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Monday, June 6, 2011



रावण : क्या आप जानते हैं ?????



रावण रामायण का एक विशेष पात्र है। रावण लंका का राजा था। वह अपने दस सिरों के कारण भी जाना जाता था (साधारण से दस गुणा अधिक मस्तिष्क शक्ति), जिसके कारण उसका नाम दशानन (दश = दस + आनन = मुख) भी था। किसी भी कृति के लिये अच्छे पात्रों के साथ ही साथ बुरे पात्रों का होना अति आवश्यक है। किन्तु रावण में अवगुण की अपेक्षा गुण अधिक थे। जीतने वाला हमेशा अपने को उत्तम लिखता है, अतः रावण को बुरा कहा गया है।
रामकथा में रावण ऐसा पात्र है, जो राम के उज्ज्वल चरित्र को उभारने काम करता है।
महा राक्षस रावण ......की जीवनी
रावण का उदय
पद्मपुराण, श्रीमद्भागवत पुराण, कूर्मपुराण, रामायण, महाभारत, आनन्द रामायण, दशावतारचरित आदि ग्रंथों में रावण का उल्लेख हुआ है। रावण के उदय के विषय में भिन्न-भिन्न ग्रंथों में भिन्न-भिन्न प्रकार के उल्लेख मिलते हैं।
* पद्मपुराण तथा श्रीमद्भागवत पुराण के अनुसार हिरण्याक्ष एवं हिरण्यकशिपु दूसरे जन्म में रावण और कुम्भकर्ण के रूप में पैदा हुए।
* वाल्मीकि रामायण के अनुसार रावण पुलस्त्य मुनि का पोता था अर्थात् उनके पुत्र विश्वश्रवा का पुत्र था। विश्वश्रवा की वरवर्णिनी और कैकसी नामक दो पत्नियां थी। वरवर्णिनी के कुबेर को जन्म देने पर सौतिया डाह वश कैकसी ने कुबेला (अशुभ समय - कु-बेला) में गर्भ धारण किया। इसी कारण से उसके गर्भ से रावण तथा कुम्भकर्ण जैसे क्रूर स्वभाव वाले भयंकर राक्षस उत्पन्न हुये।
* तुलसीदास जी के रामचरितमानस में रावण का जन्म शाप के कारण हुआ था। वे नारद एवं प्रतापभानु की कथाओं को रावण के जन्म कारण बताते हैं।

रावण : महा-राक्षस या महा-पंडित
मोटा पाठ==रावण के जन्म की कथा==

पूर्वकाल में ब्रह्मा जी ने अनेक जल जन्तु बनाये और उनसे समुद्र के जल की रक्षा करने के लिये कहा। तब उन जन्तुओं में से कुछ बोले कि हम इसका रक्षण (रक्षा) करेंगे और कुछ ने कहा कि हम इसका यक्षण (पूजा) करेंगे। इस पर ब्रह्माजी ने कहा कि जो रक्षण करेगा वह राक्षस कहलायेगा और जो यक्षण करेगा वह यक्ष कहलायेगा। इस प्रकार वे दो जातियों में बँट गये। राक्षसों में हेति और प्रहेति दो भाई थे। प्रहेति तपस्या करने चला गया, परन्तु हेति ने भया से विवाह किया जिससे उसके विद्युत्केश नामक पुत्र उत्पन्न हुआ। विद्युत्केश के सुकेश नामक पराक्रमी पुत्र हुआ। सुकेश के माल्यवान, सुमाली और माली नामक तीन पुत्र हुये। तीनों ने ब्रह्मा जी की तपस्या करके यह वरदान प्राप्त कर लिये कि हम लोगों का प्रेम अटूट हो और हमें कोई पराजित न कर सके। वर पाकर वे निर्भय हो गये और सुरों, असुरों को सताने लगे। उन्होंने विश्*वकर्मा से एक अत्यन्त सुन्दर नगर बनाने के लिये कहा। इस पर विश्*वकर्मा ने उन्हें लंका पुरी का पता बताकर भेज दिया। वहाँ वे बड़े आनन्द के साथ रहने लगे। माल्यवान के वज्रमुष्टि, विरूपाक्ष, दुर्मुख, सुप्तघ्न, यज्ञकोप, मत्त और उन्मत्त नामक सात पुत्र हुये। सुमाली के प्रहस्त्र, अकम्पन, विकट, कालिकामुख, धूम्राक्ष, दण्ड, सुपार्श्*व, संह्नादि, प्रधस एवं भारकर्ण नाम के दस पुत्र हुये। माली के अनल, अनिल, हर और सम्पाती नामक चार पुत्र हुये। ये सब बलवान और दुष्ट प्रकृति होने के कारण ऋषि-मुनियों को कष्ट दिया करते थे। उनके कष्टों से दुःखी होकर ऋषि-मुनिगण जब भगवान विष्णु की शरण में गये तो उन्होंने आश्*वासन दिया कि हे ऋषियों! मैं इन दुष्टों का अवश्य ही नाश करूँगा।
जब राक्षसों को विष्णु के इस आश्*वासन की सूचना मिली तो वे सब मन्त्रणा करके संगठित हो माली के सेनापतित्व में इन्द्रलोक पर आक्रमण करने के लिये चल पड़े। समाचार पाकर भगवान विष्णु ने अपने अस्त्र-शस्त्र संभाले और राक्षसों का संहार करने लगे। सेनापति माली सहित बहुत से राक्षस मारे गये और शेष लंका की ओर भाग गये। जब भागते हुये राक्षसों का भी नारायण संहार करने लगे तो माल्यवान क्रुद्ध होकर युद्धभूमि में लौट पड़ा। भगवान विष्णु के हाथों अन्त में वह भी काल का ग्रास बना। शेष बचे हुये राक्षस सुमाली के नेतृत्व में लंका को त्यागकर पाताल में जा बसे और लंका पर कुबेर का राज्य स्थापित हुआ। राक्षसों के विनाश से दुःखी होकर सुमाली ने अपनी पुत्री कैकसी से कहा कि पुत्री! राक्षस वंश के कल्याण के लिये मैं चाहता हूँ कि तुम परम पराक्रमी महर्षि विश्वश्रवा के पास जाकर उनसे पुत्र प्राप्त करो। वही पुत्र हम राक्षसों की देवताओं से रक्षा कर सकता है।
पिता की आज्ञा पाकर कैकसी विश्रवा के पास गई। उस समय भयंकर आँधी चल रही थी। आकाश में मेघ गरज रहे थे। कैकसी का अभिप्राय जानकर विश्रवा ने कहा कि भद्रे! तुम इस कुबेला में आई हो। मैं तुम्हारी इच्छा तो पूरी कर दूँगा परन्तु इससे तुम्हारी सन्तान दुष्ट स्वभाव वाली और क्रूरकर्मा होगी। मुनि की बात सुनकर कैकसी उनके चरणों में गिर पड़ी और बोली कि भगवन्! आप ब्रह्मवादी महात्मा हैं। आपसे मैं ऐसी दुराचारी सन्तान पाने की आशा नहीं करती। अतः आप मुझ पर कृपा करें। कैकसी के वचन सुनकर मुनि विश्रवा ने कहा कि अच्छा तो तुम्हारा सबसे छोटा पुत्र सदाचारी और धर्मात्मा होगा।
इस प्रकार कैकसी के दस मुख वाले पुत्र का जन्म हुआ जिसका नाम दशग्रीव (रावण) रखा गया। उसके पश्*चात् कुम्भकर्ण, शूर्पणखा और विभीषण के जन्म हुये। दशग्रीव और कुम्भकर्ण अत्यन्त दुष्ट थे, किन्तु विभीषण धर्मात्मा प्रकृति का था। अपने भाई वैश्रवण से भी अधिक पराक्रमी और शक्*तिशाली बनने के लिये दशग्रीव ने अपने भाइयों सहित ब्रह्माजी की तपस्या की। ब्रह्मा के प्रसन्न होने पर दशग्रीव ने माँगा कि मैं गरुड़, नाग, यक्ष, दैत्य, दानव, राक्षस तथा देवताओं के लिये अवध्य हो जाऊँ। रावण ने 'मनुष्य' से इसलिये नही कहा क्यों के वो मनुष्य को कमजोर तथा बलरहित समझता था| ब्रह्मा जी ने 'तथास्तु' कहकर उसकी इच्छा पूरी कर दी। विभीषण ने धर्म में अविचल मति का और कुम्भकर्ण ने वर्षों तक सोते रहने का वरदान पाया।वो एस वजह्से कि इन्द्रने मा सरस्वती को कहा कि जब कुम्भकर्ण वरदान मांग रहा हो तब आप उसका ध्यान विचलित करे
फिर दशग्रीव ने लंका के राजा कुबेर को विवश किया कि वह लंका छोड़कर अपना राज्य उसे सौंप दे। अपने पिता विश्रवा के समझाने पर कुबेर ने लंका का परित्याग कर दिया और रावण अपनी सेना, भाइयों तथा सेवकों के साथ लंका में रहने लगा। लंका में जम जाने के बाद अपने बहन शूर्पणखा का विवाह कालका के पुत्र दानवराज विद्युविह्वा के साथ कर दिया। उसने स्वयं दिति के पुत्र मय की कन्या मन्दोदरी से विवाह किया जो हेमा नामक अप्सरा के गर्भ से उत्पन्न हुई थी। विरोचनकुमार बलि की पुत्री वज्रज्वला से कुम्भकर्ण का और गन्धर्वराज महात्मा शैलूष की कन्या सरमा से विभीषण का विवाह हुआ। कुछ समय पश्*चात् मन्दोदरी ने मेघनाद को जन्म दिया जो इन्द्र को परास्त कर संसार में इन्द्रजित के नाम से प्रसिद्ध हुआ।
रावण द्वारा भगवान शंकर की प्रार्थना
सत्ता के मद में रावण उच्छृंखल हो देवताओं, ऋषियों, यक्षों और गन्धर्वों को नाना प्रकार से कष्ट देने लगा। एक बार उसने कुबेर पर चढ़ाई करके उसे युद्ध में पराजित कर दिया और अपनी विजय की स्मृति के रूप में कुबेर के पुष्पक विमान पर अधिकार कर लिया। उस विमान का वेग मन के समान तीव्र था। वह अपने ऊपर बैठे हुये लोगों की इच्छानुसार छोटा या बड़ा रूप धारण कर सकता था। विमान में मणि और सोने की सीढ़ियाँ बनी हुई थीं और तपाये हुये सोने के आसन बने हुये थे। उस विमान पर बैठकर जब वह 'शरवण' नाम से प्रसिद्ध सरकण्डों के विशाल वन से होकर जा रहा था तो भगवान शंकर के पार्षद नन्दीश्*वर ने उसे रोकते हुये कहा कि दशग्रीव! इस वन में स्थित पर्वत पर भगवान शंकर क्रीड़ा करते हैं, इसलिये यहाँ सभी सुर, असुर, यक्ष आदि का आना निषिद्ध कर दिया गया है। नन्दीश्*वर के वचनों से क्रुद्ध होकर रावण विमान से उतरकर भगवान शंकर की ओर चला। उसे रोकने के लिये उससे थोड़ी दूर पर हाथ में शूल लिये नन्दी दूसरे शिव की भाँति खड़े हो गये। उनका मुख वानर जैसा था। उसे देखकर रावण ठहाका मारकर हँस पड़ा। इससे कुपित हो नन्दी बोले कि दशानन! तुमने मेरे वानर रूप की अवहेलना की है, इसलिये तुम्हारे कुल का नाश करने के लिये मेरे ही समान पराक्रमी रूप और तेज से सम्पन्न वानर उत्पन्न होंगे। रावण ने इस ओर तनिक भी ध्यान नहीं दिया और बोला कि जिस पर्वत ने मेरे विमान की यात्रा में बाधा डाली है, आज मैं उसी को उखाड़ फेंकूँगा। यह कहकर उसने पर्वत के निचले भाग में हाथ डालकर उसे उठाने का प्रयत्न किया। जब पर्वत हिलने लगा तो भगवान शंकर ने उस पर्वत को अपने पैर के अँगूठे से दबा दिया। इससे रावण का हाथ बुरी तरह से दब गया और वह पीड़ा से चिल्लाने लगा। जब वह किसी प्रकार से हाथ न निकाल सका तो रोत-रोते भगवान शंकर की स्तुति और क्षमा प्रार्थना करने लगा।ओर उस दिन से दशग्रिव दशानन कानाम रावण पडगया ।इस पर भगवान शंकर ने उसे क्षमा कर दिया और उसके प्रार्थान करने पर उसे एक चन्द्रहास नामक खड्ग भी दिया।
रावण का अत्याचार
एक दिन हिमालय प्रदेश में भ्रमण करते हुये रावण ने अमित तेजस्वी ब्रह्मर्षि कुशध्वज की कन्या वेदवती को तपस्या करते देखा। उस देखकर वह मुग्ध हो गया और उसके पास आकर उसका परिचय तथा अविवाहित रहने का कारण पूछा। वेदवती ने अपने परिचय देने के पश्*चात् बताया कि मेरे पिता विष्णु से मेरे विवाह करना चाहते थे। इससे क्रुद्ध होकर मेरी कामना करने वाले दैत्यराज शम्भु ने सोते में उनका वध कर दिया। उनके मरने पर मेरी माता भी दुःखी होकर चिता में प्रविष्ट हो गई। तब से मैं अपने पिता के इच्छा पूरी करने के लिये भगवान विष्णु की तपस्या कर रही हूँ। उन्हीं को मैंने अपना पति मान लिया है।
पहले रावण ने वेदवती को बातों में फुसलाना चाहा, फिर उसने जबरदस्ती करने के लिये उसके केश पकड़ लिये। वेदवती ने एक ही झटके में पकड़े हुये केश काट डाले। फिर यह कहती हुई अग्नि में प्रविष्ट हो गई कि दुष्ट! तूने मेरा अपमान किया है। इस समय तो मैं यह शरीर त्याग रही हूँ, परन्तु तेरा विनाश करने के लिये फिर जन्म लूँगी। अगले जन्म में मैं अयोनिजा कन्या के रूप में जन्म लेकर किसी धर्मात्मा की पुत्री बनूँगी। अगले जन्म में वह कन्या कमल के रूप में उत्पन्न हुई। उस सुन्दर कान्ति वाली कमल कन्या को एक दिन रावण अपने महलों में ले गया। उसे देखकर ज्योतिषियों ने कहा कि राजन्! यदि यह कमल कन्या आपके घर में रही तो आपके और आपके कुल के विनाश का कारण बनेगी। यह सुनकर रावण ने उसे समुद्र में फेंक दिया। वहाँ से वह भूमि को प्राप्त होकर राजा जनक के यज्ञमण्डप के मध्यवर्ती भूभाग में जा पहुँची। वहाँ राजा द्वारा हल से जोती जाने वाली भूमि से वह कन्या फिर प्राप्त हुई। वही वेदवती सीता के रूप में राम की पत्*नी बनी...
राजा अनरण्य का रावण को शाप
अनेक राजा महाराजाओं को पराजित करता हुआ दशग्रीव इक्ष्वाकु वंश के राजा अनरण्य के पास पहुँचा जो अयोध्या पर राज्य करते थे। उसने उन्हें भी द्वन्द युद्ध करने अथवा पराजय स्वीकार करने के लिये ललकारा। दोनों में भीषण युद्ध हुआ किन्तु ब्रह्माजी के वरदान के कारण रावण उनसे पराजित न हो सका। जब अनरण्य का शरीर बुरी तरह से क्षत-विक्षत हो गया तो रावण इक्ष्वाकु वंश का अपमान और उपहास करने लगा। इससे कुपित होकर अनरण्य ने उसे शाप दिया कि तूने अपने व्यंगपूर्ण शब्दों से इक्ष्वाकु वंश का अपमान किया है, इसलिये मैं तुझे शाप देता हूँ कि महात्मा इक्ष्वाकु के इसी वंश में दशरथनन्दन राम का जन्म होगा जो तेरा वध करेंगे। यह कहकर राजा स्वर्ग सिधार गये।
बालि से मैत्री
रावण की उद्दण्डता में कमी नहीं आई। राक्षस या मनुष्य जिसको भी वह शक्*तिशाली पाता, उसी के साथ जाकर युद्ध करने लगता। एक बार उसने सुना कि किष्किन्धा पुरी का राजा बालि बड़ा बलवान और पराक्रमी है तो वह उसके पास युद्ध करने के लिये जा पहुँचा। बालि की पत्*नी तारा, तारा के पिता सुषेण, युवराज अंगद और उसके भाई सुग्रीव ने उसे समझाया कि इस समय बालि नगर से बाहर सन्ध्योपासना के लिये गये हुये हैं। वे ही आपसे युद्ध कर सकते हैं। और कोई वानर इतना पराक्रमी नहीं है जो आपके साथ युद्ध कर सके। इसलिये आप थोड़ी देर उनकी प्रतीक्षा करें। फिर सुग्रीव ने कहा कि राक्षसराज! सामने जो शंख जैसे हड्डियों के ढेर लगे हैं वे बालि के साथ युद्ध की इच्छा से आये आप जैसे वीरों के ही हैं। बालि ने इन सबका अन्त किया है। यदि आप अमृत पीकर आये होंगे तो भी जिस क्षण बालि से टक्कर लेंगे, वह क्षण आपके जीवन का अन्तिम क्षण होगा। यदि आपको मरने की बहुत जल्दी हो तो आप दक्षिण सागर के तट पर चले जाइये। वहीं आपको बालि के दर्शन हो जायेंगे।
सुग्रीव के वचन सुनकर रावण विमान पर सवार हो तत्काल दक्षिण सागर में उस स्थान पर जा पहुँचा जहां बालि सन्ध्या कर रहा था। उसने सोचा कि मैं चुपचाप बालि पर आक्रमण कर दूँगा। बालि ने रावण को आते देख लिया परन्तु वह तनिक भी विचलित नहीं हुआ और वैदिक मन्त्रों का उच्चारण करता रहा। ज्योंही उसे पकड़ने के लिये रावण ने पीछे से हाथ बढ़ाया, सतर्क बालि ने उसे पकड़कर अपनी काँख में दबा लिया और आकाश में उड़ चला। रावण बार-बार बालि को अपने नखों से कचोटता रहा किन्तु बालि ने उसकी कोई चिन्ता नहीं की। तब उसे छुड़ाने के लिये रावण के मन्त्री और अनुचर उसके पीछे शोर मचाते हुये दौड़े परन्तु वे बालि के पास तक न पहुँच सके। इस प्रकार बालि रावण को लेकर पश्*चिमी सागर के तट पर पहुँचा। वहाँ उसने सन्ध्योपासना पूरी की। फिर वह दशानन को लिये हुये किष्किन्धापुरी लौटा। अपने उपवन में एक आसन पर बैठकर उसने रावण को अपनी काँख से निकालकर पूछा कि अब कहिये आप कौन हैं और किसलिये आये हैं?
रावण ने उत्तर दिया कि मैं लंका का राजा रावण हूँ। आपके साथ युद्ध करने के लिये आया था। मैंने आपका अद्*भुत बल देख लिया। अब मैं अग्नि की साक्षी देकर आपसे मित्रता करना चाहता हूँ। फिर दोनों ने अग्नि की साक्षी देकर एक दूसरे से मित्रता स्थापित की।
रावण के गुण
रावण मे कितना ही राक्षसत्व क्यों न हो, उसके गुणों विस्मृत नहीं किया जा सकता। रावण एक अति बुद्धिमान ब्राह्मण तथा शंकर भगवान का बहुत बड़ा भक्त था। वह महा तेजस्वी, प्रतापी, पराक्रमी, रूपवान तथा विद्वान था।
वाल्मीकि उसके गुणों को निष्पक्षता के साथ स्वीकार करते हुये उसे चारों वेदों का विश्वविख्यात ज्ञाता और महान विद्वान बताते हैं। वे अपने रामायण में हनुमान का रावण के दरबार में प्रवेश के समय लिखते हैं
अहो रूपमहो धैर्यमहोत्सवमहो द्युति:।
अहो राक्षसराजस्य सर्वलक्षणयुक्तता  
आगे वे लिखते हैं "रावण को देखते ही हनुमान मुग्ध हो जाते हैं और कहते हैं कि रूप, सौन्दर्य, धैर्य, कान्ति तथा सर्वलक्षणयुक्त होने पर भी यदि इस रावण में अधर्म बलवान न होता तो यह देवलोक का भी स्वामी बन जाता।"
रावण जहाँ दुष्ट था और पापी था वहीं उसमें शिष्टाचार और ऊँचे आदर्श वाली मर्यादायें भी थीं। राम के वियोग में दुःखी सीता से रावण ने कहा है, "हे सीते! यदि तुम मेरे प्रति कामभाव नहीं रखती तो मैं तुझे स्पर्श नहीं कर सकता।" शास्त्रों के अनुसार वन्ध्या, रजस्वला, अकामा आदि स्त्री को स्पर्श करने का निषेष है अतः अपने प्रति अकामा सीता को स्पर्श न करके रावण मर्यादा का ही आचरण करता है।
वाल्मीकि रामायण और रामचरितमानस दोनों ही ग्रंथों में रावण को बहुत महत्त्व दिया गया है। राक्षसी माता और ऋषि पिता की सन्तान होने के कारण सदैव दो परस्पर विरोधी तत्त्व रावण के अन्तःकरण को मथते रहते हैं।
वाल्मीकि रावण के अधर्मी होने को उसका मुख्य अवगुण मानते हैं। उनके रामायण में रावण के वध होने पर मन्दोदरी विलाप करते हुये कहती है, "अनेक यज्ञों का विलोप करने वाले, धर्म व्यवस्थाओं को तोड़ने वाले, देव-असुर और मनुष्यों की कन्याओं का जहाँ तहाँ से हरण करने वाले! आज तू अपने इन पाप कर्मों के कारण ही वध को प्राप्त हुआ है।" तुलसीदास जी केवल उसके अहंकार को ही उसका मुख्य अवगुण बताते हैं। उन्होंने रावण को बाहरी तौर से राम से शत्रु भाव रखते हुये हृदय से उनका भक्त बताया है। तुलसीदास के अनुसार रावण सोचता है कि यदि स्वयं भगवान ने अवतार लिया है तो मैं जाकर उनसे हठपूर्वक वैर करूंगा और प्रभु के बाण के आघात से प्राण छोड़कर भव-बन्धन से मुक्त हो जाऊंगा।रावण के दस सिर होने की चर्चा रामायण में आती है। वह कृष्णपक्ष की अमावस्या को युद्ध के लिये चला था तथा एक-एक दिन क्रमशः एक-एक सिर कटते हैं। इस तरह दसवें दिन अर्थात् शुक्लपक्ष की दशमी को रावण का वध होता है। रामचरितमानस में यह भी वर्णन आता है कि जिस सिर को राम अपने बाण से काट देते हैं पुनः उसके स्थान पर दूसरा सिर उभर आता था। विचार करने की बात है कि क्या एक अंग के कट जाने पर वहाँ पुनः नया अंग उत्पन्न हो सकता है? वस्तुतः रावण के ये सिर कृत्रिम थे - आसुरी माया से बने हुये। मारीच का चाँदी के बिन्दुओं से युक्त स्वर्ण मृग बन जाना, रावण का सीता के समक्ष राम का कटा हुआ सिर रखना आदि से सिद्ध होता है कि राक्षस मायावी थे। वे अनेक प्रकार के इन्द्रजाल (जादू) जानते थे। तो रावण के दस सिर और बीस हाथों को भी कृत्रिम माना जा सकता है।दशानन जी पहले बहुत आज्ञाकारी शिष्य थे ...बाद में वो एक महा पंडित बने...और उन्होंने बाद में कभी न मरने की वरदान भी मांगी ( अगर नाभि पर प्रहार हो तो मान्य नहीं ) ...
उनसे बड़ा शिव भक्त आज तक पैदा नहीं हुआ है....
बस यही से उनका अहंकार शुरू हो गया...रावण का परिवार : दानववंशीय योद्धाओं में विश्व विख्यात दुन्दुभि के काल में रावण हुआ। रावण के दादा पुलस्त्य ऋषि थे। ब्रह्मा के पुत्र पुलस्त्य और पुलस्त्य के पुत्र विश्रवा की चार संतानों में रावण अग्रज था। इस प्रकार वह ब्रह्माजी का वंशज था।
ऋषि विश्रवा ने ऋषि भारद्वाज की पुत्री इडविडा से विवाह किया था। इडविडा ने दो पुत्रों को जन्म दिया जिनका नाम कुबेर और विभीषण था। विश्रवा की दूसरी पत्नी कैकसी से रावण, कुंभकरण और सूर्पणखा का जन्म हुआ।
लक्ष्मण ने सूर्पणखा की नाक काट दी थी, जो रावण की बहन थी। इसी कारण रावण ने सीता का हरण कर लिया था। कुंभकरण के संबंध में कहा जाता है कि वह छह माह नींद में रहता था और छह माह जागता था। रावण के भाई विभीषण ने रावण का साथ छोड़कर युद्ध में राम का साथ दिया था।
कुबेर रावण का सौतेला भाई था। कुबेर धनपति था। कुबेर ने लंका पर राज कर उसका विस्तार किया था। रावण ने कुबेर से लंका को हड़पकर उस पर अपना शासन कायम किया। लंका को भगवान शिव ने विश्वकर्मा से बनवाया था। ऐसा माना जाता है कि माली, सुमाली और माल्यवान नामक तीन दैत्यों द्वारा त्रिकुट सुबेल पर्वत पर बसाई लंकापुरी को देवों ने जीतकर कुबेर को वहाँ का लंकापति बना दिया था।
रावण की कई पत्नियाँ थीं जिनमें से मंदोदरी का स्थान सर्वोच्च था। सुंबा राज्य के राजा, वास्तुकार और इंजीनियर मयदानव ने रावण के पराक्रम से प्रभावित होकर अपनी परम रूपवान पाल्य पुत्री मंदोदरी का विवाह रावण से कर दिया था। मंदोदरी की माता का नाम हेमा था जो एक अप्सरा थी। मंदोदरी से रावण को परम पराक्रमी पुत्र प्राप्त हुआ जिसका नाम मेघनाद था। मेघनाद ने इंद्र को हरा दिया था इसलिए उसे इंद्रजीत भी कहा जाता है।नाभि में जीवन : ऐसी मान्यता है कि रावण ने अमृत्व प्राप्ति के उद्देश्य से भगवान ब्रह्मा की घोर तपस्या कर वरदान माँगा लेकिन ब्रह्मा ने उसके इस वरदान को न मानते हुए कहा कि तुम्हारा जीवन नाभि में स्थित रहेगा।शिवभक्त रावण : एक बार रावण जब अपने पुष्पक विमान से यात्रा कर रहा था तो रास्ते में एक वन क्षेत्र से गुजर रहा था। उस क्षेत्र के पहाड़ पर शिवजी ध्यानमग्न बैठे थे। शिव के गण नंदी ने रावण को रोकते हुए कहा कि इधर से गुजरना सभी के लिए निषिद्ध कर दिया गया है, क्योंकि भगवान तप में मगन हैं।
रावण को यह सुनकर क्रोध उत्पन्न हुआ। उसने अपना विमान नीचे उतारकर नंदी के समक्ष खड़े होकर नंदी का अपमान किया और फिर जिस पर्वत पर शिव विराजमान थे उसे उठाने लगा। यह देख शिव ने अपने अँगूठे से पर्वत को दबा दिया जिस कारण रावण का हाथ भी दब गया और फिर वह शिव से प्रार्थना करने लगा कि मुझे मुक्त कर दें। इस घटना के बाद वह शिव का भक्त बन गया।रावण की रचना : रावण ने शिव तांडव स्तोत्र की रचना करने के अलावा अन्य कई तंत्र ग्रंथों की रचना की। कुछ का मानना है कि लाल किताब (ज्योतिष का प्राचीन ग्रंथ) भी रावण संहिता का अंश है। रावण ने यह विद्या भगवान सूर्य से सीखी थी। 'रावण संहिता' में उसके दुर्लभ ज्ञान के बारे में विस्तार से वर्णन मिलता है।रावण पर रचना : वाल्मीकि रामायण और रामचरित रामायण में तो रावण का वर्णन मिलता ही है किंतु आधुनिक काल में आचार्य चतुरसेन द्वारा रावण पर 'वयम् रक्षामः' नामक बहुचर्चित उपन्यास लिखा गया है। इसके अलावा पंडित मदनमोहन शर्मा शाही द्वारा तीन खंडों में 'लंकेश्वर' नामक उपन्यास भी पठनीय है।रावण का राज्य विस्तार : रावण ने सुंबा और बालीद्वीप को जीतकर अपने शासन का विस्तार करते हुए अंगद्वीप, मलयद्वीप, वराहद्वीप, शंखद्वीप, कुशद्वीप, यवद्वीप और आंध्रालय पर विजय प्राप्त की थी। इसके बाद रावण ने लंका को अपना लक्ष्य बनाया। लंका पर कुबेर का राज्य था।रावण का पुष्पक विमान : रावण ने कुबेर को लंका से हटाकर वहाँ खुद का राज्य कायम किया था। धनपति कुबेर के पास पुष्पक विमान था जिसे रावण ने छीन लिया था। रावण के इस पुष्पक विमान में प्रयोग होने वाले ईंधन से संबंधित जानकारियों पर मद्रास की ललित कला अकादमी के सहयोग से भारत अनुसंधान केंद्र द्वारा बड़े पैमान पर शोध कार्य किया जा रहा है। रामायण में उल्लेख मिलता है कि यह पुष्पक विमान इच्छानुसार छोटा या बड़ा हो जाता था तथा मन की गति से उड़ान भरता था।


एक गाँव : जहाँ होती है रावण की पूजा
रावण बना आस्था का प्रतीक
पूरे देश में दशहरा पर जहाँ असत्य पर सत्य की विजय के प्रतीक में रावण वध और उसके पुतले का दहन किया जाता है। वहीं राजधानी से लगे धरसींवा क्षेत्र के ग्राम मोहदी में रावण ग्रामीणों के लिए आस्था का प्रतीक बना हुआ है। जहाँ रावण की मूर्ति की विशेष पूजा-अर्चना कर गाँव में अमन-चैन की मन्नतें माँगी जाती है। इस बार की दशहरा में यहाँ 82वीं बार रावण की सामूहिक पूजा की गई।
रावण की पूजा से गाँव में शांति : मोहदी के 70 वर्षीय बुजुर्ग दुखुराम साहू ने कहा कि प्रतिवर्ष दशहरा पर्व पर रावण की सामूहिक पूजा की जाती है। उसने जब से होश संभाला है तब से अपने पूर्वजों को भी रावण महाराज की प्रतिमा का पूजन करते और मनौती माँगते ही देखा है। गाँव के अन्य बुजुर्ग सुनहरलाल वर्मा (68) बताते हैं कि रावण प्रतिमा की पूजन से अब तक गाँव में शांति है। संकट के समय गाँव लोग नारियल चढ़ाते हैं और मत्था टेककर मनौती माँगते हैं। रावण महाराज हर मनोकामना पूरी करते हैं। मोहदी में अकोली मार्ग तिराहे पर उत्तर दिशा मुखी रावण प्रतिमा को प्रति वर्ष पेंटिंग की जाती है।
हर मनोकामना पूरी करते हैं रावण : पूर्व सरपंच गिरधर साहू ने बताया कि 82 वर्ष पूर्व मोहदी में गोविंदराव मालगुजार नामक समाजसेवी ने रावण प्रतिमा की स्थापना की थी। उन्होंने भी अपने पूर्वजों को रावण प्रतिमा को पूजन करते और मनौती माँगते देखा था। वही परंपरा आज भी चल रही है। जिसका प्रमाण हर साल पूजन करने वालों की बढ़ती संख्या से लगाया जा सकता है।
एक और बुजुर्ग ग्रामीणों की माने तो रावण महाराज उनके हर संकट का निवारण करते हैं। गाँव की महिलाएँ गर्भवती होने पर अपने परिजनों के साथ यहाँ आकर रावण प्रतिमा की पूजा कर सब कुछ ठीक-ठाक होने की कामना करते हैं। यहाँ तक कि राजनीतिक लोग भी चुनाव के समय यहाँ आकर माथा टेकते हैं। नेताओं की मनोकामना पूर्ण होने का प्रमाण वह स्वयं है। इसलिए रावण महाराज की प्रतिमा अटूट श्रद्धा का केन्द्र का बना है।
रावण जैसे विद्वान व पंडित कोई नहीं : गाँव के होटल व्यवसायी पूरन का मानना है कि रावण जैसे विद्वान और प्रख्यात पंडित आज तक कोई नहीं हुआ। यदि वर्तमान समय से रावण की तुलना की जाए तो रावण वास्तव में पूजने लायक ही है। उसने माँ सीता का हरण करने का पाप जरूर किया लेकिन उनकी इच्छा के विपरीत उन्हें हाथ तक नहीं लगाया। उन्होंने कहा कि आज के समय में बहन-बेटियों की जिंदगी सुरक्षित नहीं है। यदि रावण सीता हरण की गलती नहीं करता तो वास्तव में आज पूरी दुनिया रावण को भी आस्था की मूर्ति के रूप में मानती।
देवी मंदिर मे मेला : मोहदी में रामलीला मंडली के कलाकारों अपनी प्राचीन परंपरा को आज भी जीवित रखे हैं। प्रति वर्षानुसार इस बार भी रामलीला का मंचन किया जाता है।

रावण के अस्तित्व की खोज
जहाँ बुराई के प्रतीक रावण के पुतले को प्रत्येक वर्ष जलाया जाता है, वहीं देखने में आया है कि श्रीलंका के रानागिर इलाके के अलावा भारत में भी रावण की कहीं-कहीं पूजा-अर्चना किए जाने का प्रचलन बढ़ रहा है। रावण के प्रति उक्त गाँव के समर्पण को आप क्या मानते हैं- आस्था या अंधविश्वास ।राम सेतु के विवाद के बाद राम-रावण पर शोध को बढ़ावा दिया जाने लगा है। राम-रावण के होने के तथ्*य खोजे जा रहे हैं। प्रमाण जुटाए जा रहे हैं। भारत और श्रीलंका के पुरातत्व और पर्यटन विभाग इस तरह के शोध में रुचि लेने लगे हैं।
खबरों में पढ़ने में आया था कि श्रीलंका में वह स्थान ढूँढ लिया गया है जहाँ रावण की सोने की लंका थी। ऐसा माना जाता है कि जंगलों के बीच रानागिल की विशालका पहाड़ी पर रावण की गुफा है, जहाँ उसने तपस्या की थी। यह भी कि रावण के पुष्पक विमान के उतरने के स्थान को भी ढूँढ़ लिया है। ऐसी खबरें भी पढ़ने को मिलीं कि रामायणकाल के कुछ हवाई अड्डे भी ढूँढ लिए गए हैं।
श्रीलंका का इंटरनेशनल रामायण रिसर्च सेंटर और वहाँ के पर्यटन मंत्रालय ने मिलकर रामायण से जुड़े ऐसे पचास स्थल ढूँढ लिए हैं जिनका पुरातात्विक और ऐतिहासिक महत्व है और जिनका रामायण में भी उल्लेख मिलता है।
श्रीलंका सरकार ने 'रामायण' में आए लंका प्रकरण से जुड़े तमाम स्थलों पर शोध कराकर उसकी ऐतिहासिकता सिद्ध कर उक्त स्थानों को पर्यटन केंद्र के रूप में विकसित करने की योजना बना ली है। इसके लिए उसने भारत से मदद भी माँगी है।श्रीलंका में मौजूद जिन स्थलों का 'रामायण' में जिक्र हुआ है, उन्हें चमकाए जाने की योजना है। इस योजना के तहत यहाँ आने वाले विदेशी, खासकर भारतीय पर्यटकों को 'रावण की लंका' के कुछ खास स्थलों को देखने का मौका मिलेगा।
कुछ प्रमुख स्थल : वेराँगटोक जो महियाँगना से 10 किलोमीटर दूर है वहीं पर रावण ने सीता का हरण कर पुष्पक विमान को उतारा था। महियाँगना मध्य श्रीलंका स्थित नुवारा एलिया का एक पर्वतीय क्षेत्र है। इसके बाद सीता माता को जहाँ ले जाया गया था उस स्थान का नाम गुरुलपोटा है जिसे अब 'सीतोकोटुवा' नाम से जाना जाता है। यह स्थान भी महियाँगना के पास है।
एलिया पर्वतीय क्षेत्र की एक गुफा में सीता माता को रखा गया था जिसे 'सीता एलिया' नाम से जाना जाता है। यहाँ सीता माता के नाम पर एक मंदिर भी है। इसके अलावा और भी स्थान श्रीलंका में मौजूद हैं, जिनका ऐतिहासिक महत्व है।
घटनाक्रम पर शोध : अंतरिक्ष एजेंसी नासा का प्लेनेटेरियम सॉफ्टवेयर रामायणकालीन हर घटना की गणना कर सकता है। इसमें राम को वनवास हो, राम-रावण युद्ध हो या फिर अन्य कोई घटनाक्रम। इस सॉफ्टवेयर की गणना बताती है कि ईसा पूर्व 5076 साल पहले राम ने रावण का संहार किया था।
भारतीय पुरातत्व सर्वेक्षण विभाग के सेवानिवृत्त पुरातत्वविद् डॉ. एलएम बहल कहते हैं कि रामायण में वर्णित श्लोकों के आधार पर इस गणना का मिलान किया जाए तो राम-रावण के युद्ध की भी पुष्टि होती है। इसके अलावा इन घटनाओं का खगोलीय अध्ययन करने वाले विद्वान भी हैं। भौतिकशास्त्री डॉ. पुष्कर भटनागर ने रामायण की तिथियों का खगोलीय अध्ययन किया है।
सेतुसमुद्रम परियोजना को लेकर पहले ही मर्यादा पुरुषोत्तम भगवान श्रीराम के अस्तित्व को लेकर विवाद खड़ा हो गया है। अब कुछ इतिहासकारों ने रावण के अस्तित्व की ही खोज शुरू कर दी है।
माना जाता है कि मेरठ के बागपत जिले के रावण उर्फ बड़ागाँव लंकाधिपति रावण ने ही स्थापित किया था। राजस्व रिकॉर्ड में भी यह गाँव रावण के नाम से दर्ज है।
रविवार को विजयादशमी के अवसर पर बड़ागाँव के प्राचीन मंशा देवी मंदिर में इतिहासकारों ने एक नई मुहिम की शुरुआत की। इतिहासकारों ने हिमालय से लंका जाने के रावण के मार्ग की खोज के लिए एक प्रोजेक्ट तैयार किया है। इससे इस बात को बल मिलता है कि लंका जाते समय लंकाधिपति 'रावण' उर्फ 'बड़ागाँव' से होकर गुजरा होगा।
मंदिर में मौजूद विष्णु की मूर्ति की बनावट वाली एक अन्य मूर्ति उदयगिरी की गुफाओं में भी मिली है। इससे पहले प्रारंभिक सर्वेक्षण में इतिहासकारों को मंशा देवी मंदिर के टीले से महाभारतकालीन चित्रित धूसर मृदभांड़, गुप्तकाल की बड़ी-बड़ी ईंटे, टूटे-फूटे बर्तन आदि मिल चुके हैं।...

तो भस्म हो जाएगा पूरा गाँव
आस्था और अंधविश्वास की इस बार की कड़ी में हम आपको ले चलते हैं उज्जैन जिले के चिखली ग्राम में जहाँ ऐसी मान्यता है कि यदि रावण को पूजा नहीं गया तो पूरा गाँव जलकर भस्म हो जाएगा।
आप इसे आस्था मानें या अंधविश्वास लेकिन यहाँ परम्परा अनुसार प्रत्येक वर्ष चैत्र नवरात्र में दशमी के दिन पूरा गाँव रावण की पूजा में लीन हो जाता है। इस दौरान यहाँ रावण का मेला लगता है और दशमी के दिन राम और रावण युद्ध का भव्य आयोजन होता है। पहले गाँव के प्रमुख द्वार के समक्ष रावण का एक स्थान ही हुआ करता था, जहाँ प्रत्येक वर्ष गोबर से रावण बनाकर उसकी पूजा की जाती थी लेकिन अब यहाँ रावण की एक विशाल मूर्ति है।
बाबूभाई रावण यहाँ के पुजारी हैं। रावण की पूजा-पाठ करने के कारण ही उनका नाम बाबूभाई रावण पड़ा है। इनका कहना है कि मुझ पर रावण की कृपा है। गाँव में जो भी विपत्ति आती है तो मुझे रावण के सामने अनशन पर बैठना होता है। जैसे यदि गाँव में पानी नहीं गिरता है तो मैं अनशन पर बैठ जाता हूँ तो तीन दिन में जोरदार झमाझम बारिश हो जाती है।
यहाँ के सरपंच कैलाशनारायण व्यास का कहना है कि यहाँ रावण की ही पूजा होती है। पूजा करने की परम्परा वर्षों पुरानी है। एक वर्ष किसी कारणवश रावण की पूजा नहीं की गई थी और न ही मेला लगाया गया था तो पूरे गाँव में अकस्मात आग लग गई थी, *मुश्किल से सिर्फ एक घर ही बच सका।
एक स्थानीय महिला पद्मा जैन ने कहा कि दशमी के दिन यहाँ राम-रावण युद्ध का आयोजन होता है। पूजा नहीं किए जाने के कारण गाँव में एक बार नहीं दो बार आग लग चुकी है। एक बार तो यहाँ वीडियो लगाकर यह देखने का प्रयास किया गया था कि मेला नहीं लगाने पर आग लगती है कि नहीं। उस दौरान इतनी तेज आँधी चली कि सब कुछ उड़ गया। यह मैंने मेरी आँखों से देखा है।
देशभर में जहाँ दशहरा असत्य पर सत्य की और बुराई पर अच्छाई की विजय के रूप में बड़े हर्षोल्लास के साथ मनाया जाता है, वहीं रावण के पैतृक गाँव नोएडा जिले के बिसरख में इस दिन उदासी का माहौल रहता है। इस बार भी दशहरे के त्योहार को लेकर यहाँ के लोगों में कोई खास उत्साह नहीं है।बिसरख गाँव के लोग न तो दशहरा मनाते हैं और न ही यहाँ रामलीला का मंचन होता है। इस गाँव में शिव मंदिर तो है, लेकिन भगवान राम का कोई मंदिर नहीं है।
पुरातत्व विभाग ने राम और रावण के अस्तित्व को भले ही नकार दिया हो, लेकिन नोएडा के शासकीय गजट में रावण के पैतृक गाँव बिसरख के साक्ष्य मौजूद नजर आते हैं।गजट के अनुसार बिसरख रावण का पैतृक गाँव है और लंका का सम्राट बनने से पहले रावण का जीवन यहीं गुजरा था।
इस गाँव का नाम पहले विश्वेशरा था, जो रावण के पिता विश्वेशरा के नाम पर पड़ा। कालांतर में इसे बिसरख कहा जाने लगा।पहले यह गाँव गाजियाबाद जिले में पड़ता था, लेकिन उत्तरप्रदेश में नए जिलों के सृजन के साथ यह गौतमबुद्धनगर(नोएड    ) जिले में चला गया।गाँव के लोगों का कहना है कि रावण का स्थान होने की वजह से वे दशहरा पर्व नहीं मनाते और यहाँ तक कि वे किसी अन्य जगह पर रावण के पुतले का दहन देखने से भी परहेज करते हैं।
कहा जाता है कि काफी समय पहले यह गाँव भूगर्भीय कारणों से ध्वस्त होकर एक टीले में तब्दील हो गया था। खुदाई करने पर आज भी यहाँ मिट्टी में दबे प्राचीन शिवलिंग निकलते हैं।
गाजियाबाद के प्रसिद्ध दूधेश्वरनाथ मंदिर का शिलालेख भी इस स्थान को रावण का क्षेत्र बताता है। शिलालेख पर यहाँ रावण द्वारा भगवान शिव की पूजा करने की बात लिखी हुई है।
कहा जाता है कि दूधेश्वरनाथ मंदिर से लगभग तीन किलोमीटर की दूरी पर स्थित हिंडन नदी पौराणिक काल की हरनंदी नदी है, जिसे कालांतर में हिंडन कहा जाने लगा।
मान्यता है कि रावण की शिवभक्ति के चलते यहाँ स्थित कैला और कैलाशनगर का नाम कैलाश पर्वत के नाम पर पड़ा है। बिसरख गाँव के लोगों का यह भी कहना है कि रावण की पटरानी मंदोदरी मेरठ की रहने वाली थी।धर्म चर्चा x अनुभूति. आसुरी गुणों के कारण रावण विष्णु अवतारी भगवान श्रीराम के हाथों मृत्यु को प्राप्त हुआ अन्यथा वह अपने पांडित्य की बदौलत अपने काल में श्रद्धा का पात्र भी था। राक्षसराज के रूप में स्वीकार्य रावण को रामायण, अग्निपुराण, शिवपुराण आदि में महापंडित भी कहा गया है। दशग्रीव रावण ब्रrाजी से तीसरी पीढ़ी में उत्पन्न विश्रवा मुनि का पुत्र था और अपना परिचय भी इसी रूप में देता था, जैसा कि महर्षि वाल्मीकि ने कहा है : अहं पौलस्त्यतनयो दशग्रीवश्च नामत:। मुनेर्विश्रवसो यस्तु तृतीयो ब्रrाणोùभवत्॥ पुरायुग के महान वैज्ञानिक मयासुर ने हेमा नामक अप्सरा से उत्पन्न अपनी पुत्री मंदोदरी का विवाह उसके साथ उसकी पांडित्य-प्रतिभा के कारण ही किया था : इयं ममात्मजा राजन् हेमयाप्सरया धृता। कन्या मन्दोदरी नाम पत्न्र्यथ प्रतिगृह्यताम्॥




रावण का सर्वनाश कैसे हुआ? यह ग्रहों की स्थिति के माध्यम से जाना जा सकता है। भगवान श्रीराम के हाथों उस रावण का सर्वनाश हुआ जिसने सारे ग्रहों को बन्दी बना रखा था। नीच के राहु ने बजरंगबली के उकसाने पर औँधे मुँह शनि को खुदवाकर सीधे मुँह करवाया।
शनि की दृष्टि पड़ते ही रावण के नाश का नाश निश्चित हुआ। कहते हैं न शनि की दृष्टि खराब होती है इसलिए शनि दर्शन उचित नहीं रहता। गुरु की भी पंचम दृष्टि राहु पर चाण्डाल योग बनाने से दिमाग चाण्डालों-सा रहा। गुरु-राहु की युति या इनका दृष्टि संबंध इंसान के विवेक को नष्ट कर देता है। यही कारण रावण के सर्वनाश का रहा।
शिव भक्त और शिवार्चना
इस प्रकार उस काल में मयासुर और विप्र कुल के बीच जो गठबंधन हुआ, वह दो प्रतिभाशाली कुलों के बीच संधि का सूचक है। मय का नाम विश्व की अनेक सभ्यताओं के सृजनकर्ता के रूप में स्वीकार्य है। मय के सूर्यसिद्धांत, मयमतम्, मयशास्त्र, विमानशास्त्रादि आज तक ग्रंथ रूप में विद्यमान हैं, वैसे ही रावण के कई मत आज तक महाकाव्य, पुराण और वैज्ञानिक साहित्य के रूप में मिलते हैं। पं. सुरकांत झा, किसनलाल शर्मा आदि विद्वानों ने हाल के वर्षो में इन मतों का संपादन ‘रावण संहिता’ नाम से किया है। वैसे शिवपुराण से ज्ञात होता है कि रावण ने जिन विषयों का उपदेश दिया, उनको उसके पुत्र इन्द्रजित् मेघनाद ने संकलित कर रावणसंहिता के रूप में ख्यात किया। रावण परम शिवभक्त था, आज देश-विदेश के शिव मंदिरों में गूंजने वाला ‘शिवतांडव स्तोत्र’ रावण की ही रचना कही गई है : जटाकटाह सम्भ्रमभ्रमन्निल    म्प निर्झरी विलोलवीचि वल्लरी विराजमानमूर्धनि। धगद् धगद् धगज्*जवल् ललाटपट्टपावके किशोरचन्द्र शेखरे रति: प्रतिक्षणं मम॥ शिव द्वारा रावण पर किए गए अनुग्रह को सूचित करने वाले अनेक मूर्तिशिल्प देश के विभिन्न हिस्सों से प्राप्त हुए हैं, जिन्हें विद्वानों ने रावणानुग्रह प्रतिमाओं के रूप में सूचीबद्ध किया है। यह शिव-रावण प्रसंग की विशिष्टता ही कही जाएगी। स्वयं राम ने जब सेतुबंध रामेश्वर का पूजन किया, तो अनुष्ठानकर्ता के रूप में पंडित रावण था।
ऐंद्रजालिक विद्या विशारद
रावण इंद्रजाल और माया विद्याओं में परम निपुण था। रामायण में उसकी माया विषयक साधनाओं के संदर्भ मिलते हैं। तुलसीदास ने कहा भी है : इंद्रजालि कहुं कहिअ न बीरा। काटई निज कर सकल सरीसा॥ (श्रीरामचरित मानस, लंकाकांड 28, 10) रावण के रचे ‘चातुज्र्ञान’ जैसे गणितीय ग्रंथ में विषय के रूप में जिन शब्दों का प्रयोग हुआ है, उनके तात्पर्य को आज तक ठीक से नहीं समझा जा सका है, किंतु यह माना जाता है कि नियमित संख्या को बताने के लिए प्रयुक्त उन-उन वर्णो के समुदायों का वाचक है। इस ग्रंथ के विषयों की विद्वानों ने ऋग्वैदिक संहिता के ‘जैरल्वीषशढ्नाढी    ी’ जैसे प्रयोग के आधार पर भी तुलना की है।
तन्त्र-आयुर्वेद ग्रंथकार
इसी प्रकार रावण के उड्डीशतंत्र और क्रियोड्डीशतंत्र जैसे ऐंद्रजालिक ग्रंथ उपलब्ध हैं। शिव-रावण संवाद के रूप में ज्ञात उड्डीशतंत्र में छह कर्मो का निरूपण है : शान्तिवश्य स्तम्भानि विद्वेषोच्चटने तथा। मारणानि शंसन्ति षट्कर्माणि मनीषिण:॥ (उड्डीशतंत्र पूर्वार्ध 11) इसी प्रकार क्रियोड्डीशतंत्र में उन्नीस खंडों में रोगोपचार, कवच, विभिन्न मंत्रों के प्रभाव व निर्माण सहित यक्षिणी, रक्षिणी, भैरवी व यक्षादि की गोपनीय साधनाओं का वर्णन है : श्रणुदेवी प्रवक्ष्यामि क्रियोड्डीशं तन्त्रमुत्तमम्। गोपितव्यं प्रयेन मम स्वप्राणवल्लभे॥ (क्रियोड्डीशतंत्र 1, 3)
आयुर्वेद जगत में अर्कप्रकाश और कुमारतंत्र जैसे ग्रंथों के मत विभिन्न व्याधियों के निवारण के लिए औषधियां तैयार करने के लिए आज तक पठन-पाठन और व्यवहार में रहे हैं। अर्कप्रकाश में रावण और मंदोदरी संवाद में गर्भरक्षा के लिए उपायों की विशेष चर्चा है : उपायं ब्रूहि मे नाथ गर्भिण्या हि यथोचितम्। यथा विवर्धते गर्भो जायते च बलं मम॥ (अर्कप्रकाश 1, 6) यह ग्रंथ पार्वती द्वारा रावण को अभयदान सहित उसके राज्य में आयुर्वेदिक संसाधनों के विकास की दृष्टि का द्योतक माना जाता है। तभी तो वहां सुषेण जैसे वैद्य हुए। इसमें रावण ने पांच प्रकार की औषधियां बताई हैं : ओषध्य पंचधा ख्याता लता गुल्माश्च शाखिन:। पादपा: प्रसराश्चेति तेषां वक्ष्यामि लक्षणम्॥ इस ग्रंथ में रोग के काल, निवारण और मृत्यु आदि के संबंध में बताई गई विधियां लंबे समय तक वैद्यों को मुखाग्र रही कि प्रश्नकर्ता के मुख से निकले हुए वर्ण अक्षरों को पहले गिन लेना चाहिए और उसके दो गुने कर तीन से भाजित करें। इस प्रकार यदि एक बचे तो रोगी को अतिशीघ्र लाभ मिलेगा, दो बचे तो देर से लाभ मिलेगा और तीन बचे तो रोगी की मृत्यु हो सकती है। इस ग्रंथ में विभिन्न प्रकार के अर्क बनाने की विधियां, दशांगादि धूप, षड्रस पदार्थ, भस्म निर्माण, बालादि रोगों का निवारण संबंधी विधियों का व्यावहारिक वर्णन किया गया है। ऐसा लगता है कि उस काल में शीतला जन्य चेचक आदि व्याधि बड़ी दुखद थी। रावण ने इसलिए शीतलास्तोत्र के पाठ और तदर्थ उपचार विधियों को लिखा।
कुमारतंत्र में रावण ने कई मातृका व्याधियों के निवारण के उपाय लिखे हैं। यह उस काल में शिशु-स्वास्थ्य पर पूरा ध्यान देने का प्रतीक है। शिशुओं को नंदना मातृका, सुनंदा, पूतना, मुखमंडिका, कटपूतना, शकुनिका, शुष्करेवती, अर्यका, भूसूतिका, निर्ऋता, पिलिपिच्छा, कामुका आदि मातृजन्य व्याधियों के निवारण के उपाय लिखे गए हैं। (कुमारतंत्र 1-12)
इसी प्रकार अग्नि, शिवादि पुराणों में रावणकृत नीतिशास्त्र, युद्धशास्त्र के प्रसंग उपलब्ध हैं। रावण की नीति को जानने के लिए राम द्वारा लक्ष्मण को भेजने का प्रसंग प्रसिद्ध है। विमानशास्त्र नामक ग्रंथ से पता चलता है कि रावण के काल में मय ने विभिन्न विमानों का निर्माण किया था, जो मनोवेग से आकाश में उड़ान भरते थे। इस प्रकार रावण के ज्ञान को विभिन्न भारतीय ग्रंथों में सुरक्षित रखा हुआ है। आसुरी गुणों के कारण रावण विष्णु अवतारी श्रीराम के हाथों मृत्यु को प्राप्त हुआ अन्यथा वह अपने पांडित्य की बदौलत अपने काल में श्रद्धा का पात्र भी था।
पौराणिक पात्रों में रावण एक ऐसा पात्र है जिसे जो हमारे जीवन से जुड़ा हुआ है। कोई भी ऐसा व्यक्ति जो थोड़ा क्रूर या क्रोधी स्वभाव का हो, उसकी तुलना हम रावण से कर देते हैं। रावण जितना दुष्ट था, उसमें उतनी खुबियां भी थीं, शायद इसीलिए कई बुराइयों के बाद भी रावण को महाविद्वान और प्रकांड पंडित माना जाता था। रावण से जुड़ी कई रोचक बातें हैं, जो आम कहानियों में सुनने को नहीं मिलती। विभिन्न ग्रंथों में रावण को लेकर कई बातें लिखी गई हैं। फिर भी रावण से जुड़ी कुछ रोचक बातें हैं, जो कई लोगों को अभी भी नहीं पता है।


आइए हम चर्चा करते हैं ऐसी ही कुछ बातों की।
वाल्मीकि रामायण के मुताबिक सभी योद्धाओं के रथ में अच्छी नस्ल के घोड़े होते थे लेकिन रावण के रथ में गधे हुआ करते थे। वे बहुत तेजी से चलते थे।
- रावण संगीत का बहुत बड़ा जानकार था, सरस्वती के हाथ में जो वीणा है उसका अविष्कार भी रावण ने किया था।
- रावण ज्योतिषी तो था ही तंत्र, मंत्र और आयुर्वेद का भी विशेषज्ञ था।
- रावण ने शिव से युद्ध में हारकर उन्हें अपना गुरु बनाया था।
- बालि ने रावण को अपनी बाजू में दबा कर चार समुद्रों की परिक्रमा की थी।
- रामचरितमानस में गोस्वामी तुलसीदास लिखते हैं कि रावण के दरबार में सारे देवता और दिग्पाल हाथ जोड़कर खड़े रहते थे।
- रावण के महल में जो अशोक वाटिका थी उसमें अशोक के एक लाख से ज्यादा वृक्ष थे। इस वाटिका में सिवाय रावण के किसी अन्य पुरुष को जाने की अनुमति नहीं थी।
- रावण जब पाताल के राजा बलि से युद्ध करने पहुंचा तो बलि के महल में खेल रहे बच्चों ने ही उसे पकड़कर अस्तबल में घोड़ों के साथ बांध दिया था।
- रावण जब भी युद्ध करने निकलता तो खुद बहुत आगे चलता था और बाकी सेना पीछे होती थी। उसने कई युद्ध तो अकेले ही जीते थे।
- रावण ने यमपुरी जाकर यमराज को भी युद्ध में हरा दिया था और नर्क की सजा भुगत रही जीवात्माओं को मुक्त कराकर अपनी सेना में शामिल किया था।कई लोग प्रबंधन से जुड़े होने के बावजूद भी परिस्थिति के अनुसार व्यवहार करना नहीं जानते। वे हर समय अपने ही प्रभाव में होते हैं। परिस्थितियों के अनुसार व्यवहार करना, अपनी भूमिका को समझना और सामने वाले से कोई काम निकलवाना। ये सब मैनेजमेंट के गुर होते हैं, जो हर व्यक्ति को पता नहीं होते। हम हैं भले एक ही लेकिन परिस्थिति के मुताबिक हमारी भूमिकाएं बदलती रहती है, हमें अपनी भूमिका के मुताबिक व्यवहार को सीखना चाहिए।
रामायण युद्ध की एक घटना इस बात की शिक्षा देती है। राम ने रावण की नाभि में तीर मार कर चित कर दिया था। वह रथ से धरती पर गिर पड़ा। अंतिम समय नजदीक था, रावण आखिरी सांसें ले रहा था। सभी उसके आसपास जमा होने लगे। ऐसा माना जाता है कि उस समय राम ने लक्ष्मण को आदेश दिया कि रावण महापंडित है, राजनीति का विद्वान है। जाओ उससे राजनीति के कुछ गुर सीख लो, वह युद्ध हार चुका है, अब हमारा शत्रु नहीं है। लक्ष्मण ने राम की बात मानी और रावण के नजदीक सिर की ओर जाकर खड़े हो गए, रावण से राजनीति पर कोई उपदेश देने की प्रार्थना की। रावण ने लक्ष्मण को देखा और उसे बिना शिक्षा दिए, यह कहकर लौटा दिया कि तुम अभी मेरे शिष्य बनने लायक नहीं हो।
लक्ष्मण ने राम के पास जाकर यह बात बताई। राम ने कहा तुम कहां खड़े थे, लक्ष्मण ने कहा रावण के सिर की ओर। राम ने कहा तुमने यहीं गलती की, तुम अभी योद्धा या युद्ध में जीते हुए वीर नहीं जो मरने वाले शत्रु के सिर के पास खड़े हो, अभी तुम एक विद्यार्थी हो, जो राजनीति सीखना चाहते हो, अबकी बार जाओ और रावण के पैर की ओर खड़े होकर प्रार्थना करना। लक्ष्मण ने ऐसा ही किया, रावण ने प्रसन्न होकर लक्ष्मण को राजनीति की कई बातें बताई। उसके बाद प्राण त्याग दिए।रावण सीता का हरण करके लंका ले गया। लंका अद्भुत, वैभवशाली, भव्य और दिव्य थी, जिसकी सुंदरता देखते ही बनती थी। इतनी बड़ी लंका होने के बाद भी रावण ने सीता को अशोक वाटिका में बंदी बनाकर रखा। इसका कारण नलकूबेर द्वारा रावण को दिया गया श्राप था। इसकी कथा रावण संहिता के अनुसार इस प्रकार है-
एक बार स्वर्ग की अप्सरा रंभा कुबेरदेव के पुत्र नलकुबेर से मिलने जा रही थी। रास्ते में रावण ने उसे देखा और वह रंभा के रूप और सौंदर्य को देखकर मोहित हो गया। रावण ने रंभा को बुरी नीयत से रोक लिया। इस पर रंभा ने रावण से उसे छोडऩे की प्रार्थना की और कहा कि आज मैंने आपके भाई कुबेर के पुत्र नलकुबेर से मिलने का वचन दिया है अत: मैं आपकी पुत्रवधु के समान हूं अत: मुझे छोड़ दीजिए। परंतु रावण था ही दुराचारी वह नहीं माना और रंभा के शील का हरण कर लिया।
रावण द्वारा रंभा के शील हरण का समाचार जब कुबेर देव के पुत्र नलकुबेर का प्राप्त हुआ तो वह रावण पर अति क्रोधित हुआ। क्रोध वश नलकुबेर ने रावण को श्राप दे दिया कि आज के बाद यदि रावण ने किसी भी स्त्री को बिना उसकी स्वीकृति के बिना अपने महल में रखा या उसके साथ दुराचार किया तो वह उसी क्षण भस्म हो जाएगा। इसी श्राप के डर से रावण ने सीता को राजमहल में न रखते हुए राजमहल से दूर अशोक वाटिका में रखा।

सीता रावण की पुत्री थीं?
रामकथा के प्रतिनायक रावण में बहुत से श्रेष्ठ गुण होते हुये भी उसका एक आचरण, उसका एक दोष उसकी सारी अच्छाइयें पर पानी फेर जाता है और उसे सबके रोष और वितृष्णा का पात्र बना देता है. यदि उस पर पर-नारी में रत रहने और सबसे बढ़कर सीता हरण का दोष न होता तो रावण के चरित्र का स्वरूप ही बदल जाता. वास्तवकता यह है कि सीता रावण की पुत्री थी और सीता स्वयंवर से पहले ही वह इस तथ्य से अवगत था.
‘जब मै अज्ञान से अपनी कन्या के ही स्वीकार की इच्छा करूं तब मेरी मृत्यु हो.”
-अद्भुत रामायण 8-12.
रावण की इस स्वीकारोक्ति के अनुसार सीता रावण की पुत्री सिद्ध होती है.अद्धुतरामायण मे ही सीता के आविर्भाव की कथा इस कथन की पुष्टि करती है -
दण्डकारण्य मे गृत्स्मद नामक ब्राह्मण, लक्ष्मी को पुत्री रूप मे पाने की कामना से, प्रतिदिन एक कलश मे कुश के अग्र भाग से मंत्रोच्चारण के साथ दूध की बूँदें डालता था (देवों और असुरों की प्रतिद्वंद्विता शत्रुता में परिणत हो चुकी थी. वे एक दूसरे से आशंकित और भयभीत रहते थे. उत्तरी भारत मे देव-संस्कृति की प्रधानता थी. ऋषि-मुनि असुरों के विनाश हेतु राजाओं को प्रेरित करते थे और य़ज्ञ आदि आयोजनो मे एकत्र होकर अपनी संस्कृति के विरोधियों को शक्तिहीन करने के उपाय खोजते थे.ऋषियों के आयोजनो की भनक उनके प्रतिद्वंद्वियों के कानों मे पडती रहती थी,परिणामस्वरूप पारस्परिक विद्वेष और बढ जाता था).एक दिन उसकी अनुपस्थिति मे रावण वहाँ पहुँचा और ऋषियों को तेजहत करने के लिये उन्हें घायल कर उनका रक्त उसी कलश मे एकत्र कर लंका ले गया.कलश को उसने मंदोदरी के संरक्षण मे दे दिया-यह कह कर कि यह तीक्ष्ण विष है,सावधानी से रखे.
कुछ समय पश्चात् रावण विहार करने सह्याद्रि पर्वत पर चला गया.रावण की उपेक्षा से खिन्न होकर मन्दोदरी ने मृत्यु के वरण हेतु उस कलश का पदार्थ पी लिया.लक्ष्मी के आधारभूत दूध से मिश्रित होने के कारण उसका प्रभाव पडा.मन्दोदरी मे गर्भ के लक्षण प्रकट होने लगे. अनिष्ठ की आशंकाओं से भीत मंदोदरी ने,कुरुश्क्षेत्र जाकर उस भ्रूण को धरती मे गाड दिया और सरस्वती नदी मे स्नान कर चली आई.
हिन्दी के प्रथम थिसारस(अरविन्द कुमार और कुसुम कुमार द्वारा रचित) मे भी सीता को रावण की पुत्री के रूप मे मान्यता मिली है.अद्भुतरामायण मे सीता को सर्वोपरि शक्ति बताया गया है,जिसके बिना राम कुछ करने मे असमर्थ हेंदो अन्य प्रसंग भी इसी की पुष्टि करते हैं –
(1) रावण-वध के बाद जब चारों दिशाओं से ऋषिगण राम का अभिनन्दन करने आये तो उनकी प्रशंसा करते हुये कहाकि सीतादेवी ने महान् दुख प्राप्त किया है यही स्मरण कर हमारा चित्त उद्वेलित है.सीता हँस पडीं,बोलीं,”हे मुनियों,आपने रावण-वध के प्रति जो कहा वह प्रशंसा परिहास कहलाती है.—— किन्तु उसका वध कुछ प्रशंसा के योग्य नही.”इसके पश्चात् सीता ने सहस्रमुख-रावण का वृत्तान्त सुनाया.अपने शौर्य को प्रमाणित करने के लिये,राम अपने सहयोगियों और सीता सहित पुष्पक मे बैठकर उसे जीतने चले.
सहस्रमुख ने वायव्य-बाण से राम-सीता के अतिरिक्त अन्य सब को उन्हीं के स्थान पर पहुँचा दिया.राम के साथ उसका भीषण युद्ध हुआ और राम घायल होकर अचेत हो गये..तब सीता ने विकटरूप धर कर अट्टहास करते हुये निमिष मात्र मे उसके सहस्र सिर काट कर उसका अंत कर दिया. सीता अत्यन्त कुपित थीं, हा-हाकार मच गया.ब्रह्मा ने राम का स्पर्श कर उन्हें स्मृति कराई. वे उठ बैठे. युद्ध-क्षेत्र मे नर्तित प्रयंकरी महाकाली को देख वे कंपित हो उठे.ब्रह्मा ने स्पष्ट किया कि राम सीता के बिना कुछ भी करने मे असमर्थ हैं.(वास्तव में ही सीता-परत्याग के पश्चात् राम का तेज कुण्ठित हो जाता है. भक्तजन भी के बाद के जीवन की चर्चा नहीं करते. वास्तविक सीता के स्थान पर स्वर्ण-मूर्ति रख ली जाती है, वनवासी पुत्रों से उनकी विशाल वाहिनी हार जाती है.रामराज्य का कथित चक्रवर्तित्व समाप्त और चारों भाइयों के आठों पुत्रों में राज्य वितरण, जैसे पुराने युग का समापन हो रहा हो.)राम ने सहस्र-नाम से उनकी स्तुति की,जानकी ने सौम्य रूप धारण किया:राम के माँगे हुये दो वर प्रदान किये और अंत मे बोलीं,”इस रूप मे सै मानस के उत्तर भाग मे निवास करूँगी.” और इस उत्तर भाग मे राम-भक्तों की रुचि दिखाई नहीं देती.
राम की प्रशंसा पर सीता के हँसने का प्रसंग भिन्न रूपों मे वर्णित हुआ है.उडिया भाषा की ‘विनंका रामायण’ मे सहस्रशिरा के वध के लिये,देवताओं ने खल और दुर्बल का सहयोग लेकर सीता और राम के कण्ठों मे निवास करने को कहा था(विलंका रामायण पृ.52,छन्द 2240)
(2) आनन्द रामायण,(राज्यकाण्ड ,पूर्वार्द्ध,अध्या य 5-6)———
विभीषण अपनी पत्नी और मंत्रियों के साथ दौडते हुये राम की सभा में आते हैं,और बताते हैं कि कुंभकर्ण के मूल-नक्षत्र मे उत्पन्न हुए पुत्र (जिसे वन मे छोड दिया गया था)मूलकासुर ने लंका पर धावा बोला हैऔर वह भेदिये विभीषण और अपने पिता का घात करनेगाले राम को भी मार डालेगा.
राम ससैन्य गये. सात दिनो तक भीषण युद्ध हुआ पर कोई परिणाम नहीं निकला.तब ब्रह्मा जी के कहने पर कि सीता ही इसके वध मे समर्थ हैं,सीता को बुलाया गया.उनके शरीर से निकली तामसी शक्ति ने चंण्डिकास्त्र से मूलकासुर का संहार किया.
दोनो ही प्रसंगों के अनुसार सीता राम की अनुगामिनी या छाया मात्र न होकर समर्थ,विवेकशीला और तेजस्विनी नारी हैं.वे अपने निर्णय स्वयं लेती हैं.स्वयं निर्णय लेने का आभास तो तुलसी कृत रामचरित-मानस मे भी है जहाँ वे वन-गमन के समय अपने निश्चय पर अ़टल रहती हैं और अपने तर्कों से अपनी बात का औचित्य सिद्ध करती हैं.लक्ष्मण रेखा पार करने का प्रकरण भी अपने विवेक के अनुसार व्यवहार करने की बात स्पष्ट करता है.
वाल्मीकि रामायण मे सीता प्रखर बुद्धि संपन्न होने के साथ स्वाभिमानी, निर्भय और स्पष्ट-वक्ता है. अयोध्याकाण्ड के तीसवें सर्ग मे जब राम उन्हें वन ले जाने से विरत करते हैं तो वे आक्षेप करती हुई कहती हैं,”मेरे पिता ने आपको जामाता के रूप मे पाकर क्या कभी यह भी समझा था कि आप शरीर से ही पुरुष हैं, कर्यकलाप से तो स्त्री ही हैं. ..जिसके कारण आपका राज्याभिषेक रोक दिया गया उसकी वशवर्ती और आज्ञापालक बन कर मै नहीं रहूँगी. “, “अरण्य-काण्ड के दशम् सर्ग मे जब राम दण्डक वन को राक्षसों से मुक्त करने का निर्णय करते हैं वह राम को सावधान करती हैं कि दूसरे के प्राणों की हिंसा लोग बिना बैर-विरोध के मोह वश करते हैं,वही दोष आपके सामने उपस्थित है. एक उदाहरण देकर उन्होने राम से कहा मै आपको शिक्षा देती हूँ कि धनुष लेकर बिना बैर के ही दण्कारण्यवासी राक्षसों के वध का विचार नहीं करना चाहिये. बिना अपराध के किसी को मारना संसार के लोग अच्छा नहीं समझेंगे. वे यह भी कहती हैं कि राज्य त्याग कर वन मे आ जाने पर यदि आप मुनि- वृत्ति से ही रहें तो इससे मेरे सास-श्वसुर को अक्षय प्रसन्नता होगी. हम लोगों को देश-धर्म का आदर करना चाहिये.कहाँ शस्त्र-धारण और कहाँ वनवास!हम तपोवन मे निवास करते हैं इसलिये यहाँ के अहिंसा धर्म का पालन करना हमारा कर्तव्य है. आगे यह भी कहती हैं कि आप इस विषय मे अपने छोटे भाई के साथ बुद्धिपूर्वक विचार कर लें फिर आपको जो उचित लगे वही करें. दूसरी ओर राम यह मान कर चलते हैं कि सारी पृथ्वी इक्ष्वाकुवंशी क्षत्रियों की है, इसलिये वे सबको दण्ड देने के अधिकारी हैं(वाल्मीकि रामायण, किष्किन्धा काण्ड,18 सर्ग मे ),जब कि उत्तरी भारत में ही अनेक स्वतंत्र राज्यों का उल्लेख रामायण में ही मिल जाता है.
, ‘दक्षिण के प्रसिद्ध विद्वान इलयावुलूरि पाण्डुरंग राव, जिन्होने तेलुगु, हिन्दी और अंग्रेजी मे लगभग 500 कृतियों का प्रणयन किया है, ,और जो तुलनात्मक भरतीय साहित्य,दर्सन और भारतीय भाषाओं मे राम-कथा साहित्य के विशेष अध्येता हैं, का मत भी इस संबंध मे उल्लेखनीय है.अपनी ‘वाल्मीकि ‘नामक पुस्तक मे उन्होने सीता को उच्चतर नैतिक शिखरों पर प्रतिष्ठित करते हुये कहा है, -’राम इस विषय मे अपनी पति-परायणा पत्नी के साथ न्याय नहीं कर सके……..वे अपनी दणडनीति मे थोडा समझौता तो
कर ही सकते थे.क्योंकि उनकी पत्नी गर्भवती है,और अयोध्या के भावी नरेश(नरेशों ) को जन्म देनेवाली है. कारण कुछ भी हो साध्वी, तपस्विनी सीता पर जो कुछ बीता वह सबके लिये अशोभनीय है. “(वाल्मीकि-पृष्ठ 49)वन-वास हेतु प्रस्थान के समय जब कौशल्या सीता को पतिव्रत- धर्म का उपदेश देती हैं तो सीता उन्हें आश्वस्त करती हुई कहती हैं, ‘स्वामी के साथ कैसा व्यवहार करना चाहिये यह मुझे भली प्रकार विदित है.पूजनीया माताजी, आपको मुझे असती के समान नहीं मानना चाहिये . …..मैने श्रेष्ठ स्त्रियों माता आदि के मुख से नारी के सामान्य और विशेष धर्मों का श्रवण किया है. ‘
सामने आनेवाली हर चुनौती को सीता स्वीकार करती है. जब विराध राम-लक्षमण के तीरों से घायल हो कर सीता को छोड उन दोनो को उठा कर भागने लगता है तो वे बिना घबराये साहस पूर्वक सामने आ कर उसे नमस्कार कर राक्षसोत्तम कह कर संबोधित करती हैं और उन दोनो को छोड कर स्वयं को ले जाने को कहती हैं. राज परिवार मे पली सुकुमार युवा नारी मे इतना विश्वास,साहस धैर्य और स्थिरता उनके विरल व्यक्तित्व की द्योतक है. हनुमान ने भी सीता को अदीनभाषिणी कहा है. वह राम से भी दया की याचना नहीं करती, केवल न्याय माँगती है, जो उन्हे नहीं मिलता.
सीता के चरित्र पर संदेह करते हुये, अंतिम प्रहार के रूप मे, राम ने यहाँ तक कह डाला कि तुम लक्ष्मण, भरत, सुग्रीव, विभीषण जिसका चाहो वरण कर सकती हो. सीता तो सीता, उन चारों को, जो सीता और राम-सीता के प्रति पूज्य भाव रखते थे, ये वचन कैसे लगे होंगे !वाल्मीकि की सीता ने उत्तर दिया था,”यदि मेरे संबंध मे इतना ही निकृष्ट विचार था तो हनुमान द्वारा इसका संकेत भर करवा देते. …”आगे उन्होने कहा, “आप ऐसी कठोर, अनुचित, कर्ण-कटु और रूखी बात मुझे क्यों सुना रहे हैं ?जैसे कोई निम्न श्रेणी का पुरुष, निम्न श्रेणी की स्त्री से न कहने योग्य बातें भी कह डालता है ऐसे ही आप भी मुझसे कह रहे हैं. ..नीच श्रेणी की स्त्रियों का आचरण देख कर यदि आप समूची स्त्री जाति पर ही सन्देह करते हैं तो यह उचित नहीं है.आपने ओछे मनुष्यों की भाँति केवल रोष का ही अनुसरण करके, मेरे शील-स्वभाव का विचार छोड केवल निम्न कोटि की स्त्रियों के स्वभाव को ही अपने सामने रखा है(युद्ध-काणड,116 सर्ग).”
पति-पत्नी का संबंध अंतरंग और पारस्परिक विश्वास पर आधारित है. सीता की अग्नि-परीक्षा लेने और वरुण,यम, इन्द्र ब्रह्मा और स्वयं अपने पिता राजा दशरथ के प्रकट होकर राम को आश्वस्त करने के बाद भी, वे प्रजाजनो के सम्मुख सत्य को क्यों नही प्रस्तुत कर पाते ?राम अगर सीता द्वारा अग्नि-परीक्षा दी जाने की बात बता देते तो सारी प्रजा निस्संशय होकर स्वीकार कर लेती, उसी प्रकार जैसे राम के पुत्रों को सहज ही स्वीकार कर लिया था.
राजा दशरथ तो स्वयं खिन्न हैं. वे सीता को पुत्री कह कर सम्बोधित करते हैं और कहते हैं कि वह इस व्यवहार के लिये राम पर कुपित न हो. उन्हें अनुमान भी नहीं होगा निर्दोषिता सिद्ध होने के बाद भी सीता को दंडित किया जायेगा और फिर उन्हें इस स्थिति से गुजरना होगा. राम सदा परीक्षा , प्रमाण और शपथ दिलाते रहे, और विपत्ति के समय सीता अकेला छोड दिया गया. चरम सीमा तब आ गई जब उन्होने देश-देश के राजाओं, मुनियों और समाज के प्रत्येक वर्ग के लिये घोषणा करवा दी कि जिसे सीता का शपथ लेना देखना हो उपस्थित हो. उस विशालजन-समूह के सामने सीता को वाल्मीकि द्वारा आश्रम से बुलवाकर उपस्थित किया जाता है(वाल्मीकि रमायण). दो युवा पुत्रों की वयोवृद्ध माता, जिसका परित्यक्त जीवन, वन मे पुत्रों को जन्म देकर समर्थ और योग्य बनाने की तपस्या मे बीता हो, ऐसी स्थिति मे डाले जाने पर धरती मे ही तो समा जाना चाहेगी. वाल्मीकि ने नारी मनोविज्ञान का सुन्दर निर्वाह किया है. सब कुछ जानते हुए भी पति पत्नी को विषम स्थितियों से जूझने के लिये अकेला छोड, लाँछिता नारी के पति की मानसिकता धारण किये राम विचलत होकरअपने को बचाने के लिये बार-बार समाज के सामने मिथ्या आरोंपों का,दुर्वचनों, शंकाओं का और कुतर्कों की भाषा बोलने लगे किन्तु अविचलत रह कर सीता ने सबका सामना करते हुये जिस प्रकार व्यवहार किया उससे उनकी गरिमा और बढ़ती है. प्रश्न यह है कि राम अपने इस आचरण से भारतीय संस्कृति के कौन से मान स्थापित कर सके ?
जनता को सत्य बता कर उचित व्यवहार करने से यह गलत सन्देश लोक को न मिलता कि पत्नी पर पति का अपरमित अधिकार है और पत्नी का कर्तव्य है सदा दीन रह कर आज्ञा का पालन. !राम के इस व्यवहार ने भारतीय मानसिकता को इतना प्रभावित कर दिया कि चरित्रहीन, क्रूर और अन्यायी पति भी पत्नी में सीता का आदर्श चाहते हैं एक बार सीता के सामने आकर राम अपनी स्थिति तो स्पष्ट कर ही सकते थे. सीता को लेकर स्वयं वन भी जा सकते थे, राज्य को सँभालने के लिये तीनो भाई थे ही, संतान उत्पन्न होने तक ही साथ दे देते,बच्चे तो उनके ही थे !
अयोध्या काण्ड के बीसवें सर्ग मे कौशल्या की स्थिति भी इसी प्रकार चित्रित की गई है.जब पुत्र को वनवास दे दिया गया है, वे चुप नहीं रह पातीं, कहती हैं, ‘पति की ओर से भी मुझे अत्यंत तिरस्कार और कडी झटकार ही मिली है. मै कैकेयी की दासियों के बराबर या उससे भी गई-बाती समझी जाती हूँ. …पति के शासन-काल मे एक ज्येष्ठ पत्नी को जो कल्याण या सुख मिलना चाहिये वह मुझे कभी नहीं मिला.
वन-गमन के लिये जब राम अपनी माताओं से बिदा लेने जाते हैं तब रनिवास मे दशरथ की 350 और पत्नियाँ हैं(वाल्मीकि रामायण,अयोध्या काण्ड 39 सर्ग)
शूर्पनखा(चन्द्रनख     ) के साथ उनका जो व्यवहार रहा उसे नीति की दृष्ट से शोभनीय नहीं कहा जा सकता. कालकेयों सेयुद्ध करते समय रावण ने प्रमादवश अपनी बहन शूर्पनखा के पति विद्युत्जिह्व का भी वध कर दिया. जब बहिन ने उसे धिक्कारा तो पश्चाताप करते हुये रावण ने उसे उसे संतुष्ट करने को दण्डकारण्य का शासन देकर खर -दूषण को उसकी आज्ञा में रहने के लिये नियुक्त कर दिया (वाल्मीकि रामायण, उत्तर खण्ड -24सर्ग).वह विधवा थी और यौवन संपन्न थी. अपने क्षेत्र में दो शोभन पुरुषों को देख कर उसने प्रणय-निवेदन किया. उसका आचरण रक्ष संस्कृति के अनुसार ही था.पर जिस संस्कृति और आचरण में राम पले थे उसमें एक नारी का आगे बढ कर प्रेम-निवेदन करना उनके गले से नहीं उतरा. उन्होंने उसे विनोद का साधन बना लिया.उपहास करते हुये दोनों भाई मज़ा लेते हैं.एक -दूसरे के पास भेजते हुये राम-लक्ष्मण जिस प्रकार उसकी हँसी उड़ाते हैं और अप शब्द कहते हैं उससे वह क्रोधित हो उठती है. राम लक्ष्मण से उसके नाक-कान कटवा देते हैं. इलयावुलूरि पाण्डुरंग राव का कथन है-शूर्पनखा में भी गरिमा और गौरव का अभाव नहीं है. कमी उसमे केवल यही है कि राम-लक्ष्मण के परिहास को वह सही परिप्रेक्ष्य में समझ नहीं पाती. बेचारी महिला दोनों राजकुमारों में से एक को अपना पति बनाने का दयनीय प्रयास करते हुये कभी इधर और कभी उधऱ जाकर हास्यास्पद बन जाती है. अंततः सारा काण्ड उसकी अवमानना में परिणत हो जाता है (वाल्मीकि पृ.75).
ताटका के प्रसंग मे भी देखने को मिलता है कि राम के साथ उसका कोई विरोध नहीं था य़वह राक्षसी न होकर यक्षी थी. उसके पिता सुकेतु यक्ष बडे पराक्रमी और सदाचारी थे. संतान प्राप्ति के लिये उन्होंने घोर तपस्या की. बृह्मा जी ने प्रसन्न होकर उन्हे एक हजार हाथियों के बल वाली कन्या की प्राप्ति का वर(या प्रछन्न शाप?) दिया, वही ताटका थी. अगस्त्य मुनि ने उसके दुर्जय पुत्र मारीच को राक्षस होने का शाप दिया और उसके पति सुन्द को शाप देकर मार दिया. तब वह अगस्त्य मुनि के प्रति बैर-भाव रखने लगी. और उन्होंने उसे भी नर-भक्षी होने का शाप दे दिया था (बालकाण्ड, 25 सर्ग).पता नहीं, तपस्वी होकर भी ऋषि-मुनियों में इतना अहं क्यों था कि अपनी अवमानना की संभावना से ही, बिना वस्तुस्थिति या परिस्थिति का विचार किये शाप दे देते थे. शकुन्तला, लक्ष्मण,और भी बहुत से लोग अकारण दण्डत होते रहे. इसी प्रकार की एक कथा सौदास ब्राह्मण की है.शिव के आराधन मे लीन होने के कारण, उसने अपने गुरु को उठ कर प्रणाम नहीं किया तो उसे भी राक्षस होने का शाप मिला, ऐसा भयानक राक्षस जो निरंतर भूख-प्यास से पीडित रह कर साँप, बिच्छू, वनचर और नर-माँस का भक्षण करे.वाल्मीकि रामायम के उत्तर काण्ड, एकादश सर्ग मे उल्लेख है कि पहले समुद्रों सहित सारी पृथ्वी दैत्यों के अधिकार मे थी.विष्णु ने युद्ध मे दैत्यों को मार कर इस पर आधिपत्य स्थापित कियाथा.ब्रह्मा की तीसरी पीढी मे उत्पन्न विश्रवा का पुत्र दशग्रीव बडा पराक्रमी और परम तपस्वी था.विष्णु के भय से पीडित अपना लंका-निवास छोड कर रसातल को भागे राक्षस कुल का रावण ने उद्धार किया और लंका को पुनः प्राप्त किया.सुन्दर काण्ड के दशम् सर्ग मे उल्लेख है कि हनुमान ने राक्षस राज रावण को तपते हुये सूर्य के समान तेज और बल से संपन्न देखा. रावण स्वरूपवान था. हनुमान विचार करते हैं, ‘अहा इस राक्षस राज का स्वरूप कैसा अद्भु है!कैसा अनोखा धैर्य है, कैसी अनुपम शक्ति है और कैसा आश्चर्यजनक तेज है !यह संपूर्ण राजोचित लक्षणों से युक्त है. ‘
सुन्दर स्त्रियों से घिरा रावण कान्तिवान नक्षत्रपति चन्द्रमा के समान शोभा पा रहा था. राजर्षियों,ब्रह्मऋषियों ,दैत्यों, गंधर्वों और राक्षसों की कन्यायें स्वेच्छा से उसके वशीभूत हो उसकी पत्नियाँ बनी थीं. वहाँ कोई ऐसी स्त्री नहीं थी, जिसे बल पराक्रम से संपन्न होने पर भी रावण उसकी इच्छा के विरुद्ध हर लाया हो. वे सब उसे अपने अलौकिक गुणों से ही उपलब्ध हुई थीं. उसकी अंग-कान्ति मेघ के समान श्याम थी.शयनागार मे सोते हुये रावण के एक मुख और दो बाहुओं का ही उल्लेख है. श्रेष्ठ कुल में उत्पन्न रावण परम तपस्वी, ज्ञान-विज्ञान मे निष्णात कलाओं का मर्मज्ञ और श्रेष्ठ संगीतकार था उसके विलक्षण व्यक्तित्व के कारण ही, उसकी मृत्यु के समय राम ने लक्ष्मण को उसके समीप शिक्षा लेने भेजा था., यह उल्लेख भी बहुत कम रचनाकारों ने किया है. .उसके द्वारा रचित स्तोत्रो में उसके भक्ति और निष्ठा पूर्ण हृदय की झलक मिलती है. चिकित्सा-क्षेत्र मे भी उसकी विलक्षण गति थी.
रामायण के अनुसार रावण ने कभी सीता को पाने का प्रयत्न नहीं किया मानस में धनुष-यज्ञ में वह उपस्थित था पर उसने धनुष को हाथ नहीं लगाया. दोनों ही महाकाव्यों में वह सीता के समीप अकेले नहीं अपनी रानियों के साथ जाता है. यह उल्लेख भी है कि रावण ने सीता को इस प्रकार रखा जैसे पुत्र अपनी माता को रखता है. इस उल्लेख से रावण की भावना ध्वनित है. वाल्मीकि रामायण के ‘सुन्दरकाण्ड’ में वर्णित है कि रात्रि के पिछले प्रहर में छहों अंगों सहित वेदों के विद्वानऔर श्रेष्ठ यज्ञों को करनेवालों के कंठों की वेदपाठ-ध्वनि गूँजने लगती थी. इससे लंका के वातावरण का आभास मिलता है.
मन्दोदरी का मनोहर रूप और कान्ति देख, हनुमान उन्हें भ्रमवश सीता समझ बैठे थे. सीता और मन्दोदरी की इस समानता के पीछे महाकवि का कोई गूढ़ संकेतार्थ निहित है. हनुमान ने राम से कहा था, ‘सीता जो स्वयं रावण को नहीं मार डालती हैं इससे जान पडता है कि दशमुख रावण महात्मा है, तपोबल से संपन्न होने के कारण शाप के अयोग्य है. ‘ वाल्मीकि ने रावण को रूप-तेज से संपन्न बताते हुये उसके तेज से तिरस्कृत होकर हनुमान को पत्तों में छिपते हुये बताया है.

‘रक्ष’ नामकरण के पीछे भी एक कथा है -समुद्रगत जल की सृष्टि करने के उपरांत ब्रह्मा ने सृष्टि के जीवों से उसका रक्षण करने को कहा. कुछ जीवों ने कहा हम इसका रक्षण करेंगे, वे रक्ष कहलाये और कुछ ने कहा हम इसका यक्षण(पूजन) करेंगे, वे यक्ष कहलाये(वाल्मीकि रामायण, उत्तर काण्ड, सर्ग 4).कालान्तर में रक्ष शब्द का अर्थह्रास होता गया और अकरणीय कृत्य उसके साथ जुड़ते गये. अत्युक्ति और अतिरंजनापूर्ण वर्णनों ने उसे ऐसा रूप दे दिया क लोक मान्यता में वह दुष्टता और भयावहता का प्रतीक बन बैठा.
मय दानव की हेमा अप्सरा से उत्पन्न पुत्री मन्दोदरी से रावण ने विवाह किया था. मन्दोदरी की बड़ी बहिन का नाम माया था. अमेरिका की ‘मायन कल्चर ‘का मय दानव और उसकी पुत्री माया से संबद्धता,तथा रक्षसंस्कृति और ‘मय संस्कृति’ के अदुभुत साम्य को देख कर दोनों की अभिन्नता बहुत संभव लगती है. वहाँ की आश्चर्यजनक नगर-योजना.और विलक्षण भवन निर्माण कला इसके प्रत्यक्ष उदाहरण हैं.

‘मायन कल्चर’ की नगर व्यवस्था, प्रतीक-चिह्न, वेश-भूषा आदि लंका के वर्णन से बहुत मेल खाते है. मय दानव ने ही लंका पुरी का निर्माण किया था. उनकी जीवन- पद्धति और मान्यताओं मे भी काफी-कुछ समानतायें है.रक्ष ही नहीं उसका स्वरूप भारतीय संस्कृति से भी साम्य रखता है. मीलों ऊँचे कगारों के बीच बहती कलऋता (कोलरेडो) नदी और ग्रैण्ड केनियन की दृष्यावली इस धरती की वास्तविकतायें हैं. संभव है यही वह पाताल पुरी हो जहाँ दानवों को निवास प्राप्त हुआ था.

तमिल भाषा की कंब रामायण मे उल्लेख हुआ है कि मन्दोदरी रावण की मृत्यु से पूर्व ही उसकी छाती पर रोती हुई मर गई,वह विधवा और राम की कृपाकाँक्षिणी नहीं हुई.वहाँ यह भी उल्लेख है कि रावण ने सीता को पर्णकुटी सहित पञ्चवटी से उठा लिया,उसका स्पर्श नहीं किया.रामेश्वर मे शिव स्थापना के समय विपन्न और पत्नी-वंचित राम का अनुष्ठान पूर्ण करवाने,रावण सीता को लाकर स्वयं उनका पुरोहित बना था. कार्य पूर्ण होने पर वह सीता को वापस ले गया. ये सारे प्रसंग सुविदित हैं.कदम्बिनी के मई2002 के अंक के एक लेख में रावण का राम के पुरोहित बनने का उल्लेख है. रावण के पौरुष, पाण्डित्य,परम शिव-भक्त विद्याओं, कलाओं नीति,आदि का मर्मज्ञ प्राकृत के राम-काव्य ‘पउम चरिय ‘ और संस्कृत के ‘पद्मचरितम्’ मे शूर्पनखा का नाम चंद्रनखा है.इन काव्यों मे भी लोकापवाद के भय से राम सीता को त्याग देते हैं.सीता के पुत्रों को युवा होने के पश्चात् परित्याग की घटना सुन कर क्रोध आता है,वे राम पर आक्रमण करते हैं.राम ने अपने जीवन काल मे ही चारों भाइयों के आठों पुत्रों को पृथक्-पृथक् राज्यों का स्वामी बना दिया था.लक्ष्मण ने आज्ञा-भंग का अपराध स्वयं स्वीकार कर जल-समाधि ले ली थी.सीता का जो रूप बाद मे अंकित किया गया,वह इन प्रसंगों से बिल्कुल मेल नहीं खाता. किसी भी रचनाकार ने उन्हे रावण की पुत्री स्वीकार नहीं किया.कारण शायद यह हो कि इससे राम के चरित्र को आघात पहुँचता.नायक की चरित्र-रक्षा के लिये घटनाओं मे फेर-बदल करने से ले कर शापों, विस्मरणों, तथा अन्य असंभाव्य कल्पनाओं का क्रम चल निकला.उसका इतना महिमा-मंडन कि वह अलौकिक लगने लगे और और प्रति नायक का घोर निकृष्ट अंकन.अतिरंजना, चमत्कारोंऔर अति आदर्शों के समावेश ने मानव को देवता बना डाला और भक्ति के आवेश ने कुछ सोचने-विचारने की आवश्यता समाप्त कर दी कि जो है सो बहुत अच्छा.वेदों ने ‘चरैवेति चरैवेति’ ‘कह कर मानव बुद्धि के सदा सक्रिय रहने की बात कही हैं पर यहाँ जो मान लिया उसे ही अंतिम सत्य कह कर आगे विचार करने से ही इंकार कर दिया जाता है. कान बंद कर वहाँ से चले आओ, आलोचना (निन्दा?) सुनने से ही पाप लगेगा ) आगे विचार करना तो दूर की बात है.भारतीय चिन्ता-धारा अपने खुलेपन के लिये जानी जाती है इसीलिये वह पूर्वाग्रहों से ग्रस्त न रह कर जो विवेक सम्मत है उसे आत्मसात् करती चलती है. फिर यह दुराग्रह क्यों ?लोक में यही सन्देश जाता है कि राम ने रावण द्वारा अपहृत सीता को त्याग दिया. पत्नी की दैहिक शुद्धता की बात उठने पर यही उदाहरण सामने रखा जाता है, जब राम जैसे सामर्थ्यवान तक संदेह के कारण पत्नी का परित्याग कर देते हैं तो हम साधारणजनों की क्या बिसात.कुछ लोगों मानने को तैयार ही नहीं राम ने सीता का परित्याग किया. ऐसे उल्लेखों को क्षेपक बताया जा रहा है. लेकिन संस्कृत और हिन्दीतर भाषा की रामायणों में राम के पुत्रों के जन्म की जैसी महत्वपूर्ण घटना की चर्चा तक कहीं नहीं मिलती. लंबे समय के बाद रघुकुल में संतान उत्पन्न हुई, राम और सीता जीवन के कितने कठोर अनुभवों से गुज़रने के बाद माता पिता बने यह कोई छोटा अवसर नहीं था. राजभवन में राजा के पुत्र उत्पन्न हो, आनन्द बधाई, मंगल-वाद्य न बजें, कौशल्यादि की प्रसन्नता, रीति -नीति, संस्कार, कहीं कुछ नहीं. प्रजा में कहीं कोई संवाद -सूचना तक नहीं.
अहल्या को पाँव से छू कर उद्धार करने की बात वाल्मीकि रामायण में नहीं है. माता के वयवाली, तपस्विनी ऋषि-पत्नी को पाँव से स्पर्श करना मर्यादा के अंतर्गत नहीं आता, राम स्वयं उनके चरण-स्पर्श कर उन्हें उस मानसिक जड़ता से उबारते और उनकी निर्दोषिता प्रमाणित करते तो उनका चरित्र नई ऊँचाइयों को छू लेता.
जो इस संसार में मानव योनि में जन्मा है, सबसे पहले वह मानव है और मानवता उसका धर्म.जीवन चेतना की अविरल धारा है उसका आकलन भी सारे पूर्वाग्रह छोड़ उसकी समग्रता में करना संतुलत दृष्टि का परिचायक है. जन्म से ही उस पर पुण्यत्मा (ईश्वर होने का )या पापी और नीच होने का ठप्पा लगा कर, उसके हर कार्य को उसी चश्मे से देखना और येन-केन प्रकारेण प्रत्येक कार्य को महिमामण्डित या निन्दित करने से अच्छा यह है कि सहज मानवीय दृष्टि से उसके पूरे जीवन के कार्यों का समग्र लेखा-जोखा करने के बाद ही, उसका मूल्यंकन हो. ईश्वरत्व के सोपान पर अधिष्ठित करना अनुचित नहीं लेकिन मानवीयता की शर्त पूरी करने के बाद. मानवी गुणों का पूर्णोत्कर्ष न कर ईश्वरत्व की ओर छलाँग लगा देने से आदर्श व्यावहारिक नहीं हो सकेंगे.
श्री इलयावुलूरि ने एक बात बहुत पते की कही है -यह विडंबना की बात है क सारा संसार सीता और राम को आदर्श दंपति मान कर उनकी पूजा करता है किन्तु उनके जैसा दाम्पत्य किसी को भी स्वीकार नहीं होगा (वाल्मीकि.संदेश. अंतिम अध्याय).इसमें एक बात और जोड़ी जा सकती है कि राम जैसा पिता पाने को भी कोई पुत्र शायद ही तैयार हो, और कौशल्या की तरह लाचार, वधू और पौत्रविहीना होकर अकेले वृद्धावस्था बिताने की कामना भी कोई माता नहीं करेगी. अति मर्यादाशील और आज्ञाकारी लक्ष्मण, अपने पूज्य भाई के आदेशानुसार किसी स्त्री के नाक-कान काट कर भले चुप रहें पर पूज्या भाभी को, गर्भावस्था में, बिना किसी तैयारी के, जंगल में अकेला छोड़ कर कैसा अनुभव करते होंगे यह तो वे ही जानेवाल्मीक रामायण में यह लिखा है कि रावन लोगो से अतरिक्त कर वसूला करता था और उसने मह्त्माओं को कर मुक्त कर रखा था किसी ने उसे बहका दिया कि वह उन से भी कर लिया करे तो उसने अपने सैनिकों को कर लेने के लिए भेजा कुछ मह्त्माओं ने क्रोधित हो कर अपना रक्त कर के रूप में दे दिया और कहा कि इसके कारण ही तुमारा सर्वनास होगा तो रावन ने उस रक्त को एक भूमि के अन्दर रखा दिया
जब जनक के राज्य में अकाल आया तो उसी भूमि कि पूजा कर के उस पर हल चलाया और सीता माता का प्रदुर्भाव हुआ

Sunday, June 5, 2011


The stunning fact: on the moon found the skeleton of a man

American newspaper The New York Times published a sensational: on the moon found the skeleton of a man . This stunning news does not look like an ordinary newspaper "duck" as a solid body refers to a recognized authority - leading Chinese astrophysicist Mao Kahn.
And reject this scientist with the threshold can not: namely Mao Kang winter of 1988 brought a shock to the whole scientific world by publishing a conference in Beijing on human photos bare foot on the lunar surface. And said here that got these shots from "a reliable source in the United States."
According to Mao Kahn snapshot of the skeleton - of the second batch of photos obtained from the same source, wrote proxfiles.ru.
On the technical side there is nothing impossible. Modern optics is such that clearly captures from orbiting satellites headlines, spread out on the ground. And on the moon has no atmosphere, can be read newspaper text. The only question is whether or not to walk on the moon, a man who then died and turned into a skeleton, and why the Americans are holding the photographs in no hurry to share them with the scientific world.
In the second half of the question to answer easily. Cosmos - a strategic area, and whoever owns it secret - more potential adversaries. Not for nothing the Americans nearly half a century conceal the truth about the alien spaceship who died in South America. Much harder to answer the first half of the question. But let's look at the not so distant past.
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INTRODUCTION

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INDIA-RUSSIA, India
Researcher of Yog-Tantra with the help of Mercury. Working since 1988 in this field.Have own library n a good collection of mysterious things. you can send me e-mail at alon291@yahoo.com Занимаюсь изучением Тантра,йоги с помощью Меркурий. В этой области работаю с 1988 года. За это время собрал внушительную библиотеку и коллекцию магических вещей. Всегда рад общению: alon291@yahoo.com