सूर्यपुत्र कर्ण
सूर्यपुत्र कर्ण, महारथी कर्ण, दानवीर कर्ण, सर्वश्रेष्ठ धनुर्धर कर्ण, राधेय, वसुषेण ऐसे कितने ही नामोँ से पुकारा जाने वाले इस महान यौद्धा के महाभारत के युग मेँ जन्म के साथ ही दुर्भाग्य ने अन्त तक उसका पीछा नहीँ छोड़ा। नियती कदम कदम पर उसके साथ क्रूर खेल खेलती रही। जिस कारण धर्म के पक्ष मेँ खड़े होने वाले इस महारथी को धर्म विरुद्ध युद्ध लड़ने के लिए विवश होना पड़ा। नियती ने कदम कदम पर उसे उस अपराध का दण्ड दिया जो उसने किया ही नहीँ था जिसमेँ उसका कोई कसूर नहीँ था। शायद महाभारत का कोई सबसे वीर, शक्तिशाली तथा कारुणिक पात्र यही है।
कर्ण, जो अपनी दानवीरता के लिए प्रसिद्ध हैं। कर्ण को सूर्यपुत्र भी कहते हैं। कर्ण के जन्म का पूरा वृतांत महाभारत के आदिपर्व में है। यदुवंशी राजा शूरसेन की एक कन्या थी जिसका नाम पृथा था। इस कन्या को शूरसेन ने अपनी बुआ के संतानहीन पुत्र कुंतीभोज को दे दिया। इस प्रकार पृथा कुंती के नाम से प्रसिद्ध हुई। कुंती जब छोटी थी तो ऋषियों की सेवा करने में उसे बड़ा आनन्द आता था। एक बार कुंती ने महर्षि दुर्वासा की बड़ी सेवा की। जिससे प्रसन्न होकर दुर्वासा ने उसे एक मंत्र दिया और कहा कि इस मंत्र से तुम जिस देवता का आवाहन करोगी, उसी की कृपा से तुम्हें पुत्र उत्पन्न होगा। दुर्वासा ऋषि की बात सुनकर कुंती को बड़ा आश्चर्य हुआ।
उसने एकांत में जाकर भगवान सूर्य का आवाहन किया। सूर्यदेव ने आकर तत्काल कुंती को गर्भस्थापन किया, जिससे तेजस्वी कवच व कुंडल पहने एक सर्वांग सुंदर बालक उत्पन्न हुआ। उस समय कुंती कुंवारी थी इसलिए उसने कलंक के भय से उस बालक को छिपाकर नदी में बहा दिया। रथ चलाने वाले अधिरथ ने उसे निकाला और अपनी पत्नी राधा के पास ले जाकर उसे पुत्र बना लिया। उसका नाम वसुषेण रखा गया। यही वसुषेण आगे जाकर कर्ण के नाम से प्रसिद्ध हुआ।
शिशु कर्ण का राधा तथा अधिरथ को मिलना
इस तरह दोष या तो कुंती का था या सूर्य देव का परंतु सारा दंड कर्ण को पूरी जिंदगी भुगतना पड़ा। कुंती अपना माता होने का कर्त्यव नहीँ निभा सकी। सूर्यदेव ने तो फिर भी अपना पिता होने का कर्त्वय निभाया उसे अपने कवच एंवम् कुण्डल प्रदान करके और अपनी छत्रछाया मेँ रखा। परन्तु माता कुंती ने सूर्यदेवता का आवाहन किया जबकि उनको मालूम था कि सूर्यदेव उन्हेँ पुत्र देने को बाध्य होँगे।
मगर कर्ण ने जरुर निभाया !!!!उसने अपना धर्म पालन करने के लिए अपना सब कुछ न्योछावर कर दिया। चाहे इसके लिए उसे प्राणोँ की आहुति देनी पड़ी
अपनी पालनकर्ता माता के नाम पर कर्ण को राधेय के नाम से भी जाना जाता है। अपने जन्म के रहस्योद्घाटन होने और अंग का राजा बनाए जाने के पश्चात भी कर्ण ने सदैव उन्हीं को अपना माता- पिता माना और अपनी मृत्यु तक सभी पुत्र धर्मों निभाया। अंग का राजा बनाए जाने के पश्चात कर्ण का एक नाम अंगराज भी हुआ।
कुमार अवास्था से ही कर्ण की रुचि अपने पिता अधिरथ के समान रथ चलाने कि बजाय युद्धकला में अधिक थी। कर्ण और उसके पिता अधिरथ आचार्य द्रोण से मिले जो उस समय युद्धकला के सर्वश्रेष्ठ आचार्यों में से एक थे। द्रोणाचार्य उस समय कुरु राजकुमारों को शिक्षा दिया करते थे। उन्होने कर्ण को शिक्षा देने से मना कर दिया क्योंकि कर्ण एक सारथी पुत्र था, और द्रोण केवल
क्षत्रियों को ही शिक्षा दिया करते थे। द्रोणाचार्य की असम्मति के उपरान्त कर्ण ने परशुराम से सम्पर्क किया जो कि केवल
ब्राह्मणों को ही शिक्षा दिया करते थे।
कर्ण ने स्वयं को ब्राह्मण बताकर
परशुराम से शिक्षा का आग्रह किया।
परशुराम ने कर्ण का आग्रह स्वीकार
किया और कर्ण को अपने समान
ही युद्धकला और धनुर्विद्या में निष्णात
किया। इस प्रकार कर्ण परशुराम का एक
अत्यन्त परिश्रमी और निपुण शिष्य बना।
क्षत्रियों को ही शिक्षा दिया करते थे। द्रोणाचार्य की असम्मति के उपरान्त कर्ण ने परशुराम से सम्पर्क किया जो कि केवल
ब्राह्मणों को ही शिक्षा दिया करते थे।
कर्ण ने स्वयं को ब्राह्मण बताकर
परशुराम से शिक्षा का आग्रह किया।
परशुराम ने कर्ण का आग्रह स्वीकार
किया और कर्ण को अपने समान
ही युद्धकला और धनुर्विद्या में निष्णात
किया। इस प्रकार कर्ण परशुराम का एक
अत्यन्त परिश्रमी और निपुण शिष्य बना।
कर्ण को उसके गुरु परशुराम से श्राप मिला था। कर्ण की शिक्षा अपने अन्तिम चरण पर थी। एक दोपहर की बात है, गुरु परशुराम कर्ण की जंघा पर सिर रखकर विश्राम कर रहे थे। कुछ देर बाद कहीं से एक बिच्छू आया और उसकी दूसरी जंघा पर काट कर घाव बनाने लगा। गुरु का विश्राम भंग ना हो इसलिए कर्ण बिच्छू को दूर ना हटाकर उसके डंक को सहता रहा। कुछ देर में गुरुजी की निद्रा टूटी, और उन्होनें देखा की कर्ण की जांघ से बहुत रक्त बह रहा है। उन्होनें कहा कि केवल किसी क्षत्रिय में ही इतनी सहनशीलता हो सकती है कि वह बिच्छु डंक को सह ले,
ना कि किसी ब्राह्मण में, और
परशुरामजी ने उसे मिथ्या भाषण के कारण श्राप दिया कि जब भी कर्ण को उनकी दी हुई शिक्षा की सर्वाधिक आवश्यकता होगी, उस दिन वह उसके काम
नहीं आएगी। कर्ण, जो कि स्वयं यह नहीं जानता था कि वह किस वंश से है, ने अपने गुरु से क्षमा माँगी और कहा कि उसके स्थान पर यदि कोई और शिष्य भी होता तो वो भी यही करता।
यद्यपि कर्ण को क्रोधवश श्राप देने पर उन्हें ग्लानि हुई पर वे अपना श्राप वापस नहीं ले सकते थे। तब उन्होनें कर्ण को अपना विजय नामक धनुष प्रदान किया और उसे ये आशीर्वाद दिया कि उसे वह वस्तु मिलेगी जिसे वह सर्वाधिक चाहता है - अमिट प्रसिद्धि। कुछ लोककथाओं में माना जाता है कि बिच्छू के रुप में स्वयं इन्द्र थे, जो उसकी वास्तविक क्षत्रिय पहचान को उजागर करना चाहते थे।
ना कि किसी ब्राह्मण में, और
परशुरामजी ने उसे मिथ्या भाषण के कारण श्राप दिया कि जब भी कर्ण को उनकी दी हुई शिक्षा की सर्वाधिक आवश्यकता होगी, उस दिन वह उसके काम
नहीं आएगी। कर्ण, जो कि स्वयं यह नहीं जानता था कि वह किस वंश से है, ने अपने गुरु से क्षमा माँगी और कहा कि उसके स्थान पर यदि कोई और शिष्य भी होता तो वो भी यही करता।
यद्यपि कर्ण को क्रोधवश श्राप देने पर उन्हें ग्लानि हुई पर वे अपना श्राप वापस नहीं ले सकते थे। तब उन्होनें कर्ण को अपना विजय नामक धनुष प्रदान किया और उसे ये आशीर्वाद दिया कि उसे वह वस्तु मिलेगी जिसे वह सर्वाधिक चाहता है - अमिट प्रसिद्धि। कुछ लोककथाओं में माना जाता है कि बिच्छू के रुप में स्वयं इन्द्र थे, जो उसकी वास्तविक क्षत्रिय पहचान को उजागर करना चाहते थे।
भार्गव परशुराम जी
परशुरामजी के आश्रम से जाने के पश्चात, कर्ण कुछ समय तक भटकता रहा। इस दौरान वह शब्दभेदी विद्या सीख रहा था। अभ्यास के दौरान उसने एक गाय के बछड़े को कोई वनीय पशु समझ लिया और उस पर शब्दभेदी बाण चला दिया और बछड़ा मारा गया। तब उस गाय के स्वामी ब्राह्मण ने कर्ण को श्राप दिया कि जिस प्रकार उसने एक असहाय पशु को मारा है, वैसे ही एक दिन वह भी मारा जाएगा जब वह सबसे अधिक असहाय होगा और जब उसका सारा ध्यान अपने शत्रु से कहीं अलग किसी और काम पर
होगा ओर तुम्हारे रथ को भी धरती पकड़ लेगी।
होगा ओर तुम्हारे रथ को भी धरती पकड़ लेगी।
इस प्रकार, कर्ण को दो पृथक अवसरों पर तीन श्राप मिले। दुर्भाग्य से ये तीनों ही श्राप कुरुक्षेत्र के निर्णायक युद्ध में फलीभूत हुए, जब वह युद्ध में अस्त्र विहीन, रथ विहीन, और असहाय हो गया था।
हस्तिनापुर नगरी में पांडव तथा कौरव राजकुमारों की धनुर्विद्या के कौशल का प्रदर्शन आयोजित किया गया था । राजकुमारों की शिक्षा अभी हाल ही में पूरी हुयी थी । जब कर्ण को यह खबर मिली तब वे
राजकुमारों की धनुर्विद्या का कौशल देखने के लिये हस्तिनापुर नगरी आये । हस्तिनापुर के बाहर एक बहुत
बड़ा मैदान था । वहां सारी व्यवस्था थी । मैदान के बीच
एक विशाल घेरा बना था । शेष मैदान दर्शकों से खचाखच भरा था। राजपरिवार के सदस्य भी मैदान में उपस्थित थे ।
राजकुमारों की कला का प्रदर्शन शुरू हुआ। राजकुमारों ने घुड़सवारी, तलवारबाजी तथा रथ चलाने के अद्भुत कारनामें दिखाये । हाथी पर बैठकर युद्ध कैसे करते हैं, यह भी उन्होंने दिखाया।सबसे पहले भीम एवं
दुर्योधन में गदा युद्ध हुआ।
दोनों ही पराक्रमी थे। एक लम्बे
अन्तराल तक दोनों के मध्य गदा युद्ध
होता रहा किन्तु हार-जीत का फैसला न
हो पाया। अन्त में गुरु द्रोण का संकेत
पाकर अश्वत्थामा ने दोनों को अलग कर
दिया।
गदा युद्ध के पश्चात् अर्जुन
अपनी धनुर्विद्या का प्रदर्शन करने के लिये आये। उन्होंने सबसे पहले आग्नेयास्त्र चला कर भयंकर अग्नि उत्पन्न किया फिर वरुणास्त्र चला कर जल की वर्षा की जिससे प्रज्वलित अग्नि का शमन हो गया। इसके पश्चात् उन्होंने वायु-अस्त्र चला कर आँधी उत्पन्न किया तथा पार्जन्यास्त्र से बादल उत्पन्न कर के दिखाया। यही नहीं अन्तर्ध्यान-अस्त्र चलाया और वहाँ पर उपस्थित लोगों की दृष्टि से अदृश्य हो कर सभी को आश्चर्य में डाल दिया। भारी बाणों का प्रयोग देखकर तो लोगों ने दांतों तले अंगुली दबा ली । वे यह कहते हुये उसकी प्रशंसा करने लगे कि ’’अर्जुन धनुर्विद्या में सर्वश्रेष्ठ एवं
अद्वितीय है ।‘‘ पार्थ ! गर्व मत करो: उसी समय दरवाजे के निकट कठोर ध्वनि सुनाई दी। लोग मुड़कर देखने लगे। एक युवक आगे बढ़ता चला आ रहा था। उसका तेज, उसका बलिष्ठ शरीर, लंबाई, चमकदार कवच तथा कुंडल देखकर लोग स्तंभित रह गये । मैदान में उपस्थित दर्शक कानाफूसी करने लगे । यह युवक कर्ण थे। वह मैदान में बने गोलाकार स्थल पर आये
तथा अर्जुन की ओर मुड़कर कहने लगे:- ’’पार्थ ! तुम यह मत
सोचो कि धनुर्विद्या में तुमसे श्रेष्ठ और कोई नहीं है । मैं धनुर्विद्या में तुमसे कहीं बहुत अधिक श्रेष्ठ कला का प्रदर्शन कर दिखाता हूं ।‘‘ इतना कहकर कर्ण ने अपनी कला का प्रदर्शन किया। उन्होंने ’पर्जन्य‘ अस्त्र आकाश में छोड़ा और वर्षा होने लगी। ’वायव्य‘ का प्रयोग कर कर्ण ने वर्षा बंद करवा दी। ’आग्नेय‘ अस्त्र छोड़कर उन्होंने
अग्नि उत्पन्न की तथा ’वरुण‘ से उसे बुझा भी दिया । धातु के बने तेजी से घूमते हुये सूअर के मुंह में उन्होंने पांच बाण छोड़े। इसके बाद अंतर्धान हथियार का प्रयोग कर कर्ण अदृश्य हो गये । पलक झपकते ही वे गोलाकर के दूसरे भाग में दिखाई दिये। फिर गदा हाथ में लेकर, वे उसे चलाने लगे। गदायुद्ध का भी प्रदर्शन उन्होंने किया । जनता शस्त्र-कला में कर्ण की निपुणता देखकर दंग रह गयी। प्रदर्शन खत्म होते ही दुर्योधन ने कर्ण को अपने बाहुपाश में लिया तथा कहने लगा, ’’हे अद्वितीय योद्धा ! तुम्हारे साहस और शस्त्र-कला से मैं अत्यंत प्रसन्न हुआ हूं । मैं तथा मेरा राज्य तुम्हारा है । जो चाहो, मांग सकते हो। मैं तुम्हारी इच्छा तुरंत पूरी कर दूंगा।‘‘
कर्ण ने कहा, ’’महाराज, मुझे कुछ
नहीं चाहिये । मैं सिर्फ आपकी मित्रता और अर्जुन से धनुर्विद्या में मुकाबला करना चाहता हूं।‘‘ दुर्योधन ने कहा ’’तुम्हारी दोनों इच्छायें पूरी होंगी । आज से तुम मेरे घनिष्ट मित्र हुये। तुम मेरे बराबर हो । अब मुझे भविष्य में किसी से डरने की कोई जरूरत नहीं ।‘‘ अर्जुन निकट ही खड़े थे। इन सब बातों से वे उत्तेजित हो गये । उन्होंने कहा, ’’कर्ण ! हमने तुम्हें निमंत्रित नहीं किया था लेकिन फिर भी तुम आये ।
हमने तुमसे बोलने के लिये नहीं कहा था, लेकिन तुम बहुत अधिक बोल रहे हो । तुमने एक शांत सभा में बाधा पहुंचाई है। मैं तुरंत तुम्हें मार डालूंगा । हथियार संभालो और युद्ध के लिये तैयार हो जाओ।‘‘ अर्जुन की बातें सुनकर कर्ण क्रोधित हो उठे । उन्होंने कहा, ’’अर्जुन, यह क्षेत्र तुम्हारे लिये ही सुरक्षित नहीं है। यह एक सार्वजनिक स्थल है । जिस किसी को धनुर्विद्या आती हो, वह यहां आकर उसका प्रदर्शन कर सकता है । तुम्हें क्या आपत्ति है ? तुम मेरा अपमान कर रहे हो । क्या एक सच्चा योद्धा इस तरह की बातें बोलता है ? आओ, युद्ध करो। मैं अभी यहां, इसी क्षण तुम्हें अपने बाणों का शिकार बना दूंगा।‘‘
कर्ण और अर्जुन युद्ध के लिये तैयार हो गये। राजकुमारों के गुरू द्रोणाचार्य को इस लड़ाई की सहमति देनी पड़ी । मैदान में बैठे दर्शकों में तरह-तरह की बातें होने लगी । पांडवों की माता कुंती अर्जुन और कर्ण के बीच लड़ाई की खबर सुनते ही बेहोश हो गयी । कृपाचार्य द्वंद्वयुद्ध के नियमों को अच्छी तरह जानते थे । वे बीच में गये तथा उन्होंने कर्ण
से कहा, ’’देखो कर्ण, अर्जुन - जिससे तुम युद्ध करना चाहते हो, चंद्रवंश का राजकुमार है। वह राजा पांडू का पुत्र है। अतः उसका मुकाबला करने वाला व्यक्ति सब मामलों में उसके बराबर होना चाहिये । तुम किसके पुत्र हो ? तुम्हारी जाति कौन सी है ? तुम किसके शिष्य हो ? वह सभी जानकारी इस सभा को दो। शर्म तथा दुख से कर्ण का सिर झुक गया उन्होंने सोचा, ’’मैं सारथी का पुत्र हूं। अतः ऐसा लगता है कि मैं नीच जाति का हूं। इसे यह लोग तूल दे रहे हैं कि मैं कौन हूं, इससे क्या फर्क पड़ता है ?‘‘ लेकिन उस समय की परंपरा ही ऐसी थी कि कर्ण कुछपनहीं कर सकते थे । वे मौन खड़े रहे।
राजकुमारों की धनुर्विद्या का कौशल देखने के लिये हस्तिनापुर नगरी आये । हस्तिनापुर के बाहर एक बहुत
बड़ा मैदान था । वहां सारी व्यवस्था थी । मैदान के बीच
एक विशाल घेरा बना था । शेष मैदान दर्शकों से खचाखच भरा था। राजपरिवार के सदस्य भी मैदान में उपस्थित थे ।
राजकुमारों की कला का प्रदर्शन शुरू हुआ। राजकुमारों ने घुड़सवारी, तलवारबाजी तथा रथ चलाने के अद्भुत कारनामें दिखाये । हाथी पर बैठकर युद्ध कैसे करते हैं, यह भी उन्होंने दिखाया।सबसे पहले भीम एवं
दुर्योधन में गदा युद्ध हुआ।
दोनों ही पराक्रमी थे। एक लम्बे
अन्तराल तक दोनों के मध्य गदा युद्ध
होता रहा किन्तु हार-जीत का फैसला न
हो पाया। अन्त में गुरु द्रोण का संकेत
पाकर अश्वत्थामा ने दोनों को अलग कर
दिया।
गदा युद्ध के पश्चात् अर्जुन
अपनी धनुर्विद्या का प्रदर्शन करने के लिये आये। उन्होंने सबसे पहले आग्नेयास्त्र चला कर भयंकर अग्नि उत्पन्न किया फिर वरुणास्त्र चला कर जल की वर्षा की जिससे प्रज्वलित अग्नि का शमन हो गया। इसके पश्चात् उन्होंने वायु-अस्त्र चला कर आँधी उत्पन्न किया तथा पार्जन्यास्त्र से बादल उत्पन्न कर के दिखाया। यही नहीं अन्तर्ध्यान-अस्त्र चलाया और वहाँ पर उपस्थित लोगों की दृष्टि से अदृश्य हो कर सभी को आश्चर्य में डाल दिया। भारी बाणों का प्रयोग देखकर तो लोगों ने दांतों तले अंगुली दबा ली । वे यह कहते हुये उसकी प्रशंसा करने लगे कि ’’अर्जुन धनुर्विद्या में सर्वश्रेष्ठ एवं
अद्वितीय है ।‘‘ पार्थ ! गर्व मत करो: उसी समय दरवाजे के निकट कठोर ध्वनि सुनाई दी। लोग मुड़कर देखने लगे। एक युवक आगे बढ़ता चला आ रहा था। उसका तेज, उसका बलिष्ठ शरीर, लंबाई, चमकदार कवच तथा कुंडल देखकर लोग स्तंभित रह गये । मैदान में उपस्थित दर्शक कानाफूसी करने लगे । यह युवक कर्ण थे। वह मैदान में बने गोलाकार स्थल पर आये
तथा अर्जुन की ओर मुड़कर कहने लगे:- ’’पार्थ ! तुम यह मत
सोचो कि धनुर्विद्या में तुमसे श्रेष्ठ और कोई नहीं है । मैं धनुर्विद्या में तुमसे कहीं बहुत अधिक श्रेष्ठ कला का प्रदर्शन कर दिखाता हूं ।‘‘ इतना कहकर कर्ण ने अपनी कला का प्रदर्शन किया। उन्होंने ’पर्जन्य‘ अस्त्र आकाश में छोड़ा और वर्षा होने लगी। ’वायव्य‘ का प्रयोग कर कर्ण ने वर्षा बंद करवा दी। ’आग्नेय‘ अस्त्र छोड़कर उन्होंने
अग्नि उत्पन्न की तथा ’वरुण‘ से उसे बुझा भी दिया । धातु के बने तेजी से घूमते हुये सूअर के मुंह में उन्होंने पांच बाण छोड़े। इसके बाद अंतर्धान हथियार का प्रयोग कर कर्ण अदृश्य हो गये । पलक झपकते ही वे गोलाकर के दूसरे भाग में दिखाई दिये। फिर गदा हाथ में लेकर, वे उसे चलाने लगे। गदायुद्ध का भी प्रदर्शन उन्होंने किया । जनता शस्त्र-कला में कर्ण की निपुणता देखकर दंग रह गयी। प्रदर्शन खत्म होते ही दुर्योधन ने कर्ण को अपने बाहुपाश में लिया तथा कहने लगा, ’’हे अद्वितीय योद्धा ! तुम्हारे साहस और शस्त्र-कला से मैं अत्यंत प्रसन्न हुआ हूं । मैं तथा मेरा राज्य तुम्हारा है । जो चाहो, मांग सकते हो। मैं तुम्हारी इच्छा तुरंत पूरी कर दूंगा।‘‘
कर्ण ने कहा, ’’महाराज, मुझे कुछ
नहीं चाहिये । मैं सिर्फ आपकी मित्रता और अर्जुन से धनुर्विद्या में मुकाबला करना चाहता हूं।‘‘ दुर्योधन ने कहा ’’तुम्हारी दोनों इच्छायें पूरी होंगी । आज से तुम मेरे घनिष्ट मित्र हुये। तुम मेरे बराबर हो । अब मुझे भविष्य में किसी से डरने की कोई जरूरत नहीं ।‘‘ अर्जुन निकट ही खड़े थे। इन सब बातों से वे उत्तेजित हो गये । उन्होंने कहा, ’’कर्ण ! हमने तुम्हें निमंत्रित नहीं किया था लेकिन फिर भी तुम आये ।
हमने तुमसे बोलने के लिये नहीं कहा था, लेकिन तुम बहुत अधिक बोल रहे हो । तुमने एक शांत सभा में बाधा पहुंचाई है। मैं तुरंत तुम्हें मार डालूंगा । हथियार संभालो और युद्ध के लिये तैयार हो जाओ।‘‘ अर्जुन की बातें सुनकर कर्ण क्रोधित हो उठे । उन्होंने कहा, ’’अर्जुन, यह क्षेत्र तुम्हारे लिये ही सुरक्षित नहीं है। यह एक सार्वजनिक स्थल है । जिस किसी को धनुर्विद्या आती हो, वह यहां आकर उसका प्रदर्शन कर सकता है । तुम्हें क्या आपत्ति है ? तुम मेरा अपमान कर रहे हो । क्या एक सच्चा योद्धा इस तरह की बातें बोलता है ? आओ, युद्ध करो। मैं अभी यहां, इसी क्षण तुम्हें अपने बाणों का शिकार बना दूंगा।‘‘
कर्ण और अर्जुन युद्ध के लिये तैयार हो गये। राजकुमारों के गुरू द्रोणाचार्य को इस लड़ाई की सहमति देनी पड़ी । मैदान में बैठे दर्शकों में तरह-तरह की बातें होने लगी । पांडवों की माता कुंती अर्जुन और कर्ण के बीच लड़ाई की खबर सुनते ही बेहोश हो गयी । कृपाचार्य द्वंद्वयुद्ध के नियमों को अच्छी तरह जानते थे । वे बीच में गये तथा उन्होंने कर्ण
से कहा, ’’देखो कर्ण, अर्जुन - जिससे तुम युद्ध करना चाहते हो, चंद्रवंश का राजकुमार है। वह राजा पांडू का पुत्र है। अतः उसका मुकाबला करने वाला व्यक्ति सब मामलों में उसके बराबर होना चाहिये । तुम किसके पुत्र हो ? तुम्हारी जाति कौन सी है ? तुम किसके शिष्य हो ? वह सभी जानकारी इस सभा को दो। शर्म तथा दुख से कर्ण का सिर झुक गया उन्होंने सोचा, ’’मैं सारथी का पुत्र हूं। अतः ऐसा लगता है कि मैं नीच जाति का हूं। इसे यह लोग तूल दे रहे हैं कि मैं कौन हूं, इससे क्या फर्क पड़ता है ?‘‘ लेकिन उस समय की परंपरा ही ऐसी थी कि कर्ण कुछपनहीं कर सकते थे । वे मौन खड़े रहे।
जब दुर्योधन ने यह देखा, तब वह क्रोधित होकर कहने लगा, ’’कृपाचार्य, आप क्या कह रहे हैं? आप सोचते हैं कि अर्जुन राजकुमार है, कर्ण नहीं ? तब ठीक है । मैं अभी इसी क्षण कर्ण को राजा बनाता हूं। तब वह अर्जुन को चुनौती दे सकता है? कहिये ?‘‘ इतना कहकर दुर्योधन ने कर्ण को वहीं पर अंग प्रदेश का राजा बना दिया । जनता ने एक स्वर में उसे अपनी सहमति प्रदान की। कर्ण ने कृतज्ञता प्रकट करते हुये दुर्योधन से कहा,’’राजकुमार मैं आपके इस अहसान को कैसे चुका सकता हूं? दुर्योधन ने कहा, ’’कर्ण, मैं तुम्हारी दोस्ती की कदर करता हूं। यह हमेशा बनी रहे ।‘‘ इतना कहकर दुर्योधन ने कर्ण को गले लगा लिया। अर्जुन और कर्ण युद्ध शुरू ही करने वाले थे कि अधीरथ वहां आ पहुंचे। उन्होंने कुछ क्षण पूर्व ही अपने पुत्र के राजा बनने की खबर सुनी थी । कर्ण अपने पिता के पास गये तथा उन्हें नमन किया। अधीरथ ने अपने पुत्र को बाहों में भरकर आशीर्वाद देते हुये कहा,’’बेटा,
तुम्हारी कीर्ति बढ़ती रहे।" भीम,
जो यह देख रहे थे, समझ गये कि कर्ण अधीरथ के पुत्र हैं ।
भीम ने गर्जना करते हुये कहा, ’’हे कर्ण क्या तुम सारथी अधीरथ के पुत्र नहीं हो? तब तुम चंद्रवंशी अर्जुन की बराबरी कैसे कर सकते हो? पवित्र अग्नि के पास खड़े होने से ही क्या एक
कुत्ता पवित्र प्रसाद प्राप्त करने का अधिकार पा सकता है । तुम अंग प्रांत के राजा बनने के योग्य नहीं हो । तुम तो युद्ध में अर्जुन के हाथों मारे जाने के योग्य भी नहीं हो ।‘‘ जब दुर्योधन ने यह सुना तो वह उत्तेजित हो गया। वह भीम की तरफ मुड़कर चीखा, ’’तुम्हारी वाणी एक क्षत्रिय के योग्य नहीं है । क्षत्रिय साहस को ज्यादा महत्व देता है । कर्ण की जाति की तुलना उसकी वीरता से करना कहां तक ठीक है? इंद्र का शक्तिशाली हथियार वज्रायुध महर्षि दधीचि की हड्डियों से बना था। द्रोणाचार्य एक पवित्र कुंभ में जन्में थे। कहा जाता है कि महर्षि कृपाचार्य का जन्म पवित्र दूब से हुआ था। तब जन्म का सवाल ही कहां है ? कर्ण पवित्र कुंडल कवच के साथ पैदा हुये हैं । वे सूर्य की तरह तेजस्वी हैं । ऐसा व्यक्ति अंग राज्य का राजा बनने योग्य क्यों नहीं है? यदि किसी को कर्ण का राज्याभिषेक मंजूर न हो, तो वह कर्ण से युद्ध करे तथा विजयी हो।‘‘
दुर्योधन की घोषणा से जनसमुदाय में हलचल मच गयी । शाम हो चली थी और अंधेरा छाने लगा था । सभा समाप्त हो गयी । लोग कर्ण
की शक्ति की प्रशंसा करते हुये घर लौटे।
तुम्हारी कीर्ति बढ़ती रहे।" भीम,
जो यह देख रहे थे, समझ गये कि कर्ण अधीरथ के पुत्र हैं ।
भीम ने गर्जना करते हुये कहा, ’’हे कर्ण क्या तुम सारथी अधीरथ के पुत्र नहीं हो? तब तुम चंद्रवंशी अर्जुन की बराबरी कैसे कर सकते हो? पवित्र अग्नि के पास खड़े होने से ही क्या एक
कुत्ता पवित्र प्रसाद प्राप्त करने का अधिकार पा सकता है । तुम अंग प्रांत के राजा बनने के योग्य नहीं हो । तुम तो युद्ध में अर्जुन के हाथों मारे जाने के योग्य भी नहीं हो ।‘‘ जब दुर्योधन ने यह सुना तो वह उत्तेजित हो गया। वह भीम की तरफ मुड़कर चीखा, ’’तुम्हारी वाणी एक क्षत्रिय के योग्य नहीं है । क्षत्रिय साहस को ज्यादा महत्व देता है । कर्ण की जाति की तुलना उसकी वीरता से करना कहां तक ठीक है? इंद्र का शक्तिशाली हथियार वज्रायुध महर्षि दधीचि की हड्डियों से बना था। द्रोणाचार्य एक पवित्र कुंभ में जन्में थे। कहा जाता है कि महर्षि कृपाचार्य का जन्म पवित्र दूब से हुआ था। तब जन्म का सवाल ही कहां है ? कर्ण पवित्र कुंडल कवच के साथ पैदा हुये हैं । वे सूर्य की तरह तेजस्वी हैं । ऐसा व्यक्ति अंग राज्य का राजा बनने योग्य क्यों नहीं है? यदि किसी को कर्ण का राज्याभिषेक मंजूर न हो, तो वह कर्ण से युद्ध करे तथा विजयी हो।‘‘
दुर्योधन की घोषणा से जनसमुदाय में हलचल मच गयी । शाम हो चली थी और अंधेरा छाने लगा था । सभा समाप्त हो गयी । लोग कर्ण
की शक्ति की प्रशंसा करते हुये घर लौटे।
इस घटना के बाद महाभारत के कुछ मुख्य सम्बन्ध स्थापित हुए, जैसे दुर्योधन और कर्ण के बीच सुदृढ़ सम्बन्ध बनें, कर्ण और अर्जुन के बीच तीव्र प्रतिद्वन्द्विता, और पाण्डवों तथा कर्ण के बीच वैमनस्य।
यद्यपि वह बाद में दुर्योधन को प्रसन्न करने के लिए द्यूतक्रीड़ा में भागीदारी करता है, लेकिन वह आरम्भ से ही इसके विरुद्ध था। कर्ण शकुनि को पसन्द नहीं करता था, और सदैव दुर्योधन को यही परमर्श देता कि वह अपने शत्रुओं को परास्त करने के लिए अपने युद्ध कौशल और बाहुबल का प्रयोग करे ना कि कुटिल चालों का। जब लाक्षागृह में पाण्डवों को मारने का प्रयास विफल हो जाता है, तब कर्ण दुर्योधन को उसकी कायरता के लिए डाँटता है, और कहता है कि कायरों की सभी चालें विफल ही होती हैं और उसे समझाता है कि उसे एक योद्धा के समान कार्य करना चाहिए और उसे जो कुछ भी प्राप्त करना है, उसे अपनी वीरता द्वारा प्राप्त करे।
चित्रांगद की राजकुमारी से विवाह करने में भी कर्ण ने दुर्योधन
की सहायता की थी। अपने स्वयंवर में उसने दुर्योधन को अस्वीकार कर दिया और तब दुर्योधन उसे बलपूर्वक उठा कर ले गया। तब वहाँ उपस्थित अन्य राजाओं ने उसका पीछा किया, लेकिन कर्ण ने अकेले ही उन सबको परास्त कर दिया। परास्त राजाओं में जरासन्ध, शिशुपाल, दन्तवक्र, शाल्व, और रुक्मी इत्यादि थे। कर्ण की प्रशंसा स्वरूप, जरासन्ध ने कर्ण को मगध का एक भाग दे दिया। भीम ने बाद में श्रीकृष्ण की सहायता से जरासन्ध को परास्त किया लेकिन उससे बहुत पहले कर्ण ने उसे अकेले परास्त किया था। कर्ण ही ने जरासन्ध की इस दुर्बलता को उजागर किया था कि उसकी मृत्यु केवल उसके धड़ को पैरों से चीर कर दो टुकड़ो मे बाँट कर हो सकती है।
कर्ण के बारे मेँ कुछ बातेँ मुझसे छूट गयी थी उन्हेँ अब बताने जा रहा हूँ।
की सहायता की थी। अपने स्वयंवर में उसने दुर्योधन को अस्वीकार कर दिया और तब दुर्योधन उसे बलपूर्वक उठा कर ले गया। तब वहाँ उपस्थित अन्य राजाओं ने उसका पीछा किया, लेकिन कर्ण ने अकेले ही उन सबको परास्त कर दिया। परास्त राजाओं में जरासन्ध, शिशुपाल, दन्तवक्र, शाल्व, और रुक्मी इत्यादि थे। कर्ण की प्रशंसा स्वरूप, जरासन्ध ने कर्ण को मगध का एक भाग दे दिया। भीम ने बाद में श्रीकृष्ण की सहायता से जरासन्ध को परास्त किया लेकिन उससे बहुत पहले कर्ण ने उसे अकेले परास्त किया था। कर्ण ही ने जरासन्ध की इस दुर्बलता को उजागर किया था कि उसकी मृत्यु केवल उसके धड़ को पैरों से चीर कर दो टुकड़ो मे बाँट कर हो सकती है।
कर्ण के बारे मेँ कुछ बातेँ मुझसे छूट गयी थी उन्हेँ अब बताने जा रहा हूँ।
दुर्योधन को किसी ब्राह्मण से ज्ञात हुआ कि वनवासी पांडव अत्यंत दयनीय स्थिति में द्वैतवन में निवास कर रहे हैं, तब उस खल बुद्धि ने उनके सन्मुख अपना वैभव-प्रदर्शन करने की ठानी। दुर्योधन, शकुनी तथा कर्ण अपनी असीम सेना तथा सजी-धजी रानियों के साथ घोष यात्रा के बहाने से द्वैतवन गये। उनकी गउएं वहां चरा करती थीं। गउओं की गणना करने
के उपरांत उन्होंने द्वैतवन के तालाब के पास क्रीड़ा मंडप बनाने के लिए सैनिकों को भेजा। उस दिन युधिष्ठिर द्रौपदी के साथ उसी सरोवर के किनारे सद्यस्क (एक दिन का) राजर्षि यज्ञ का अनुष्ठान कर रहे थे। गंधर्व गण भी गंधर्वियों के साथ इस वन में विहार करते थे। कौरवों के सैनिकों को गंधर्वों ने वहां आने से रोका तो दोनों दलों में ठन गयी। दुर्योधन ने एक गंधव कन्या को अश्लील बात की इसलिए जब कर्ण, दुर्योधन, दुशासन मदिरा के नशे मेँ थे तो गंधर्वों ने कौरवों पर आक्रमण कर दुर्योधन को बंदी बना लिया। वे उनकी रानियों सहित उन्हें गंधर्व लोक ले चले। ऐसे विकट समय में कौरवों के सेनापतिगण युधिष्ठिर की शरण में पहुंचे। भीम के विरोध करने पर भी युधिष्ठिर ने उनकी रक्षा का वचन दिया क्योंकि अपना वंश था। उन्होँने कहा कि चाहे हम भाईयोँ मेँ जितनी कड़वाहट हो पर बाहर वाले को इसका लाभ उठाने नहीँ देँगे। स्त्रियों का अपहरण बहुत बड़ा अपमान है। पांडवों ने शरणागत की रक्षा के निमित्त गंधर्वों से युद्ध किया। गंधर्वराज चित्रसेन ने प्रकट होकर पांडवों को बताया कि उन्हें इन्द्र ने युद्ध के लिए प्रेरित किया था, क्योंकि कौरव अपने वैभव का प्रदर्शन करके पांडवों को कुंठित करना चाहते थे। कर्ण मदिरा के नशे से मुक्ति पाकर अस्त्र शस्त्रोँ से सुस्ज्जित हो जब लौटे तो पाँडव दुर्योधन को पहले ही मुक्त करा चुके थे। इस तरह कर्ण को यहां भी हीनता का शिकार होना पड़ा। दुर्योधन हस्तिनापुर लौट कर आत्महत्या करना चाहता था पर कर्ण ने यह कह कर उसे रोक दिया कि अब दुर्योधन शासक है और अपने शासक की रक्षा करना पाँडवोँ का धर्म था।
के उपरांत उन्होंने द्वैतवन के तालाब के पास क्रीड़ा मंडप बनाने के लिए सैनिकों को भेजा। उस दिन युधिष्ठिर द्रौपदी के साथ उसी सरोवर के किनारे सद्यस्क (एक दिन का) राजर्षि यज्ञ का अनुष्ठान कर रहे थे। गंधर्व गण भी गंधर्वियों के साथ इस वन में विहार करते थे। कौरवों के सैनिकों को गंधर्वों ने वहां आने से रोका तो दोनों दलों में ठन गयी। दुर्योधन ने एक गंधव कन्या को अश्लील बात की इसलिए जब कर्ण, दुर्योधन, दुशासन मदिरा के नशे मेँ थे तो गंधर्वों ने कौरवों पर आक्रमण कर दुर्योधन को बंदी बना लिया। वे उनकी रानियों सहित उन्हें गंधर्व लोक ले चले। ऐसे विकट समय में कौरवों के सेनापतिगण युधिष्ठिर की शरण में पहुंचे। भीम के विरोध करने पर भी युधिष्ठिर ने उनकी रक्षा का वचन दिया क्योंकि अपना वंश था। उन्होँने कहा कि चाहे हम भाईयोँ मेँ जितनी कड़वाहट हो पर बाहर वाले को इसका लाभ उठाने नहीँ देँगे। स्त्रियों का अपहरण बहुत बड़ा अपमान है। पांडवों ने शरणागत की रक्षा के निमित्त गंधर्वों से युद्ध किया। गंधर्वराज चित्रसेन ने प्रकट होकर पांडवों को बताया कि उन्हें इन्द्र ने युद्ध के लिए प्रेरित किया था, क्योंकि कौरव अपने वैभव का प्रदर्शन करके पांडवों को कुंठित करना चाहते थे। कर्ण मदिरा के नशे से मुक्ति पाकर अस्त्र शस्त्रोँ से सुस्ज्जित हो जब लौटे तो पाँडव दुर्योधन को पहले ही मुक्त करा चुके थे। इस तरह कर्ण को यहां भी हीनता का शिकार होना पड़ा। दुर्योधन हस्तिनापुर लौट कर आत्महत्या करना चाहता था पर कर्ण ने यह कह कर उसे रोक दिया कि अब दुर्योधन शासक है और अपने शासक की रक्षा करना पाँडवोँ का धर्म था।
अंगराज बनने के पश्चात कर्ण ने ये घोषणा करी कि दिन के समय जब वह सूर्यदेव की पूजा करता है, उस समय यदि कोई उससे कुछ भी मांगेगा तो वह मना नहीं करेगा और मांगने वाला कभी खाली हाथ नहीं लौटेगा। कर्ण की इसी दानवीरता का महाभारत के युद्ध में इन्द्र और माता कुन्ती ने लाभ उठाया।
महाभारत के युद्ध के बीच में कर्ण के सेनापति बनने से एक दिन पूर्व इन्द्र ने कर्ण से साधु के भेष में उससे उसके कवच-कुण्डल माँग लिए, क्योंकि यदि ये कवच-कुण्डल कर्ण के ही पास रहते तो उसे युद्ध में परास्त कर पाना असम्भव था, और इन्द्र ने अपने पुत्र अर्जुन की सुरक्षा को ध्यान में रखते हुए कर्ण से
इतना बड़ी भिक्षा माँग ली लेकिन दानवीर कर्ण ने साधु भेष में देवराज इन्द्र को भी मना नहीं किया और इन्द्र द्वारा कुछ भी वरदान माँग लेने पर देने के आश्वासन पर भी इन्द्र से ये कहते हुए कि "देने के पश्चात कुछ माँग लेना दान की गरिमा के विरुद्ध है" कुछ नहीं माँगा।
इतना बड़ी भिक्षा माँग ली लेकिन दानवीर कर्ण ने साधु भेष में देवराज इन्द्र को भी मना नहीं किया और इन्द्र द्वारा कुछ भी वरदान माँग लेने पर देने के आश्वासन पर भी इन्द्र से ये कहते हुए कि "देने के पश्चात कुछ माँग लेना दान की गरिमा के विरुद्ध है" कुछ नहीं माँगा।
इसी प्रकार माता कुन्ती को भी दानवीर कर्ण द्वारा यह वचन दिया गया कि इस महायुद्ध में उनके पाँच पुत्र अवश्य जीवित रहेंगे, और वह अर्जुन के अतिरिक्त और किसी पाण्डव का वध नहीं करेगा।
कर्ण, द्रौपदी के स्वयंवर में एक विवाह-प्रस्तावक था। स्वयंवर मेँ मौजूद सभी प्रतिद्वन्दी गाँडीव धनुष को उठाने व प्रत्यंचा चड़ाने मेँ सफल नहीँ हो सके थे। जबकि कर्ण धनुष को मोड़ने और उस पर प्रत्यञ्चा चढ़ा पाने में समर्थ था, उसने बड़ी आसानी से धनुष पर प्रत्यञ्चा चढ़ा ली। पर जैसे ही वह लक्ष्य भेदन के लिए तैयार हुआ, तब श्रीकृष्ण के संकेत पर, द्रौपदी ने कर्ण को यह बोलकर उसे ऐसा करने से रोक दिया कि वह एक सूतपुत्र से विवाह नहीँ करेगी। यह अपमान भी कर्ण तथा दुर्योधन के दिल मेँ बैठ गया तथा द्रौपदी के वस्त्र हरण का कारण बना। पाण्डव भी वहाँ ब्राह्मण के भेष में उपस्थित थे। अन्य राजकुमारों और राजाओं के असफल रहने पर अर्जुन आगे बढ़ा और सफलतापूर्वक मछली की आँख का भेदन किया, और द्रौपदी का हाथ जीत लिया। जब बाद में अर्जुन की पहचान उजागर हुई तो कर्ण की प्रतिद्वन्द्विता की भावना और गहरी हो गई।
द्यूतक्रीड़ा
युधिष्ठर के राजसूय में मय दानव निर्मित फर्श पर दुर्योधन को जल का भ्रम हो गया और जहाँ जल था, वहाँ उसे सूखी भूमि दिखायी पड़ी। जिस कारण वह जल मेँ जा गिरा। जिस पर भीम तथा द्रौपदी ने दुर्योधन का अपमान "अन्धे का पुत्र अन्धा" कहकर किया था। उसकी हँसी उड़ायी। इस अपमान का बदला लेने के लिए दुर्योधन ने द्यूत मेँ द्रौपदी का अपमान किया। कर्ण कभी भी शकुनी की पाण्डवों को छ्ल-कपट से हराने की योजनाओं से सहमत नहीं था। वह सदा ही युद्ध के पक्ष में था और सदैव ही दुर्योधन से युद्ध का ही मार्ग चुनने का आग्रह करता। यद्यपि वह दुर्योधन को प्रसन्न करने के लिए द्यूतक्रीड़ा के खेल में सम्मिलित हुआ, जो बाद में कुख्यात द्रौपदी चीर हरण की घटना में फलीभूत हुआ। जब शकुनी छ्ल-कपट द्वारा द्युत क्रीड़ा में युधिष्ठिर से सबकुछ जीत गया, तो पाण्डवों की पटरानी द्रौपदी को दुःशासन द्वारा घसीट कर राजसभा में लाया गया, और कर्ण के उकसाने पर, दुर्योधन और उसके भाईयों ने द्रौपदी के वस्त्र हरण का प्रयास किया। कर्ण पाण्डवोँ द्वारा तथा द्रौपदी द्वारा अपने अपमान के बदले द्रौपदी का अपमान यह कहकर करता है की जिसके स्त्री का एक से अधिक पति हो वह और कुछ नहीं बल्कि वेश्या होती है।
उसी स्थान पर, भीम द्वारा यह प्रतिज्ञा ली जाती है की वह अकेले ही युद्ध में दुर्योधन और उसके सभी भाईयों का वध करेगा। और फिर अर्जुन, कर्ण का वध करने की प्रतिज्ञा लेता है।
युधिष्ठर के राजसूय में मय दानव निर्मित फर्श पर दुर्योधन को जल का भ्रम हो गया और जहाँ जल था, वहाँ उसे सूखी भूमि दिखायी पड़ी। जिस कारण वह जल मेँ जा गिरा। जिस पर भीम तथा द्रौपदी ने दुर्योधन का अपमान "अन्धे का पुत्र अन्धा" कहकर किया था। उसकी हँसी उड़ायी। इस अपमान का बदला लेने के लिए दुर्योधन ने द्यूत मेँ द्रौपदी का अपमान किया। कर्ण कभी भी शकुनी की पाण्डवों को छ्ल-कपट से हराने की योजनाओं से सहमत नहीं था। वह सदा ही युद्ध के पक्ष में था और सदैव ही दुर्योधन से युद्ध का ही मार्ग चुनने का आग्रह करता। यद्यपि वह दुर्योधन को प्रसन्न करने के लिए द्यूतक्रीड़ा के खेल में सम्मिलित हुआ, जो बाद में कुख्यात द्रौपदी चीर हरण की घटना में फलीभूत हुआ। जब शकुनी छ्ल-कपट द्वारा द्युत क्रीड़ा में युधिष्ठिर से सबकुछ जीत गया, तो पाण्डवों की पटरानी द्रौपदी को दुःशासन द्वारा घसीट कर राजसभा में लाया गया, और कर्ण के उकसाने पर, दुर्योधन और उसके भाईयों ने द्रौपदी के वस्त्र हरण का प्रयास किया। कर्ण पाण्डवोँ द्वारा तथा द्रौपदी द्वारा अपने अपमान के बदले द्रौपदी का अपमान यह कहकर करता है की जिसके स्त्री का एक से अधिक पति हो वह और कुछ नहीं बल्कि वेश्या होती है।
उसी स्थान पर, भीम द्वारा यह प्रतिज्ञा ली जाती है की वह अकेले ही युद्ध में दुर्योधन और उसके सभी भाईयों का वध करेगा। और फिर अर्जुन, कर्ण का वध करने की प्रतिज्ञा लेता है।
पाण्डवों के वनवास के दौरान, दुर्योधन पृथ्वी का सम्राट बनना चाहता था पर भीषम पितामह यह कह कर मना कर देते है कि एक कुल मेँ एक ही सम्राट बन सकता है ओर वह युद्धिष्ठर है वह कर्ण की आलोचना करते है ओर अर्जुन को उससे श्रेष्ठ बताते है। तब आवेश मेँ कर्ण दुर्योधन को पृथ्वी का सम्राट बनाने का कार्य अपने हाथों में लेता है और अकेला ही अपने विजय अभियान की ओर चल पड़ता है। कर्ण द्वारा देशभर में सैन्य अभियान छेड़े गए और उसने राजाओं को परास्त कर उनसे ये वचन लिए की वह हस्तिनापुर महाराज दुर्योधन के प्रति निष्ठावान रहेंगे अन्यथा युद्धों में मारे जाएगें। कर्ण सभी लड़ाईयों में सफल रहा। महाभारत में वर्णन किया गया है की अपने सैन्य अभियानों में कर्ण ने कई युद्ध छेड़े और असंख्य राज्यों और साम्राज्यों को आज्ञापालन के लिए विवश कर दिया जिनमें हैं - कम्बोज, शक, केकय, अवन्तय, गन्धार, माद्र, त्रिगत, तंगन, पांचाल, विदेह, सुह्मस, अंग, वांग, निशाद, कलिंग, वत्स, अशमक, ऋषिक, और बहुत से अन्य जिनमें म्लेच्छ और वनवासी लोग भी हैं।
दानवीरता में कर्ण अद्वितीय थे । अपने वचन पूरे करने में वे प्राणों की आहुति तक देने से नहीं चूकने वाले थे । प्रतिदिन सैकड़ों निर्धन व्यक्ति सहायता की आशा में कर्ण के पास आते थे । कर्ण उन्हें वस्त्र या धन प्रदान करते थे । इसी गुण के कारण कर्ण ’दानवीर‘ कहलाये। कौरव पांडव चचेरे भाई थे । राज्य के लिये उनमें हमेशा विवाद होता रहता था । जब कभी भी दोनों के बीच झगड़ा होता, कर्ण कौरवों में सबसे बड़े दुर्योधन का पक्ष लेते थे। वे हमेशा यह कहा करते कि, ’’दुर्योधन के लिये मैं युद्ध करूंगा । भविष्य में यदि युद्ध हुआ तो मैं दुर्योधन के शत्रुओं का संहार करूंगा । पांडव उसके शत्रु हैं । मैं पांडवों विशेष रूप से उनमें सबसे शक्तिशाली अर्जुन का वध करूंगा ।‘‘ कर्ण के यह वचन सुनकर दुर्योधन प्रसन्न होता था । उसे विश्वास था कि भीष्म पितामह, द्रोणाचार्य तथा अन्य योद्धाओं के साथ छोड़ देने के बाद भी कर्ण उसकी मदद अवश्य करेंगे। जब कभी दुर्योधन पांडवों की ताकत देखकर चिंतित होता, कर्ण उससे कहते,’’कृपया चिंतित मत हो मित्र। हमारे तथा पांडवों के बीच युद्ध भर होने दीजिये तब देखना । मैं उन्हें कुचल दूंगा।‘‘ इन शब्दों से दुर्योधन को राहत मिलती।
कर्ण की दानवीरता का प्रमाण हमेँ कई घटनाओँ से मिलता है एक घटना उन दिनों की है जब महाराज युधिष्ठिर इंद्रप्रस्थ पर राज्य करते थे। राजा होने के नाते वे काफी दान-पुण्य भी करते थे। धीरे-धीरे उनकी प्रसिद्धि दानवीर के रूप में फैलने लगी और पांडवों को इसका अभिमान होने लगा। कहते हैं कि भगवान दर्पहारी होते हैं। अपने भक्तों का अभिमान, तो उन्हें बिल्कुल पसंद नहीं। एक बार श्रीकृष्ण इंद्रप्रस्थ पहुंचे। भीम व अर्जुन ने उनके सामने युधिष्ठिर की प्रशंसा शुरू की। दोनों ने बताया कि वे कितने बड़े दानी हैं।
तब कृष्ण ने उन्हें बीच में ही टोक दिया और कहा, ‘लेकिन हमने कर्ण जैसा दानवीर और नहीं सुना।’ पांडवों को यह बात पसंद नहीं आई। भीम ने पूछ ही लिया, ‘भला वो कैसे?’ कृष्ण ने कहा कि ‘समय आने पर बतलाऊंगा।’ बात आई-गई हो गई।
तब कृष्ण ने उन्हें बीच में ही टोक दिया और कहा, ‘लेकिन हमने कर्ण जैसा दानवीर और नहीं सुना।’ पांडवों को यह बात पसंद नहीं आई। भीम ने पूछ ही लिया, ‘भला वो कैसे?’ कृष्ण ने कहा कि ‘समय आने पर बतलाऊंगा।’ बात आई-गई हो गई।
कुछ
ही दिनों में सावन शुरू हो गए व
वर्षा की झड़ी लग गई। उस समय एक
याचक युधिष्ठिर के पास आया और बोला,
‘महाराज! मैं आपके राज्य में रहने वाला एक
ब्राह्मण हूं।
आज मेरा व्रत है और हवन किए बिना मैं कुछ
भी नहीं खाता-पीता। कई दिनों से मेरे
पास यज्ञ के लिए चंदन की लकड़ी नहीं है।
यदि आपके पास हो तो, कृपा कर मुझे दे दें।
अन्यथा मैं हवन पूरा नहीं कर पाऊंगा और
भूखा-प्यासा मर जाऊंगा।’ युधिष्ठिर ने
तुरंत कोषागार के
कर्मचारी को बुलवाया और कोष से चंदन
की लकड़ी देने का आदेश दिया।
संयोग से कोषागार में
सूखी लकड़ी नहीं थी। तब महाराज ने भीम
व अजरुन को चंदन की लकड़ी का प्रबंध
करने का आदेश दिया। लेकिन काफी दौड़-
धूप के बाद
भी सूखी लकड़ी की व्यवस्था नहीं हो पाई।
तब ब्राह्मण को हताश होते देख कृष्ण ने कहा, ‘मेरे अनुमान से एक स्थान पर आपको लकड़ी मिल सकती है, आइए मेरे साथ।’ ब्राह्मण की आखों में चमक आ गई। भगवान ने अर्जुन व भीम
को भी इशारा किया, वेष बदलकर वे भी ब्राह्मण के संग हो लिए। कृष्ण सबको लेकर कर्ण के महल में गए। सभी ब्राह्मणों के वेष में थे, अत: कर्ण ने उन्हें पहचाना नहीं। याचक ब्राह्मण ने जाकर लकड़ी की अपनी वही मांग दोहराई। कर्ण ने भी अपने भंडार के मुखिया को बुलवाकर सूखी लकड़ी देने के लिए कहा, वहां भी वही उत्तर प्राप्त हुआ।
ब्राह्मण निराश हो गया। अर्जुन-भीम प्रश्न-सूचक निगाहों से भगवान को ताकने लगे। लेकिन वे अपनी चिर-परिचित मुस्कान लिए बैठे रहे। तभी कर्ण ने कहा, ‘हे देवता! आप निराश न हों, एक उपाय है मेरे पास।’ देखते ही देखते कर्ण ने अपने महल के
खिड़की-दरवाज़ों में लगी चंदन
की लकड़ी काट-काट कर ढेर लगा दी, फिर ब्राह्मण से कहा,
‘आपको जितनी लकड़ी चाहिए, कृपया ले जाइए।’ कर्ण ने लकड़ी पहुंचाने के लिए ब्राह्मण के साथ अपना सेवक भी भेज दिया। ब्राह्मण लकड़ी लेकर कर्ण को आशीर्वाद देता हुआ लौट गया। पांडव व श्रीकृष्ण भी लौट आए।
वापस आकर भगवान ने कहा, ‘साधारण अवस्था में दान देना कोई विशेषता नहीं है, असाधारण परिस्थिति में किसी के लिए अपने सर्वस्व को त्याग देने का ही नाम दान है।
अन्यथा चंदन की लकड़ी के खिड़की-द्वार तो आपके महल में भी थे।’ इस घटना का तात्पर्य यह है कि हमें ऐसे कार्य करने चाहिए कि हम उस स्थिति तक
पहुंच जाएं जहां पर स्वाभाविक रूप से जीव भगवान की सेवा करता है। हमें भगवान को देखने
की चेष्टा नहीं करनी चाहिए, बल्कि अपने को ऐसे कार्यो में संलग्न करना चाहिए कि भगवान स्वयं हमें देखें। केवल एक गुण या एक कार्य में अगर हम पूरी निष्ठा से अपने को लगा दें, तो कोई कारण नहीं कि भगवान हम पर प्रसन्न न हों।
कर्ण ने कोई विशेष कार्य नहीं किया, किंतु उसने अपना यह नियम भंग नहीं होने दिया कि उसके द्वार से कोई निराश
नहीं लौटेगा
कौरव तथा पांडव बंधुओं में राज्य के लिये युद्ध की तैयारियां हो गयी । युद्ध रोकने के लिये भगवान श्रीकृष्ण हस्तिनापुर गये। राज-दरबार में उन्होंने दुर्योधन को युद्ध करने को युद्ध न करने की सलाह दी । दुर्योधन ने भगवान कृष्ण की सलाह नहीं मानी । हस्तिनावती से लौटते समय भगवान कृष्ण, कर्ण को अपने साथ रथ में बिठाकर कुछ दूर ले गये । कर्ण संकोच में पड़ गये । वे सोचने लगे कृष्ण एक महान व्यक्ति हैं । मुझ जैसे तुच्छ जातिवाले व्यक्ति की उनसे क्या तुलना ? कृष्ण ने मुझे अपने पास क्यों बिठाया ? कृष्ण ने कर्ण की बेचैनी को समझ लिया और हंसकर कहा । कर्ण तुम्हें संकोच करने की आवश्यकता नहीं है । तुम यह सोचते हो कि तुम एक सारथी के पुत्र हो । यही न् ! तो सुनो, अधीरथ तुम्हारे असली पिता नहीं हैं । तुम कुंती के पुत्र हो । कुंती जब अविवाहित थी, तब उन्होंने तुम्हें जन्म दिया । लोकलाज से डरकर कुंती ने तुम्हें डलिया में लिटाकर गंगा में प्रवाहित कर दिया था । तुम अधीरथ को मिले । कर्ण ! तुम सूर्य की कृपा से पैदा हुये हो । तुम क्षत्रिय हो तथा पांडवों में सबसे बड़े हो । कुंती मेरी बुआ है अतः तुम मेरे भी रिश्तेदार हो । मेरे साथ आओ । मैं तुम्हें पांडवों के पास ले चलता हूं । तुम कौरव तथा पांडव भाइयों में सबसे बड़े हो । तुम्हीं संपूर्ण साम्राज्य के राजा बनोगे ।
पांडवों को भी यह जानकर अत्यंत प्रसन्न्ता होगी कि तुम उनके सबसे बड़े भाई हो । दुर्योधन तथा धर्मराज युधिष्ठिर दोनों ही तुम्हें राजा के रूप में स्वीकार कर लेंगे । तब युद्ध नहीं होगा तथा हजारों निर्दोष व्यक्तियों का खून नहीं बहेगा । तुम एक महान परिवार के सदस्य हो, लेकिन अब तक तुम्हें सारथी पुत्र माना जाता रहा । यह कितने शर्म की बात है । इनता अपमान काफी है । तुम्हें एक राजा की तरह रहना चाहिये तथा कौरवों, पांडवों एवं यादवों को तुम्हारी आज्ञा का पालन करना चाहिये, लेकिन तुम दुर्योधन की दया पर जी रहे हो !‘‘
ही दिनों में सावन शुरू हो गए व
वर्षा की झड़ी लग गई। उस समय एक
याचक युधिष्ठिर के पास आया और बोला,
‘महाराज! मैं आपके राज्य में रहने वाला एक
ब्राह्मण हूं।
आज मेरा व्रत है और हवन किए बिना मैं कुछ
भी नहीं खाता-पीता। कई दिनों से मेरे
पास यज्ञ के लिए चंदन की लकड़ी नहीं है।
यदि आपके पास हो तो, कृपा कर मुझे दे दें।
अन्यथा मैं हवन पूरा नहीं कर पाऊंगा और
भूखा-प्यासा मर जाऊंगा।’ युधिष्ठिर ने
तुरंत कोषागार के
कर्मचारी को बुलवाया और कोष से चंदन
की लकड़ी देने का आदेश दिया।
संयोग से कोषागार में
सूखी लकड़ी नहीं थी। तब महाराज ने भीम
व अजरुन को चंदन की लकड़ी का प्रबंध
करने का आदेश दिया। लेकिन काफी दौड़-
धूप के बाद
भी सूखी लकड़ी की व्यवस्था नहीं हो पाई।
तब ब्राह्मण को हताश होते देख कृष्ण ने कहा, ‘मेरे अनुमान से एक स्थान पर आपको लकड़ी मिल सकती है, आइए मेरे साथ।’ ब्राह्मण की आखों में चमक आ गई। भगवान ने अर्जुन व भीम
को भी इशारा किया, वेष बदलकर वे भी ब्राह्मण के संग हो लिए। कृष्ण सबको लेकर कर्ण के महल में गए। सभी ब्राह्मणों के वेष में थे, अत: कर्ण ने उन्हें पहचाना नहीं। याचक ब्राह्मण ने जाकर लकड़ी की अपनी वही मांग दोहराई। कर्ण ने भी अपने भंडार के मुखिया को बुलवाकर सूखी लकड़ी देने के लिए कहा, वहां भी वही उत्तर प्राप्त हुआ।
ब्राह्मण निराश हो गया। अर्जुन-भीम प्रश्न-सूचक निगाहों से भगवान को ताकने लगे। लेकिन वे अपनी चिर-परिचित मुस्कान लिए बैठे रहे। तभी कर्ण ने कहा, ‘हे देवता! आप निराश न हों, एक उपाय है मेरे पास।’ देखते ही देखते कर्ण ने अपने महल के
खिड़की-दरवाज़ों में लगी चंदन
की लकड़ी काट-काट कर ढेर लगा दी, फिर ब्राह्मण से कहा,
‘आपको जितनी लकड़ी चाहिए, कृपया ले जाइए।’ कर्ण ने लकड़ी पहुंचाने के लिए ब्राह्मण के साथ अपना सेवक भी भेज दिया। ब्राह्मण लकड़ी लेकर कर्ण को आशीर्वाद देता हुआ लौट गया। पांडव व श्रीकृष्ण भी लौट आए।
वापस आकर भगवान ने कहा, ‘साधारण अवस्था में दान देना कोई विशेषता नहीं है, असाधारण परिस्थिति में किसी के लिए अपने सर्वस्व को त्याग देने का ही नाम दान है।
अन्यथा चंदन की लकड़ी के खिड़की-द्वार तो आपके महल में भी थे।’ इस घटना का तात्पर्य यह है कि हमें ऐसे कार्य करने चाहिए कि हम उस स्थिति तक
पहुंच जाएं जहां पर स्वाभाविक रूप से जीव भगवान की सेवा करता है। हमें भगवान को देखने
की चेष्टा नहीं करनी चाहिए, बल्कि अपने को ऐसे कार्यो में संलग्न करना चाहिए कि भगवान स्वयं हमें देखें। केवल एक गुण या एक कार्य में अगर हम पूरी निष्ठा से अपने को लगा दें, तो कोई कारण नहीं कि भगवान हम पर प्रसन्न न हों।
कर्ण ने कोई विशेष कार्य नहीं किया, किंतु उसने अपना यह नियम भंग नहीं होने दिया कि उसके द्वार से कोई निराश
नहीं लौटेगा
कौरव तथा पांडव बंधुओं में राज्य के लिये युद्ध की तैयारियां हो गयी । युद्ध रोकने के लिये भगवान श्रीकृष्ण हस्तिनापुर गये। राज-दरबार में उन्होंने दुर्योधन को युद्ध करने को युद्ध न करने की सलाह दी । दुर्योधन ने भगवान कृष्ण की सलाह नहीं मानी । हस्तिनावती से लौटते समय भगवान कृष्ण, कर्ण को अपने साथ रथ में बिठाकर कुछ दूर ले गये । कर्ण संकोच में पड़ गये । वे सोचने लगे कृष्ण एक महान व्यक्ति हैं । मुझ जैसे तुच्छ जातिवाले व्यक्ति की उनसे क्या तुलना ? कृष्ण ने मुझे अपने पास क्यों बिठाया ? कृष्ण ने कर्ण की बेचैनी को समझ लिया और हंसकर कहा । कर्ण तुम्हें संकोच करने की आवश्यकता नहीं है । तुम यह सोचते हो कि तुम एक सारथी के पुत्र हो । यही न् ! तो सुनो, अधीरथ तुम्हारे असली पिता नहीं हैं । तुम कुंती के पुत्र हो । कुंती जब अविवाहित थी, तब उन्होंने तुम्हें जन्म दिया । लोकलाज से डरकर कुंती ने तुम्हें डलिया में लिटाकर गंगा में प्रवाहित कर दिया था । तुम अधीरथ को मिले । कर्ण ! तुम सूर्य की कृपा से पैदा हुये हो । तुम क्षत्रिय हो तथा पांडवों में सबसे बड़े हो । कुंती मेरी बुआ है अतः तुम मेरे भी रिश्तेदार हो । मेरे साथ आओ । मैं तुम्हें पांडवों के पास ले चलता हूं । तुम कौरव तथा पांडव भाइयों में सबसे बड़े हो । तुम्हीं संपूर्ण साम्राज्य के राजा बनोगे ।
पांडवों को भी यह जानकर अत्यंत प्रसन्न्ता होगी कि तुम उनके सबसे बड़े भाई हो । दुर्योधन तथा धर्मराज युधिष्ठिर दोनों ही तुम्हें राजा के रूप में स्वीकार कर लेंगे । तब युद्ध नहीं होगा तथा हजारों निर्दोष व्यक्तियों का खून नहीं बहेगा । तुम एक महान परिवार के सदस्य हो, लेकिन अब तक तुम्हें सारथी पुत्र माना जाता रहा । यह कितने शर्म की बात है । इनता अपमान काफी है । तुम्हें एक राजा की तरह रहना चाहिये तथा कौरवों, पांडवों एवं यादवों को तुम्हारी आज्ञा का पालन करना चाहिये, लेकिन तुम दुर्योधन की दया पर जी रहे हो !‘‘
भगवान कृष्ण की बातें सुनकर कर्ण आश्चर्यचकित रहे गये । उन्हें प्रसन्नता के साथ-साथ दुख भी हुआ । उनका गला भर आया और वे बोलने में असमर्थ हो गये । भावावेश में उन्होंने कहा,’’कृष्ण आप कहते हैं कि कुंती मेरी माता हैं । यह हो सकता है । लेकिन जन्म देने के तुरंत बाद कुंती ने मुझे त्याग दिया । अधीरथ तथा उनकी पत्नी राधा ने मुझे माता-पिता की तरह पाला पोसा। माता राधा ने मुझे अपना दूध पिलाया। अधीरथ ने मुझे अपने पुत्र से भी बढ़कर प्यार किया । उन्होंने धूमधाम से मेरा विवाह किया । अब मेरे पुत्र तथा पोते भी हैं । आप चाहे मुझे कुछ भी दें पर मैं अपने इन माता-पिता को कैसे छोड़ सकता हूं ? दुर्योधन और मैं दो शरीर एक प्राण हैं । जब सारा संसार मुझे तुच्छ जाति का समझकर मेरा उपहास कर रहा था, दुर्योधन ने तब मुझे सम्मान दिया । मेरे पास कुछ नहीं था । दुर्योधन ने मुझे राजा बना दिया। उसकी मित्रता असीम है । मैं उनका ऋण कैसे भूल सकता हूं ? मुझ पर भरोसा करके ही उन्होंने पांडवों से युद्ध करने की घोषणा की है । क्या मैं पांडवों के साथ मिलकर दुर्योधन के साथ विश्वासघात करूं? नहीं कृष्ण ! दुर्योधन मेरा स्वामी है। मेरे लिये सब कुछ है । मैं उसका साथ दूंगा तथा पांडवों के साथ युद्ध करूंगा। यदि मैं विजयी रहा तो, मुझे अपने स्वामी का काम सफलतापूर्वक करने की प्रसन्नता होगी । यदि मैं मारा गया तो इसे मैं अपना सौभाग्य समझूंगा । मुझे वीरगति मिलेगी । इसीलिये मैं अपने निर्णय पर अडिग हूं । अब हमें एक दूसरे से विदा लेनी चाहिये ।‘‘
कर्ण के वचन सुनकर कृष्ण ने मन ही मन उसकी प्रशंसा की । उन्होंने कहा, ’’कर्ण अपने स्वामी के प्रति तुम्हारी भक्ति अप्रतिम है ।‘‘ इसके बाद उन्होंने कर्ण से विदा ली ।
कर्ण के वचन सुनकर कृष्ण ने मन ही मन उसकी प्रशंसा की । उन्होंने कहा, ’’कर्ण अपने स्वामी के प्रति तुम्हारी भक्ति अप्रतिम है ।‘‘ इसके बाद उन्होंने कर्ण से विदा ली ।
अगले दिन प्रातः काल जब कर्ण
नदी के किनारे खड़े होकर सूर्य
की आराधना कर रहे थे,
उसी समय कुंती वहां आयी। जब कर्ण ने कुंती को देखा तो आदर से प्रणाम किया। कुंती ने कहा, ’’बेटा ! तुम मेरे पुत्र हो। पांडव तुम्हारे छोटे भाई हैं। तुम्हेँ इसका ज्ञान नहीं है । तुम अपने भाइयों को अपना शत्रु समझ रहे हो। तुमने उन्हें मार डालने
की प्रतिज्ञा की है। कृप्या ऐसा मत करना। कौरवों का साथ छोड़ दो। अपने छोटे भाइयों के पास आ जाओ। क्या बच्चों का यह कर्तव्य नहीं है कि वे अपने माता-पिता की इच्छा-पूर्ति करें ?‘‘ बहुत कारुणिक दृश्य है यह कर्ण उन्हे स्वंय को त्यागने के लिए अपना अपराध उनसे पूछते है,
नदी के किनारे खड़े होकर सूर्य
की आराधना कर रहे थे,
उसी समय कुंती वहां आयी। जब कर्ण ने कुंती को देखा तो आदर से प्रणाम किया। कुंती ने कहा, ’’बेटा ! तुम मेरे पुत्र हो। पांडव तुम्हारे छोटे भाई हैं। तुम्हेँ इसका ज्ञान नहीं है । तुम अपने भाइयों को अपना शत्रु समझ रहे हो। तुमने उन्हें मार डालने
की प्रतिज्ञा की है। कृप्या ऐसा मत करना। कौरवों का साथ छोड़ दो। अपने छोटे भाइयों के पास आ जाओ। क्या बच्चों का यह कर्तव्य नहीं है कि वे अपने माता-पिता की इच्छा-पूर्ति करें ?‘‘ बहुत कारुणिक दृश्य है यह कर्ण उन्हे स्वंय को त्यागने के लिए अपना अपराध उनसे पूछते है,
कि क्यूँ उसको जन्म लेते ही गंगा मेँ बहाकर उसके जीवन को अंधकारमय कर दिया गया। क्योँ उसे अपनी असली माँ की ममता से वंचित रखा गया, क्योँ माता कुंती ने उसके भाग का प्रेम पाँडवोँ मेँ लुटा दिया। वे कहते है उस पर उनके दूध का ऋण नहीँ है इसलिए वे उनका आदेश मानने के लिए विवश नहीँ है। काफी आँसू बहा लेने के पश्चात
कर्ण कुंती को माता स्वीकर करते है।
कर्ण कुंती को माता स्वीकर करते है।
परन्तु उनकी माँग पर कर्ण
कहता है कि बहुत वर्ष पूर्व उस रंगभूमि में यदि उन्होनें उसे
कौन्तेय कहा होता तो आज
स्थिति बहुत भिन्न होती। पर अब किसी भी परिवर्तन के लिए
बहुत देर हो चुकि है और अब ये सम्भव नहीं है।
कर्ण ने उत्तर दिया, ’’मां, आप
मेरी मां है, यह सत्य है । लेकिन
अब तक लोग इसे जानते
नहीं थे। जिन्होंने मेरा पालन-
पोषण किया है, वे भी मेरे माता-
पिता हैं। मैं उन्हें कैसे छोड़
सकता हूं ? यह युद्ध का समय है।
इस समय दुर्योधन का नमक खाने
वालों को मृत्यु की चिंता किये
बिना उसके लिये युद्ध
करना पड़ेगा। पिछले 13
वर्षों से मैंने दुर्योधन के साथ
समस्त राजसी सुख-सुविधाओं
का उपभोग किया है।
उसकी मित्रतावश ही आज मैं
यहां तक पहुंचा हूं । अब तक मैंने
अपने भाइयों के बारे में एक शब्द
भी नहीं कहा। मान लीजिये
की अब यदि मैं युद्ध के अवसर पर
पांडवों का साथ दूं,
तो सारा संसार मुझे
विश्वासघाती कहेगा।
अतः मेरा पांडवों का साथ
देना असंभव है। लेकिन माता, मैं
आपकी एक इच्छा पूरी कर
सकता हूं । आप चाहती है कि मैं
पांडवों का संहार न करूं। मैं
अर्जुन के
सिवा किसी भी पांडवों को नहीं
मारूंगा। प्रश्न यह है कि मैं
अर्जुन का संहार करता हूं
या अर्जुन मेरा । हम दोनों में से
किसी एक की मृत्यु के बाद
भी आपके पांच पुत्र शेष रहेंगे
ही । अब हमें अलग
हो जाना चाहिये ।‘‘
इतना कहकर कर्ण ने
पुनः श्रद्धापूर्वक
अपनी माता के चरण स्पर्श किये
तथा विदा ली।
कहता है कि बहुत वर्ष पूर्व उस रंगभूमि में यदि उन्होनें उसे
कौन्तेय कहा होता तो आज
स्थिति बहुत भिन्न होती। पर अब किसी भी परिवर्तन के लिए
बहुत देर हो चुकि है और अब ये सम्भव नहीं है।
कर्ण ने उत्तर दिया, ’’मां, आप
मेरी मां है, यह सत्य है । लेकिन
अब तक लोग इसे जानते
नहीं थे। जिन्होंने मेरा पालन-
पोषण किया है, वे भी मेरे माता-
पिता हैं। मैं उन्हें कैसे छोड़
सकता हूं ? यह युद्ध का समय है।
इस समय दुर्योधन का नमक खाने
वालों को मृत्यु की चिंता किये
बिना उसके लिये युद्ध
करना पड़ेगा। पिछले 13
वर्षों से मैंने दुर्योधन के साथ
समस्त राजसी सुख-सुविधाओं
का उपभोग किया है।
उसकी मित्रतावश ही आज मैं
यहां तक पहुंचा हूं । अब तक मैंने
अपने भाइयों के बारे में एक शब्द
भी नहीं कहा। मान लीजिये
की अब यदि मैं युद्ध के अवसर पर
पांडवों का साथ दूं,
तो सारा संसार मुझे
विश्वासघाती कहेगा।
अतः मेरा पांडवों का साथ
देना असंभव है। लेकिन माता, मैं
आपकी एक इच्छा पूरी कर
सकता हूं । आप चाहती है कि मैं
पांडवों का संहार न करूं। मैं
अर्जुन के
सिवा किसी भी पांडवों को नहीं
मारूंगा। प्रश्न यह है कि मैं
अर्जुन का संहार करता हूं
या अर्जुन मेरा । हम दोनों में से
किसी एक की मृत्यु के बाद
भी आपके पांच पुत्र शेष रहेंगे
ही । अब हमें अलग
हो जाना चाहिये ।‘‘
इतना कहकर कर्ण ने
पुनः श्रद्धापूर्वक
अपनी माता के चरण स्पर्श किये
तथा विदा ली।
महाभारत का युद्ध चल रहा था। सूर्यास्त के बाद सभी अपने-अपने शिविरों में थे। उस दिन अर्जुन कर्ण को पराजित कर अहंकार में चूर थे। वह अपनी वीरता की डींगें हाँकते हुए कर्ण का तिरस्कार करने लगे। यह देखकर श्रीकृष्ण बोले-'पार्थ! कर्ण सूर्यपुत्र है। उसके कवच और कुण्डल दान में प्राप्त करने के बाद ही तुम विजय पा सके हो अन्यथा उसे पराजित करना किसी के वश में नहीं था। वीर होने के साथ ही वह दानवीर भी हैं। ' कर्ण की दानवीरता की बात सुनकर अर्जुन तर्क देकर उसकी उपेक्षा करने लगा। श्रीकृष्ण अर्जुन की मनोदशा समझ गए। वे शांत स्वर में बोले-'पार्थ! कर्ण रणक्षेत्र में घायल पड़ा है। तुम चाहो तो उसकी दानवीरता की परीक्षा ले सकते हो।' अर्जुन ने श्रीकृष्ण की बात मान ली। दोनों ब्राह्मण के रूप में उसके पास पहुँचे। घायल होने के बाद भी कर्ण ने ब्राह्मणों को प्रणाम किया और वहाँ आने का उद्देश्य पूछा। श्रीकृष्ण बोले-'राजन! आपकी जय हो। हम यहाँ भिक्षा लेने आए हैं। कृपया हमारी इच्छा पूर्ण करें।' कर्ण थोड़ा लज्जित होकर बोला-'ब्राह्मण देव! मैं रणक्षेत्र में घायल पड़ा हूँ। मेरे सभी सैनिक मारे जा चुके हैं। मृत्यु मेरी प्रतीक्षा कर रही है। इस अवस्था में भला मैं आपको क्या दे सकता हूँ?'
'राजन! इसका अर्थ यह हुआ कि हम ख़ाली हाथ ही लौट जाएँ? किंतु इससे आपकी कीर्ति धूमिल हो जाएगी। संसार आपको धर्मविहीन राजा के रूप में याद रखेगा।' यह कहते हुए वे लौटने लगे। तभी कर्ण बोला-'ठहरिए ब्राह्मणदेव! मुझे यश-कीर्ति की इच्छा नहीं है, लेकिन मैं अपने धर्म से विमुख होकर मरना नहीं चाहता। इसलिए मैं आपकी इच्छा अवश्य पूर्ण करूँगा।' कर्ण के दो दाँत सोने के थे। उन्होंने निकट पड़े पत्थर से उन्हें तोड़ा और बोले-'ब्राह्मण देव! मैंने सर्वदा स्वर्ण(सोने) का ही दान किया है। इसलिए आप इन स्वर्णयुक्त दाँतों को स्वीकार करें।' श्रीकृष्ण दान अस्वीकार करते हुए बोले-'राजन! इन दाँतों पर रक्त लगा है और आपने इन्हें मुख से निकाला है। इसलिए यह स्वर्ण जूठा है। हम जूठा स्वर्ण स्वीकार नहीं करेंगे।' तब कर्ण घिसटते हुए अपने धनुष तक गए और उस पर बाण चढ़ाकर गंगा का स्मरण किया। तत्पश्चात बाण भूमि पर मारा। भूमि पर बाण लगते ही वहाँ से गंगा की तेज़ जल धारा बह निकली। कर्ण ने उसमें दाँतों को धोया और उन्हें देते हुए कहा-'ब्राह्मणों! अब यह स्वर्ण शुद्ध है। कृपया इसे ग्रहण करें।' तभी कर्ण पर पुष्पों की वर्षा होने लगी। भगवान श्रीकृष्ण और अर्जुन अपने वास्तविक स्वरूप में प्रकट हो गए। विस्मित कर्ण भगवान श्रीकृष्ण की स्तुति करते हुए बोला-'भगवन! आपके दर्शन पाकर मैं धन्य हो गया। मेरे सभी पाप नष्ट हो गए प्रभु! आप भक्तों का कल्याण करने वाले हैं। मुझ पर भी कृपा करें।' तब श्रीकृष्ण उसे आशीर्वाद देते हुए बोले-'कर्ण! जब तक यह सूर्य, चन्द्र, तारे और पृथ्वी रहेंगे, तुम्हारी दानवीरता का गुणगान तीनों लोकों में किया जाएगा। संसार में तुम्हारे समान महान दानवीर न तो हुआ है और न कभी होगा। तुम्हारी यह बाण गंगा युगों-युगों तक तुम्हारे गुणगान करती रहेगी। अब तुम मोक्ष प्राप्त करोगे। कर्ण की दानवीरता और धर्मपरायणता देखकर अर्जुन भी उसके समक्ष नतमस्तक हो गया।
'राजन! इसका अर्थ यह हुआ कि हम ख़ाली हाथ ही लौट जाएँ? किंतु इससे आपकी कीर्ति धूमिल हो जाएगी। संसार आपको धर्मविहीन राजा के रूप में याद रखेगा।' यह कहते हुए वे लौटने लगे। तभी कर्ण बोला-'ठहरिए ब्राह्मणदेव! मुझे यश-कीर्ति की इच्छा नहीं है, लेकिन मैं अपने धर्म से विमुख होकर मरना नहीं चाहता। इसलिए मैं आपकी इच्छा अवश्य पूर्ण करूँगा।' कर्ण के दो दाँत सोने के थे। उन्होंने निकट पड़े पत्थर से उन्हें तोड़ा और बोले-'ब्राह्मण देव! मैंने सर्वदा स्वर्ण(सोने) का ही दान किया है। इसलिए आप इन स्वर्णयुक्त दाँतों को स्वीकार करें।' श्रीकृष्ण दान अस्वीकार करते हुए बोले-'राजन! इन दाँतों पर रक्त लगा है और आपने इन्हें मुख से निकाला है। इसलिए यह स्वर्ण जूठा है। हम जूठा स्वर्ण स्वीकार नहीं करेंगे।' तब कर्ण घिसटते हुए अपने धनुष तक गए और उस पर बाण चढ़ाकर गंगा का स्मरण किया। तत्पश्चात बाण भूमि पर मारा। भूमि पर बाण लगते ही वहाँ से गंगा की तेज़ जल धारा बह निकली। कर्ण ने उसमें दाँतों को धोया और उन्हें देते हुए कहा-'ब्राह्मणों! अब यह स्वर्ण शुद्ध है। कृपया इसे ग्रहण करें।' तभी कर्ण पर पुष्पों की वर्षा होने लगी। भगवान श्रीकृष्ण और अर्जुन अपने वास्तविक स्वरूप में प्रकट हो गए। विस्मित कर्ण भगवान श्रीकृष्ण की स्तुति करते हुए बोला-'भगवन! आपके दर्शन पाकर मैं धन्य हो गया। मेरे सभी पाप नष्ट हो गए प्रभु! आप भक्तों का कल्याण करने वाले हैं। मुझ पर भी कृपा करें।' तब श्रीकृष्ण उसे आशीर्वाद देते हुए बोले-'कर्ण! जब तक यह सूर्य, चन्द्र, तारे और पृथ्वी रहेंगे, तुम्हारी दानवीरता का गुणगान तीनों लोकों में किया जाएगा। संसार में तुम्हारे समान महान दानवीर न तो हुआ है और न कभी होगा। तुम्हारी यह बाण गंगा युगों-युगों तक तुम्हारे गुणगान करती रहेगी। अब तुम मोक्ष प्राप्त करोगे। कर्ण की दानवीरता और धर्मपरायणता देखकर अर्जुन भी उसके समक्ष नतमस्तक हो गया।
कर्ण का परिवार
कर्ण की पत्नी का पद्मावती तथा पुत्रों का वृषकेतु, वृषसेन आदि नामोल्लेख मिलता है। कर्ण और अर्जुन बाल्यकाल से ही परस्पर प्रतिद्वन्द्वी थे। सूतपुत्र होने के कारण अर्जुन कर्ण को हेय समझते थे। उन्हें यह ज्ञात नहीं था कि कर्ण उनके बड़े भाई हैं। भीष्म भी कर्ण को इसी कारण अधिरथ कहते थे। कर्ण ने पाँचों पाण्डवों का वध करने का संकल्प किया था पर माता कुन्ती के कहने पर उन्होंने अपने वध की प्रतिज्ञा अर्जुन तक ही सीमित कर दी थी।
कर्ण की दानवीरता के भी अनेक सन्दर्भ मिलते हैं। उनकी दानशीलता की ख्याति सुनकर इन्द्र उनके पास कुण्डल और कवच माँगने गये थे। कर्ण ने अपने पिता सूर्य के द्वारा इन्द्र की प्रवंचना का रहस्य जानते हुए भी उनको कुण्डल और कवच दे दिये। इन्द्र ने उसके बदले में एक बार प्रयोग के लिए अपनी अमोघ शक्ति दे दी थी। उससे किसी का वध अवश्यम्भावी था। कर्ण उस शक्ति का प्रयोग अर्जुन पर करना चाहते थे किन्तु दुर्योधन के निर्देश पर उन्होंने उसका प्रयोग भीम के पुत्र घटोत्कच पर किया था। अपने अन्तिम समय में पितामह भीष्म ने कर्ण को उनके जन्म का रहस्य बताते हुए महाभारत के युद्ध में पाण्डवों का साथ देने को कहा था किन्तु कर्ण ने इसका प्रतिरोध करके अपनी सत्यनिष्ठा का परिचय दिया। भीष्म के अनन्तर कर्ण कौरव सेना के सेनापति नियुक्त हुए थे। अन्त में तीन दिन तक युद्ध संचालन के उपरान्त अर्जुन ने उनका वध कर दिया। कर्ण के चरित्र में आदर्शों का दर्शन उनकी दानवीरता एवं युद्धवीरता के युगपत प्रसंगों में किया जा सकता है।
कर्ण की पत्नी का पद्मावती तथा पुत्रों का वृषकेतु, वृषसेन आदि नामोल्लेख मिलता है। कर्ण और अर्जुन बाल्यकाल से ही परस्पर प्रतिद्वन्द्वी थे। सूतपुत्र होने के कारण अर्जुन कर्ण को हेय समझते थे। उन्हें यह ज्ञात नहीं था कि कर्ण उनके बड़े भाई हैं। भीष्म भी कर्ण को इसी कारण अधिरथ कहते थे। कर्ण ने पाँचों पाण्डवों का वध करने का संकल्प किया था पर माता कुन्ती के कहने पर उन्होंने अपने वध की प्रतिज्ञा अर्जुन तक ही सीमित कर दी थी।
कर्ण की दानवीरता के भी अनेक सन्दर्भ मिलते हैं। उनकी दानशीलता की ख्याति सुनकर इन्द्र उनके पास कुण्डल और कवच माँगने गये थे। कर्ण ने अपने पिता सूर्य के द्वारा इन्द्र की प्रवंचना का रहस्य जानते हुए भी उनको कुण्डल और कवच दे दिये। इन्द्र ने उसके बदले में एक बार प्रयोग के लिए अपनी अमोघ शक्ति दे दी थी। उससे किसी का वध अवश्यम्भावी था। कर्ण उस शक्ति का प्रयोग अर्जुन पर करना चाहते थे किन्तु दुर्योधन के निर्देश पर उन्होंने उसका प्रयोग भीम के पुत्र घटोत्कच पर किया था। अपने अन्तिम समय में पितामह भीष्म ने कर्ण को उनके जन्म का रहस्य बताते हुए महाभारत के युद्ध में पाण्डवों का साथ देने को कहा था किन्तु कर्ण ने इसका प्रतिरोध करके अपनी सत्यनिष्ठा का परिचय दिया। भीष्म के अनन्तर कर्ण कौरव सेना के सेनापति नियुक्त हुए थे। अन्त में तीन दिन तक युद्ध संचालन के उपरान्त अर्जुन ने उनका वध कर दिया। कर्ण के चरित्र में आदर्शों का दर्शन उनकी दानवीरता एवं युद्धवीरता के युगपत प्रसंगों में किया जा सकता है।
जब पाण्डव अपना अज्ञातवास काट रहे थे उस वक्त विराट नरेश की पत्नी के भाई कीचक का वध भीम द्वारा करने के कारण दुर्योधन को उनकी स्थिती का अंदाजा लग गया। जब दुर्योधन अपनी सारी सेना लेकर विराट नगर पहुँचा तो पाण्डव अज्ञातवास की समाप्ति के कागार पर थे। वहाँ अकेला अर्जुन ही उनका सामाना करने आ गया उस वक्त वह बर्हनल्लाह नाम के नपुंसक के वेश मेँ था। कौरव सेना का प्रतिनिधित्व पितामह भीष्म कर रहे थे। कौरव सेना को देख अर्जुन ने दूर से ही उन पर सम्मोहन अस्त्र छोड़ दिए जिस कारण पितामह भीष्म, गुरू द्रौणाचार्य, दुर्यौधन तथा महारथी कर्ण सहित सम्पूर्ण कौरव सेना सुप्तावस्था मेँ चली गयी। इस तरह यहाँ भी सुर्यपुत्र कर्ण तथा अर्जुन का सामाना नहीँ हो पाया। इसी युद्ध के बाद पाण्डवोँ के अनुसार दुर्योधन उन्हेँ पकड़ नहीँ पाया था ईसलिए उनका अज्ञात वास पूर्ण हुआ था पर दुर्योधन उन्हे राज्य देने को त्यार नहीँ था क्योँकि उसके अनुसार उसने पाण्डवोँ की स्थिती जानकर उनका अज्ञातवास भंग कर दिया था।
एक बार कर्ण और अश्वतथामा दोनों खड़ग के अखाड़े के पास खड़े थे। उस अखाड़े के चारों ओर सब्बल-जैसी मोटी-मोटी लोहे की छड़ों की चहारदीवारी थी। उस चहारदीवारी की एक छड़ की नोक को किसी ने झुकाकर धरती पर टेक दिया था। वह उसी स्थिती में थी। वही एकमात्र छड़ उस चहारदीवारी से बाहर निकली होने के कारण अच्छी नहीं लग रही थी। उसको सीधी करने के विचार से कर्ण ने उसको हाथ लगाया। उस समय बड़ी शीघ्रता से अश्वत्थामा बोला,“रहने दो कर्ण ! सभी इस पर प्रयोग कर चुके हैं। एक दिन क्रोध के आवेश में भीम ने इसको झुका दिया था। अन्य कोई इसको सीधी कर ही नहीं सका। वही कभी क्सको सीधी करेगा।“
“अच्छा ! तो फ़िर मैं इसको सीधी करूँ क्या ?” कर्ण ने उसकी आँखों में झाँकते हुए कहा।
“यह तुमसे नहीं हो सकेगा।“ “अच्छा ?” कर्ण ने पैरों से पदत्राण उतारकर अलग रख दिये। उत्तरीय कटि से लपेटा और उससे बोला, “इस छड़ को बायें हाथ से सीधी कर, जैसी यह थी वैसी ही इसको चहारदीवारी में लगा दूँगा। तुम देखते रहो।“
कर्ण उस छड़ के पास गया। एक बार आकाश की ओर देखा। गुरुदेव चमक रहे थे। बायें हाथ में सारी शक्ति एकत्रित की। आँख मींचकर पूरी शक्ति से कर्ण ने वह छड़ हाथ से झटके के साथ ऊपर खींची। पहले झटके में ही वह कमर के बराबर ऊँची हो गयी। उसका ऊपर आया हुआ सिरा कन्धे पर लेकर बायें हाथ के पंजे से धीरे-धीरे कर्ण ने
उसको चहारदीवारी के घेरे में वैसे ही लगा दिया, जैसे वह लगी हुई थी। अश्वत्थामा अवाक हो गया। उसकी पीठ पर थाप मारने के लिये उसने अपना हाथ
कर्ण की पीठ पर रखा। पर फ़िर तुरन्त ही उसने ऊपर ही ऊपर से अपना हाथ उठा लिया।
“क्या हुआ अश्वत्थामा ?” कर्ण ने आश्चर्य से उससे पूछा।
“अरे, तुम्हारी देह तो अग्नि की तरह जल रही है !” भेदक दृष्टि से उसकी ओर देखते हुए उसने उत्तर दिया।
उसके बाद भीम ने वह सीधी की हुई छड़ कभी देखी होगी। वह प्रतिदिन एक छड़ टेढ़ी कर जाता था। कर्ण प्रतिदिन रात में
उसकी टेढ़ी की हुई छड़ को बायें हाथ से सीधी कर दिया करता।
“अच्छा ! तो फ़िर मैं इसको सीधी करूँ क्या ?” कर्ण ने उसकी आँखों में झाँकते हुए कहा।
“यह तुमसे नहीं हो सकेगा।“ “अच्छा ?” कर्ण ने पैरों से पदत्राण उतारकर अलग रख दिये। उत्तरीय कटि से लपेटा और उससे बोला, “इस छड़ को बायें हाथ से सीधी कर, जैसी यह थी वैसी ही इसको चहारदीवारी में लगा दूँगा। तुम देखते रहो।“
कर्ण उस छड़ के पास गया। एक बार आकाश की ओर देखा। गुरुदेव चमक रहे थे। बायें हाथ में सारी शक्ति एकत्रित की। आँख मींचकर पूरी शक्ति से कर्ण ने वह छड़ हाथ से झटके के साथ ऊपर खींची। पहले झटके में ही वह कमर के बराबर ऊँची हो गयी। उसका ऊपर आया हुआ सिरा कन्धे पर लेकर बायें हाथ के पंजे से धीरे-धीरे कर्ण ने
उसको चहारदीवारी के घेरे में वैसे ही लगा दिया, जैसे वह लगी हुई थी। अश्वत्थामा अवाक हो गया। उसकी पीठ पर थाप मारने के लिये उसने अपना हाथ
कर्ण की पीठ पर रखा। पर फ़िर तुरन्त ही उसने ऊपर ही ऊपर से अपना हाथ उठा लिया।
“क्या हुआ अश्वत्थामा ?” कर्ण ने आश्चर्य से उससे पूछा।
“अरे, तुम्हारी देह तो अग्नि की तरह जल रही है !” भेदक दृष्टि से उसकी ओर देखते हुए उसने उत्तर दिया।
उसके बाद भीम ने वह सीधी की हुई छड़ कभी देखी होगी। वह प्रतिदिन एक छड़ टेढ़ी कर जाता था। कर्ण प्रतिदिन रात में
उसकी टेढ़ी की हुई छड़ को बायें हाथ से सीधी कर दिया करता।
अब वहाँ चलते है जहाँ दानवीर कर्ण ने माता कुन्ती को दान मेँ उनके चार पुत्रोँ का जीवन दे दिया था। महाभारत का युद्ध अब होना ही था। पांडवो के रणनीतिकार भगवान श्री कृष्ण को यह पक्का हो चुका था की कर्ण को रास्ते से हटाये बगैर अर्जुन सुरक्षित नही हो सकता ! कृष्ण ये भी जानते थे की जिस दिन भी युद्ध में अर्जुन
का सामना कर्ण से हुआ उस दिन अर्जुन का अन्तिम सूर्योदय होगा ! उधर देवराज इन्द्र की चिंता तो अनंत गुना बढी हुई थी ! देवराज इन्द्र का दिन का चैन और रात की नींद ख़राब हो चुकी थी ! क्या किया जाए ? क्या नही किया जाए ? इसी उधेड़बुन में उनके दिन आज कल निकल रहे थे ! आख़िर एक पिता को अपने से अधिक अपने पुत्र की चिंता होती है ! तो देवराज की चिंता आप अच्छी तरह समझ सकते हैं !देवराज इन्द्र अपने पुत्र अर्जुन के लिए कितने चिन्तित थे। किसी भी तरह अर्जुन को कर्ण से बचाने के लिए कर्तसंकलप थे चाहे इसके लिए साम, दाम, दंड, भेद कोई भी नीति अपनाई जाए। देवराज कि चिन्ता अपने चरम पर थी। उनके रात दिन ऐसे ही कट रहे थे।
का सामना कर्ण से हुआ उस दिन अर्जुन का अन्तिम सूर्योदय होगा ! उधर देवराज इन्द्र की चिंता तो अनंत गुना बढी हुई थी ! देवराज इन्द्र का दिन का चैन और रात की नींद ख़राब हो चुकी थी ! क्या किया जाए ? क्या नही किया जाए ? इसी उधेड़बुन में उनके दिन आज कल निकल रहे थे ! आख़िर एक पिता को अपने से अधिक अपने पुत्र की चिंता होती है ! तो देवराज की चिंता आप अच्छी तरह समझ सकते हैं !देवराज इन्द्र अपने पुत्र अर्जुन के लिए कितने चिन्तित थे। किसी भी तरह अर्जुन को कर्ण से बचाने के लिए कर्तसंकलप थे चाहे इसके लिए साम, दाम, दंड, भेद कोई भी नीति अपनाई जाए। देवराज कि चिन्ता अपने चरम पर थी। उनके रात दिन ऐसे ही कट रहे थे।
भगवान कृष्ण और देवराज इन्द्र दोनों जानते थे की जब तक कर्ण के पास पैदायशी कवच और कुंडल हैं वो युद्ध में अजेय है ! सूर्य पुत्र कर्ण को मारना तो दूर
उसके बाणों के सामने टिकना भी किसी योद्धा के बस की बात नहीँ है ! भीष्म पितामह और गुरु द्रोण भी कर्ण का सामना करने में अक्षम थे फ़िर अर्जुन की तो बिसात ही क्या थी?
उसके बाणों के सामने टिकना भी किसी योद्धा के बस की बात नहीँ है ! भीष्म पितामह और गुरु द्रोण भी कर्ण का सामना करने में अक्षम थे फ़िर अर्जुन की तो बिसात ही क्या थी?
आख़िर सोच विचार के बाद देवराज ने एक निर्णय कर लिया और अपने सारथी को चलने की तैयारी करने का हुक्म कर दिया !
अपने वायुगति से भी तेज गति से दौड़ने वाले घोडो से जूते रथ पर सवार होकर देवराज इन्द्र तुरत फुरत कर्ण के महल में एक ब्राह्मण का वेश बना कर पहुँच गए
अपने वायुगति से भी तेज गति से दौड़ने वाले घोडो से जूते रथ पर सवार होकर देवराज इन्द्र तुरत फुरत कर्ण के महल में एक ब्राह्मण का वेश बना कर पहुँच गए
जी हाँ दानी कर्ण ...याचको को दान दे रहे हैं ! सभी याचक अपनी उम्मीद से भी ज्यादा इच्छित वस्तु पाकर खुश हैं और कर्ण को आशीष देते हुए जा रहे हैं ! सबसे अंत में एक ब्राह्मण आया और भिक्षा का अनुरोध किया ! दानी कर्ण ने पूछा - विप्रवर आज्ञा करिए ! किस वस्तु की अभिलाषा लेकर आए हैं ?
विप्र बने इन्द्र ने कहा - महाराज आप जैसा दानी तो इस धरा पर दूसरा कोई नही है ! तो मुझे मालुम है की इच्छित वस्तु तो आप अवश्य देंगे ही ! फ़िर भी आप संकल्प कर ले तब मैं मान्गुगा !
दानी कर्ण ने थोड़ी नाराजी से कहा -विप्र आप शंका क्यूँ कर कर रहे हैं ! आप आदेश करिए ! दान के नाम पर हम जान न्योछावर कर देंगे !
विप्र - नही नही राजन ! आपकी जान की सलामती की हम कामना करते हैं ! बस हमें इच्छित वस्तु मिल जाए ! आप तो यह प्रण कर कर लीजिये !
कर्ण - हम प्रण करते हैं विप्रवर !
मांगिये !
विप्र बने इन्द्र ने कहा - महाराज आप जैसा दानी तो इस धरा पर दूसरा कोई नही है ! तो मुझे मालुम है की इच्छित वस्तु तो आप अवश्य देंगे ही ! फ़िर भी आप संकल्प कर ले तब मैं मान्गुगा !
दानी कर्ण ने थोड़ी नाराजी से कहा -विप्र आप शंका क्यूँ कर कर रहे हैं ! आप आदेश करिए ! दान के नाम पर हम जान न्योछावर कर देंगे !
विप्र - नही नही राजन ! आपकी जान की सलामती की हम कामना करते हैं ! बस हमें इच्छित वस्तु मिल जाए ! आप तो यह प्रण कर कर लीजिये !
कर्ण - हम प्रण करते हैं विप्रवर !
मांगिये !
दानवीर कर्ण को उसके पिता सूर्य देव ने पहले ही बता दिया था कि देवराज इन्द्र उससे उसके कवच तथा कुण्डल माँगने आएंगे। इसलिए उन्हेँ अपने कवच तथा कुण्डल मत देना क्योँकि ये वो दिव्य कवच था जिसको कोई भी अस्त्र शस्त्र भेद नहीँ सकता था तथा वह दिव्य कुण्डल जिसे बड़े से बड़ा दिव्यास्त्र भी प्रणाम कर लौट जाएँ। परन्तु कर्ण ने कहा, "यह जानते हुए भी कि देवराज कौन है तथा मुझसे क्या माँगने वाले है फिर भी मैँ अपना दान धर्म केवल अपनी रक्षा करने के लिए नहीँ छोड़ूँगा चाहे कुछ भी हो। जिस तरह आप अपनी किरणोँ का दान बिना भेद भाव किए देते हैँ और बदले मेँ कुछ नहीँ माँगते उसी प्रकार मैँ भी अपने पिता की तरह दान धर्म की रक्षा करूँगा।
अगले दिन कर्ण ने ऐसा ही किया
ब्राह्मण ने कहा - राजन आपके शरीर के कवच और कुंडल हमें दान स्वरूप चाहिए ! इस दान वीर कर्ण ने बिना एक क्षण
भी गंवाए अपने कवच और कुंडल जो जन्म से ही कर्ण के शरीर का एक भाग ही थे अपने शरीर से खंजर की सहायता से अलग किए और ब्राह्मण को सौंप दिए ! पूरा शरीर लुहलुहान हो गया ! वाह रे दान वीर कर्ण ! अपनी मौत का सामान इस ब्राह्मण बने छलिया इन्द्र को सौपने में एक क्षण भी नही लगाया!
इन्द्र ने तुंरत वहाँ से दौड़ ही लगा दी और दूर खड़े रथ पर सवार हो गया! उसने सारथी को आज्ञा दी की जितनी जल्दी हो यहाँ से भाग चलो ! देर मत करो ! इन्द्र को यह डर सता रहा था की कहीं कर्ण का मन बदल जाए और वो आकर ये अपने कवच कुंडल वापस ना लेले ! उसने सारथी को तेज गति से चलने के लिए फ़िर कहा ! पर ये क्या ? सारथि ने कहा - महाराज इन्द्र ,रथ आगे नही जा पा रहा है ! अश्वों की पीठ चाबुक खा खा कर लाल पड़ चुकी हैं ! पर वो रथ को खींच नही पा रहे हैं! शायद रथ के पहिये अन्दर धंस चुके हैं!
अगले दिन कर्ण ने ऐसा ही किया
ब्राह्मण ने कहा - राजन आपके शरीर के कवच और कुंडल हमें दान स्वरूप चाहिए ! इस दान वीर कर्ण ने बिना एक क्षण
भी गंवाए अपने कवच और कुंडल जो जन्म से ही कर्ण के शरीर का एक भाग ही थे अपने शरीर से खंजर की सहायता से अलग किए और ब्राह्मण को सौंप दिए ! पूरा शरीर लुहलुहान हो गया ! वाह रे दान वीर कर्ण ! अपनी मौत का सामान इस ब्राह्मण बने छलिया इन्द्र को सौपने में एक क्षण भी नही लगाया!
इन्द्र ने तुंरत वहाँ से दौड़ ही लगा दी और दूर खड़े रथ पर सवार हो गया! उसने सारथी को आज्ञा दी की जितनी जल्दी हो यहाँ से भाग चलो ! देर मत करो ! इन्द्र को यह डर सता रहा था की कहीं कर्ण का मन बदल जाए और वो आकर ये अपने कवच कुंडल वापस ना लेले ! उसने सारथी को तेज गति से चलने के लिए फ़िर कहा ! पर ये क्या ? सारथि ने कहा - महाराज इन्द्र ,रथ आगे नही जा पा रहा है ! अश्वों की पीठ चाबुक खा खा कर लाल पड़ चुकी हैं ! पर वो रथ को खींच नही पा रहे हैं! शायद रथ के पहिये अन्दर धंस चुके हैं!
धड़कते और आशंकित से इन्द्र ने रथ से नीचे उतर कर देखना चाहा ! इतनी देर में आकाशवाणी हुई ! उसने कहा - ऐ देवराज इन्द्र ! तुमने इतना बड़ा पाप किया है की उस पाप के बोझ से तेरा रथ जमीन में धंस गया है ! और अब आगे नही जा सकता ! अपने पुत्र अर्जुन की जान बचाने के लिए तुने छल पूर्वक कर्ण की जान खतरे में डाल दी है !
अब जैसा की सब जानते हैं इन्द्र जैसा निर्लज्ज और स्वार्थी दूसरा कोई भी नही हुआ आज तक ! सो इन्द्र ने आकाशवाणी से पूछा की ठीक है अब जो हो गया वो गया ! पाप पुन्य का फैसला होता रहेगा ! पर अभी तो मुझे यहाँ से निकलने का उपाय बताओ ! तब आकाशवाणी ने बताया की बदले में बराबरी की कोई वस्तू उस कर्ण को देकर आवो ! उसके बाद ही तुम यहाँ से निकल पाओगे ! वरना सारी उम्र यहीं बैठ कर रोना अब !
अब जैसा की सब जानते हैं इन्द्र जैसा निर्लज्ज और स्वार्थी दूसरा कोई भी नही हुआ आज तक ! सो इन्द्र ने आकाशवाणी से पूछा की ठीक है अब जो हो गया वो गया ! पाप पुन्य का फैसला होता रहेगा ! पर अभी तो मुझे यहाँ से निकलने का उपाय बताओ ! तब आकाशवाणी ने बताया की बदले में बराबरी की कोई वस्तू उस कर्ण को देकर आवो ! उसके बाद ही तुम यहाँ से निकल पाओगे ! वरना सारी उम्र यहीं बैठ कर रोना अब !
बुरे फंसे देवराज आज तो ! क्या करते ? मजबूरी थी ! सो वापस बेशर्म जैसे पहुँच गए महाराज कर्ण के दरबार में ! महाराज कर्ण अपने दैनंदिन कार्य में ऐसे लगे थे जैसे कुछ हुआ ही नही हो ! सिर्फ़ कानो पर और सीने पर कुछ ताजा घाव के निशान और रक्त अवश्य दिखाई दे रहा था ! उन्होंने इन्द्र को आते देखा तो पूछ बैठे - देवराज आदेश करिए अब क्या चाहिए ? वह भी अवश्य मिलेगा !
इन्द्र ने अपनी झेंप मिटाते हुए कहा - अब मैं याचक नही हूँ ! आपको कुछ देना चाहता हूँ ! आप मांग लीजिये जो कुछ भी चाहिए !
कर्ण ने कहा - देवराज , मैंने आज तक कभी किसी से कुछ नही माँगा और ना ही मुझे कुछ चाहिए ! कर्ण सिर्फ़ दान देना जानता है लेना नही ! अब देवराज को पसीना आ गया ! क्या करे ? इन्द्र ने कहा - महाराज कर्ण, आपको कुछ तो मांगना ही पड़ेगा वरना मेरा रथ यहाँ से नही जा सकेगा ! आप कुछ मांग कर मुझ पर अहसान करिए ! आप जो भी मांगेगे मैं देने को तैयार हूँ !
अब कर्ण ने नाराज होते हुए कहा- देवराज मैं सुर्यपुत्र कर्ण ऐसा कोई काम नही करता जो मुझे माँगने के लिए विवश होना पड़े ! मुझे दान देने में आनंद आता है लेने में नही ! और ना ही मैं भिखमंगा हूँ!
देवराज को गुस्सा भी आ रहा था ! उनके मुंह पर ही उनको भिखमंगा कहा जा रहा है! पर क्या कर सकते हैं वो कर्ण का!
लाचार इन्द्र ने कहा - मैं ये वज्र रूपी शक्ती तुमको इसके बदले में दे कर जा रहा हूँ ! तुम इसको जिस के ऊपर भी चला दोगे वो बच नही पायेगा उसका निश्चय ही वध होगा भले ही साक्षात काल के ऊपर ही चला देना! और कर्ण कुछ कहते उसके पहले ही देवराज वो शक्ति वहाँ रख कर तुंरत भाग लिए! कर्ण के आवाज देने पर भी वो रुके नही !तब कर्ण ने उस शक्ति को उठा कर एक तरफ़ रख दिया और अपने काम में लग गए !
इन्द्र ने अपनी झेंप मिटाते हुए कहा - अब मैं याचक नही हूँ ! आपको कुछ देना चाहता हूँ ! आप मांग लीजिये जो कुछ भी चाहिए !
कर्ण ने कहा - देवराज , मैंने आज तक कभी किसी से कुछ नही माँगा और ना ही मुझे कुछ चाहिए ! कर्ण सिर्फ़ दान देना जानता है लेना नही ! अब देवराज को पसीना आ गया ! क्या करे ? इन्द्र ने कहा - महाराज कर्ण, आपको कुछ तो मांगना ही पड़ेगा वरना मेरा रथ यहाँ से नही जा सकेगा ! आप कुछ मांग कर मुझ पर अहसान करिए ! आप जो भी मांगेगे मैं देने को तैयार हूँ !
अब कर्ण ने नाराज होते हुए कहा- देवराज मैं सुर्यपुत्र कर्ण ऐसा कोई काम नही करता जो मुझे माँगने के लिए विवश होना पड़े ! मुझे दान देने में आनंद आता है लेने में नही ! और ना ही मैं भिखमंगा हूँ!
देवराज को गुस्सा भी आ रहा था ! उनके मुंह पर ही उनको भिखमंगा कहा जा रहा है! पर क्या कर सकते हैं वो कर्ण का!
लाचार इन्द्र ने कहा - मैं ये वज्र रूपी शक्ती तुमको इसके बदले में दे कर जा रहा हूँ ! तुम इसको जिस के ऊपर भी चला दोगे वो बच नही पायेगा उसका निश्चय ही वध होगा भले ही साक्षात काल के ऊपर ही चला देना! और कर्ण कुछ कहते उसके पहले ही देवराज वो शक्ति वहाँ रख कर तुंरत भाग लिए! कर्ण के आवाज देने पर भी वो रुके नही !तब कर्ण ने उस शक्ति को उठा कर एक तरफ़ रख दिया और अपने काम में लग गए !
युद्ध शुरू होने से एक दिन पूर्व दुर्योधन ने कर्ण तथा शकुनि की सलाह पर पितामह भीष्म को प्रमुख सेनापति नियुक्त किया। दुर्योधन ने कर्ण को सेनापति पद के लिए आमन्त्रित किया था परन्तु वह पितामह की इज्जत करते थे इसलिए उनके रहते कर्ण ने सेनापति पद स्वीकार नहीँ किया। इधर पांडवोँ ने श्री कृष्ण के कहने पर द्रौपदी के भाई धृष्टद्युमन को प्रमुख सेनापति नियुक्त किया।
पितामह भीष्म ने सेनापति बनने से पूर्व अपनी शर्तेँ बताईँ पितामह ने पाण्डवोँ का वध न करने तथा कर्ण को युद्ध मेँ सम्मिलित न करने की शर्त रखी। उन्होँने बचकाने कारण बता कर कर्ण को युद्ध के लिए अयोग्य कहा। कर्ण को इस बात से बहुत दुःख हुआ तथा वह क्रोधित भी हुए। कर्ण ने कहा, पितामह भीष्म आप मुझसे इतनी घृणा क्यों करते हैं। मैं निर्दोष हूं । फिर भी आप कठोर शब्दों से मेरे हृदय पर आघात कर रहे हैं । आप सर्वोच्च सेनापति हैं । क्या सेना में फूट डालना उचित है ? कौन यह कह सकता है कि सर्वोच्च सेनापति के रूप में आप अपने दायित्व को जानते हैं ? आप अत्यंत वृद्ध हो चुके हैं । इसलिये आप ऐसी बातें कह रहे हैं ।‘‘ इसके बाद कर्ण, दुर्योधन की ओर मुड़कर बोले, ’’मित्र, पितामह भीष्म सोचते हैं कि संसार में वही एक मात्र योद्धा हैं । मैं अकेले ही, पांडव तथा उनकी सेना को नाश कर सकता हूं । लेकिन यदि यह मुझे इस तरह लांछित करेंगे तो मैं क्यों लडूं ? यदि मैं शत्रुओं का संहार भी करूंगा,
तो सारा श्रेय सर्वोच्च सेनापति को ही मिलेगा । मुझे यह पसंद नहीं है । किसी भी स्थिति में वृद्ध पितामह भीष्म युद्ध में हारेंगे । उसके बाद में लडूंगा और शत्रुओं का संहार करूंगा ।‘‘ इतना कहकर कर्ण युद्धक्षेत्र से चले गये ।
तो सारा श्रेय सर्वोच्च सेनापति को ही मिलेगा । मुझे यह पसंद नहीं है । किसी भी स्थिति में वृद्ध पितामह भीष्म युद्ध में हारेंगे । उसके बाद में लडूंगा और शत्रुओं का संहार करूंगा ।‘‘ इतना कहकर कर्ण युद्धक्षेत्र से चले गये ।
युद्ध से पूर्व संध्या को युद्ध मेँ सम्मिलित सभी राजा महाराजाओँ के बीच युद्ध के नियम धर्मानुसार सबकी सहमति मेँ बनाए गए। उस रात भगवान श्री कृष्ण अन्तिम मित्रता पूर्ण रात्री मेँ अपने कुछ प्रिय लोगोँ से मिलने के लिए गए। वे गंगापुत्र भीष्म, गुरूवर द्रोणाचार्य तथा सूर्यपुत्र कर्ण से मिलेँ। श्री कृष्ण ने एक बार फिर कर्ण को अपने भाईयोँ के पास चलने के लिए आमंत्रित किया परन्तु कर्ण ने फिर से उनसे क्षमा माँगते हुए पहले वाली बात दोहराई।
युद्ध शुरू हुआ । प्रधान सेनापति भीष्म के
नेतृत्व में कौरवों की सेना पांडवों से 10
दिन तक लड़ी । भीष्म पितामह ने
पांडवों की सेना के हजारें सैनिकों को मार
गिराया । यहां तक कि अर्जुन भी परेशान
हो उठे । 10 दिन युद्ध करने के बाद
पितामह भीष्म बाणों से छलनी होकर
गिर पड़े । बाण उनके सारे शरीर में घुस गये
थे ।
भीष्म द्वारा अपमान करने के कारण कर्ण
उनसे क्रोधित थे । जब उन्होंने भीष्म
की वीरता देखी तब उनका सारा क्रोध
जाता रहा । कर्ण स्वभाव से अत्यंत उदार
थे । अपने शत्रु केस ाहस तक की वे
प्रशंसा करते थे ।
नेतृत्व में कौरवों की सेना पांडवों से 10
दिन तक लड़ी । भीष्म पितामह ने
पांडवों की सेना के हजारें सैनिकों को मार
गिराया । यहां तक कि अर्जुन भी परेशान
हो उठे । 10 दिन युद्ध करने के बाद
पितामह भीष्म बाणों से छलनी होकर
गिर पड़े । बाण उनके सारे शरीर में घुस गये
थे ।
भीष्म द्वारा अपमान करने के कारण कर्ण
उनसे क्रोधित थे । जब उन्होंने भीष्म
की वीरता देखी तब उनका सारा क्रोध
जाता रहा । कर्ण स्वभाव से अत्यंत उदार
थे । अपने शत्रु केस ाहस तक की वे
प्रशंसा करते थे ।
वे पितामह भीष्म के आहत होने का समाचार पाकर युद्ध क्षेत्र में गये । भीष्म बाणशैय्या पर लेटे थे । कर्ण ने पितामह भीष्म के चरण छुये तथा आदरपूर्वक कहा,’’पितामह, मैं कर्ण हूं। मैं आपको श्रद्धासुमन अर्पित करने आया हूं ।‘‘ यह सुनकर भीष्म के नेत्रों में आंसुओं की धारा बह चली । उन्होंने कर्ण को बाहुपास में ले लिया तथा कहा, ’’कर्ण, तुम सोचते हो कि मैं तुमसे घृणा करता हूं। नहीं बेटे, मेरे मन में तुम्हारे प्रति सत्य ही कोई कटुता नहीं है । मैं जानता हूं तुम एक वीर योद्धा हो । तुम ईश्वर की तरह हो । साहस एवं वीरता में तुम अद्वितीय हो । युद्ध-कला में तुम कृष्ण तथा अर्जुन के समकक्ष हो । लेकिन तुमने अपनी शक्ति पर हमेशा गर्व किया । मैं तुम्हारी गर्वोक्ति को रोकने के लिये तुमसे कठोर शब्दों में वार्तालाप किया करता था ।‘‘भीष्म के वचन सुनकर कर्ण का गला भर आया । वह बोले, ’’पितामह ! मैंने गुस्से से या अज्ञानवश आपसे कटु वचन कहे । कृपया मुझे क्षमा कर दें ।‘‘भीष्म ने कहा,’’तुम कुंती के पुत्र हो । कौरवों के लिये यह युद्ध जीतना असंभव है । पांडवों के साथ मिल जाओ । दुर्योध को युद्ध रोकने की सलाह दो । तुम सब को एकता से रहना चाहिये ।‘‘कर्ण ने विनम्रता पूर्वक कहा, ’’मैं पांडवों का साथ नहीं दे सकता । सफलता या असफलता भगवान के हाथ में है। मैं अंतिम सांस तक दुर्योधन के लिये लडूंगा । वह मुझ पर विश्वास करता है ।‘‘ इतना कहकर कर्ण ने फिर भीष्म को प्रणाम किया तथा वहां चले गये । भीष्म के बाद द्रोणाचार्य कौरव-सेना के प्रधान सेनापति बने ।
चौदहवेँ दिन मशालों के प्रकाश में युद्ध रात को भी हुआ । भीम के पुत्र घटोत्कच ने भीषण युद्ध किया । वह हिडिंबा राक्षसी से पैदा हुआ था और अत्यंत वीर एवं युद्धशास्त्र निपुण था । उसके युद्ध कौशल से कौरव सेना के छक्के छूट गये । यह देखकर कर्ण ने उसका सामना किया । उनके पास वैजयंती नामक अचूक हथियार था जो उन्होंने अर्जुन को मारने के लिये रखा था । कर्ण ने इस अस्त्र का उपयोग कर घटोत्कच के दो टुकड़े कर दिये । कौरव- सेना में नये उत्साह का संचार हुआ । कर्ण द्वारा ’वैजयंती‘‘ का प्रयोग करने की खबर सुनकर, कृष्ण तथा अर्जुन ने राहत की सांस ली ।
तेरहवे दिन के युद्ध में, कौरव सेना के
प्रधान सेनापति, गुरु द्रोणाचार्य
द्वारा, युधिष्ठिर को बन्दी बनाने के
लिए चक्रव्यूह/पद्मव्यूह की रचना की गई।
पाण्डव पक्ष में केवल कृष्ण और अर्जुन
ही चक्रव्यूह भेदन जानते थे। लेकिन उस
दिन उन्हें त्रिगत नरेश-बन्धु युद्ध करते-
करते चक्रव्यूह स्थल से बहुत दूर ले गए।
त्रिगत, दुर्योधन के शासनाधीन एक राज्य
था। अर्जुन-पुत्र अभिमन्यु को चक्रव्यूह में
केवल प्रवेश करना आता था, उससे
निकलना नहीं, जिसे उसने तब सुना था जब
वह अपनी माता के गर्भ में था और उसके
पिता अर्जुन उसकी माता को यह
विधि समझा रहे थे और बीच में ही उन्हें
नीन्द आ गई।
लेकिन जैसे ही अभिमन्यु ने चक्रव्यूह में
प्रवेश किया, सिन्धु नरेश - जयद्रथ ने
प्रवेश मार्ग रोक लिया और अन्य
पाण्डवों को भीतर प्रवेश नहीं करने
दिया। तब शत्रुचक्र में अभिमन्यु अकेला पड़
गया। अकेला होने पर भी वह वीरता से
लड़ा और उसने अकेले ही कौरव सेना के बड़े-
बड़े योद्धाओं को परास्त किया जिन्में स्वयं
कर्ण, द्रोण और दुर्योधन भी थे। कर्ण और
दुर्योधन ने गुरु द्रोण के निर्देशानुसार
अभिमन्यु का वध करने का निर्णय लिया।
कर्ण ने बाण चलाकर अभिमन्यु का धनुष और
रथ का एक पहिया तोड़ दिया जिससे वह
भूमि पर गिर पड़ा और अन्य कौरवों ने
उसपर आक्रमण कर दिया। इस युद्ध में
अभिमन्यु मारा गया। युद्ध समाप्ति पर
जब अर्जुन को ये पता लगता है कि अभिमन्यु
के मारे जाने में जयद्रथ का सबसे बड़ा हाथ
है तो वह प्रतिज्ञा लेता है की अगले दिन
का सूर्यास्त होने से पूर्व वह जयद्रथ
का वध कर देगा अन्यथा अग्नि समाधि ले
लेगा।
प्रधान सेनापति, गुरु द्रोणाचार्य
द्वारा, युधिष्ठिर को बन्दी बनाने के
लिए चक्रव्यूह/पद्मव्यूह की रचना की गई।
पाण्डव पक्ष में केवल कृष्ण और अर्जुन
ही चक्रव्यूह भेदन जानते थे। लेकिन उस
दिन उन्हें त्रिगत नरेश-बन्धु युद्ध करते-
करते चक्रव्यूह स्थल से बहुत दूर ले गए।
त्रिगत, दुर्योधन के शासनाधीन एक राज्य
था। अर्जुन-पुत्र अभिमन्यु को चक्रव्यूह में
केवल प्रवेश करना आता था, उससे
निकलना नहीं, जिसे उसने तब सुना था जब
वह अपनी माता के गर्भ में था और उसके
पिता अर्जुन उसकी माता को यह
विधि समझा रहे थे और बीच में ही उन्हें
नीन्द आ गई।
लेकिन जैसे ही अभिमन्यु ने चक्रव्यूह में
प्रवेश किया, सिन्धु नरेश - जयद्रथ ने
प्रवेश मार्ग रोक लिया और अन्य
पाण्डवों को भीतर प्रवेश नहीं करने
दिया। तब शत्रुचक्र में अभिमन्यु अकेला पड़
गया। अकेला होने पर भी वह वीरता से
लड़ा और उसने अकेले ही कौरव सेना के बड़े-
बड़े योद्धाओं को परास्त किया जिन्में स्वयं
कर्ण, द्रोण और दुर्योधन भी थे। कर्ण और
दुर्योधन ने गुरु द्रोण के निर्देशानुसार
अभिमन्यु का वध करने का निर्णय लिया।
कर्ण ने बाण चलाकर अभिमन्यु का धनुष और
रथ का एक पहिया तोड़ दिया जिससे वह
भूमि पर गिर पड़ा और अन्य कौरवों ने
उसपर आक्रमण कर दिया। इस युद्ध में
अभिमन्यु मारा गया। युद्ध समाप्ति पर
जब अर्जुन को ये पता लगता है कि अभिमन्यु
के मारे जाने में जयद्रथ का सबसे बड़ा हाथ
है तो वह प्रतिज्ञा लेता है की अगले दिन
का सूर्यास्त होने से पूर्व वह जयद्रथ
का वध कर देगा अन्यथा अग्नि समाधि ले
लेगा।
द्रोणाचार्य पांच दिन युद्ध करने के बाद छलपूर्वक मारे गये। उनके बाद कर्ण सर्वोच्च सेनापति बने । पहले ही दिन वे नकुल का संहार करने वाले थे लेकिन कुंती को दिया वचन याद कर उन्होंने नकुल को जीवनदान दिया । कर्ण, अर्जुन का संहार करने को उत्सुक थे । युद्धकला के हर क्षेत्र में वह अर्जुन से ज्यादा निपुण थे; लेकिन उनके पास अर्जुन के सारथी भगवान कृष्ण जैसा कुशल सारथी नहीं था । दुर्योधन को संदेश भेजकर कर्ण ने शल्य को अपना सारथी बनाया । इससे कर्ण की ही हानि हुयी ।
शल्य पांडवों का मामा था । यद्यपि वह कौरवों के साथ था । लेकिन वह पांडवों से स्नेह करता था। पांडवों ने गुप्त रूप से शल्य से प्रार्थना की थी कि यदि वह कर्ण के सारथी बनें तो ऐसी बातें करें जिससे कर्ण अपना साहस खो बैठे । शल्य ने ऐसा ही किया । उसने सारथी बनकर कर्ण के सामने अर्जुन की खूब प्रशंसा की । उसने अर्जुन को कर्ण से अधिक शक्तिशाली सिद्ध करने का प्रयास किया । इससे कर्ण का उत्साह ठंडा पड़ गया । यह कर्ण का दुर्भाग्य था कि जिस सारथी ने उसे सहायता करनी चाहिये थी, वही कर्ण को परास्त करवाने में जुटा था । यही नहीं, उस दिन युद्ध में कर्ण के दो पुत्र भी मारे गये ।
परन्तु कर्ण हताश नहीँ हुआ। कर्ण ने शिला पर तेज किए हुए स्वर्णमय पंख वाले बाणोँ द्वारा पांडव सेना के हाथियोँ , रथियो, घुड़सवारोँ, तथा पैदल सैनिकोँ को उसी प्रकार गिराना प्रारम्भ किया जैसे स्वर्ग वासी जीव पुण्य क्षीण होने पर नीचे गिरते हैँ। उस दिन कर्ण ने चार पाण्डवोँ को परास्त किया महाराज युद्धिष्ठर उसके सम्मुख नहीँ आए। कर्ण ने नकुल, सहदेव को माता कुन्ती को दिए वचनानुसार जीवनदान दिया। भीम गर्जना करते हुए कर्ण के सामने गया परन्तु मँह की खाकर लौटा कर्ण ने उसे भी शिविर लौटने पर बाध्य कर दिया। तब उसका सामना अर्जुन से हुआ।
अर्जुन से कर्ण का भीष्ण संग्राम हुआ उस दिन कर्ण ने अर्जुन को बार बार प्रास्त कर उसे अत्यंत बुरी स्थिती मेँ पहुँचा दिया। कर्ण ने अर्जुन पर अपने कई घातक बाणोँ से प्रहार किया परन्तु अर्जुन श्री कृष्ण की माया के कारण सुरक्षित रहा। कर्ण के बाण अर्जुन के रथ से टकरा रहे थे जिन बाणोँ से अर्जुन का कुछ शेष नहीँ बचना चाहिए था वे बाण अर्जुन पर खास प्रभाव नहीँ डाल रहे थे। अपने रथ पर सवार सूर्यपुत्र श्री कृष्ण की माया के इस रहस्य को भली भांति समझ रहे थे । वे जानते थे कि उनका युद्ध अर्जुन से नहीँ बल्कि श्री कृष्ण से हो रहा था। झुँझला कर कर्ण ने वैष्णवी विद्या का प्रयोग कर वैष्णव अस्त्र प्रकट किया तथा उसे अर्जुन पर चला दिया। अपनी तरफ बढ़ते उस अस्त्र को रोकने मेँ अर्जुन अक्षम था। अर्जुन को बचाने के लिए साक्षात श्री कृष्ण इस अस्त्र के सन्मुख आ खड़े हुए। भगवान विष्णु के अवतार पर वैष्णव अस्त्र भला क्या असर डालता। वैष्णव अस्त्र प्रभावहीन होकर लौट गया।
अर्जुन ये देख कर आश्चर्यचकित थे। कर्ण का ये रौद्र रूप देखकर पाण्डव भयभीत हो रहे थे तथा दुर्योधन प्रसन्न था सम्पूर्ण कौरव सेना मेँ नया उत्साह भर गया था। शल्य का मुख खुले का खुला रह गया श्री कृष्ण ने अर्जुन से कहा कि वास्तविक कर्ण से तुम्हारा परिचय तो आज हो रहा है। कर्ण ने भार्गव परशुराम द्वारा सीखी धनुर्विद्या का प्रयोग कर असंख्य बाणोँ द्वारा अर्जुन के गांडीव की प्रत्यंचा काट दी तथा उसे उसी के रथ पर बांध दिया। अर्जुन असहाय अवस्था मेँ पहुंच गया तब इस सूर्यपुत्र ने अपने विजय धनुष पर एक अमोघ अस्त्र चढ़ाकर अर्जुन पर चलाने को हुए परन्तु तभी सूर्यास्त हो गया व युद्ध समाप्ती की घोषणा हो गई युद्ध के नियम भंग न करते हुए कर्ण ने अपना बाण वापिस रख लिया।
उस रात्री कौरव सेना मेँ कर्ण की प्रशंसा हो रही थी तो पाण्डव सेना मेँ कर्ण का भय व्यापत था। दुर्योधन कर्ण से जानना चाहता था कि उसने अर्जुन को क्योँ छोड़ दिया कर्ण ने कहा कि कल फिर से अर्जुन से युद्ध कर वे अर्जुन का वध करेगा।
सत्रहवेँ दिन अंग नरेश कर्ण अपने रथ पर 'विजय' धनुष और अनेक दिव्य शस्त्रोँ से सुसज्जित हो रण भूमि मेँ पांडव सेना का नाश करने लगा। उसने पांचाल सेना के प्रमुख क्षत्रियोँ भानुदेव, चित्रसेन, विँद तथा शूरसेन को यमपुरी के मार्ग की ओर अग्रसर कर दिया ये देख शिखंडी, सात्यकी और धर्मराज युधिष्ठिर ने कर्ण को चहुं ओर से घेर लिया ओर उस पर एक साथ बाण वर्षा करने लगे जिससे कुपित हो कर्ण ने 'ब्रह्मास्त्र' प्रकट करते हुए अधिकांश पांडव सैनिकोँ पर आक्रमण कर उन्हेँ घायल कर, रणभूमि से विमुख हो कर शिविर की ओर जाने के लिए विवश कर दिया। युद्धिष्ठिर भी घायल होकर शिविर पहुँच गए।
आज कर्ण ने साक्षात यमराज का रूप धारण कर 'भार्गव अस्त्र' का प्रयोग किया जिससे संपूर्ण दिशाओँ मेँ अरबोँ बाण पांडव सेना पर गिरने लगे, जिससे हाथिओँ घोड़ो, रथिओँ तथा पैदल सैनिकोँ के मरने से वहां रक्त की नदी बह निकली। इधर जब अर्जुन युद्धिष्ठिर की कुशलक्षेम पूछने शिविर मेँ गए तो वहां धर्मराज कर्ण के बाणोँ से रक्त रंजित, उससे परास्त होने के कारण अत्यंत दुखी तथा उस द्वारा दिए जीवनदान के कारण लज्जित थे। अत: वे पार्थ से कहने लगे,"हे अर्जुन तुम कर्ण का वध कर दो ताकि मेरी अपमान की अग्नि शांत हो"
तब अर्जुन प्रतिज्ञा करता है कि कर्ण को मार कर ही युद्धिष्ठर के सामने आएगा।
तब अर्जुन प्रतिज्ञा करता है कि कर्ण को मार कर ही युद्धिष्ठर के सामने आएगा।
उस दिन कर्ण तथा अर्जुन के बीच भीषण युद्ध हुआ । कर्ण के युद्ध-कौशल से कौरव और पांडव सेना दंग रह गयी तथा उनकी प्रशंसा करने लगी । कृष्ण, भीम तथा अन्य योद्धा अर्जुन से कहने लगे, ’’यह क्या अर्जुन, तुम उत्साह से युद्ध नहीं कर रहे हो । कर्ण तुम्हारे सभी हथियारों को नष्ट कर रहा है । अपनी लड़ाई में प्राण फूंको । अर्जुन यथाशक्ति प्रयास करने के बावजूद युद्ध में फीके पड़ रहे थे । अतः उन्होंने ब्रह्मास्त्र का प्रयोग किया । यह देखकर कौरव सेना आतंकित होकर भागने लगी । लेकिन कर्ण विचलित नहीं हुये । हंसकर उन्होंने एक अत्यंत शक्तिशाली अस्त्र का उपयोग कर ब्रह्मास्त्र रोक दिया ।
रण के दौरान, अर्जुन के बाण कर्ण के रथ पर लगे और उसका रथ कई गज पीछे खिसक गया। लेकिन, जब कर्ण के बाण अर्जुन के रथ पर लगे तो उसका रथ केवल कुछ ही बालिश्त (हथेली जितनी दूरी) दूर खिसका। इस पर श्रीकृष्ण ने कर्ण की प्रशंसा की। इस बात पर चकित होकर अर्जुन ने कर्ण की इस प्रशंसा का कारण पूछा, क्योंकि उसके बाण रथ को पीछे खिसकाने में अधिक
प्रभावशाली थे। तब कृष्ण ने कहा कि कर्ण के रथ पर केवल कर्ण और शल्य का भार है लेकिन अर्जुन के रथ पर तो स्वयं वे और हनुमान विराजमान है, तथा रथ पर तीनोँ लोक का भार है और तब भी कर्ण ने उनके रथ को कुछ बालिश्त पीछे खिसका दिया। अगर हम न होते तो तुम्हारे रथ की क्या दशा होती।
प्रभावशाली थे। तब कृष्ण ने कहा कि कर्ण के रथ पर केवल कर्ण और शल्य का भार है लेकिन अर्जुन के रथ पर तो स्वयं वे और हनुमान विराजमान है, तथा रथ पर तीनोँ लोक का भार है और तब भी कर्ण ने उनके रथ को कुछ बालिश्त पीछे खिसका दिया। अगर हम न होते तो तुम्हारे रथ की क्या दशा होती।
इसी प्रकार कर्ण ने कई बार अर्जुन के धनुष
की प्रत्यञ्चा काट दी। लेकिन हर बार
अर्जुन पलक झपकते ही धनुष पर
प्रत्यञ्चा चढ़ा लेता। इसके लिए कर्ण
अर्जुन की प्रशंसा करता है और शल्य से
कहता है कि वह अब समझा कि क्यों अर्जुन
को सर्वश्रेष्ठ धनुर्धर कहा जाता है।
की प्रत्यञ्चा काट दी। लेकिन हर बार
अर्जुन पलक झपकते ही धनुष पर
प्रत्यञ्चा चढ़ा लेता। इसके लिए कर्ण
अर्जुन की प्रशंसा करता है और शल्य से
कहता है कि वह अब समझा कि क्यों अर्जुन
को सर्वश्रेष्ठ धनुर्धर कहा जाता है।
कर्ण और अर्जुन ने दैवीय अस्त्रों को चलाने के अपने-अपने ज्ञान का पूर्ण उपयोग करते हुए बहुत लम्बा और घमासान युद्ध किया। कर्ण द्वारा अर्जुन का सिर धड़ से अलग करने के लिए "नागास्त्र" का प्रयोग किया गया। लेकिन श्रीकृष्ण द्वारा सही समय पर रथ को भूमि में थोड़ा सा धँसा लिया गया जिससे अर्जुन बच गया। इससे "नागास्त्र" अर्जुन के सिर के ठीक ऊपर से उसके मुकुट को छेदता हुआ निकल गया इसके विष प्रभाव से मुकुट काला पड़ गया। नागास्त्र पर उपस्थित अश्वसेन नाग ने कर्ण से निवेदन किया कि वह उस अस्त्र का दोबारा उपयोग करे ताकि इस बार वह अर्जुन के शरीर को बेधता हुआ निकल जाए, लेकिन कर्ण माता कुन्ती को दिए वचन का पालन करते हुए उस अस्त्र के पुनः प्रयोग से मना कर देता है।
कर्ण ने एक और
घातक हथियार प्रयुक्त
करना चाहा लेकिन परशुराम के शाप के
कारण वे उनका उपयोग करना नहीं जान
पाये । यही नहीं उनके रथ
का बायां पहिया भी जमीन में धंस गया ।
इससे रथ रुक गया । कर्ण के दुर्भाग्य
की कोई सीमा नहीं थी ।
कर्ण ने अर्जुन की तरफ मुड़कर कहा,
’’अर्जुन मेरे रथ का पहिया जमीन में धंस
गया है । मुझे एक क्षण का समय दो । मैं
पहिये को बाहर निकाल दूंगा उसके बाद
हम फिर युद्ध कर सकते हैं । जब मैं रथ से
उतरुंगा, तब मेरे पास बाण नहीं होगा, तुम
बाण मन चलाओ । एक योद्धा के लिये
निहत्थे पर वार करना उचित नहीं है ।‘
घातक हथियार प्रयुक्त
करना चाहा लेकिन परशुराम के शाप के
कारण वे उनका उपयोग करना नहीं जान
पाये । यही नहीं उनके रथ
का बायां पहिया भी जमीन में धंस गया ।
इससे रथ रुक गया । कर्ण के दुर्भाग्य
की कोई सीमा नहीं थी ।
कर्ण ने अर्जुन की तरफ मुड़कर कहा,
’’अर्जुन मेरे रथ का पहिया जमीन में धंस
गया है । मुझे एक क्षण का समय दो । मैं
पहिये को बाहर निकाल दूंगा उसके बाद
हम फिर युद्ध कर सकते हैं । जब मैं रथ से
उतरुंगा, तब मेरे पास बाण नहीं होगा, तुम
बाण मन चलाओ । एक योद्धा के लिये
निहत्थे पर वार करना उचित नहीं है ।‘
तब श्रीकृष्ण, अर्जुन से कहते हैं कि कर्ण को कोई अधिकार नहीं है की वह अब युद्ध नियमों और धर्म की बात करे, जबकि स्वयं उसने भी अभिमन्यु वध के समय किसी भी युद्ध नियम और धर्म का पालन नहीं किया था। उन्होंने आगे कहा कि तब उसका धर्म कहाँ गया था जब उसने दिव्य-जन्मा (द्रौपदी का जन्म हवनकुण्ड से हुआ था) द्रौपदी को पूरी कुरु राजसभा के समक्ष वैश्या कहा था। द्युत-क्रीड़ा भवन में उसका धर्म कहाँ गया था। इसलिए अब उसे कोई अधिकार नहीं की वह किसी धर्म या युद्ध नियम की बात करे और उन्होंने अर्जुन से कहा कि अभी कर्ण असहाय है (ब्राह्मण का श्राप फलीभूत हुआ) इसलिए वह उसका वध करे। श्रीकृष्ण कहते हैं की यदि अर्जुन ने इस निर्णायक मोड़ पर अभी कर्ण को नहीं मारा तो सम्भवतः पाण्डव उसे कभी भी नहीं मार सकेंगे और यह युद्ध कभी भी नहीं जीता जा सकेगा। तब, अर्जुन ने एक दैवीय अस्त्र का उपयोग करते हुए कर्ण का सिर धड़ से अलग कर दिया। कर्ण के शरीर के भूमि पर गिरने के बाद एक ज्योति कर्ण के शरीर से निकली और सूर्य में समाहित हो गई।
युद्ध समाप्ति के पश्चात, मृतक लोगों के लिए अन्त्येष्टी संस्कार किए जा रहे थे। तब माता कुन्ती ने अपने पुत्रों से निवेदन किया की वे कर्ण के लिए भी सारे मृतक संस्कारों को करें। जब उन्होंने यह कहकर इसका विरोध किया की कर्ण एक सूद पुत्र है, तब कुन्ती ने कर्ण के जन्म का रहस्य खोला। तब सभी पाण्डव भाईयों को भ्रातृहत्या के पाप के कारण
झटका लगता है। युधिष्ठिर विशेष रूप से अपनी माता पर रुष्ट होते हैं और उन्हें और समस्त नारी जाती को ये श्राप देते हैं की उस समय के बाद से स्त्रियाँ किसी भी भेद को छुपा नहीं पाएंगी।
झटका लगता है। युधिष्ठिर विशेष रूप से अपनी माता पर रुष्ट होते हैं और उन्हें और समस्त नारी जाती को ये श्राप देते हैं की उस समय के बाद से स्त्रियाँ किसी भी भेद को छुपा नहीं पाएंगी।
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युधिष्ठिर और दुर्योधन, दोनों कर्ण का अन्तिम संस्कार करना चाहते थे। युधिष्ठिर का दावा यह था की चूँकि वे कर्ण के कनिष्ट भ्राता हैं इसलिए यह अधिकार उनका है। दुर्योधन का दावा यह था की युधिष्ठिर और अन्य पाण्डवों ने कर्ण के साथ कभी भी भ्रातृवत् व्यवहार नहीं किया इसलिए अब इस समय इस अधिकार को जताने का कोई औचित्य नहीं है। तब श्रीकृष्ण मध्यस्थता करतें है और युधिष्ठिर को यह समझाते हैं की दुर्योधन की मित्रता का बन्धन अधिक सुदृढ़ है इसलिए दुर्योधन को कर्ण का अन्तिम संस्कार करने दिया जाए।
जब १८-दिन का युद्ध समाप्त हो जाता है, तो श्रीकृष्ण, अर्जुन को उसके रथ से नीचे उतर जाने के लिए कहते हैं। जब अर्जुन उतर जाता है तो वे उसे कुछ दूरी पर ले जाते हैं। तब वे हनुमानजी को रथ के ध्वज से उतर आने का संकेत करते हैं। जैसे ही श्री हनुमान उस रथ से उतरते हैं, अर्जुन के रथ के अश्व जीवित ही जल जाते हैं और रथ में विस्फोट हो जाता है। यह देखकर अर्जुन दहल उठता है। तब श्रीकृष्ण उसे बताते हैं की पितामह भीष्म, गुरु द्रोण, कर्ण, और अश्वत्थामा के धातक अस्त्रों के कारण अर्जुन के रथ में यह विस्फोट हुआ है। यह अब तक इसलिए सुरक्षित था क्योंकि उस पर स्वयं उनकी कृपा थी और श्री हनुमान की शक्ति थी जो रथ अब तक इन विनाशकारी अस्त्रों के प्रभाव को सहन किए हुए था। श्री हनुमान स्वंय अर्जुन को बताते है कि इनमेँ से सूर्यपुत्र कर्ण के बाण ही सबसे शक्तिशाली थे जिनसे रथ केवल श्री कृष्ण की माया द्वारा ही सुरक्षित था। अर्जुन ये सुन कर्ण को नमन करता है व श्री कृष्ण के चरणोँ मेँ गिर पड़ता है!आज भी लाखों हिन्दुओं के लिए कर्ण एक ऐसा योद्धा है जो जीवन भर दुखद जीवन जीता रहा। उसे एक महान योद्धा माना जाता है, जो साहसिक आत्मबल युक्त एक ऐसा महानायक था जो अपने जीवन की प्रतिकूल स्थितियों से जूझता रहा। विशेष रूप से कर्ण अपनी दानप्रियता के लिए प्रसिद्ध है। वह इस बात का उदाहरण भी है की किस प्रकार अनुचित निर्णय किसी व्यक्ति के श्रेष्ठ व्यक्तित्व और उत्तम गुणों के रहते हुए भी किसी काम के नहीं होते। कर्ण को कभी भी वह नहीं मिला जिसका वह अधिकारी था, पर उसने कभी भी प्रयास करना नहीं छोड़ा। भीष्म और भगवान कृष्ण
सहित कर्ण के समकालीनों ने यह स्वीकार किया है की कर्ण एक पुण्यात्मा है जो बहुत विरले ही मानव जाति में प्रकट होते हैं।
वह संघर्षरत मानवता के लिए एक आदर्श है की मानव जाति कभी भी हार ना माने और प्रयासरत रहे।
कर्ण एक ऐसे व्यक्तित्व का उदाहरण है जो गुणी, दानवीर, न्यायप्रिय और साहसी था लेकिन फिर भी उसका पतन हुआ क्योंकि वह अधर्मी दुर्योधन के प्रति निष्ठावान था। कर्ण में वे
पाँचो गुण थे जो द्रौपदी ने अपने वर के रूप में महादेव से माँगे थे, केवल एक को छोड़कर और वह था दुर्योधन से घनिष्ठ मित्रता
दुर्योधन के प्रति कर्ण के स्नेह के कारण, यद्यपि अनिच्छुक रूप से, उसने अपने प्रिय मित्र के पाण्डवों के प्रति सभी कुकर्मों में उसका साथ दिया। कर्ण को पाण्डवों के प्रति दुर्योधन की दुर्भावनापूर्ण योजनाओं का ज्ञान था। उसे यह भी ज्ञान था की असत के लिए सत से टकराने के कारण उसका पतन भी निश्चित है। जबकि कुछ लोगों का यह मानना है की कुरु राजसभा में द्रौपदी के लिए 'वैश्या' शब्द का उपयोग करके कर्ण ने अपने नाम पर स्वयं कालिख पोत ली थी, वहीं कुछ अन्य लोगों का मानना है की वह अपने इस कृत्य में सही था, क्योंकि पहले द्रौपदी ने उसे अपने स्वयंवर में 'सूत पुत्र' कहकर उसका अपमान किया था ताकि वह उसके स्वयंवर में प्रतियोगी ना बन सके। फिर भी, अभिमन्यु के मारे जाने में कर्ण की भूमिका और एक योद्धा से अनेक योद्धाओं के लड़ने के कारण उसके एक महायोद्धा होने की छवि को कहीं अधिक क्षति पहुँची और फिर उसी युद्ध में उसकी भी वही गति हुई। महाभारत की कुछ व्याख्यायों के अनुसार, यही वह कृत्य था जिसने भली प्रकार से ये प्रमाणित कर दिया की कर्ण युद्ध में अधर्म के पक्ष में लड़ रहा है और इस कृत्य के कारण उसके इस दुर्भाग्य का भी निर्धारण हो गया की वह भी अर्जुन द्वारा इसी प्रकार मारा जाएगा जब वह शस्त्रास्त्र हीन और रथहीन हो और उसकी पीठ अर्जुन की ओर हो। कर्ण के पास सत्रहवें दिन के युद्ध में अर्जुन का वध करने का पूरा अवसर था लेकिन युद्ध नियमों का पालन करते हुए उसने अर्जुन पर बाण नहीं चलाया क्योंकि तब तक सूर्यदेव अस्त हो चुके थे।
4 comments:
कर्ण के बारे में एक अच्छा लेख यहाँ प्रस्तुत है -
दुर्भाग्य का सहोदर
एक ओर सात और दूसरी ओर ग्यारह अक्षौहिणी सेना के बीच जीने और मरने की बाजी लग रही है |
महाभारत का युद्ध चल रहा है | शस्त्र झनझना रहे है और शंख व रणभेरियाँ बज रही है |
यह कष्ट सहिष्णु कर्ण है |
' परशुराम से ब्रह्मास्त्र की विधि सिखने ब्राह्मण का वेश धारण कर गुरु का कृपा-भाजन बना | एक दिन गुरु इसकी जांघ पर सिर देकर सो रहे थे कि एक कीड़े अलर्क ने इसे काटना शुरू किया | कीड़ा काटते काटते मांस में घुस कर हड्डी तक को कुरेदने लगा | रक्त की धारा बह चली किन्तु गुरु की निंद्रा में विध्न न हो इसलिए बैठा रहा - अविचल पर्वत की भांति , विधाता के विधान की भांति और उत्तर दिशा के दिग्पाल की भांति डटा रहा |
' परन्तु दुर्भाग्य उसका सहोदर था इसलिए गुरु ने ऐसी गुरु भक्ति के लिए प्रसन्न होकर वरदान के स्थान पर क्रुद्ध होकर श्राप दे दिया | '
एक ओर सात और दूसरी ओर ग्यारह अक्षौहिणी सेना के बीच जीने और मरने की बाजी लग रही है | महाभारत का युद्ध चल रहा है | शस्त्र झनझना रहे है और शंख व रणभेरियाँ बज रही है |
यह कर्ण म़ातृ-भक्त भी है |
' यधपि इसकी माता कुंती ने इसके जन्म से ही इसे त्याग दिया -पेटी में बंद कर नदी में बहा दिया था - मौत के मुंह में , मौत और भाग्य से संघर्ष करने के लिए |
' यधपि लक्ष्यवेध होने पर द्रोपदी का अधिकारी हो गया था | किन्तु इसकी माँ ने इसके जन्म के भेद को गुप्त रखा इसलिए स्थान-स्थान पर सूतपुत्र और अज्ञातकुलीन का बताया जाकर वह अपमानित होता रहा |
'यधपि वह माँ की गोद के लिए जिन्दगी भर ललचाता रहा , कुल के रहस्य की जिज्ञासा की वेदना में अनवरत जलता रहा और माँ ने उसको सम्पूर्ण आयु में एक बार भी बेटा कहकर स्नेह से नहीं पुचकारा |
'यधपि उसी की कोख में जन्म लेकर और पाँचों का सहोदर होकर भी कुंती ने उसे सदा उपेक्षित ही रखा | वह उन पांचो की हितकामना में ही सदा लगी रहती थी |
' तथापि जब वह अपनी गोद में अभय के लिए भीख मांगने आई तब वह ना नहीं कर सका | उसने उसके चारों बेटों पर आघात न करने का वचन दिया और उस वचन को निभाया |
'परन्तु दुर्भाग्य उसका सहोदर था | ऐसी म़ातृ-भक्ति के बाद भी माता ने अपने पाँचों पुत्रों को यह भेद नहीं बताया और जब वह रथ का पहिया ठीक कर रहा था तब अर्जुन उसके बंधू ने ही रण-नियमों का उलंघन कर कपट से उसे मार डाला | '
एक ओर सात और दूसरी ओर ग्यारह अक्षौहिणी सेना के बीच जीने और मरने की बाजी लग रही है | महाभारत का युद्ध चल रहा है | शस्त्र झनझना रहे है और शंख व रणभेरियाँ बज रही है |
यह कर्ण सत्यवादी भी है |
' जब उसे मालूम हो गया कि वह कुंती पुत्र है , अर्जुन भीम आदि उसके भाई है |
' जब उसकी माता ने आकर उसे पांडव पक्ष की ओर से युद्ध करने का आग्रह किया |
' जब उसके रुंधे हुए भ्रातृप्रेम का प्रवाह रोम-रोम में प्रवाहित हो उठा |
तब उसने भावनाओं से भरी मातृदृष्टि से मुंह फेर कर उत्तर दिया था - कर्ण मझधार में घोड़े नहीं बदलता | जिसका साथ देने का एक बार वचन दे दिया है फिर किसी भी भयानक परिणाम से डरकर कायर की भांति परिस्थितियों का मूल्याङ्कन करना कर्ण को शोभा नहीं देता | अपनी माँ , जिसके लिए मेरा हृदय जिन्दगी भर तडफता रहा है , भाई जिन पर मुझे गर्व होना चाहिए अथवा और किसी सम्बन्धी के लिए मै दुर्योधन का साथ नहीं छोड़ सकता | मृत्यु पर्यंत जिसका साथ देने का निश्चय मैंने कर लिया है उस निश्चय की चाहे जितनी कीमत चुकानी पड़े , कर्ण उसके लिए सदैव तैयार रहेगा |
' परन्तु दुर्भाग्य उसका सहोदर था | ग्यारह अक्षौहिणी सेना होकर भी द्रोण , भीष्म आदि जैसे महारथियों के सेनापति होते हुए भी दुर्योधन की पराजय हुई | सूर्य और कुंती का सत्यवादी पुत्र , सूतपुत्र के असत्य नाम सम्बन्ध का अपने आप नाम से विच्छेद नहीं कर सका | '
यह कर्ण महारथी भी है |
' जब वह रणभूमि में उतरता है तो ऐसा लगता है जैसे कोई कुशल कथावाचक वीर रस के किसी किसी सरस छंद का मनोयोग से पाठ कर रहा हो ; जैसे कोई उलझी हुई समस्या वर्षों से प्रयास के बाद अपना ही हल निकलने जा रही हो ; जैसे ईश्वर का अचूक अभिशाप अपने दुर्दिनों के दुर्भाग्य को पीस डालने के लिए बाहें चढ़ा रहा हो | जब उसके तरकश के बाण निकलते थे तो एसा प्रतीत होता था जैसे मोहमाया से हरे भरे संसार पर क्रुद्ध होने के कारण प्रलय की आँखों में चिंगारियां निकल रही है , जैसे संकट के समय जल्दी में आये भगवान् विष्णु के बुलाने पर गरुड़ परिवार पंख लगे हुए पर्वत की तरह उड़ रहा हो |
' कलिंगराज चित्रांगद की राजकन्या के स्वयंबर में राजकन्या के अपहरण पर दुर्योधन की इसी अकेले वीर ने सैकड़ों राजाओं से रक्षा की , जिसके आगे त्रिलोकीनाथ ने भाग कर अपना नाम रणछोड़ दास करवाया था , उसी मगधराज जरासंघ को इसी कर्ण ने बाहुकंटक युद्ध से व्याकुल कर वश में कर लिया था |
' उसकी बाण वर्षा में इतना बल होता था कि तीनो लोकों का भार लिए सारथी रूप कृष्ण और गरुड़ध्वज सव्यसाची अपने रथ सहित कई कदम पीछे हट जाते थे |
' परन्तु दुर्भाग्य उसका सहोदर था | ऐसे कठिन और महत्त्वपूर्ण अवसर पर उसके रथ के पहियों को धरती ने निगल डाला और इसी प्रयास में उसे पराजय का मुंह देखना पड़ा |
यह कर्ण दानवीर भी है |
' प्रात:काल इसी का नाम आज तक लिया जाता है |
इसके द्वार से न कोई निराश एयर न कोई खाली हाथ लौटा | नित्यप्रति अपने समस्त स्वर्ण का दान तो इसका नित्त्यकर्म था किन्तु आई हुई विजय ,कमाई हुई शक्ति और अमर जिन्दगी तक का भी बिना शिकन दान कर दिया |
' देवराज इंद्र जब स्वार्थी होकर अपने पुत्र अर्जुन की रक्षा के लिए दिव्य कुंडल और कवच प्राप्त करने आये तो अपने पिता सूर्य भगवान की चेतावनी के बावजूद भी वह ना नहीं कहा सका |
अपने ही प्रबल शत्रु के लिए उसकी उपेक्षा करने वाली माँ अभयदान लेने आई तब वह ना नहीं कर सका , और .................|
जीवन की संध्या के समय परीक्षा के लिए कृष्ण और अर्जुन ब्राह्मण वेष धारण कर युद्ध की घायलावस्था में स्वर्ण मांगने आये तब उसने अपने दांत तोड़ कर उसमे लगी स्वर्ण मेखों का दान किया |
' परन्तु दुर्भाग्य उसका सहोदर था | ऐसा श्रेष्ठ पुरुष होकर भी दुर्योधन के पक्ष की ओर चला गया इसलिए वेद व्यास ही नहीं , आज भी उसकी सभी उपेक्षा करते है | '
' परन्तु कौन नहीं जनता कि कर्ण भी एक क्षत्रिय था | '
पर कैसे मैं इस महान कंपनी से अपने ऋण मिला गवाही, मैं एक ही गेंदा रहा हूँ (Franklinloans37@gmail.com)
ऑरलैंडो फ्लोरिडा अमरीका से हूँ श्रीमती कैरल वेब। मैं बहुत अपने व्यापार के लिए एक ऋण की जरूरत थी क्योंकि मेरा व्यवसाय नीचे चल रहा था और मैं यह मुश्किल अपने क्रेडिट स्कोर के कारण बैंकों / अन्य वित्तीय निगम से एक ऋण प्राप्त करने के लिए लग रहा था। मैं लगभग हर पैसा बनाने इंटरनेट पर अवसर कोशिश करने के लिए बेताब था और फाइंडिंग नाथन डायलन और अपनी सेवाओं के प्रदान की गई है मेरे जीवन में ताजा हवा के एक सांस था। अंत में मैं एक वास्तविक ऋणदाता और एक सेवा है कि मैं कर सकते हैं मुलाकात ट्रस्ट और मैं कहना है नाथन डिलन ने मुझे निराश नहीं किया है! सेवा वह मुझे करने के लिए प्रदान की गई अत्यंत अद्भुत था और अब भविष्य अंत में मुझे और मेरे व्यापार के लिए उज्ज्वल लग रहा है क्योंकि मैं ($ 500,000.00) का ऋण राशि प्राप्त करने के लिए सक्षम था। आप 2% की कम ब्याज दर और बेहतर चुकौती अनुसूची के साथ, ऋण के किसी भी राशि है जो आप आज की जरूरत है पाने के लिए किसी भी फर्म से संपर्क करना चाहिए, तो ईमेल (Franklinloans37@gmail.com) तुम भी उसे फोन कर सकते हैं के माध्यम से नाथन डायलन सेवा (एनडीएस) से संपर्क करें उसका फोन नंबर के माध्यम से: +12163139938 किसी भी वित्तीय समस्याओं को आप अब से गुजर रहा हो सकता है हल करने के लिए {यहाँ वहाँ कंपनी साइट http://franklinloan.at.ua है}।
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