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Wednesday, October 8, 2014

वेदों में पशु बलि का निषेध :-

देवगिरा संस्कृत में एक ही शब्द के अनेक अर्थ होते

है , इसी तरह एक ही विषय के लिए अनेक शब्द

प्रयुक्त किये जाते है ।

उदाहरणार्थ १ सूर्य के लिए

भानु ,भास्कर,दिवाकर इत्यादि १२ नाम

प्रयुक्त है । इसी तरह १अज शब्द के ३ अर्थ क्रमश:

आत्मा ,३साल पुरानी चावल एवं बकरा होते है

"अजेन यजेत का अर्थ

योगी आत्मा द्वारा परमात्मा की उपासना ऐसा करते

है । कर्मकांडी अज=३ साल पुरानी चावल ,और

आसुरी प्रकृति के वेद विरोधी "बकरा "

ऐसा करते है !!

प्राचीन काल में यज्ञ हिंसा नही थी इस

बात पर मह्रिषी चरक का भी प्रमाण है

जो देखिये :-

.
.यज्ञ के आहुति सम्बन्ध में ओषधि और अनाज

के ,,जिसके बारे में वेदों में ही लिखा है :-

धाना धेनुरभवद् वत्सो अस्यास्तिलोsभवत

(अर्थव १८/४/३२)

धान ही धेनु है औरतिल ही बछड़े है |

अश्वा: कणा गावस्तण्डूला मशकास्तुषा |

श्याममयोsस्य मांसानि लोहितमस्य

लोहितम||(अर्थव ११/३ (१)/५७ )

चावल के कण अश्व है ,चावल

ही गौ है ,भूसी ही मशक है ,चावल

का जो श्याम भाग है वाही मॉस है और लाल

अंश रुधिर है |

यहा वेदों ने इन शब्दों के अन्य अर्थ प्रकट कर

दिए जिससे सिद्ध होता है की मॉस पशु

हत्या का कोई उलेख वेदों में नही है |

अनेक पशुओ के नाम से मिलते जुलते ओषध के नाम है

ये नाम गुणवाची संज्ञा के कारण समान

है ,श्रीवेंकटेश्वर प्रेस,मुम्बई से छपे ओषधिकोष में

निम्न वनस्पतियों के नाम पशु संज्ञक है जिनके

कुछ उधाहरण नीचे प्रस्तुत है :-

वृषभ =ऋषभकंद मेष=जीवशाक

श्वान=कुत्ताघास ,ग्र्न्थिपर्ण कुकुक्ट =

शाल्मलीवृक्ष

मार्जार= चित्ता मयूर= मयुरशिखा

बीछु=बिछुबूटी मृग= जटामासी

अश्व= अश्वग्न्दा गौ =गौलोमी

वाराह =वराह कंद रुधिर=केसर

इस तरह ये वनस्पति भी सिद्ध होती है अत:

यहा यज्ञो में प्राणी जन्य मॉस अर्थ

लेना गलत है |

अत निम्न कथन से भी स्पष्ट है कि प्राचीन

काल में यज्ञ हिंसा नही थी |

मीमासा दर्शन ने इस बात पर प्रकाश

डाला है :-” मांसपाक प्रतिषेधश्च तद्वत |”-

मीमासा १२/२/२

यज्ञ में पशु हिंसा मना है ,वैसे मॉस पाक

भी मना है | इसी तरह दुसरे स्थान पर आता है

१०/३/.६५ व् १०/७/१५ में लिखा है कि ”

धेनुवच्चाश्वदक्षिणा ” और अपि व दानमात्र

स्याह भक्षशब्दानभिसम्बन्धात |”

गौ आदि की भाति अश्व भी यज्ञ में केवल

दान के लिए ही है | क्यूंकि इनके साथ भक्ष शब्द

नही आया है | अत: स्पष्ट है कि पशु वध के लिए

नही दान आदि के लिए थे |

कात्यान्न श्रोतसूत्र मे आया है-

दुष्टस्य हविषोSप्सवहरणम् ।।२५ ,११५ ।।

उक्तो व मस्मनि ।।२५,११६ ।।

शिष्टभक्षप्रतिषिध्द दुष्टम।।२५,११७ ।।

अर्थात होमद्र्व्य यदि दुष्ट हो तो उसे जल मे

फेक देना चाहिए उससे हवन

नहीं करना चाहिए ,शिष्ट

पुरुषो द्वारा निषिध मांस आदि अभक्ष्य

वस्तुयें दुष्ट कहलाती है ।

उपरोक्त वर्णन के अनुसार यहाँ मॉस

की आहुति का निषेध हो रहा है ।

अत: स्पष्ट है कि मॉस बलि वेदों में नही है न

ही प्राचीन काल यज्ञ में थी |

चुकी वेद विरोधी मलेच्छोंने शतपत

का भी प्रमाण दिया है तो हम कुछ बात

शतपत की भी रखते है :-

शतपत में मॉस भोजी को यज्ञ का अधिकार

नही दिया है देखिये :-

”न मॉसमश्रीयात् ,यन्मासमश्रीयात

्,यन्मिप्रानमुप

ेथादिति नेत्वेवैषा दीक्षा ।”(श. ६:२ )

अर्थात मनुष्य मॉस भक्षण न करे , यदि मॉस

भक्षण करता है अथवा व्यभिचार करता है

तो यज्ञ दीक्षा का अधिकारी नही है ….

यहा स्पष्ट कहा है की मॉस भक्षी को यज्ञ

का अधिकार नही है ,अत : यहाँ स्पष्ट

हो जाता है की यज्ञ मे मॉस

की आहुति नही दी जाती थी ।

शतपत में ही ये लिखा है कि मॉस भक्षक

को यज्ञ का अधिकार नही है ।

” अघतेsत्ति च भुतानि तस्मादन्न तदुच्यते (तैत॰

२/२/९)”

प्राणी मात्र का जो कुछ आहार है वो अन्न

ही है |

जब प्राणी मात्र का आहार अन्न होने

की घोषणा है तो मॉस भक्षण का सवाल

ही नही उठता |

वेद विरोधी लोग अर्थव॰ के ९/६पर्याय ३/४

का प्रमाण देते हुए कहते है की इसमें लिखा है

की अथिति को मॉस परोसा जाय|

जबकि मन्त्र का वास्तविक अर्थ निम्न प्रकार

है :-” प्रजा च वा ………………पूर्वोष्श

ातिश्शनाति |”

जो ग्रहस्थ निश्चय करके अपनी प्रजा और पशुओ

का नाश करता है जो अतिथि से पहले

खाता है |

इस मन्त्र में अतिथि से छुप कर खाने या पहले

खाने वाले की निंदा की है …उसका बेटे

बेटी माँ ,पिता ,पत्नी आदि प्रजा दुःख

भोगते है ..और पशु (पशु को समृधि और धनवान

होने का प्रतीक माना गया है )

की हानि अथवा कमी होती है …अर्थात ऐसे

व्यक्ति के सुख वैभव नष्ट हो जाए |

यहा अतिथि को मॉस खिलाने का कोई

उलेख नही है |

अत: निम्न प्रमाणों से स्पष्ट है की प्राचीन

काल में न यज्ञ में बलि होती थी न मॉस

भक्षण होता था ..न ही वेद यज्ञ में पशु

हत्या का उलेख करते है न ही किसी के मॉस

भक्षण का ।

ॐ तत्सत ।

Friday, September 5, 2014


प्लास्टिक सर्जरी (Plastic Surgery) जो आज की सर्जरीry की दुनिया मे आधुनिकतम विद्या है इसका अविष्कार भारत मे हुअ है| सर्जरी का अविष्कार तो हुआ हि है प्लास्टिक सर्जरी का अविष्कार भी यहाँ हि हुआ है| प्लास्टिक सर्जरी मे कहीं की प्रचा को काट के कहीं लगा देना और उसको इस तरह से लगा देना की पता हि न चले यह विद्या सबसे पहले दुनिया को भारत ने दी है|

1780 मे दक्षिण भारत के कर्णाटक राज्य के एक बड़े भू भाग का राजा था हयदर अली| 1780-84 के बीच मे अंग्रेजों ने हयदर अली के ऊपर कई बार हमले किये और एक हमले का जिक्र एक अंग्रेज की डायरी मे से मिला है| एक अंग्रेज का नाम था कोर्नेल कूट उसने हयदर अली पर हमला किया पर युद्ध मे अंग्रेज परास्त हो गए और हयदर अली ने कोर्नेल कूट की नाक काट दी|

कोर्नेल कूट अपनी डायरी मे लिखता है के “मैं पराजित हो गया, सैनिको ने मुझे बन्दी बना लिया, फिर मुझे हयदर अली के पास ले गए और उन्होंने मेरा नाक काट दिया|” फिर कोर्नेल कूट लिखता है के “मुझे घोडा दे दिया भागने के लिए नाक काट के हात मे दे दिया और कहा के भाग जाओ तो मैं घोड़े पे बैठ के भागा| भागते भागते मैं बेलगाँव मे आ गया, बेलगाँव मे एक वैद्य ने मुझे देखा और पूछा मेरी नाक कहाँ कट गयी? तो मैं झूट बोला के किसीने पत्थर मार दिया, तो वैद्य ने बोला के यह पत्थर मारी हुई नाक नही है यह तलवार से काटी हुई नाक है, मैं वैद्य हूँ मैं जानता हूँ| तो मैंने वैद्य से सच बोला के मेरी नाक काटी गयी है| वैद्य ने पूछा किसने काटी? मैंने बोला तुम्हारी राजा ने काटी| वैद्य ने पूछा क्यों काटी तो मैंने बोला के उनपर हमला किया इसलिए काटी|फिर वैद्य बोला के तुम यह काटी हुई नाक लेके क्या करोगे? इंग्लैंड जाओगे? तो मैंने बोला इच्छा तो नही है फिर भी जाना हि पड़ेगा|”

यह सब सुनके वो दयालु वैद्य कहता है के मैं तुम्हारी नाक जोड़ सकता हूँ, कोर्नेल कूट को पहले विस्वास नही हुआ, फिर बोला ठेक है जोड़ दो तो वैद्य बोला तुम मेरे घर चलो| फिर वैद्य ने कोर्नेल को ले गया और उसका ऑपरेशन किया और इस ऑपरेशन का तिस पन्ने मे वर्णन है| ऑपरेशन सफलता पूर्वक संपन्न हो गया नाक उसकी जुड़ गयी, वैद्य जी ने उसको एक लेप दे दिया बनाके और कहा की यह लेप ले जाओ और रोज सुबह शाम लगाते रहना| वो लेप लेके चला गया और 15-17 दिन के बाद बिलकुल नाक उसकी जुड़ गयी और वो जहाज मे बैठ कर लन्दन चला गया|

फिर तिन महीने बाद ब्रिटिश पार्लियामेन्ट मे खड़ा हो कोर्नेल कूट भाषण दे रहा है और सबसे पहला सवाल पूछता है सबसे के आपको लगता है के मेरी नाक कटी हुई है? तो सब अंग्रेज हैरान होक कहते है अरे नही नही तुम्हारी नाक तो कटी हुई बिलकुल नही दिखती| फिर वो कहानी सुना रहा है ब्रिटिश पार्लियामेन्ट मे के मैंने हयदर अली पे हमला किया था मैं उसमे हार गया उसने मेरी नाक काटी फिर भारत के एक वैद्य ने मेरी नाक जोड़ी और भारत की वैद्यों के पास इतनी बड़ी हुनर है इतना बड़ा ज्ञान है की वो काटी हुई नाक को जोड़ सकते है|

फिर उस वैद्य जी की खोंज खबर ब्रिटिश पार्लियामेन्ट मे ली गयी, फिर अंग्रेजो का एक दल आया और बेलगाँव की उस वैद्य को मिला, तो उस वैद्य ने अंग्रेजो को बताया के यह काम तो भारत के लगभग हर गाँव मे होता है; मैं एकला नहीं हूँ ऐसा करने वाले हजारो लाखों लोग है| तो अंग्रेजों को हैरानी हुई के कोन सिखाता है आपको ? तो वैद्य जी कहने लगे के हमारे इसके गुरुकुल चलते है और गुरुकुलों मे सिखाया जाता है|

फिर अंग्रेजो ने उस गुरुकुलों मे गए उहाँ उन्होंने एडमिशन लिया, विद्यार्थी के रूप मे भारती हुए और सिखा, फिर सिखने के बाद इंग्लॅण्ड मे जाके उन्होंने प्लास्टिक सर्जरी शुरू की| और जिन जिन अंग्रेजों ने भारत से प्लास्टिक सर्जरी सीखी है उनकी डायरियां हैं| एक अंग्रेज अपने डायरी मे लिखता है के ‘जब मैंने पहली बार प्लास्टिक सर्जरी सीखी, जिस गुरु से सीखी वो भारत का विशेष आदमी था और वो नाइ था जाती का| मने जाती का नाइ, जाती का चर्मकार या कोई और हमारे यहाँ ज्ञान और हुनर के बड़े पंडित थे| नाइ है, चर्मकार है इस आधार पर किसी गुरुकुल मे उनका प्रवेश वर्जित नही था, जाती के आधार पर हमारे गुरुकुलों मे प्रवेश नही हुआ है, और जाती के आधार पर हमारे यहाँ शिक्षा की भी व्यवस्था नही था| वर्ण व्यवस्था के आधार पर हमारे यहाँ सबकुछ चलता रहा| तो नाइ भी सर्जन है चर्मकार भी सर्जन है| और वो अंग्रेज लिखता है के चर्मकार जादा अच्चा सर्जन इसलिए हो सकता है की उसको चमड़ा सिलना सबसे अच्छे तरीके से आता है|

एक अंग्रेज लिख रहा है के ‘मैंने जिस गुरु से सर्जरी सीखी वो जात का नाइ था और सिखाने के बाद उन्होंने मुझसे एक ऑपरेशन करवाया और उस ऑपरेशन की वर्णन है| 1792 की बात है एक मराठा सैनिक की दोनों हात युद्ध मे कट गए है और वो उस वैद्य गुरु के पास कटे हुए हात लेके आया है जोड़ने के लिए| तो गुरु ने वो ऑपरेशन उस अंग्रेज से करवाया जो सिख रहा था, और वो ऑपरेशन उस अंग्रेज ने गुरु के साथ मिलके बहुत सफलता के साथ पूरा किया| और वो अंग्रेज जिसका नाम डॉ थॉमस क्रूसो था अपनी डायरी मे कह रहा है के “मैंने मेरे जीवन मे इतना बड़ा ज्ञान किसी गुरु से सिखा और इस गुरु ने मुझसे एक पैसा नही लिया यह मैं बिलकुल अचम्भा मानता हूँ आश्चर्य मानता हूँ|” और थॉमस क्रूसो यह सिख के गया है और फिर उसने प्लास्टिक सेर्जेरी का स्कूल खोला, और उस स्कूल मे फिर अंग्रेज सीखे है, और दुनिया मे फैलाया है| दुर्भाग्य इस बात का है के सारी दुनिया मे प्लास्टिक सेर्जेरी का उस स्कूल का तो वर्णन है लेकिन इन वैद्यो का वर्णन अभी तक नही आया विश्व ग्रन्थ मे जिन्होंने अंग्रेजो को प्लास्टिक सेर्जेरी सिखाई थी|

Sunday, August 31, 2014




भारत दुनिया का शायद अकेला ऐसा देश होगा, जहां के आधिकारिक इतिहास की शुरुआत में ही यह बताया जाता है कि भारत में रहने वाले लोग यहां के मूल निवासी नहीं हैं. भारत में रहने वाले अधिकांश लोग भारत के हैं ही नहीं. ये सब विदेश से आए हैं.
इतिहासकारों ने बताया कि हम आर्य हैं. हम बाहर से आए हैं. कहां से आए? इसका कोई सटीक जवाब नहीं है. फिर भी बाहर से आए.
आर्य कहां से आए, इसका जवाब ढूंढने के लिए कोई इतिहास के पन्नों को पलटे, तो पता चलेगा कि कोई सेंट्रल एशिया कहता है, तो कोई साइबेरिया, तो कोई मंगोलिया, तो कोई ट्रांस कोकेशिया, तो कुछ ने आर्यों को स्कैंडेनेविया का बताया. आर्य धरती के किस हिस्से के मूल निवासी थे, यह इतिहासकारों के लिए आज भी मिथक है.
मतलब यह कि किसी के पास आर्यों का सुबूत नहीं है, फिर भी साइबेरिया से लेकर स्कैंडेनेविया तक, हर कोई अपने-अपने हिसाब से आर्यों का पता बता देता है. भारत में आर्य अगर बाहर से आए, तो कहां से आए और कब आए, यह एक महत्वपूर्ण सवाल है. यह भारत के लोगों की पहचान का सवाल है.
विश्‍वविद्यालयों में बैठे बड़े-बड़े इतिहासकारों को इन सवालों का जवाब देना है. सवाल पूछने वाले की मंशा पर सवाल उठाकर इतिहास के मूल प्रश्‍नों पर पर्दा नहीं डाला जा सकता है. आर्यन इन्वेजन थ्योरी का सच यह बहुत कम लोग जानते हैं कि आर्यन इन्वेजन थ्योरी (आर्य आक्रमण सिद्धांत) की उत्पत्ति की जड़ में ईसाई-यहूदी वैचारिक लड़ाई है.
आर्यन इन्वेजन थ्योरी की उत्पत्ति 18वीं शताब्दी में यूरोप, ख़ासकर जर्मनी में हुई. उस वक्त के इतिहासकारों एवं दार्शनिकों ने यूरोपीय सभ्यता को जुडाइज्म (यहूदी) से मुक्त करने के लिए यह थ्योरी प्रचारित की.
कांट एवं हरडर जैसे दार्शनिकों ने भारत और चीन के मिथकों तथा दर्शन को यूरोपीय सभ्यता से जोड़ने की कोशिश की. वे नहीं चाहते थे कि यूरोपीय सभ्यता को जुडाइज्म से जोड़कर देखा जाए. इसलिए उन्होंने यह दलील दी कि यूरोप में जो लोग हैं, वे यहूदी नहीं, बल्कि चीन और भारत से आए हैं. उनका नाम उन्होंने आर्य रखा.
समझने वाली बात यह है कि चीन और भारत के सभी लोग आर्य नहीं थे. उनके मुताबिक़, एशिया के पहाड़ों में रहने वाले सफेद चमड़ी वाले कबीलाई लोग आर्य थे, जो यूरोप में आकर बसे और ईसाई धर्म अपनाया. यूरोप में आर्य को एक अलग रेस माना जाने लगा. यह एक सर्वमान्य थ्योरी मानी जाने लगी. आर्यन इन्वेजन थ्योरी की उत्पत्ति मूल रूप से यूरोप के लिए की गई थी.
जब अंग्रेजों ने भारत का इतिहास समझना शुरू किया, तो आश्‍चर्य की बात यह है कि उन्होंने इस थ्योरी को भारत पर भी लागू कर दिया. 1866 से आर्यन इन्वेजन थ्योरी ऑफ इंडिया को भारत के इतिहास का हिस्सा बना दिया गया. बताया गया कि भारत के श्‍वेत रंग के, उच्च जाति के शासक वर्ग और यूरोपीय उपनिवेशक एक ही प्रजाति के हैं. यह थ्योरी अंग्रेजों के काम भी आई. अंग्रेज बाहरी नहीं है और उनका भारत पर शासन करना उतना ही अधिकृत है, जितना यहां के राजाओं का.
अंग्रेजों को भारत में शासन करने के लिए इन हथकंडों की ज़रूरत थी. लेकिन यह बात समझ में नहीं आती कि आज़ादी के बाद भी वामपंथी इतिहासकारों ने इस थ्योरी को जड़-मूल से ख़त्म क्यों नहीं किया?
जबकि हमें यह पता है कि इस मनगढ़ंत थ्योरी की वजह से हिटलर जैसे तानाशाह पैदा हुए. वह भी तब, जब यूरोप में विज्ञान के विकास के साथ-साथ रेस थ्योरी को अविश्‍वसनीय और ग़ैर-वैज्ञानिक घोषित कर दिया गया. पिछले 70 सालों से आर्यन रेस पर कई अनुसंधान हुए. अलग-अलग देशों ने इसमें हिस्सा लिया है, अलग-अलग क्षेत्र के वैज्ञानिकों ने अपना योगदान दिया है. सबने एक स्वर में आर्यन के एक रेस होने की बात को मिथक और झूठा करार दिया है. ये स़िर्फ वामपंथी इतिहासकार हैं, जो अभी तक इस रेस थ्योरी को पकड़ कर बैठे हैं.
10 दिसंबर, 2011 को एक ख़बर आई कि सेलुलर मोलिकुलर बायोलॉजी के वैज्ञानिकों ने कई महाद्वीपों के लोगों पर एक रिसर्च किया. इस रिसर्च में कई देशों के वैज्ञानिक शामिल थे. यह रिसर्च 3 सालों तक किया गया और लोगों के डीएनए की सैंपलिंग पर किया गया. इस रिसर्च से पता चला कि भारत में रहने वाले चाहे वे दक्षिण भारत के हों या उत्तर भारत के, उनके डीएनए की संरचना एक जैसी है. इसमें बाहर से आई किसी दूसरी प्रजाति या रेस का कोई मिश्रण नहीं है और यह दावे के साथ कहा जा सकता है कि पिछले 60 हज़ार सालों से भारत में कोई भी बाहरी जीन नहीं है. इस रिसर्च की रिपोर्ट में कहा गया है कि डीएनए सैंपलिंग के जरिये यह बिना किसी शक के दावा किया जा सकता है कि आर्यों के आक्रमण की कहानी एक मिथक है.
इस रिसर्च की रिपोर्ट को अमेरिकन जनरल ऑफ ह्यूमन जेनेटिक्स में 9 दिसंबर, 2011 को प्रकाशित किया गया. यह एक प्रामाणिक रिसर्च है.
इसमें विज्ञान की सबसे उच्च कोटि की तकनीकों का इस्तेमाल हुआ है. कई देशों के वैज्ञानिक इसमें शामिल थे. यह रिपोर्ट आए तीन साल होने वाले हैं. देश के इतिहासकार क्यों चुप हैं? हक़ीक़त यह है कि भारत का इतिहास राजनीति से ग्रसित है. इतिहास की किताबों ने सच बताने से ज़्यादा सच को छिपाने का काम किया है.
भारत की सरकारी किताबों में आर्यों के आगमन को आर्यन इन्वेजन थ्योरी कहा जाता है. इन किताबों में आर्यों को घुमंतू या कबीलाई बताया जाता है. इनके पास रथ था. यह बताया गया कि आर्य अपने साथ वेद भी साथ लेकर आए थे. उनके पास अपनी भाषा थी, स्क्रिप्ट थी. मतलब यह कि वे पढ़े-लिखे खानाबदोश थे. यह दुनिया का सबसे अनोखा उदाहरण है. यह इतिहास अंग्रेजों ने लिखा था.
वर्ष 1866 में भारत में आर्यों की कहानी मैक्समूलर ने गढ़ी थी. इस दौरान आर्यों को एक नस्ल बताया गया. मैक्स मूलर जर्मनी के रहने वाले थे. उन्हें उस जमाने में दस हज़ार डॉलर की ‪#‎पगार‬ पर ईस्ट इंडिया कंपनी ने ‪#‎वेदों‬ को समझने और उनका अनुवाद करने के लिए रखा था.
अंग्रेज भारत में अपना शासन चलाना चाहते थे, लेकिन यहां के समाज के बारे में उन्हें जानकारी नहीं थी. इसी योजना के तहत लॉर्ड ‪#‎मैकॉले‬ ने मैक्स मूलर को यह काम दिया था.
यह लॉर्ड मैकॉले वही हैं, जिन्होंने भारत में एक ऐसे वर्ग को तैयार करने का बीड़ा उठाया था, जो अंग्रेजों और उनके द्वारा शासित समाज यानी भारत के लोगों के बीच संवाद स्थापित कर सकें. इतना ही नहीं, मैकॉले कहते हैं कि यह वर्ग ऐसा होगा, जो रंग और खून से तो भारतीय होगा, लेकिन आचार-विचार, नैतिकता और बुद्धि से अंग्रेज होगा. इसी एजेंडे को पूरा करने के लिए उन्होंने भारत में शिक्षा नीति लागू की, भारत के धार्मिक ग्रंथों का विश्‍लेषण कराया और सरकारी इतिहास लिखने की शुरुआत की. आज़ादी से पहले और आज़ादी के बाद भारत के शासक वर्ग ने लॉर्ड मैकॉले के सपने को साकार करने में कोई कसर नहीं छोड़ी. इतिहासकारों ने भी इसी प्रवृत्ति का परिचय दिया. अंग्रेजों की एक आदत अच्छी है. वे दस्तावेज़ों को संभाल कर रखते हैं. यही वजह है कि वेदों को समझने और उनके अनुवाद के पीछे की कहानी की सच्चाई का पता चल जाता है.
‪#‎मैक्स‬ मूलर ने वेदों के अध्ययन और अनुवाद के बाद एक पत्र लिखा, जिसमें उन्होंने साफ़-साफ़ लिखा कि भारत के धर्म को अभिशप्त करने की प्रक्रिया पूरी हो गई है और अगर अब ईसाई मिशनरी अपना काम नहीं करते हैं, तो इसमें किसका दोष है.
मैक्स मूलर ने ही भारत में आर्यन इन्वेजन थ्योरी को लागू करने का काम किया था, लेकिन इस थ्योरी को सबसे बड़ी चुनौती 1921 में मिली. अचानक से सिंधु नदी के किनारे एक सभ्यता के निशान मिल गए.
कोई एक जगह होती, तो और बात थी. यहां कई सारी जगहों पर सभ्यता के निशान मिलने लगे. इसे सिंधु घाटी सभ्यता कहा जाने लगा.
यहां की खुदाई से पता चला कि सिंधु नदी के किनारे कई शहर दबे पड़े हैं. इन शहरों में सड़कें थीं, हर जगह और घरों से नालियां निकल रही थीं. पूरे शहर में एक सुनियोजित ड्रेनेज सिस्टम था. बाज़ार के लिए अलग जगह थी. रिहाइशी इलाक़ा अलग था. इन शहरों में स्वीमिंग पूल थे, जिनका डिजाइन भी 21वीं सदी के बेहतरीन स्वीमिंग पूल्स की तरह था. अनाज रखने के लिए गोदाम थे. नदियों के किनारे नौकाओं के लिए बंदरगाह बना हुआ था.
जब इन शहरों की उम्र का अनुमान लगाया गया, तो पता चला कि यह दुनिया की सबसे प्राचीन सभ्यता है. यह आर्यों के आगमन के पहले से है.
अब सवाल यह उठ खड़ा हुआ है कि जब आर्य बाहर से आए थे, तो यहां कौन रहते थे.
सिंधु घाटी सभ्यता के शहर स़िर्फ ज़मीन में धंसे हुए शहर नहीं थे, बल्कि इतिहास के सुबूतों के भंडार थे.
अंग्रेज इतिहासकारों ने इतिहास के इन सुबूतों को दरकिनार कर दिया और अपनी आर्यों की थ्योरी पर डटे रहे. होना तो यह चाहिए था कि सिंधु घाटी सभ्यता से मिली नई जानकारी की रौशनी में इतिहास को फिर से लिखा जाता, लेकिन अंग्रेजी इतिहासकारों ने सिंधु घाटी सभ्यता का इस्तेमाल आर्यन इन्वेजन थ्योरी को सही साबित करने में किया. -
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Sunday, August 24, 2014



A visit to Cambodia is recommended or may even be de rigueur for any Indian with an interest in the erstwhile history of India. For nowhere in the world outside India one can see the glory of its past splendor so well exhibited as in Cambodia. There are several hundred Hindu and Buddhist temple ruins throughout the countryside, especially around the town of Siem Reap near the large lake Tonle Sap. Siem Reap is the heart of the country. Here is where the splendid temple Angkor Wat has stood for nearly nine hundred years.
Mostly neglected for centuries and then ransacked and looted by occupying forces, the treasures of Cambodia are scattered all over the world now, mostly taken by Europeans. Smuggling of artifacts continues to this day. Cambodia has a very checkered history of war and destruction. It is only in the last one hundred years that attempts have been made to preserve, excavate and study the chronology of history, first by the French, and now by the rest of the world community. Indian and United States governments are also assisting in refurbishing and preserving the temples.
Many of the temple ruins appear like they are right out of pages of Rudyard Kipling’s books. Many with crumbling walls and roofs have seen better days. Giant trees hover over many temple walls, threatening their very foundations. Large roots of Kapok trees twine around the temples like giant mythical birds gripping them in their talons. Yet there is an indescribable charm that one immediately imbibes at first sight. Many ruins may look similar but one is drawn to see more. Those, which are preserved, demonstrate exquisite works of art and sculpture.
The people of this impoverished country are graceful and charming. They are simple, honest people, (mostly fishermen and farmers. There are not many towns outside a few larger cities. Once you leave the city limits of Phnom Penh there are not many homes or buildings of significant magnitude. Two-wheelers are the main modes of transportation, often attached to trailers that are used to transport families and goods. The vendors selling books, shawls and skirts are mostly beautiful children at temple sites, who surprise the tourists with better English than one would expect them to speak. These children are not scrappy, but not pushovers either and they can drive a hard bargain.
The scattered temples are mostly deserted reminders of the former glory of the Khmer people, the dominant people of the region. Their kingdoms waxed and waned, to include parts of Thailand (Siam), Vietnam (Champa) and Laos at various times. There have been wars and skirmishes between the Khmer people and their neighbors for centuries. The most recent involvement of Cambodia in the larger war in Vietnam, when the country was carpet bombed by the might of the American military, was just one of several wars in its history to cause much death and destruction. Following the American exit, civil war had kept the country impoverished and desperate until the year 2000 when it gained independence and now has a nascent socialist democracy.
The early history of Cambodia is best studied as Pre- Angkor era and Angkor era. Angkor is a ‘Khmer-ization’ of the Sanskrit word Nagara, meaning city.
Pre-Angkor History
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Pre-history of Cambodia starts with the legendary Khambujaraja, a Brahmanical king of India, who had come to the region and faced adversity from a beautiful lady on the mountain. After a brief fight between them, a truce was drawn and the beautiful lady, Mero by name, married Khambuja. The country they jointly ruled was called Khambujadesa and their descendants were called the Khmer people. Khambujadesa later became Kampuchea and then Cambodia. The original language spoken was Mon-Khmer. Later in the 6th century the ‘Mon’ people moved further west to Thailand and the Khmer remained in current day Cambodia.
Indian influence in the region began in the first century C. E. They traded goods with Khmer by way of sea, when spice and silk trade had flourished. Both Indians and Chinese exerted their influences on the local people but Indian culture took a firm foothold, perhaps through the efforts of Brahmin priests. The rulers of the time had a suffix of ‘Varman’ to their names, similar to the Pallava kings of Kanchipuram. Whilst the Cholas of Tanjavur in India eventually defeated the Pallava Varmans in the 8th century, the Khmer kingdoms flourished well into the 14th century. Though all the rulers of Cambodia bore the name ‘Varman,’ they did not necessarily belong to the same dynasty. At various periods in their history, the rulers and usurpers came from Siam (Thailand) or Champa (Vietnam) as well as Khambujadesa (Cambodia or Kampuchea).
There are historical references suggesting that Cambodia had been inhabited in the 3rd millennium B.C.E. Chinese travelers later chronicled the first established kingdom. The first kingdom was called Funan (an alteration of the word bnam or mountain in Khmer language). A certain Kaundinya, inspired by a dream, traveled from India and married a local princess Soma, belonging to the naga (cobra) tribe. He established the first Kaundinya dynasty of Funan. Later in the 5th century a second traveler from India - Kaundinya Jayavarman (478-514) arrived and focused on re-establishing the Indian culture. He established a more defined Funan kingdom and was later followed by Rudravarman in the sixth century. He was responsible for the first sculptures, mostly of Vishnu.
After the decline of Funan kingdom Khmer people established Chenla kingdom, where the names of kings Shrutavarman and Sheshthavarman are mentioned. They established their capital in Shreshthapura. Later Ishanavarman, from the Khmer kingdom of Bhavapura, defeated the remnants of Funan, and established his capital in Ishanapura.
Jayavarman I followed him and then his successor Pushkaraksha again united the splintered principalities in the year 716. His capital was Shambhupura (currently Sambor). His heirs maintained control over the kingdom until the end of 8th century, when Malayans and Javanese (Jayavarman II) gained dominion over many Khmer principalities. During this pre-Angkor period many temples were built, though they did not demonstrate the same style of architecture or the confidence of the later builders.
The Golden Period
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The glory of Cambodia and its temples began in earnest during the rule of Jayavarman II beginning 802 C. E. It is thought that he came from the royal court in ‘Java’ to conquer smaller Khmer states. He declared a unified and sovereign Khambujadesa, independent of Javanese influence. This was when the Angkor era in the history of Cambodia was born. He named his capital city Hariharalaya and introduced ‘linga-cult.’ to his kingdom. The cult of Devaraja or the God King (the terrestrial counterpart of the celestial being) was also introduced by Jayavarman II. The capital stayed around the large Lake Tonle Sap, in and around the city of Siem Reap (until the 15th century, well after the demise of Hindu empires, when it was moved to Phnom Penh).
Thirty years after Jayavarman II’s death, his successor Indravarman I constructed the first major temple in his honor (one of the so called Rolous group of temples). From then on the rulers busied themselves in building temples using bricks, sandstone and laterite. Often they were painted in bright colors. They also built large water reservoirs called barays. Following Indravarman I, his son Yasovarman I built many more temples and barays.
Rajendravarman in the 10th century was a ruler busy building another half a dozen temples, the best preserved and an architectural masterpiece at Bantay Srei.
During the rule of Udayadityavarman II, several lingas were carved in the riverbed on Phnom Kulen (called Mahendraparvata at the time). Today it is known as the ‘River of thousand lingas’ and is a tourist attraction in its own right. It was believed that the water that flowed over the countless lingas of the river would fertilize the rice fields below. A short hike up the mountain will take a visitor to the place of thousand lingas at Kbal Spean.
The first inscriptions found on temple walls, dating back to 5th century, resembled the script used by Pallavas of South India. Later, the Khmer developed their own unique script and carved them into the walls mostly describing the temple and its deity but sometimes the inscriptions were just mundane details like a list of inventory. There are as many inscriptions in Sanskrit language as in Khmer language.
The first decade of 11th century witnessed the ascent to the throne of a powerful king Suryavarman I (1010-1050), who unified almost all of Khambuja and southern Thailand. He was also a busy builder of temples and royal palaces. Following his rule, Suryavarman II (1113-1150) further expanded the kingdom. He also built the glorious temple Angkor Wat (from the Indian words Nagara Vata - City Temple), the pinnacle of temples built in Cambodia.
The sprawling temple spreads over a one square mile area. Long walls with stories of Hindu mythology are sculpted as bas-reliefs. It is a magnificent temple complex, constructed in the form of mythological Mount Meru - the Hindu center of the Universe. The temple is surrounded by a large moat, representing the ocean surrounding Mt. Meru. The brilliant paint used to enhance the reliefs has faded but the architecture and beauty are still preserved. The sheer magnitude of the temple complex is impressive.
All the gods of the Hindu pantheon are represented in temple sculpture. Shiva and Vishnu were held in high esteem. Ramayana and Kurukshetra war are depicted on entire walls of stone sculptures. A masterpiece bas-relief is that of the legendary churning of the ocean by the gods and demons.
Sculptures of Vishnu on the back of his vessel Garuda or reclining on the serpent Ananta and Shiva with his consort Parvati are repeated in many temples. Also seen are Hanuman and Ganesh, along with many seductive figures of Apsaras - reminiscent of Dev-dasis, the consorts of the Gods.
Another colorful king Jayavarman VII (1181-1220) followed Suryavaramn II. The kingdom had briefly fallen into the hands of the Chams of Champa, but the warrior-like Jayavarman VII reclaimed it and united Khambuja once again. He expanded his kingdom to include southern Malaya and northern Laos as well as Champa. Burmese kingdoms including Java became subsidiaries.
Jayavarman VII was married to a Buddhist woman and later became a Buddhist himself. Builder of dozen or more significant temples and palaces including the great Angkor Thom, he built many Buddhist monasteries and converted many Hindu temples into Buddhist shrines. The elephant terrace and the statue of the Leper King are in Angkor Thom. The statue when first found with blunted fingers, was first thought to be of a leper (the French mistook the weather damaged fingers to be that of a leper), but in fact is that of Yama, the king of death. The Elephant Terrace is a ceremonial altar in facing the Royal Square, supported by beautifully carved figures of elephants and mythical creatures. At the entrance to Angkor Thom is a large tower, large enough to admit elephants. On either side of the road near the entrance are rows of large statues, with angelic face on one side and the scornful evil face on the other.
Jayavarman VII declared himself to be Bodhisattva (as opposed to Devaraja - God-king - introduced by Jayavarman II). His delusions of grandeur are evident in the sculptures of colossal facial images of himself on temples, especially at the towers of Bayon. Thus Mahayana Buddhism (higher vehicle) had been introduced to Khambuja, which in turn marked the beginning of the end of a glorious Hindu era.
Following Jayavarman VII’s death, skirmishes arose again both within the kingdom and in its bordering regions. Brahmins tried to reassert their authority with the help of Jayavarman VIII and tried to usurp Buddhist power. However, their influence did not last too long. Soon after his death Buddhism returned once again, though it was the Hinayana Buddhism ((Theravada or lesser vehicle) that took final foothold and still remains the dominant religion of Cambodia today. The advent of Buddhism effectively put a stop to the building spree in Cambodia. Some of the existing Hindu temples were converted to Buddhist temples and monasteries. Gods of Hindu pantheon were removed and replaced with statues of Buddha.
Statues of Buddha had already appeared in the pre-Angkor period. These were mostly ushnisha Buddha (with the knot in the head, denoting enlightenment and Nirvana) in the standing position. Later Buddha statues appeared in many other positions of the hands of giving, preaching and blessing. Bodhisattvas and Avalokiteshvara – Lord of the World (Lokeshvara in Khmer) also are seen.
The last king of record from the lost empire is Jayavarman Parameshvara (1327 - ?). In the meantime, the first large Thai state, Sukhothai, had occupied much of the northern and western territories of Khmer empire. In 1430 a Thai king, Paramaraja II of Ayuthya laid siege on the capital and conquered it in seven months. From then on the decline, abandon and decadence set in. Discussion of the upheaval and the tumult in the ensuing history of the kingdom in the following centuries is beyond the scope of this article.
During medieval times the capital was moved to Phnom Penh. Today it is a city with orderly traffic with clean air and streets, with none of the typical hustle and bustle of a mega-city in South East Asia. There are many Pagodas and Buddhist monuments with larger than life sized statutes of Buddha (including the Emerald Buddha), adorned with gold and decorated with diamonds. The use of jewels on the statue of Buddha, who had taken a vow of poverty, is curious. This is explained by the desire to emphasize the pre-eminence of the Enlightened one, who is the chakravartin - a sovereign of the Universe - worthy of jewels and riches.
There is an interesting story about Phnom Penh. The word Phnom means mountain. Penh is a Khmer word, meaning woman. This is where a beautiful woman sitting on the mountaintop had confronted the wandering king from India, and eventually became his consort. The place came to be known as Phnom Penh - mountain woman. Interestingly the word Penh (or Pen – reflexive n) means a woman in the Tamil language as well.
The epic story of Ramayana plays an important part in the philosophical and cultural life in Cambodia. The Khmer version, referred to as Reamker, is carved into the walls of Angkor Wat. Reamker follows the characters depicted in the Indian Ramayana with some of its own twists. It is a philosophical allegory that combines Hinduism with Buddhism. Though written in the 16th or 17th century, a full half a millennium after the sculptures of Angkor Wat, it formed the basis of Khmer life and philosophy from the time of its origing. It is the foundation of the Royal Ballet repertoire and classical theater and dance.
The protagonist of the story is Preah Ream whose wife is called Neang Seda. His brother is Preah Leak and his antagonist Ravana is called Krong Reap. Hanuman even has a love interest in a mermaid princess called Sovanna Maccha (translates to Golden Fish). Interestingly the Thai version of Ramayana (called Ramakien) is actually an adaptation of Reamker rather than the Indian original.
Conclusion
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More than a million people lived around the region of Angkor Wat (Siem Reap) during its peak. Today, the Hindu population of Cambodia (population approximately 14 million) is not even measurable. The majority belongs to the Buddhist religion. Though mainly based on Hinayana (lesser Vehicle), a unique potpourri of Buddhism that is currently practiced. Its pantheon of gods includes many Hindu idols. They have not forgotten their history and still pay their obeisance to god Vishnu and Shiva as well as worship Buddha.
The lost Hindu empire of Cambodia is marked by hundreds of temples. It is the product of sweat and blood of devoted subjects of many rulers with a passion for building. Many of the temples have crumbled from neglect and vandalized. Many have not withstood the onslaught of centuries of harsh weather.
But the memory of the glory of the empires left behind by its temple-building rulers is lasting. Its vibrant former civilization and culture are firmly etched in stone sculptures, and in their ancient scripts. The beautiful bas-reliefs depicting Hindu puranas are delicate as well as delightful. The sculpted figures of lovely apsaras on its temple walls, with their modern appearing hairdo and dresses are esthetically pleasing to the eyes. The neglected temples of Ta Prohm and Preah Khan, with their overgrown roots of Kapok trees are sights to behold. The rooftops appear to be strangled by giant talons of some mythical birds in a vise-like grip. Tree roots snake around the temple walls like Anacondas lazily bathing in the sun.
Palace city of Angkor Thom with its Elephant Terrace and the Leper King (which actually is a sculpture of Yama with blunted fingers - due to damage - and so it came to be known as the Leper King), and the rows of giant statues at the entrance with the large gate are majestic. Angkor Wat is awe-inspiring by its sheer magnitude and architectural finesse.
To see all the ruins will take many trips to Cambodia but a student of history and anyone with curiosity about the eastward spread of the Indian Diaspora in yesteryears must pay at least a visit to Cambodia. 

Thursday, August 21, 2014

शंख की महिमा एवं इतिहास !!
पौराणिक रूप --
समुद्र मंथन से प्राप्त चौदह रत्नों में एक रत्न शंख है।
माता लक्ष्मी के समान शंख भी सागर से उत्पन्न हुआ है इसलिए इसे माता
लक्ष्मी का भाई भी कहा जाता है।
सनातन हिन्दू धर्म में शंख को बहुत ही शुभ माना गया है,इसका कारण यह है
कि माता लक्ष्मी और भगवान विष्णु दोनों ही अपने हाथों में शंख धारण करते हैं।
जन सामान्य में ऐसी धारणा है कि, जिस घर में शंख होता है उस घर में सुख-समृद्धि
आती है।
वास्तु विज्ञान भी इस तथ्य को मानता है कि शंख में ऐसी खूबियां है जो वास्तु संबंधी
कई समस्याओं को दूर करके घर में सकारात्मक उर्जा को आकर्षित करता है जिससे
घर में खुशहाली आती है। शंख की ध्वनि जहां तक पहुंचती हैं वहां तक की वायु शुद्ध
और उर्जावान हो जाती है।
वास्तु विज्ञान के अनुसार सोयी हुई भूमि भी नियमित शंखनाद से जग जाती है।
भूमि के जागृत होने से रोग और कष्ट में कमी आती है तथा घर में रहने वाले लोग
उन्नति की ओर बढते रहते हैं।
भगवान की पूजा में शंख बजाने के पीछे भी यह उद्देश्य होता है कि आस-पास का
वातावरण शुद्ध पवित्र रहे।
शंख के प्रकार-
शंख मुख्यतः तीन प्रकार के होते हैं -दक्षिणावर्ती, मध्यावर्ती और वामावर्ती।
इनमें दक्षिणावर्ती शंख दाईं तरफ से खुलता है,मध्यावर्ती बीच से और वामावर्ती
बाईं तरफ से खुलता है।
मध्यावर्ती शंख बहुत ही कम मिलते हैं।
शास्त्रों में इसे अति चमत्कारिक बताया गया है।
इन तीन प्रकार के शंखों के अलावा और भी अनेक प्रकार के शंख पाए जाते हैं जैसे
लक्ष्मी शंख,गरुड़ शंख,मणिपुष्पक शंख,गोमुखी शंख,देव शंख,राक्षस शंख,विष्णु
शंख,चक्र शंख,पौंड्र शंख,सुघोष शंख,शनि शंख,राहु एवं केतु शंख।
शंख से वास्तु दोष मुक्ति का तरीका-
शंख किसी भी दिन घर में लाकर पूजा स्थल में रखा जा सकता है।
लेकिन शुभ मुहूर्त विशेष तौर पर होली,रामनवमी,जन्माष्टमी,दुर्गा पूजा,दीपावली
के दिन अथवा रवि पुष्य योग या गुरू पुष्य योग में इसे पूजा स्थल में रखकर इसकी
धूप-दीप से पूजा की जाए घर में वास्तु दोष का प्रभाव कम होता है।
शंख में गाय का दूध रखकर इसका छिड़काव घर में किया जाए तो इससे भी
सकारात्मक उर्जा का संचार होता है।
शंख का वैज्ञानिक महत्व---
भारतीय संस्कृति में शंख को महत्वपूर्ण स्थान प्राप्त है।
माना जाता है कि समुद्र मंथन से प्राप्त चौदह रत्नों में से एक शंख भी था।
अथर्ववेदके अनुसार,शंख से राक्षसों का नाश होता है-
''शंखेन हत्वारक्षांसि।''
भागवत पुराण में भी शंख का उल्लेख हुआ है।
शंख में ओम ध्वनि प्रति ध्वनितहोती है,इसलिए ओम से ही वेद बने और वेद से
ज्ञान का प्रसार हुआ।
पुराणों और शास्त्रों में शंख ध्वनि को कल्याणकारी कहा गया है।
इसकी ध्वनि विजय का मार्ग प्रशस्त करती है।
शंख का महत्व धार्मिक दृष्टि से ही नहीं,वैज्ञानिक रूप से भी है।
वैज्ञानिकों का मानना है कि इसके प्रभाव से सूर्य की हानिकारक किरणें बाधक
होती हैं।
इसलिए सुबह और शाम शंख ध्वनि करने का विधान सार्थक है।
जाने-माने वैज्ञानिक डॉ. जगदीश चंद्र बसु के अनुसार, इसकी ध्वनि जहां तक
जाती है, वहां तक व्याप्त बीमारियों के कीटाणु नष्ट हो जाते हैं।
इससे पर्यावरण शुद्ध हो जाता है।
शंख में गंधक, फास्फोरस और कैल्शियम जैसे उपयोगी पदार्थ मौजूद होते हैं।
इससे इसमें मौजूद जल सुवासित और रोगाणु रहित हो जाता है।
इसीलिए शास्त्रों में इसे महाऔषधि माना जाता है।
पूजा,यज्ञ एवं अन्य विशिष्ट अवसरों पर शंखनाद हमारी परंपरा में था।
क्योंकि शंख से निकलने वाली ध्वनितरंगों में हानिकारक वायरस को नष्ट करने
की अद्भुत क्षमता होती है।
1928 में बर्लिन विश्वविद्यालय के विज्ञानियों ने शंख ध्वनि पर अनुसंधान कर
इस बात को प्रमाणित किया था।
दरअसल,शंखनाद करने के पीछे मूलभावना यही थी कि इससे शरीर निरोगी हो
जाता है।
घर में शंख रखना और उसे बजाना वास्तु दोष को भी खत्म कर देता है।
यह भारतीय संस्कृति की अनुपम धरोहर है।
मंदिरों में नियमित रूप से और बहुत से घरों में पूजा-पाठ,धार्मिक अनुष्ठान,व्रत,
कथाएं, जन्मोत्सव के अवसरों पर शंख बजाना शुभ माना जाता है।
ज्योतिषाचार्यो के अनुसार शंख बजाने से आसुरी शक्तियां घर के भीतर प्रवेश नहीं
कर पाती।
समुद्र मंथन में मिले रत्नों में 6वां —-
समुद्र मंथन के समय मिले 14 रत्नों में छठवां रत्न शंख था।
शंखनाद से निकली ध्वनि में अ-उ-म् (ओम्) अथवा ‘ओम्’ शब्द उद्धोषित होता है जहां
तक ‘ओम्’ का नाद पहुंचता है वहां तक नकारात्मक ऊर्जा नष्ट हो जाती है।
देवतुल्य है शंख —–
ब्रह्मवैवर्त पुराण के अनुसार शंख चंद्रमा और सूर्य के समान ही देवस्वरूप है।
इसके मध्य में वरुण,पृष्ठ भाग में ब्रह्मा और अग्र भाग में गंगा व सरस्वती का निवास है।
शंख से शिवलिंग,कृष्ण या लक्ष्मी विग्रह पर जल या पंचामृत अभिषेक करने पर देवता
प्रसन्न होते हैं।
पांचजन्य व विष्णु शंख को दुकान, कार्यालय,फैक्टरी में स्थापित करने से व्यवसाय में
लाभ होता है।
शंख की उत्पत्ति —-
हमारे धर्म ग्रंथों के अनुसार शंख की उत्पत्ति सृष्टी आत्मा से,आत्मा आकाश से,आकाश
वायु से,वायु अग्रि से,आग जल से और जल पृथ्वी से उत्पन्न हुआ है और इन सभी तत्वों
से मिलकर शंख की उत्पत्ति मानी गई है।
वैसे शंख समुद्र में पाए जाने वाले एक प्रकार के घोंघे का खोल है,जिसे वह अपनी सुरक्षा
के लिए बनाता है।
पाप नाशक —
शंख को सनातन धर्म का प्रतीक माना जाता है।
यह निधि का प्रतीक है। इसे घर के पूजास्थल में रखने से अरिष्टों एवं अनिष्टों का नाश
होता है और सौभाग्य की वृद्धि होती है।
स्वर्गलोक में अष्टसिद्धियों एवं नवनिधियों में शंख का महत्वपूर्ण स्थान है।
माना जाता है कि शंख का स्पर्श पाकर जल गंगाजल के समान पवित्र हो जाता है।
शंख में जल भरकर ओम् नमोनारायण का उच्चारण करते हुए भगवान को स्नान कराने
से पापों का नाश होता है।
शंख नाद का प्रतीक है।
नाद जगत में आदि से अंत तक व्याप्त है।
सृष्टि का आरंभ भी नाद से होता है और विलय भी उसी में होता है।
स्वास्थ्य लाभ—
-----शंख बजाना स्वास्थ्य की दृष्टि से बहुत लाभदायक है।
इससे पूरक,कुम्भक और रेचक जैसी प्राणायाम क्रियाएं एक साथ हो जाती हैं।
—–सांस लेने से पूरक, सांस रोकने से कुम्भक और सांस छोड़ने की क्रिया से रेचक सम्पन्न
हो जाती हैं।
—-हृदय रोग,रक्तदाब,सांस सम्बन्धी रोग,मन्दाग्नि आदि में मात्र शंख बजाने से पर्याप्त
लाभ मिलता है।
—-यदि कोई बोलने में असमर्थ है या उसे हकलेपन का दोष है तो शंख बजाने से ये दोष
दूर होते हैं।
इससे फेफड़ों के रोग भी दूर होते हैं :- जैसे दमा, कास प्लीहा यकृत और इन्फ्लूएन्जा रोगों
में शंख ध्वनि फायदेमंद है।
——अगर आपको खांसी,दमा,पीलिया,ब्लडप्रेशर या दिल से संबंधित मामूली से लेकर
गंभीर बीमारी है तो इससे छुटकारा पाने का एक सरल-सा उपाय है –
--शंख बजाइए और रोगों से छुटकारा पाइए।
——शंखनाद से आपके आसपास की नकारात्मक ऊर्जा का नाश तथा सकारात्मक ऊर्जा
का संचार होता है।
शंख से निकलने वाली ध्वनि जहां तक जाती है वहां तक बीमारियों के कीटाणुओं का
नाश हो जाता है।
———–शंखनाद से सकारात्मक ऊर्जा का सर्जन होता है जिससे आत्मबल में वृद्धि
होती है।
शंख में प्राकृतिक कैल्शियम,गंधक और फास्फोरस की भरपूर मात्रा होती है।
प्रतिदिन शंख फूंकने वाले को गले और फेफड़ों के रोग नहीं होते।
शंख से मुख के तमाम रोगों का नाश होता है।
शंख बजाने से चेहरे,श्वसन तंत्र, श्रवण तंत्र तथा फेफड़ों का व्यायाम होता है।
शंख वादन से स्मरण शक्ति बढ़ती है।
शंख के प्रकार —
ये कई प्रकार के होते हैं और सबकी विशेषता एवं पूजन पद्धति भिन्न-भिन्न है।
उच्च श्रेणी के श्रेष्ठ शंख कैलाश मानसरोवर,मालद्वीप,लक्षद्वीप,कोरामंडल द्वीप
समूह, श्रीलंका और भारत में पाए जाते हैं।
दक्षिणावृत्ति शंख (दाहिने हाथ से पकड़ा जाता है),मध्यावृत्ति शंख (इसका मुंह बीच
में खुलता है),वामावृत्ति शंख (यह बाएं हाथ से पकड़ा जाता है)।
इनके अलावा लक्ष्मी शंख,गणोश शंख,गोमुखी शंख,कामधेनु शंख,विष्णु शंख,देवदत्त
शंख, चक्र शंख,पौंड्र शंख,वीणा शंख,सुघोष शंख,गरुड़ शंख,मणिपुष्पक शंख,राक्षस शंख,
शनि शंख, राहु शंख, केतु शंख, शेषनाग शंख, कच्छप शंख आदि होते हैं।
इनकी दुर्लभता एवं चमत्कारिक गुणों के कारण ये अधिक मूल्यवान होते हैं।
विजय घोष का प्रतीक —-
शंख को विजय घोष का प्रतीक माना जाता है।
कार्य के आरम्भ करने के समय शंख बजाना शुभता का प्रतीक है।
इसकी नाद को सुनने वाले को सहज ही ईश्वर की उपस्थिति का अनुभव हो जाता है।
वैज्ञानिक पहलू—
शंख ध्वनि से सूर्य की किरणे बाधित होती हैं।
अत: प्रात: व सायंकाल में ही शंख ध्वनि करने का विधान है।
शंखोदक भस्म से पेट की बीमारियां,पीलिया,कास प्लीहा यकृत,पथरी आदि रोग ठीक
हो जाते हैं।
ऋषि श्रृंग के अनुसार बच्चों के शरीर पर छोटे-छोटे शंख बांधने व शंख जल पिलाने से
वाणी-दोष दूर हाते हैं।
पुराणों में उल्लेख मिलता है कि मूक व श्वास रोगी हमेशा शंख बजाए तो बोलने की
शक्ति पा सकते हैं।
आयुर्वेदाचार्य डा.विनोद वर्मा के अनुसार हकलाने वाले यदि नित्य शंख-जल पीएं तो
वे ठीक हो जाएंगे।
शंख जल स्वास्थ्य,हड्डियों,दांतों के लिए लाभदायक है।
इसमें गंधक, फास्फोरस व कैल्शियम होते हैं।
संगीत सम्राट तानसेन ने भी अपने आरंभिक दौर में शंख बजाकर ही गायन शक्तिप्राप्त
की थी।
अथर्ववेद के अनुसार, शंख में राक्षसों का नाश करने की भी शक्ति होती है।
क्या रहस्य है शंख बजाने का ?
—–मंदिर में आरती के समय शंख बजते सभी ने सुना होगा परंतु शंख क्यों बजाते हैं ?
इसके पीछे क्या कारण है यह बहुत कम ही लोग जानते हैं।
शंख बजाने के पीछे धार्मिक कारण तो है साथ ही इसके पीछे वैज्ञानिक कारण भी है
और शंख बजाने वाले व्यक्ति को स्वास्थ्य लाभ भी मिलता है।
—–शंख की उत्पत्ति कैसे हुई ? इस संबंध में हिन्दू धर्म ग्रंथ कहते हैं सृष्टी आत्मा से,
आत्मा आकाश से,आकाश वायु से,वायु अग्रि से,आग जल से और जल पृथ्वी से उत्पन्न
हुआ है और इन सभी तत्व से मिलकर शंख की उत्पत्ति मानी जाती है।
—-शंख की पवित्रता और महत्व को देखते हुए हमारे यहां सुबह और शाम शंख बजाने
की परंपरा आरंभ की गई है।
शंख बजाने का स्वास्थ्य लाभ यह है कि यदि कोई बोलने में असमर्थ है या उसे हकलेपन
का दोष है तो शंख बजाने से ये दोष दूर होते हैं।
शंख बजाने से कई तरह के फेफड़ों के रोग दूर होते हैं जैसे दमा, कास प्लीहा यकृत और इन्फ्लून्जा आदि रोगों में शंख ध्वनि फायदा पहुंचाती है।
——शंख के जल से शालीग्राम को स्नान कराएं और फिर उस जल को यदि गर्भवती
स्त्री को पिलाया जाए तो पैदा होने वाला शिशु पूरी तरह स्वस्थ होता है।
साथ ही बच्चा कभी मूक या हकला नहीं होता।
——यदि शंखों में भी विशेष शंख जिसे दक्षिणावर्ती शंख कहते हैं इस शंख में दूध
भरकर शालीग्राम का अभिषेक करें।
फिर इस दूध को निरूसंतान महिला को पिलाएं।
इससे उसे शीघ्र ही संतान का सुख मिलता है।
—–गोरक्षासंहिता,विश्वामित्र संहिता,पुलस्त्यसंहिता आदि ग्रंथों में दक्षिणावर्ती शंख
को आयुर्वद्धकऔर समृद्धि दायक कहा गया है।
ब्रह्मवैवर्तपुराण के अनुसार,शंख चंद्रमा और सूर्य के समान ही देवस्वरूपहै।
इसके मध्य में वरुण, पृष्ठ भाग में ब्रह्मा और अग्र भाग में गंगा और सरस्वती का
निवास है।
—–शंख बजाने से दमा,अस्थमा,क्षय जैसे जटिल रोगों का प्रभाव काफी हद तक कम हो
सकता है।
इसका वैज्ञानिक कारण यह है कि शंख बजाने से सांस की अच्छी एक्सरसाइज हो
जाती है।
ब्रह्मवैवर्तपुराण के अनुसार,शंख में जल भरकर रखने और उस जल से पूजन सामग्री
धोने और घर में छिडकने से वातावरण शुद्ध रहता है।
—–तानसेनने अपने आरंभिक दौर में शंख बजाकर ही गायन शक्ति प्राप्त की थी।
——अथर्ववेदके चतुर्थ अध्याय में शंखमणिसूक्त में शंख की महत्ता वर्णित है।
भागवत पुराण के अनुसार,संदीपन ऋषि आश्रम में श्रीकृष्ण ने शिक्षा पूर्ण होने पर
उनसे गुरु दक्षिणा लेने का आग्रह किया।
तब ऋषि ने उनसे कहा कि समुद्र में डूबे मेरे पुत्र को ले आओ।
कृष्ण ने समुद्र तट पर शंखासुरको मार गिराया।
उसका खोल (शंख) शेष रह गया।
——-माना जाता है कि उसी से शंख की उत्पत्ति हुई।
पांचजन्य शंख वही था।
शंख से शिवलिंग,कृष्ण या लक्ष्मी विग्रह पर जल या पंचामृत अभिषेक करने पर
देवता प्रसन्न होते हैं।
शंख की ध्वनि से भक्तों को पूजा-अर्चना के समय की सूचना मिलती है।
आरती के समापन के बाद इसकी ध्वनि से मन को शांति मिलती है।
——कल्याणकारी शंख दैनिक जीवन में दिनचर्या को कुछ समय के लिए विराम
देकर मौन रूप से देव अर्चना के लिए प्रेरित करता है।
यह भारतीय सनातन संस्कृति की धरोहर है।
——शंख की पूजा इस मंत्र के साथ की जाती है——
“”त्वं पुरा सागरोत्पन्न:विष्णुनाविघृत:करे
देवैश्चपूजित: सर्वथैपाञ्चजन्यनमोऽस्तुते।”"
---प्रत्यंचा सनातन संस्कृति
===============
जयति पुण्य सनातन संस्कृति,,जयति पुण्य भूमि भारत,,
सदा सुमंगल,,,वंदेमातरम,,,
जय श्री राम
स्नेही स्वजनों,स्वागत एवं सुमंगल संध्या~~~~~~~~~~~~^~~~~~~~~~~~

शंख की महिमा एवं इतिहास !!

पौराणिक रूप --

समुद्र मंथन से प्राप्त चौदह रत्नों में एक रत्न शंख है।
माता लक्ष्मी के समान शंख भी सागर से उत्पन्न हुआ है इसलिए इसे माता
लक्ष्मी का भाई भी कहा जाता है।
सनातन हिन्दू धर्म में शंख को बहुत ही शुभ माना गया है,इसका कारण यह है
कि माता लक्ष्मी और भगवान विष्णु दोनों ही अपने हाथों में शंख धारण करते हैं।
जन सामान्य में ऐसी धारणा है कि, जिस घर में शंख होता है उस घर में सुख-समृद्धि
आती है।

वास्तु विज्ञान भी इस तथ्य को मानता है कि शंख में ऐसी खूबियां है जो वास्तु संबंधी
कई समस्याओं को दूर करके घर में सकारात्मक उर्जा को आकर्षित करता है जिससे
घर में खुशहाली आती है। शंख की ध्वनि जहां तक पहुंचती हैं वहां तक की वायु शुद्ध
और उर्जावान हो जाती है।
वास्तु विज्ञान के अनुसार सोयी हुई भूमि भी नियमित शंखनाद से जग जाती है।
भूमि के जागृत होने से रोग और कष्ट में कमी आती है तथा घर में रहने वाले लोग
उन्नति की ओर बढते रहते हैं।
भगवान की पूजा में शंख बजाने के पीछे भी यह उद्देश्य होता है कि आस-पास का
वातावरण शुद्ध पवित्र रहे।

शंख के प्रकार-

शंख मुख्यतः तीन प्रकार के होते हैं -दक्षिणावर्ती, मध्यावर्ती और वामावर्ती।
इनमें दक्षिणावर्ती शंख दाईं तरफ से खुलता है,मध्यावर्ती बीच से और वामावर्ती
बाईं तरफ से खुलता है।
मध्यावर्ती शंख बहुत ही कम मिलते हैं।
शास्त्रों में इसे अति चमत्कारिक बताया गया है।
इन तीन प्रकार के शंखों के अलावा और भी अनेक प्रकार के शंख पाए जाते हैं जैसे
लक्ष्मी शंख,गरुड़ शंख,मणिपुष्पक शंख,गोमुखी शंख,देव शंख,राक्षस शंख,विष्णु
शंख,चक्र शंख,पौंड्र शंख,सुघोष शंख,शनि शंख,राहु एवं केतु शंख।

शंख से वास्तु दोष मुक्ति का तरीका-

शंख किसी भी दिन घर में लाकर पूजा स्थल में रखा जा सकता है।
लेकिन शुभ मुहूर्त विशेष तौर पर होली,रामनवमी,जन्माष्टमी,दुर्गा पूजा,दीपावली
के दिन अथवा रवि पुष्य योग या गुरू पुष्य योग में इसे पूजा स्थल में रखकर इसकी
धूप-दीप से पूजा की जाए घर में वास्तु दोष का प्रभाव कम होता है।
शंख में गाय का दूध रखकर इसका छिड़काव घर में किया जाए तो इससे भी
सकारात्मक उर्जा का संचार होता है।

शंख का वैज्ञानिक महत्व---

भारतीय संस्कृति में शंख को महत्वपूर्ण स्थान प्राप्त है।
माना जाता है कि समुद्र मंथन से प्राप्त चौदह रत्नों में से एक शंख भी था।
अथर्ववेदके अनुसार,शंख से राक्षसों का नाश होता है-
''शंखेन हत्वारक्षांसि।''
भागवत पुराण में भी शंख का उल्लेख हुआ है।
शंख में ओम ध्वनि प्रति ध्वनितहोती है,इसलिए ओम से ही वेद बने और वेद से
ज्ञान का प्रसार हुआ।
पुराणों और शास्त्रों में शंख ध्वनि को कल्याणकारी कहा गया है।
इसकी ध्वनि विजय का मार्ग प्रशस्त करती है।

शंख का महत्व धार्मिक दृष्टि से ही नहीं,वैज्ञानिक रूप से भी है।
वैज्ञानिकों का मानना है कि इसके प्रभाव से सूर्य की हानिकारक किरणें बाधक
होती हैं।
इसलिए सुबह और शाम शंख ध्वनि करने का विधान सार्थक है।
जाने-माने वैज्ञानिक डॉ. जगदीश चंद्र बसु के अनुसार, इसकी ध्वनि जहां तक
जाती है, वहां तक व्याप्त बीमारियों के कीटाणु नष्ट हो जाते हैं।
इससे पर्यावरण शुद्ध हो जाता है।
शंख में गंधक, फास्फोरस और कैल्शियम जैसे उपयोगी पदार्थ मौजूद होते हैं।
इससे इसमें मौजूद जल सुवासित और रोगाणु रहित हो जाता है।
इसीलिए शास्त्रों में इसे महाऔषधि माना जाता है।

पूजा,यज्ञ एवं अन्य विशिष्ट अवसरों पर शंखनाद हमारी परंपरा में था।
क्योंकि शंख से निकलने वाली ध्वनितरंगों में हानिकारक वायरस को नष्ट करने
की अद्भुत क्षमता होती है।

1928 में बर्लिन विश्वविद्यालय के विज्ञानियों ने शंख ध्वनि पर अनुसंधान कर
इस बात को प्रमाणित किया था।
दरअसल,शंखनाद करने के पीछे मूलभावना यही थी कि इससे शरीर निरोगी हो
जाता है।
घर में शंख रखना और उसे बजाना वास्तु दोष को भी खत्म कर देता है।
यह भारतीय संस्कृति की अनुपम धरोहर है।

मंदिरों में नियमित रूप से और बहुत से घरों में पूजा-पाठ,धार्मिक अनुष्ठान,व्रत,
कथाएं, जन्मोत्सव के अवसरों पर शंख बजाना शुभ माना जाता है।
ज्योतिषाचार्यो के अनुसार शंख बजाने से आसुरी शक्तियां घर के भीतर प्रवेश नहीं
कर पाती।

समुद्र मंथन में मिले रत्नों में 6वां —-

समुद्र मंथन के समय मिले 14 रत्नों में छठवां रत्न शंख था।
शंखनाद से निकली ध्वनि में अ-उ-म् (ओम्) अथवा ‘ओम्’ शब्द उद्धोषित होता है जहां
तक ‘ओम्’ का नाद पहुंचता है वहां तक नकारात्मक ऊर्जा नष्ट हो जाती है।

देवतुल्य है शंख —–
ब्रह्मवैवर्त पुराण के अनुसार शंख चंद्रमा और सूर्य के समान ही देवस्वरूप है।
इसके मध्य में वरुण,पृष्ठ भाग में ब्रह्मा और अग्र भाग में गंगा व सरस्वती का निवास है।
शंख से शिवलिंग,कृष्ण या लक्ष्मी विग्रह पर जल या पंचामृत अभिषेक करने पर देवता
प्रसन्न होते हैं।
पांचजन्य व विष्णु शंख को दुकान, कार्यालय,फैक्टरी में स्थापित करने से व्यवसाय में
लाभ होता है।

शंख की उत्पत्ति —-

हमारे धर्म ग्रंथों के अनुसार शंख की उत्पत्ति सृष्टी आत्मा से,आत्मा आकाश से,आकाश
वायु से,वायु अग्रि से,आग जल से और जल पृथ्वी से उत्पन्न हुआ है और इन सभी तत्वों
से मिलकर शंख की उत्पत्ति मानी गई है।
वैसे शंख समुद्र में पाए जाने वाले एक प्रकार के घोंघे का खोल है,जिसे वह अपनी सुरक्षा
के लिए बनाता है।

पाप नाशक —

शंख को सनातन धर्म का प्रतीक माना जाता है।
यह निधि का प्रतीक है। इसे घर के पूजास्थल में रखने से अरिष्टों एवं अनिष्टों का नाश
होता है और सौभाग्य की वृद्धि होती है।
स्वर्गलोक में अष्टसिद्धियों एवं नवनिधियों में शंख का महत्वपूर्ण स्थान है।
माना जाता है कि शंख का स्पर्श पाकर जल गंगाजल के समान पवित्र हो जाता है।
शंख में जल भरकर ओम् नमोनारायण का उच्चारण करते हुए भगवान को स्नान कराने
से पापों का नाश होता है।
शंख नाद का प्रतीक है।
नाद जगत में आदि से अंत तक व्याप्त है।
सृष्टि का आरंभ भी नाद से होता है और विलय भी उसी में होता है।

स्वास्थ्य लाभ—

-----शंख बजाना स्वास्थ्य की दृष्टि से बहुत लाभदायक है।
इससे पूरक,कुम्भक और रेचक जैसी प्राणायाम क्रियाएं एक साथ हो जाती हैं।
—–सांस लेने से पूरक, सांस रोकने से कुम्भक और सांस छोड़ने की क्रिया से रेचक सम्पन्न
हो जाती हैं।
—-हृदय रोग,रक्तदाब,सांस सम्बन्धी रोग,मन्दाग्नि आदि में मात्र शंख बजाने से पर्याप्त
लाभ मिलता है।
—-यदि कोई बोलने में असमर्थ है या उसे हकलेपन का दोष है तो शंख बजाने से ये दोष
दूर होते हैं।
इससे फेफड़ों के रोग भी दूर होते हैं :- जैसे दमा, कास प्लीहा यकृत और इन्फ्लूएन्जा रोगों
में शंख ध्वनि फायदेमंद है।

——अगर आपको खांसी,दमा,पीलिया,ब्लडप्रेशर या दिल से संबंधित मामूली से लेकर
गंभीर बीमारी है तो इससे छुटकारा पाने का एक सरल-सा उपाय है –
--शंख बजाइए और रोगों से छुटकारा पाइए।

——शंखनाद से आपके आसपास की नकारात्मक ऊर्जा का नाश तथा सकारात्मक ऊर्जा
का संचार होता है।
शंख से निकलने वाली ध्वनि जहां तक जाती है वहां तक बीमारियों के कीटाणुओं का
नाश हो जाता है।
———–शंखनाद से सकारात्मक ऊर्जा का सर्जन होता है जिससे आत्मबल में वृद्धि
होती है।
शंख में प्राकृतिक कैल्शियम,गंधक और फास्फोरस की भरपूर मात्रा होती है।
प्रतिदिन शंख फूंकने वाले को गले और फेफड़ों के रोग नहीं होते।
शंख से मुख के तमाम रोगों का नाश होता है।
शंख बजाने से चेहरे,श्वसन तंत्र, श्रवण तंत्र तथा फेफड़ों का व्यायाम होता है।
शंख वादन से स्मरण शक्ति बढ़ती है।

शंख के प्रकार —

ये कई प्रकार के होते हैं और सबकी विशेषता एवं पूजन पद्धति भिन्न-भिन्न है।
उच्च श्रेणी के श्रेष्ठ शंख कैलाश मानसरोवर,मालद्वीप,लक्षद्वीप,कोरामंडल द्वीप
समूह, श्रीलंका और भारत में पाए जाते हैं।
दक्षिणावृत्ति शंख (दाहिने हाथ से पकड़ा जाता है),मध्यावृत्ति शंख (इसका मुंह बीच
में खुलता है),वामावृत्ति शंख (यह बाएं हाथ से पकड़ा जाता है)।
इनके अलावा लक्ष्मी शंख,गणोश शंख,गोमुखी शंख,कामधेनु शंख,विष्णु शंख,देवदत्त
शंख, चक्र शंख,पौंड्र शंख,वीणा शंख,सुघोष शंख,गरुड़ शंख,मणिपुष्पक शंख,राक्षस शंख,
शनि शंख, राहु शंख, केतु शंख, शेषनाग शंख, कच्छप शंख आदि होते हैं।
इनकी दुर्लभता एवं चमत्कारिक गुणों के कारण ये अधिक मूल्यवान होते हैं।

विजय घोष का प्रतीक —-

शंख को विजय घोष का प्रतीक माना जाता है।
कार्य के आरम्भ करने के समय शंख बजाना शुभता का प्रतीक है।
इसकी नाद को सुनने वाले को सहज ही ईश्वर की उपस्थिति का अनुभव हो जाता है।

वैज्ञानिक पहलू—

शंख ध्वनि से सूर्य की किरणे बाधित होती हैं।
अत: प्रात: व सायंकाल में ही शंख ध्वनि करने का विधान है।
शंखोदक भस्म से पेट की बीमारियां,पीलिया,कास प्लीहा यकृत,पथरी आदि रोग ठीक
हो जाते हैं।
ऋषि श्रृंग के अनुसार बच्चों के शरीर पर छोटे-छोटे शंख बांधने व शंख जल पिलाने से
वाणी-दोष दूर हाते हैं।
पुराणों में उल्लेख मिलता है कि मूक व श्वास रोगी हमेशा शंख बजाए तो बोलने की
शक्ति पा सकते हैं।
आयुर्वेदाचार्य डा.विनोद वर्मा के अनुसार हकलाने वाले यदि नित्य शंख-जल पीएं तो
वे ठीक हो जाएंगे।
शंख जल स्वास्थ्य,हड्डियों,दांतों के लिए लाभदायक है।
इसमें गंधक, फास्फोरस व कैल्शियम होते हैं।
संगीत सम्राट तानसेन ने भी अपने आरंभिक दौर में शंख बजाकर ही गायन शक्तिप्राप्त
की थी।
अथर्ववेद के अनुसार, शंख में राक्षसों का नाश करने की भी शक्ति होती है।

क्या रहस्य है शंख बजाने का ?

—–मंदिर में आरती के समय शंख बजते सभी ने सुना होगा परंतु शंख क्यों बजाते हैं ?
इसके पीछे क्या कारण है यह बहुत कम ही लोग जानते हैं।
शंख बजाने के पीछे धार्मिक कारण तो है साथ ही इसके पीछे वैज्ञानिक कारण भी है
और शंख बजाने वाले व्यक्ति को स्वास्थ्य लाभ भी मिलता है।

—–शंख की उत्पत्ति कैसे हुई ? इस संबंध में हिन्दू धर्म ग्रंथ कहते हैं सृष्टी आत्मा से,
आत्मा आकाश से,आकाश वायु से,वायु अग्रि से,आग जल से और जल पृथ्वी से उत्पन्न
हुआ है और इन सभी तत्व से मिलकर शंख की उत्पत्ति मानी जाती है।

—-शंख की पवित्रता और महत्व को देखते हुए हमारे यहां सुबह और शाम शंख बजाने
की परंपरा आरंभ की गई है।

शंख बजाने का स्वास्थ्य लाभ यह है कि यदि कोई बोलने में असमर्थ है या उसे हकलेपन
का दोष है तो शंख बजाने से ये दोष दूर होते हैं।

शंख बजाने से कई तरह के फेफड़ों के रोग दूर होते हैं जैसे दमा, कास प्लीहा यकृत और इन्फ्लून्जा आदि रोगों में शंख ध्वनि फायदा पहुंचाती है।

——शंख के जल से शालीग्राम को स्नान कराएं और फिर उस जल को यदि गर्भवती
स्त्री को पिलाया जाए तो पैदा होने वाला शिशु पूरी तरह स्वस्थ होता है।
साथ ही बच्चा कभी मूक या हकला नहीं होता।

——यदि शंखों में भी विशेष शंख जिसे दक्षिणावर्ती शंख कहते हैं इस शंख में दूध
भरकर शालीग्राम का अभिषेक करें।
फिर इस दूध को निरूसंतान महिला को पिलाएं।
इससे उसे शीघ्र ही संतान का सुख मिलता है।

—–गोरक्षासंहिता,विश्वामित्र संहिता,पुलस्त्यसंहिता आदि ग्रंथों में दक्षिणावर्ती शंख
को आयुर्वद्धकऔर समृद्धि दायक कहा गया है।
ब्रह्मवैवर्तपुराण के अनुसार,शंख चंद्रमा और सूर्य के समान ही देवस्वरूपहै।
इसके मध्य में वरुण, पृष्ठ भाग में ब्रह्मा और अग्र भाग में गंगा और सरस्वती का
निवास है।

—–शंख बजाने से दमा,अस्थमा,क्षय जैसे जटिल रोगों का प्रभाव काफी हद तक कम हो
सकता है।
इसका वैज्ञानिक कारण यह है कि शंख बजाने से सांस की अच्छी एक्सरसाइज हो
जाती है।
ब्रह्मवैवर्तपुराण के अनुसार,शंख में जल भरकर रखने और उस जल से पूजन सामग्री
धोने और घर में छिडकने से वातावरण शुद्ध रहता है।

—–तानसेनने अपने आरंभिक दौर में शंख बजाकर ही गायन शक्ति प्राप्त की थी।

——अथर्ववेदके चतुर्थ अध्याय में शंखमणिसूक्त में शंख की महत्ता वर्णित है।

भागवत पुराण के अनुसार,संदीपन ऋषि आश्रम में श्रीकृष्ण ने शिक्षा पूर्ण होने पर
उनसे गुरु दक्षिणा लेने का आग्रह किया।
तब ऋषि ने उनसे कहा कि समुद्र में डूबे मेरे पुत्र को ले आओ।
कृष्ण ने समुद्र तट पर शंखासुरको मार गिराया।
उसका खोल (शंख) शेष रह गया।

——-माना जाता है कि उसी से शंख की उत्पत्ति हुई।
पांचजन्य शंख वही था।
शंख से शिवलिंग,कृष्ण या लक्ष्मी विग्रह पर जल या पंचामृत अभिषेक करने पर
देवता प्रसन्न होते हैं।
शंख की ध्वनि से भक्तों को पूजा-अर्चना के समय की सूचना मिलती है।
आरती के समापन के बाद इसकी ध्वनि से मन को शांति मिलती है।

——कल्याणकारी शंख दैनिक जीवन में दिनचर्या को कुछ समय के लिए विराम
देकर मौन रूप से देव अर्चना के लिए प्रेरित करता है।
यह भारतीय सनातन संस्कृति की धरोहर है।

——शंख की पूजा इस मंत्र के साथ की जाती है——

“”त्वं पुरा सागरोत्पन्न:विष्णुनाविघृत:करे
देवैश्चपूजित: सर्वथैपाञ्चजन्यनमोऽस्तुते।”"
---प्रत्यंचा सनातन संस्कृति
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जयति पुण्य सनातन संस्कृति,,जयति पुण्य भूमि भारत,,
सदा सुमंगल,,,वंदेमातरम,,,

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INDIA-RUSSIA, India
Researcher of Yog-Tantra with the help of Mercury. Working since 1988 in this field.Have own library n a good collection of mysterious things. you can send me e-mail at alon291@yahoo.com Занимаюсь изучением Тантра,йоги с помощью Меркурий. В этой области работаю с 1988 года. За это время собрал внушительную библиотеку и коллекцию магических вещей. Всегда рад общению: alon291@yahoo.com