्यादा से ज्यादा नजदीक रखने लगे। इस पूजा नाम के यन्त्र के कारण ही आज का सभ्य कहा जाने वाला समाज इन सभी पौधों,जीव-जन्तुओं और पदार्थों को जानता पहचानता है।
लेकिन महत्वता नहीं जानता है।इन सभी के पीछे विज्ञान के रुप में आयुर्वेद छिपा है।मैं एक –एक करके कड़ी खोलता हूँ-----
(तुलसी)------तुलसी के पत्ते खाने से कभी भी आपको जुकाम और बुखार नहीं आयेगा। इसके खाने से हमारी प्रतिरोधक शक्ति बढ़ती है और हमारे वातावरण में इसकी सुगन्ध फ़ैली रह्ती है जिसके कारण हमारा हवामान शुद्ध बना रहता है।
(नीम)-------आज के विज्ञान ने भी ये मान लिया है कि नीम जैसा गुणकारी पौधा हर आँगन में होना चाहिये। नीम के पेड़ से कुनीन नाम की दवा बनाई जाती है जो मलेरिया बुखार को दूर करती है।इसकी दान्तुन से दाँतों के रोग दूर होते हैं,इसके धूएँ से मच्छर भागते हैं। अनेक औषधियाँ बनाने के काम में इस पेड़ का हर हिस्सा काम में आता है।
(अन्न देवता)-------अन्न का महत्व हमें जब समझ आता है जब हम भूखे होते हैं। हमारे पूर्वज इसका महत्व जानते थे कि अगर अन्न का दाना-दाना सदुपयोग होगा तो ही कोई भूखा नहीं सोयेगा। इसलिए उन्होंने इसके सम्मान के लिए इसे अन्न देवता की संज्ञा दी।क्या गलत किया ?
(पीपल)---------पीपल एक ऐसा पेड़ है जिसको विज्ञान सिद्ध कर चुकी है कि ये पौधा रात को भी आक्सीजन छोड़ता है जबकि बाकी सभी पेड़ रात को कार्बनडाइक्साईड छोड़ते हैं।ये पेड़ हमारे पूर्वजों के प्रयास के कारण से केवल भारत में ही ज्यादा मात्रा में पाया जाता है। अब आप समझ गये होंगे कि इसको सम्मान(पूजा)देना कितना अनिवार्य था।
(जल देवता)-------आप के ज्ञान के लिए बता दूँ कि आज के हालात के अनुसार भारत की राजधानी दिल्ली में कुछ इलाके ऐसे हैं जिनमें एक परिवार का एक सप्ताह का पानी का खर्चा 700 रुपए है। जल की कितनी महत्वता है भारत के कई इलाके महाराष्ट्र,राजस्थान आदि अच्छी तरह से समझते हैं। हमारे पूर्वजों ने इसे जल देवता का सम्मान इस लिए दिया कि लोग इसकी महता को समझें और जल का इतना आदर करें कि इसका दुरूपयोग ना हो। आज की सरकारें भी समझ चुकी हैं और नारे दिये हैं ------जल ही जीवन है। जल बचाओ।
(सूर्य नमस्कार)------------हमारे पूर्वज व्यायाम और योग का महत्व जानते थे। उनके नितय कर्मों में इनको स्थान मिला हुआ था। पर सामने एक प्रशन था कि लोगों को कालान्तर तक कैसे योग और व्यायाम से जोड़ कर रखा जाए। इसलिए सूर्य को देवता का सम्मान देकर इसकी पूजा के माध्यम के रुप में सूर्य नमस्कार को अपनाने के लिए कहा गया ताकि लोग रोज सुभह व्यायाम भी कर लें और दूसरा सूर्य की किरणों से विटामिन डी की प्राप्ति भी कर लें।
(गौ माता)-------आज का वैज्ञानिक भी सिद्ध कर चुका है कि माता के बाद सबसे उत्तम आहार कोई है तो नवजात शिशु के लिए वो है गाय का दूध। हमारे ज्ञानी पूर्वज जानते थे कि इस पशु में महान गुण हैं। जो लोग गाय पालते हैं वो जान जाते हैं कि गाय और भैंस में क्या अन्तर है,दूध तो दोनों देती हैं लेकिन गाय शिखर दोपहरी में भी कभी छाया का सहारा नहीं लेती है और कभी भैंस की तरह गोबर या गीले में नहीं बैठती है।इसके मूत्र को औषधि के रुप में प्रयोग किया जाता है।इसका दूध अमृत के समान है।इसके दूध और घी में कलस्ट्रोल नहीं होता है जबकि भैंस के दूध और घी में बहुत अधिक होता है,गाय का घी औषधि है।क्या अभी भी इसे माता कहना अच्छा नहीं लगेगा।
(वैष्णों माता)---------इस माता की पूजा करने का महत्व तो इसके नाम में ही छुपा है। हमारे पूर्वजों ने वैष्णवी भोजन को प्राथमिकता दी ताके लोग माँसाहार की तरफ़ ज्यादा आकर्षित ना हो सकें और प्राणी मात्र की रक्षा की जा सके ।वनों में रहने वाले जीव-जन्तुओं को लम्बे समय तक बचाकर रखा जा सके और मनुष्य का भोजन का तरीका शाकाहारी रह जाये।इस माता की पूजा में शाकाहारी भोजन को बहुत महत्व दिया जाता है। भारतवर्ष ही एक ऐसा अकेला देश है जिसने भोजन के अनेक स्वादिष्ट व्यंजन अविष्कार किये। पूरे यूरोप में आज तक भी रोटी कैसे बनाई जाती है नहीं पता है।
अब आप समझ गये होंगे कि हमारे महाज्ञानी पूर्वज कितने महान थे और उन्होंने हमारे लिए क्या किया है और पूरी धरती के लिए उनका क्या योगदान रहा है। आप कोई भी भारतीय पूजा को आप अच्छी तरह समझेंगे तो उसके पीछे आपको हमारे पूर्वजों का महान विज्ञान और अध्यात्मिक चिन्तन ही मिलेगा। मैं और पहलूओं का भी जिकर कर सकता हूँ लेकिन समझदार को इशारा ही काफ़ी होता है।
आयुर्वेद का दूसरा पहलू योग
मैं पहले ही इस लेख में जिकर कर चुका हूँ कि हमारे पूर्वजों ने हमें वो दिया है जो किसी दूसरी सभ्यता के पास है ही नहीं। हम अक्सर योग को बड़े हल्के में ले लेते हैं जबकि ये वो विधा है जिसकी जरुरत हमें अतिआवश्यक है। हमें योग को समझना होगा और पहचानना होगा तभी हम अपने महान वैदिक धर्म को असली अर्थों में पहचान सकेंगे और गर्व से कह सकेंगे कि हम हिन्दु हैं।सबसे पहले तो मैं बता दूँ कि मैंने पहले हमारे पूर्वजों के द्वारा अपनाई गई दो पद्धतियों का जिकर किया है सम्मान और भक्ति। योग दूसरी पद्धति भक्ति की खोज है ये इश्वरीय ज्ञान है जो हमारे पूर्वजों की हजारों वर्षों की मेहनत का फ़ल है। महॠषि पतन्जलि,पाणीनि और श्री कृष्ण इसके जन्मदाता हैं। योग और आयुर्वेद एक ही सिक्के के दो पहलू हैं।
आज पूरे संसार में अनेक चिकित्सा प्रणालियाँ विद्यमान हैं लेकिन कोई भी प्रणाली ये प्रावधान नहीं करती की आदमी बिमार ही न हो। सब की सब बिमार होने पर इलाज या रोकथाम का प्रबन्ध करती हैं परन्तु केवलमात्र योग ही ऐसा साधन है जो आपको बिमार न होने का प्रबन्ध करता है जो व्यक्ति लगातार योग करता है वह कभी बिमार ही नहीं होता है। हमारे पूर्वजों ने हमें ऐसी विद्या भेंट के रुप में दी है जो किसी दूसरे के पास नहीं है। योग का नितय अभ्यास हमें निरोग बनाता है और अध्यात्मिक शक्ति के साथ हमें स्वस्थ रखता है।
हम सब ये तो जानते हैं कि जो शाकाहारी भोजन हम खाते हैं वो हमें कहाँ से मिलता है? उत्तर आता है कि पौधों से,तब अगर पेड़-पौधों से ही हमारी चिकित्सा हो जाए तो, आप कहेंगे कि अति उत्तम होगा। क्योंकि जो वस्तु हमें पहले ही भाती हो तो वो हमें साईड प्रभाव नहीं करेगी। ऐसा इलाज करता है,हमारा आयुर्वेद।
मुझे लगता है कि अब हमें समझ आ जानी चाहिये और हमें अपने धर्म,संस्कृति पर गर्व करना चाहिये। आज हमें शुद्धिकरण की आवश्यकता आन पड़ी है। आज हमें अपने आप को पहचानने की जरुरत है। ऐसे महान धर्म को जो लोग त्याग कर जा रहे हैं उन्हें चाहिये कि वो उन लोगों को सबक सिखाएँ ,जो इस धर्म को तोड़ने की साजिश में लगातार लगे हुए हैं। हमें दूसरे धर्म के लोंगो से इतना नुकसान नहीं हो रहा है जितना हमें वोट कि गन्दी इन्डियन राजनीति से हो रहा है। हमें इन्डियन बनाया जा रहा है ताकि हम अपनी संस्कृति और धर्म से ज्यादा से ज्यादा दूरी बना सकें। हमें आज शुद्ध अर्थों में भारतीय बनना है।
गर्व के साथ कहना है--------हिन्दु हैं,हिन्दी हैं, हिन्दुस्थानी हैं।
हम वैदिक संस्कृति वाले लोग अपने धर्म को भुलने लगे और अपने पूर्वजों को नकली और न होने की बात तक स्वीकार करने को तैयार होने लगे। बहुत विदेशियों ने इस देश पर आक्रमण किये और धर्म परिवर्तन के पूरे हत्कन्डे अपनाए। बहुत मात्रा में मूल भारतियों का धर्म परिवर्तन भी समय-अमय पर करते रहे।मेरा मानना है कि आज भारतवर्ष में दूसरे धर्म 33% हैं तो इसमें से 30% के पूर्वज वैदिक संस्कृति वाले लोग हैं। केरल व अन्य प्रान्तों में बसने वाले इसाईयों को देखें और सोचें कि क्या इनकी शक्ल किसी अंग्रेज से मिलती है क्योंकि अंग्रेजों के भारत में आने से पहले भारत के लोग इसाई धर्म के बारे में जानते तक नहीं थे। तो उत्तर होगा कि नहीं तो फ़िर ये यूरोप से आए हुए इसाई तो नहीं हैं फ़िर कहाँ से आए? कहीं से नहीं ये हैं मूल भारतीय,इनकी शक्ल भी भारतीय। दूसरा------हरियाणा का मेवात जिला इसका परिपूर्ण उदाहरण है। इन लोगों को ओरंगजेब ने मुस्लमान बनाया था।
लेकिन कुछ बात है कि हस्ती मिटती नहीं हमारी
इस 315 साल के अर्से में हमारा धर्म कमजोर हुआ और साथ-साथ कुछ कुरितियों ने भी इस धर्म में जगह बनाई। इन कुरीतियों को लेकर कई समाजसुधारक भी हमारे देश में अपने समय के अनुसार कार्य करके जाते रहे। जब हम आजाद हुए तो हम पढ़ने-लिखने लगे और अपनी संस्कृति का अध्ययन करने लगे।लेकिन जो सम्पर्क हमारा ज्ञान प्रवाह से टुट गया था उसका खामियाजा तो हमें भुगतना ही था। हमें वेद,पुराण,योग,आयुर्वेद,संस्कृत
काँग्रेस ने हमारे धर्म में जातिप्रथा को बढ़ावा दिया और सीधे ही हमारे संविधान में जातिगत आरक्षण देकर हिन्दु को जातियों में विभाजित ही रखा।पहली कक्षा में जब बच्चे किसी अध्यापक के पास पढ़ने आते हैं तो वे नहीं जानते किस जाति विशेष से सम्बन्ध रखते हैं लेकिन शिक्षक उन्हें पाँचवीं तक आते-आते बता देता है कि आप हरिजन हो बाल्मिकी हो,आप एस सी हो और नाई,धोबी,कुम्हार हो तो आप बी सी हो और आप को जाति के आधार पर आरक्षण मिलेगा और बाकी को नहीं। आप को वर्दी और वजीफ़ा मिलेगा और आप ब्राह्मण हो आप को ये सब कुछ नहीं मिलेगा। इस हत्थकन्डे ने हिन्दु धर्म में घृणा और द्वेष को भरपूर पोषित किया है। परिणामस्वरुप कुछ दलित और हरिजन जातियों को हिन्दु धर्म से घृणा होने लगी। जिसके कारण आज तक धर्मपरिवर्तन चला आ रहा है।बुरी घृणा से इन नेताओं ने जातिवाद को बढ़ावा दिया।जबकि पुराचीन भारत में चार वर्णों का उल्लेख आता है उनका सच्चा अर्थ बिगड़कर रह गया।
उनका अर्थ है कि ब्रह्मिन , क्षत्रिय, वैश्य और शूद्र जातीय भेद नहीं , बल्कि व्यावसायिक भेद थे. कोई जन्म से ब्राह्मिन नहीं होता और कोई जन्म से शूद्र नहीं होता। सिर्फ गुरु , चिकित्सक, वैज्ञानिक और बुद्धिजीव ही ब्राह्मण है . केवल सैनिक और खिलाडी ही क्षत्रिय और केवल व्यवसायी ही वैश्य हैं। हम में से ज्यादातर दूसरो (companies या सरकार ) के लिए काम करके पैसे कमाने वाले शुद्र हैं। और इन वर्णों में कोई किसी से श्रेष्ठ नहीं है।
लेकिन कुछ बात है के हस्ती मिटती नहीं हमारी
वेद,योग,पुराण और आयुर्वेद को हमारे पूर्वजों ने एक महान अविष्कार के रुप में प्रतिस्थापित करके रख छोड़ा था। आप जानते हैं कि तक्षशिला और नालन्दा उस समय के विश्वविद्यालय थे। पूरे विश्व में उस समय कहीं भी शिक्षा नहीं थी तो आप कैसे कह सकते हैं कि आपके पूर्वज अज्ञानी रहे होंगे।या उन्होंने आप को गलत धर्म दिया होगा,गलती आप कर रहे हो और दोष धर्म या पूर्वजों को दे रहे हो।
अब हम मूल विषय पर आते हैं
वैदिक संस्कृति को समझना इतना आसान काम नहीं है अगर होता तो स्वामी रामदेवजी की जरुरत ना पड़तीं। ना आचार्य बालकृष्ण जी की पड़ती। हमारे पूर्वज बड़े ज्ञानी और महान थे।
उन्होंने दो पद्धति विकसित की थी। सम्मान और भक्ति। इन दोनों को समझने में हमने भुल की है। हमने इन दोनों को एक ही समझ लिया है और दोनों के लिए एक माप बनाया।जो कह्लाया पूजा। हमने भक्ति को त्याग दिया और पूजा को अपना लिया क्योंकि भक्ति की अपेक्षा पूजा आसान काम है।परिणामस्वरूप पूजा हमें अन्धविस्वास जैसी प्रतीत होने लगी।
अब आप समझें। हम सभी जानते हैं कि हमारे पूर्वज जब भगवान की प्राप्ति करना चाहते थे तो वो वनों में जाकर ध्यान और समाधि के माध्यम से ये कार्य करते थे।मैं आपको साफ़ कर देना चाहता हूँ कि मैने दो पहलुओं का पहले जिकर किया है सम्मान और भक्ति। जब हमने अनपढ़ता का दौर पार किया तो हम एक बात करते रहे वो थी पूजा। इस पूजा नाम के यन्त्र ने हमें आज तक बचाकर रखा हुआ है। अगर हम पूजा छोड़ देते तो पक्का ह्मारी हस्ती मिट गई होती। लेकिन हमने पूजा नहीं छोड़ी बल्कि जिनकी पूजा पूर्वजों ने कही थी, उनके इलावा की भी पूजा करने लग गए। हमने आजकल मुस्लिम पीरों को भी पूजना शुरू कर दिया है।जिसके कारण कुछ पूजाएँ अन्धविश्वास से जुड़ गई।
अब मैं आपका ध्यान पहले पहलु की तरफ़ खेंचना चाहूँगा। सम्मान जिसको हम आज तक नहीं समझ पाए। हमारे पूर्वजों ने महान अविष्कार करके मानव कल्याण के लिए आयुर्वेद की रचना की थी।इस चिकित्सा प्रणाली का कोई तोड़ नही है।प्रकृति में उस समय जिन औषधिय पौधों, जीव जन्तुओं और पदार्थों को मानव कल्याण के लिए हमारे पूर्वजों ने उपयोगी पाया उनके संरक्षण के लिए उनको कुछ करना था। दूसरी समस्या उनके सामने यह थी कि इन पौधों,जीव-जन्तुओं और पदार्थों को कालान्तर तक कैसे बना कर रखा जाये ताकि ये संसार से लुप्त ना हों।
इसलिए उन महान ज्ञानियों ने समाज के सामने एक आदर्श रखा कि सारी वैदिक सभ्यता उन दुर्लभ पौधों,जीव-जन्तुओं और पदार्थों को सम्मान देगी अर्थात पूजा किया करेगी।ताकि वे कालान्तर तक प्रकृति में बने रहें। उसी समय से भारतवर्ष में तुलसी,पीपल,गऊ माता,अन्न देवता,सूर्य नमस्कार,वैष्णवी,नीम,अमृत बेल, जल देवता,अग्नि देवता,सान्ड देवता,गरुड़ देवता,सरस्वती आदि को सम्मान देने की प्रथा शुरु हुई है।यानि के पूजा करने की प्रथा शुरु हुई। और इनको तभी से लोग बहुत ज्यादा प्रेम करने लगे। घरों के ज्यादा से ज्यादा नजदीक रखने लगे। इस पूजा नाम के यन्त्र के कारण ही आज का सभ्य कहा जाने वाला समाज इन सभी पौधों,जीव-जन्तुओं और पदार्थों को जानता पहचानता है।
लेकिन महत्वता नहीं जानता है।इन सभी के पीछे विज्ञान के रुप में आयुर्वेद छिपा है।मैं एक –एक करके कड़ी खोलता हूँ-----
(तुलसी)------तुलसी के पत्ते खाने से कभी भी आपको जुकाम और बुखार नहीं आयेगा। इसके खाने से हमारी प्रतिरोधक शक्ति बढ़ती है और हमारे वातावरण में इसकी सुगन्ध फ़ैली रह्ती है जिसके कारण हमारा हवामान शुद्ध बना रहता है।
(नीम)-------आज के विज्ञान ने भी ये मान लिया है कि नीम जैसा गुणकारी पौधा हर आँगन में होना चाहिये। नीम के पेड़ से कुनीन नाम की दवा बनाई जाती है जो मलेरिया बुखार को दूर करती है।इसकी दान्तुन से दाँतों के रोग दूर होते हैं,इसके धूएँ से मच्छर भागते हैं। अनेक औषधियाँ बनाने के काम में इस पेड़ का हर हिस्सा काम में आता है।
(अन्न देवता)-------अन्न का महत्व हमें जब समझ आता है जब हम भूखे होते हैं। हमारे पूर्वज इसका महत्व जानते थे कि अगर अन्न का दाना-दाना सदुपयोग होगा तो ही कोई भूखा नहीं सोयेगा। इसलिए उन्होंने इसके सम्मान के लिए इसे अन्न देवता की संज्ञा दी।क्या गलत किया ?
(पीपल)---------पीपल एक ऐसा पेड़ है जिसको विज्ञान सिद्ध कर चुकी है कि ये पौधा रात को भी आक्सीजन छोड़ता है जबकि बाकी सभी पेड़ रात को कार्बनडाइक्साईड छोड़ते हैं।ये पेड़ हमारे पूर्वजों के प्रयास के कारण से केवल भारत में ही ज्यादा मात्रा में पाया जाता है। अब आप समझ गये होंगे कि इसको सम्मान(पूजा)देना कितना अनिवार्य था।
(जल देवता)-------आप के ज्ञान के लिए बता दूँ कि आज के हालात के अनुसार भारत की राजधानी दिल्ली में कुछ इलाके ऐसे हैं जिनमें एक परिवार का एक सप्ताह का पानी का खर्चा 700 रुपए है। जल की कितनी महत्वता है भारत के कई इलाके महाराष्ट्र,राजस्थान आदि अच्छी तरह से समझते हैं। हमारे पूर्वजों ने इसे जल देवता का सम्मान इस लिए दिया कि लोग इसकी महता को समझें और जल का इतना आदर करें कि इसका दुरूपयोग ना हो। आज की सरकारें भी समझ चुकी हैं और नारे दिये हैं ------जल ही जीवन है। जल बचाओ।
(सूर्य नमस्कार)------------हमारे पूर्वज व्यायाम और योग का महत्व जानते थे। उनके नितय कर्मों में इनको स्थान मिला हुआ था। पर सामने एक प्रशन था कि लोगों को कालान्तर तक कैसे योग और व्यायाम से जोड़ कर रखा जाए। इसलिए सूर्य को देवता का सम्मान देकर इसकी पूजा के माध्यम के रुप में सूर्य नमस्कार को अपनाने के लिए कहा गया ताकि लोग रोज सुभह व्यायाम भी कर लें और दूसरा सूर्य की किरणों से विटामिन डी की प्राप्ति भी कर लें।
(गौ माता)-------आज का वैज्ञानिक भी सिद्ध कर चुका है कि माता के बाद सबसे उत्तम आहार कोई है तो नवजात शिशु के लिए वो है गाय का दूध। हमारे ज्ञानी पूर्वज जानते थे कि इस पशु में महान गुण हैं। जो लोग गाय पालते हैं वो जान जाते हैं कि गाय और भैंस में क्या अन्तर है,दूध तो दोनों देती हैं लेकिन गाय शिखर दोपहरी में भी कभी छाया का सहारा नहीं लेती है और कभी भैंस की तरह गोबर या गीले में नहीं बैठती है।इसके मूत्र को औषधि के रुप में प्रयोग किया जाता है।इसका दूध अमृत के समान है।इसके दूध और घी में कलस्ट्रोल नहीं होता है जबकि भैंस के दूध और घी में बहुत अधिक होता है,गाय का घी औषधि है।क्या अभी भी इसे माता कहना अच्छा नहीं लगेगा।
(वैष्णों माता)---------इस माता की पूजा करने का महत्व तो इसके नाम में ही छुपा है। हमारे पूर्वजों ने वैष्णवी भोजन को प्राथमिकता दी ताके लोग माँसाहार की तरफ़ ज्यादा आकर्षित ना हो सकें और प्राणी मात्र की रक्षा की जा सके ।वनों में रहने वाले जीव-जन्तुओं को लम्बे समय तक बचाकर रखा जा सके और मनुष्य का भोजन का तरीका शाकाहारी रह जाये।इस माता की पूजा में शाकाहारी भोजन को बहुत महत्व दिया जाता है। भारतवर्ष ही एक ऐसा अकेला देश है जिसने भोजन के अनेक स्वादिष्ट व्यंजन अविष्कार किये। पूरे यूरोप में आज तक भी रोटी कैसे बनाई जाती है नहीं पता है।
अब आप समझ गये होंगे कि हमारे महाज्ञानी पूर्वज कितने महान थे और उन्होंने हमारे लिए क्या किया है और पूरी धरती के लिए उनका क्या योगदान रहा है। आप कोई भी भारतीय पूजा को आप अच्छी तरह समझेंगे तो उसके पीछे आपको हमारे पूर्वजों का महान विज्ञान और अध्यात्मिक चिन्तन ही मिलेगा। मैं और पहलूओं का भी जिकर कर सकता हूँ लेकिन समझदार को इशारा ही काफ़ी होता है।
आयुर्वेद का दूसरा पहलू योग
मैं पहले ही इस लेख में जिकर कर चुका हूँ कि हमारे पूर्वजों ने हमें वो दिया है जो किसी दूसरी सभ्यता के पास है ही नहीं। हम अक्सर योग को बड़े हल्के में ले लेते हैं जबकि ये वो विधा है जिसकी जरुरत हमें अतिआवश्यक है। हमें योग को समझना होगा और पहचानना होगा तभी हम अपने महान वैदिक धर्म को असली अर्थों में पहचान सकेंगे और गर्व से कह सकेंगे कि हम हिन्दु हैं।सबसे पहले तो मैं बता दूँ कि मैंने पहले हमारे पूर्वजों के द्वारा अपनाई गई दो पद्धतियों का जिकर किया है सम्मान और भक्ति। योग दूसरी पद्धति भक्ति की खोज है ये इश्वरीय ज्ञान है जो हमारे पूर्वजों की हजारों वर्षों की मेहनत का फ़ल है। महॠषि पतन्जलि,पाणीनि और श्री कृष्ण इसके जन्मदाता हैं। योग और आयुर्वेद एक ही सिक्के के दो पहलू हैं।
आज पूरे संसार में अनेक चिकित्सा प्रणालियाँ विद्यमान हैं लेकिन कोई भी प्रणाली ये प्रावधान नहीं करती की आदमी बिमार ही न हो। सब की सब बिमार होने पर इलाज या रोकथाम का प्रबन्ध करती हैं परन्तु केवलमात्र योग ही ऐसा साधन है जो आपको बिमार न होने का प्रबन्ध करता है जो व्यक्ति लगातार योग करता है वह कभी बिमार ही नहीं होता है। हमारे पूर्वजों ने हमें ऐसी विद्या भेंट के रुप में दी है जो किसी दूसरे के पास नहीं है। योग का नितय अभ्यास हमें निरोग बनाता है और अध्यात्मिक शक्ति के साथ हमें स्वस्थ रखता है।
हम सब ये तो जानते हैं कि जो शाकाहारी भोजन हम खाते हैं वो हमें कहाँ से मिलता है? उत्तर आता है कि पौधों से,तब अगर पेड़-पौधों से ही हमारी चिकित्सा हो जाए तो, आप कहेंगे कि अति उत्तम होगा। क्योंकि जो वस्तु हमें पहले ही भाती हो तो वो हमें साईड प्रभाव नहीं करेगी। ऐसा इलाज करता है,हमारा आयुर्वेद।
मुझे लगता है कि अब हमें समझ आ जानी चाहिये और हमें अपने धर्म,संस्कृति पर गर्व करना चाहिये। आज हमें शुद्धिकरण की आवश्यकता आन पड़ी है। आज हमें अपने आप को पहचानने की जरुरत है। ऐसे महान धर्म को जो लोग त्याग कर जा रहे हैं उन्हें चाहिये कि वो उन लोगों को सबक सिखाएँ ,जो इस धर्म को तोड़ने की साजिश में लगातार लगे हुए हैं। हमें दूसरे धर्म के लोंगो से इतना नुकसान नहीं हो रहा है जितना हमें वोट कि गन्दी इन्डियन राजनीति से हो रहा है। हमें इन्डियन बनाया जा रहा है ताकि हम अपनी संस्कृति और धर्म से ज्यादा से ज्यादा दूरी बना सकें। हमें आज शुद्ध अर्थों में भारतीय बनना है।
गर्व के साथ कहना है--------हिन्दु हैं,हिन्दी हैं, हिन्दुस्थानी हैं।
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