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Thursday, May 30, 2013

गर्भ शिक्षण : कल्पना नहीं,  पूर्ण सत्य . 





ओम ओम ओम
श्री कृष्णेन सुभद्राये गर्भवत्येनिरुपितम
चक्रव्यूह प्रवेशस्य रहस्यम चातुदम्भितत
अभिमन्यु स्तिथो गर्भे द्विवेद्यनानयुतो श्रुणो
रहस्यम चक्रव्यूहस्य स.म्पूर्णम असत्यातवा

यदार्जुनो गतोदुरम योदूं सम्शप्तदैसः
अभिमन्यु.म बिनानान्यः समर्द्योव्यूहभेदने
भेदितेचक्रव्यूहेपि अतएव विबिणेवा
पार्थपुत्रस्य एकाकी कौरवे निगुर्णेवतः


लोग इस पौराणिक कथा को कल्पना पर आधारित मानते हैं | ये कल्पना नही हमारा इतिहास है और अक्षर अक्षर सत्य है |

हालही में हुए एक प्रयोग (2 जनवरी 2013 को) में वैज्ञानिकों ने खोज निकाला है के गर्भ के शिशुओं भी भाषण की ध्वनि सीखता है | तथा वैज्ञानिकों ने महाभारत के इस प्रसंग पर भी मुहर लगाई |
नवीनतम वैज्ञानिक सबूत से पता चला है कि बच्चे उनके गर्भ के समय से ही सुनते है और भाषा कौशल सीखते है। फ्रांसीसी वैज्ञानिकों का कहना है कि गर्भ के बच्चे अपने जन्म के तिन महीने पहले ही भाषण ध्वनियों में अंतर करना सिख जाता है। (vedicbharat.com) अमेरिका में Pacific Lutheran Universityके शोधकर्ताओं ने एक नए अध्ययन में पता लगाया है कि बच्चे गर्भाशय में भी मातृभाषा के विशिष्ट ध्वनियों चुन सकते हैं। अध्ययन ने इस अनुमान को नकार दिया है कि बच्चे पैदा होने के बाद ही भाषा सीखते है। “ यह पहला अध्ययन है जिससे पता चलता है की हम पैदा होने से पहले ही अपनी मातृभाषा की भाषण ध्वनियों को सीखते है ” - क्रिस्टीन मुन, जो अध्ययन का नेतृत्व कर रहे उन्होंने कहा:- ज्यादातर वैज्ञानिक अब आश्वस्त है कि अर्जुन के पुत्र अभिमन्यु ने युद्ध के चक्रव्यूह गठन को भेदने की कला माँ सुभद्रा के गर्भ में सीखी।



http://www.dailymail.co.uk/indiahome/indianews/article-2256312/Tale-Abhimanyu-true-scientists-babies-pick-language-skills-womb.html


http://www.washington.edu/news/2013/01/02/while-in-womb-babies-begin-learning-language-from-their-mothers/

http://www.abc.net.au/news/2013-02-26/unborn-babies-learn-sounds-of-speech3a-study/4541788

http://ilabs.uw.edu/

http://www.shrinews.com/DetailNews.aspx?NID=8237
पृथ्वी का भोगोलिक मानचित्र: वेद व्यास द्वारा 

यदि पृथ्वी के भोगोलिक मानचित्र की बात की  जाये तो माना  जाता है की क्रिस्टोफ़र कोलंबस (31 अक्टूबर 1451 – 20 मई 1506) ने पृथ्वी  का प्रथम भोगोलिक मानचित्र बनाया अर्थात  लगभग  525 वर्ष पूर्व ।
अब में मुद्दे पर आता हूँ । महाभारत का समय कम से कम 5000 वर्ष ईसा पूर्व अर्थात आज से कम से कम 7000 वर्ष पूर्व का माना  जाता है उसी समय महान दिव्यद्रष्टा ऋषि वेद व्यास ने महाभारत नामक धार्मिक व एतिहासिक ग्रन्थ की रचना की । जिसमे उन्होंने स्पष्ट रूप से पृथ्वी की भोगोलिक स्थति  का उल्लेख किया ।
उन्होंने लिखा :
सुदर्शनं प्रवक्ष्यामि द्वीपं तु कुरुनन्दन। परिमण्डलो महाराज द्वीपोऽसौ चक्रसंस्थितः॥
यथा हि पुरुषः पश्येदादर्शे मुखमात्मनः। एवं सुदर्शनद्वीपो दृश्यते चन्द्रमण्डले॥ द्विरंशे पिप्पलस्तत्र द्विरंशे च शशो महान्।
—वेद व्यास, भीष्म पर्व, महाभारत

अर्थात: हे कुरुनन्दन ! सुदर्शन नामक यह द्वीप चक्र की भाँति गोलाकार स्थित है, जैसे पुरुष दर्पण में अपना मुख देखता है, उसी प्रकार यह द्वीप चन्द्रमण्डल में दिखायी देता है। इसके दो अंशो मे पिप्पल और दो अंशो मे महान शश(खरगोश) दिखायी देता है। अब यदि उपरोक्त संरचना को कागज पर बनाकर व्यवस्थित करे तो हमारी पृथ्वी का मानचित्र बन जाता है, जो हमारी पृथ्वी के वास्तविक मानचित्र से बहुत समानता दिखाता है|





उपरोक्त मानचित्र ११वीं शताब्दी में रामानुजचार्य द्वारा महाभारत के उपरोक्त श्लोक को पढ्ने के बाद बनाया गया था|
इसके अतिरिक्त श्री विष्णुपुराण में सम्पूर्ण पृथ्वी का विस्तार से उल्लेख मिलता है
महर्षि अगस्त्य का विद्युत्-शास्त्र {Ancient Electricity}


महर्षि अगस्त्य एक वैदिक ॠषि थे। इन्हें सप्तर्षियों में से एक माना जाता है। ये वशिष्ठ मुनि (राजा दशरथ के राजकुल गुरु)  के बड़े भाई थे। वेदों से लेकर पुराणों में इनकी महानता की अनेक बार चर्चा की गई है | इन्होने अगस्त्य संहिता नामक ग्रन्थ की रचना की जिसमे इन्होने हर प्रकार का ज्ञान समाहित किया |
इन्हें त्रेता युग में भगवान  श्री राम से मिलने का सोभाग्य प्राप्त हुआ उस समय श्री राम वनवास काल में थे |
इसका विस्तृत वर्णन श्री वाल्मीकि कृत रामायण में मिलता है | इनका आश्रम आज भी महाराष्ट्र के नासिक की एक पहाड़ी पर स्थित है | 

राव साहब कृष्णाजी वझे ने १८९१ में पूना से इंजीनियरिंग की परीक्षा पास की। भारत में विज्ञान संबंधी ग्रंथों की खोज के दौरान उन्हें उज्जैन में दामोदर त्र्यम्बक जोशी के पास अगस्त्य संहिता के कुछ पन्ने मिले।  इस संहिता के पन्नों में उल्लिखित वर्णन को पढ़कर नागपुर में संस्कृत के विभागाध्यक्ष रहे डा. एम.सी. सहस्रबुद्धे को आभास हुआ कि यह वर्णन डेनियल सेल से मिलता-जुलता है। अत: उन्होंने नागपुर में इंजीनियरिंग के प्राध्यापक श्री पी.पी. होले को वह दिया और उसे जांचने को कहा।
श्री अगस्त्य ने अगस्त्य संहिता में विधुत उत्पादन से सम्बंधित सूत्रों में लिखा :

संस्थाप्य मृण्मये पात्रे
ताम्रपत्रं सुसंस्कृतम्‌।
छादयेच्छिखिग्रीवेन
चार्दाभि: काष्ठापांसुभि:॥
दस्तालोष्टो निधात्वय: पारदाच्छादितस्तत:।
संयोगाज्जायते तेजो मित्रावरुणसंज्ञितम्‌॥
-अगस्त्य संहिता

 अर्थात 
एक मिट्टी का पात्र (Earthen pot) लें, उसमें ताम्र पट्टिका (copper sheet) डालें तथा शिखिग्रीवा डालें, फिर बीच में गीली काष्ट पांसु (wet saw dust) लगायें, ऊपर पारा (mercury‌) तथा दस्त लोष्ट (Zinc) डालें, फिर तारों को मिलाएंगे तो, उससे मित्रावरुणशक्ति का उदय होगा। 

अब थोड़ी सी हास्यास्पद स्थति उत्पन्न हुई |

उपर्युक्त वर्णन के आधार पर श्री होले तथा उनके मित्र ने तैयारी चालू की तो शेष सामग्री तो ध्यान में आ गई, परन्तु शिखिग्रीवा समझ में नहीं आया। संस्कृत कोष में देखने पर ध्यान में आया कि शिखिग्रीवा याने मोर की गर्दन। अत: वे और उनके मित्र बाग गए तथा वहां के प्रमुख से पूछा, क्या आप बता सकते हैं, आपके बाग में मोर कब मरेगा, तो उसने नाराज होकर कहा क्यों? तब उन्होंने कहा, एक प्रयोग के लिए उसकी गरदन की आवश्यकता है। यह सुनकर उसने कहा ठीक है। आप एक अर्जी दे जाइये। इसके कुछ दिन बाद एक आयुर्वेदाचार्य से बात हो रही थी। उनको यह सारा घटनाक्रम सुनाया तो वे हंसने लगे और उन्होंने कहा, यहां शिखिग्रीवा का अर्थ मोर की गरदन नहीं अपितु उसकी गरदन के रंग जैसा पदार्थ कॉपरसल्फेट है। यह जानकारी मिलते ही समस्या हल हो गई और फिर इस आधार पर एक सेल बनाया और डिजीटल मल्टीमीटर द्वारा उसको नापा। परिणामस्वरूप 1.138 वोल्ट तथा 23 mA धारा वाली विद्युत उत्पन्न हुई।

प्रयोग सफल होने की सूचना डा. एम.सी. सहस्रबुद्धे को दी गई। इस सेल का प्रदर्शन ७ अगस्त, १९९० को स्वदेशी विज्ञान संशोधन संस्था (नागपुर) के चौथे वार्षिक सर्वसाधारण सभा में अन्य विद्वानों के सामने हुआ।


आगे श्री अगस्त्य जी लिखते है :
अनने जलभंगोस्ति प्राणो
दानेषु वायुषु।
एवं शतानां कुंभानांसंयोगकार्यकृत्स्मृत:॥  

सौ कुंभों की शक्ति का पानी पर प्रयोग करेंगे, तो पानी अपने रूप को बदल कर प्राण वायु (Oxygen) तथा उदान वायु (Hydrogen) में परिवर्तित हो जाएगा।

आगे लिखते है:
 वायुबन्धकवस्त्रेण
निबद्धो यानमस्तके
उदान : स्वलघुत्वे बिभर्त्याकाशयानकम्‌।  (अगस्त्य संहिता शिल्प शास्त्र सार)

उदान वायु (H2) को वायु प्रतिबन्धक  वस्त्र (गुब्बारा)  में रोका जाए तो यह विमान विद्या में काम आता है।
प्राचीन भारत में विमान विद्या थी | विमान शास्त्र की रचना महर्षि भरद्वाज ने की जिसके बारे में हम पहले ही देख चुके है | पढने के लिए यहाँ क्लिक करें|
  

राव साहब वझे, जिन्होंने भारतीय वैज्ञानिक ग्रंथ और प्रयोगों को ढूंढ़ने में अपना जीवन लगाया, उन्होंने अगस्त्य संहिता एवं अन्य ग्रंथों में पाया कि विद्युत भिन्न-भिन्न प्रकार से उत्पन्न होती हैं,  इस आधार पर
उसके भिन्न-भिन्न नाम रखे गयें है:

(१) तड़ित्‌ - रेशमी वस्त्रों के घर्षण से उत्पन्न।
(२) सौदामिनी - रत्नों के घर्षण से उत्पन्न।
(३) विद्युत - बादलों के द्वारा उत्पन्न।
(४) शतकुंभी - सौ सेलों या कुंभों से उत्पन्न।
(५) हृदनि - हृद या स्टोर की हुई बिजली।
(६) अशनि - चुम्बकीय दण्ड से उत्पन्न।


अगस्त्य संहिता में विद्युत्‌ का उपयोग इलेक्ट्रोप्लेटिंग (Electroplating) के लिए करने का भी विवरण मिलता है। उन्होंने बैटरी द्वारा तांबा या सोना या चांदी पर पालिश चढ़ाने की विधि निकाली। अत: अगस्त्य को कुंभोद्भव (Battery Bone) कहते हैं।

आगे लिखा है:
कृत्रिमस्वर्णरजतलेप: सत्कृतिरुच्यते। -शुक्र नीति

यवक्षारमयोधानौ सुशक्तजलसन्निधो॥
आच्छादयति तत्ताम्रं
स्वर्णेन रजतेन वा।
सुवर्णलिप्तं तत्ताम्रं
शातकुंभमिति स्मृतम्‌॥ ५ (अगस्त्य संहिता)

अर्थात्‌-
कृत्रिम स्वर्ण अथवा रजत के लेप को सत्कृति कहा जाता है। लोहे के पात्र में सुशक्त जल अर्थात तेजाब का घोल इसका सानिध्य पाते ही यवक्षार (सोने या चांदी का नाइट्रेट) ताम्र को स्वर्ण या रजत से ढंक  लेता है। स्वर्ण से लिप्त उस ताम्र को शातकुंभ अथवा स्वर्ण कहा जाता है।

उपरोक्त विधि का वर्णन एक  विदेशी लेखक David Hatcher Childress ने अपनी पुस्तक  "  Technology of the Gods: The Incredible Sciences of the Ancients" में भी लिखा है । अब मजे की बात यह है कि हमारे ग्रंथों को विदेशियों ने हम से भी अधिक पढ़ा है । इसीलिए दौड़ में आगे निकल गये  और सारा श्रेय भी ले गये ।

आज हम विभवान्तर की इकाई वोल्ट तथा धारा की एम्पीयर लिखते है जो क्रमश: वैज्ञानिक  Alessandro Volta तथा André-Marie Ampère के नाम पर रखी गयी है | 
जबकि इकाई अगस्त्य होनी चाहिए थी |







महर्षि भारद्वाज रचित ‘विमान शास्त्र‘ {Ancient Book on Aeronautics}
जन सामान्य में हमारे प्राचीन ऋषियों-मुनियों के बारे में ऐसी धारणा जड़ जमाकर बैठी हुई है कि वे जंगलों में रहते थे, जटाजूटधारी थे, भगवा वस्त्र पहनते थे, झोपड़ियों में रहते हुए दिन-रात ब्रह्म-चिन्तन में निमग्न रहते थे, सांसारिकता से उन्हें कुछ भी लेना-देना नहीं रहता था।
इसी पंगु अवधारणा का एक बहुत बड़ा अनर्थकारी पहलू यह है कि हम अपने महान पूर्वजों के जीवन के उस पक्ष को एकदम भुला बैठे, जो उनके महान् वैज्ञानिक होने को न केवल उजागर करता है वरन् सप्रमाण पुष्ट भी करता है। महर्षि भरद्वाज हमारे उन प्राचीन विज्ञानवेत्ताओं में से ही एक ऐसे महान् वैज्ञानिक थे जिनका जीवन तो अति साधारण था लेकिन उनके पास लोकोपकारक विज्ञान की महान दृष्टि थी।
महर्षि भारद्वाज और कोई नही बल्कि वही  ऋषि है जिन्हें त्रेता युग में  भगवान श्री राम से मिलने का सोभाग्य दो बार प्राप्त हुआ । एक बार श्री राम के  वनवास काल में तथा दूसरी बार श्रीलंका से लौट कर अयोध्या जाते समय। इसका वर्णन वाल्मिकी रामायण तथा तुलसीदास कृत रामचरितमानस में मिलता है |
 तीर्थराज प्रयाग में संगम से थोड़ी दूरी पर इनका आश्रम था, जो आज भी विद्यमान है। महर्षि भरद्वाज की दो पुत्रियाँ थीं, जिनमें से एक (सम्भवत: मैत्रेयी) महर्षि याज्ञवल्क्य को ब्याही थीं और दूसरी इडविडा (इलविला) विश्रवा मुनि को |


महाभारत काल तथा उससे पूर्व भारतवर्ष में भी विमान विद्या का विकास हुआ था । न केवल विमान अपितु अंतरिक्ष में स्थित नगर रचना भी हुई थी | इसके अनेक संदर्भ प्राचीन वांग्मय में मिलते हैं । 
निश्चित रूप से उस समय ऐसी विद्या अस्तित्व में थी जिसके द्वारा भारहीनता (zero gravity) की स्थति उत्पन्न की जा सकती थी । यदि पृथ्वी की गरूत्वाकर्षण शक्ति का उसी मात्रा में विपरीत दिशा में प्रयोग किया जाये तो भारहीनता उत्पन्न कर पाना संभव है |
विद्या वाचस्पति पं. मधुसूदन सरस्वती " इन्द्रविजय " नामक ग्रंथ में ऋग्वेद के छत्तीसवें सूक्त प्रथम मंत्र का अर्थ लिखते हुए कहते हैं कि ऋभुओं ने तीन पहियों वाला ऐसा रथ बनाया था जो अंतरिक्ष में उड़ सकता था । पुराणों में विभिन्न देवी देवता , यक्ष , विद्याधर आदि विमानों द्वारा यात्रा करते हैं इस प्रकार के उल्लेख आते हैं । त्रिपुरासुर याने तीन असुर भाइयों ने अंतरिक्ष में तीन अजेय नगरों का निर्माण किया था , जो पृथ्वी, जल, व आकाश में आ जा सकते थे और भगवान शिव ने जिन्हें नष्ट किया ।

वेदों मे विमान संबंधी उल्लेख अनेक स्थलों पर मिलते हैं। ऋषि देवताओं द्वारा निर्मित तीन पहियों के ऐसे रथ का उल्लेख ऋग्वेद (मण्डल 4, सूत्र 25, 26) में मिलता है, जो अंतरिक्ष में भ्रमण करता है। ऋषिओं ने मनुष्य-योनि से देवभाव पाया था। देवताओं के वैद्य अश्विनीकुमारों द्वारा निर्मित पक्षी की तरह उडऩे वाले त्रितल रथ, विद्युत-रथ और त्रिचक्र रथ का उल्लेख भी पाया जाता है। महाभारत में श्री कृष्ण, जरासंध आदि के विमानों का वर्णन आता है ।

वाल्मीकि रामायण में वर्णित ‘पुष्पक विमान’ (जो लंकापति रावण के पास था) के नाम से तो प्राय: सभी परिचित हैं। लेकिन इन सबको कपोल-कल्पित माना जाता रहा है। लगभग छह दशक पूर्व सुविख्यात भारतीय वैज्ञानिक डॉ0 वामनराव काटेकर ने अपने एक शोध-प्रबंध में पुष्पक विमान को अगस्त्य मुनि द्वारा निर्मित बतलाया था, जिसका आधार `अगस्त्य संहिता´ की एक प्राचीन पाण्डुलिपि थी। अगस्त्य के `अग्नियान´ ग्रंथ के भी सन्दर्भ अन्यत्र भी मिले हैं। इनमें विमान में प्रयुक्त विद्युत्-ऊर्जा के लिए `मित्रावरुण तेज´ का उल्लेख है। महर्षि भरद्वाज ऐसे पहले विमान-शास्त्री हैं, जिन्होंने अगस्त्य के समय के विद्युत् ज्ञान को अभिवर्द्धित किया। 

महर्षि भारद्वाज ने " यंत्र सर्वस्व " नामक ग्रंथ लिखा था, जिसमे सभी प्रकार के यंत्रों के बनाने तथा उन के संचालन का विस्तृत वर्णन किया। उसका एक भाग वैमानिक शास्त्र है |
इस ग्रंथ के पहले प्रकरण में प्राचीन विज्ञान विषय के पच्चीस ग्रंथों की एक सूची है, जिनमें प्रमुख है अगस्त्यकृत - शक्तिसूत्र, ईश्वरकृत - सौदामिनी कला, भरद्वाजकृत - अशुबोधिनी, यंत्रसर्वसव तथा आकाश शास्त्र, शाकटायन कृत - वायुतत्त्व प्रकरण, नारदकृत - वैश्वानरतंत्र, धूम प्रकरण आदि ।


विमान शास्त्र की टीका लिखने वाले बोधानन्द लिखते है -
 निर्मथ्य तद्वेदाम्बुधिं भरद्वाजो महामुनिः । 
 नवनीतं समुद्घृत्य यन्त्रसर्वस्वरूपकम्‌ ।
 प्रायच्छत्‌ सर्वलोकानामीप्सिताज्ञर्थ लप्रदम्‌ ।
 तस्मिन चत्वरिंशतिकाधिकारे सम्प्रदर्शितम्‌ ॥ 
 नाविमानर्वैचित्र्‌यरचनाक्रमबोधकम्‌ । 
 अष्टाध्यायैर्विभजितं शताधिकरणैर्युतम । 
 सूत्रैः पञ्‌चशतैर्युक्तं व्योमयानप्रधानकम्‌ । 
 वैमानिकाधिकरणमुक्तं भगवतास्वयम्‌ ॥ 

अर्थात - भरद्वाज महामुनि ने वेदरूपी समुद्र का मन्थन करके यन्त्र सर्वस्व नाम का ऐसा मक्खन निकाला है , जो मनुष्य मात्र के लिए इच्छित फल देने वाला है । उसके चालीसवें अधिकरण में वैमानिक प्रकरण जिसमें विमान विषयक रचना के क्रम कहे गए हैं । यह ग्रंथ आठ अध्याय में विभाजित है तथा उसमें एक सौ अधिकरण तथा पाँच सौ सूत्र हैं तथा उसमें विमान का विषय ही प्रधान है । ग्रंथ के बारे में बताने के बाद बोधानन्द भरद्वाज मुनि के पूर्व हुए आचार्य व उनके ग्रंथों के बारे में लिखते हैं |  वे आचार्य तथा उनके ग्रंथ निम्नानुसार हैं ।
( १ ) नारायण कृत - विमान चन्द्रिका ( २ ) शौनक कृत न् व्योमयान तंत्र ( ३ ) गर्ग - यन्त्रकल्प ( ४ ) वायस्पतिकृत - यान बिन्दु + चाक्रायणीकृत खेटयान प्रदीपिका ( ६ ) धुण्डीनाथ - व्योमयानार्क प्रकाश
विमान की परिभाषा देते हुए अष् नारायण ऋषि कहते हैं जो पृथ्वी, जल तथा आकाश में पक्षियों के समान वेग पूर्वक चल सके, उसका नाम विमान है ।
शौनक के अनुसार- एक स्थान से दूसरे स्थान को आकाश मार्ग से जा सके ,
विश्वम्भर के अनुसार - एक देश से दूसरे देश या एक ग्रह से दूसरे ग्रह जा सके, उसे विमान कहते हैं ।
  
अन्तर्राष्ट्रीय संस्कृत शोध मण्डल ने प्राचीन पाण्डुलिपियों की खोज के विशेष प्रयास किये। फलस्वरूप् जो ग्रन्थ मिले, उनके आधार पर भरद्वाज का `विमान-प्रकरण´, विमान शास्त्र प्रकाश में आया। इस ग्रन्थ का बारीकी से अध्यन करने पर आठ प्रकार के विमानों का पता चला : 
1. शक्त्युद्गम - बिजली से चलने वाला। 
2. भूतवाह - अग्नि, जल और वायु से चलने वाला। 
3. धूमयान - गैस से चलने वाला। 
4. शिखोद्गम - तेल से चलने वाला। 
5. अंशुवाह - सूर्यरश्मियों से चलने वाला। 
6. तारामुख - चुम्बक से चलने वाला। 
7. मणिवाह - चन्द्रकान्त, सूर्यकान्त मणियों से चलने वाला। 
8. मरुत्सखा - केवल वायु से चलने वाला। 




इसी ग्रन्थ के आधार पर भारत के बम्बई निवासी शिवकर जी ने Wright brothers से 8 वर्ष पूर्व ही एक विमान का निर्माण कर लिया था । |
सर्वप्रथम इस विमान शास्त्र को मिथ्या माना  गया परन्तु अध्यन से चोंका देने वाले तथ्य सामने आये जैसे विमान का जो प्रारूप तथा जिन धातुओं  से  विमान का निर्माण इस विमान शास्त्र में उल्लेखित है  वह परिकल्पना आधुनिक विमान निर्माण पद्धति से मेल  खाती है ।  :




प्राचीन भारत में हुए परमाण्विक युद्ध {Atomic Mahabharata}
आधुनिक परमाणु बम का सफल परिक्षण 16 जुलाई 1945 को New Mexico के एक दूर दराज स्थान में किया गया | इस बम का निर्माण अमेरिका के एक वैज्ञानिक Julius Robert Oppenheimer के नेतृत्व में किया गया |
इन्हें परमाणु बम का जनक भी कहा जाता है | इस एटम बम का नाम उन्होंने त्रिदेव (Trinity) रखा |

त्रिदेव (ट्रिनीटी) नाम क्यो?
परमाणु विखण्डन की श्रृंखला अभिक्रिया में २३५ भार वला यूरेनियम परमाणु,बेरियम और क्रिप्टन तत्वों में विघटित होता है। प्रति परमाणु ३ न्यूट्रान मुक्त होकर अन्य तीन परमाणुओं का विखण्डन करते है। कुछ द्रव्यमान ऊ र्जा में परिणित हो जाता है। आइंस्टाइन के सूत्र
 ऊर्जा = द्रव्यमान * (प्रकाश का वेग)२  {E=MC^2}
 के अनुसार अपरिमित ऊ र्जा अर्थात उष्मा व प्रकाश उत्पन्न होते है।
१८९३ में जब स्वामी विवेकानन्द अमेरिका में थे,उन्होने वेद और गीता के कतिपय श्लोकों का अंग्रेजी अनुवाद किया था। यद्यपि परमाणु बम विस्फोटट कमेटी के अध्यक्ष ओपेन हाइमर का जन्म स्वामी जी की मृत्यु के बाद हुआ था किन्तु राबर्ट ने श्लोकों का अध्ययन किया था। वे वेद और गीता से बहुत प्रभावित हुए थे। वेदों के बारे में उनका कहना था कि पाश्चात्य संस्कृति में वेदों की पंहुच इस सदी की विशेष कल्याणकारी घटना है। उन्होने जिन तीन श्लोकों को महत्व दिया वे निम्र प्रकार है।
१. राबर्ट औपेन हाइमर का अनुमान था कि परमाणु बम विस्फोट से अत्यधिक तीव्र प्रकाश और उच्च ऊ ष्मा होगी, जैसा कि भगवान कृष्ण द्वारा अर्जुन को विराट स्वरुप के दर्शन देते समय उत्पन्न हुआ होगा। गीता के ग्यारहवें अध्याय के बारहवें श्लोक में लिखा है-
दिविसूर्य सहस्य भवेयुग पदुत्थिता
यदि मा सदृशीसा स्यादा सस्तस्य महात्मन:
अर्थात आकाश में हजारों सूर्यों के एक साथ उदय होने से जो प्रकाश उत्पन्न होगा वह भी वह विश्वरुप परमात्मा के प्रकाश के सदृश्य शायद ही हो।
२. औपेन हाइमर ने सोचा कि इस बम विस्फोट से बहुत अधिक लोगों की मृत्यु होगी,दुनिया में विनाश ही विनाश होगा। उस समय उन्हे गीता के ग्यारहवें अध्याय के ३२ वें श्लोक में वर्णित बातों का ध्यान आया-
कालोस्स्मि लोकक्षयकृत्प्रवृध्दो लोकान्समाहर्तुमिह प्रवृत:।
ऋ तेह्यपि त्वां न भविष्यन्ति सर्वे येह्यवस्थिता: प्रत्यनीकेषु योधा:।।
अर्थात मैं लोको का नाश करने वाला बढा हुआ महाकाल हूं। इस समय इन लोकों को नष्ट करने के लिए प्रवृत्त हुआ हूं,अत: जो प्रतिपक्षी सेना के योध्दा लोग हैं वे तेरे युध्द न करने पर भी नहीं रहेंगे अर्थात इनका नाश हो जाएगा।
राबर्ट का बम भी विश्व संहारक और महाकाल ही था।
३. औपेन हाइमर ने सोचा कि बम विस्फोट से जहां कुछ लोग प्रसन्न होंगे तो जिनका विनाश हुआ है वे दु:खी होंगे विलाप करेंगे,जबकि अधिकांश तटस्थ रहेंगे। इस विनाश का जिम्मेदार खुद को मानते हुए वे दुखी हुए तभी उन्हे गीता के द्वितीय अध्याय के सैंतालिसवें श्लोक का भावार्थ ध्यान आया।
श्लोक निम्र प्रकार है-
कर्मण्येवाधिकारस्ते मा फलेषु कदाचन।
मा कर्मफलहेतुर्भूर्मा ते संङ्गोह्यस्त्वकर्माणि।।
अर्थात तेरा कर्म करने का ही अधिकार है,फल का नहीं। अत: तू कर्मो के फल का हेतु मत हो,तेरी आसक्ति सिर्फ कर्म करने में ही होनी चाहिए।
तीनों श्लोकों के भावार्थ के आधार पर ही राबर्ट ने बम का नाम त्रिदेव (ट्रिनीटी) रखा। ये बात उन्होने कई बार अमेरिकी पत्रकार वार्ता और टीवी इण्टरव्यू में स्वीकार की थी।
 }साभार:   http://sarkarigupshup.com/mp/?p=49

इसके अतिरिक्त  1933 में उन्होंने अपने एक मित्र Arthur William Ryder, जोकि University of California, Berkeley में संस्कृत के  प्रोफेसर थे, के साथ मिल कर भगवद गीता का पूरा अध्यन किया  और परमाणु बम बनाया 1945 में | परमाणु बम जैसी किसी चीज़ के होने का पता भी इनको भगवद गीता तथा महाभारत से ही मिला, इसमें कोई संदेह नहीं | Robert Oppenheimer ने इस प्रयोग के बाद प्राप्त निष्कर्षों पर अध्यन किया और कहा की विस्फोट के बाद उत्पन विकट परिस्तियाँ तथा दुष्परिणाम जो हमें प्राप्त हुए है ठीक इस प्रकार का वर्णन भगवद गीता तथा महाभारत आदि में मिलते है | 




इसके पश्चात खलबली मच गई तथा महाभारत और गीता आदि पर शोध किया गया और उन्होंने बताया की कई अन्य परमाण्विक बमों के अतिरिक्त एक "ब्रह्माश्त्र" नामक अस्त्र का वर्णन मिलता है जो इतना संहारक था की उस के प्रयोग से कई  हजारो लोग व  अन्य वस्तुएं न केवल जल गई अपितु पिघल भी गई|
ब्रह्मास्त्र के बारे में हमसे बेहतर कौन जान सकता है प्रत्येक पुराण आदि में वर्णन मिलता है जगत पिता भगवान ब्रह्मा द्वारा देत्यो के नाश हेतु ब्रह्मास्त्र की उत्पति हुई |
इस शोध पर लिखी गई कई किताबो में से एक है : The Atoms of Kshatriyas 
रामायण में भी मेघनाद से युद्ध हेतु लक्ष्मण ने जब ब्रह्मास्त्र का प्रयोग करना चाहा तब श्रीराम ने उन्हें यह कह कर रोक दिया की अभी इसका प्रयोग उचित नही अन्यथा पूरी लंका साफ़ हो जाएगी |

इसके अतिरिक्त प्राचीन भारत में परमाण्विक बमों के होने के प्रमाणों  की कोई कमी नही है । सिन्धु घाटी सभ्यता (मोहन जोदड़ो, हड़प्पा आदि) में अनुसन्धान से ऐसी कई नगरियाँ प्राप्त हुई है जो लगभग 5000 से 7000 ईसापूर्व तक अस्तित्व में थी|
वहां ऐसे कई नर कंकाल इस स्थिति में प्राप्त हुए है मानो वो सभी किसी अकस्मात प्रहार में मारे गये हों  तथा इनमें रेडिएशन का असर भी था |
तथा कई ऐसे प्रमाण जो यह सिद्ध करते है की किसी समय यहाँ भयंकर ऊष्मा उत्पन्न हुई जो केवल परमाण्विक बम से ही उत्पन्न हो सकती है |

राजस्थान में जोधपुर से पश्चिम दिशा में लगभग दस मील की दूरी पर तीन वर्गमील का एक ऐसा क्षेत्र है जहाँ पर रेडियोएक्टिव्ह राख की मोटी सतह पाई जाती है। वैज्ञानिकों ने उसके पास एक प्राचीन नगर को खोद निकाला है जिसके समस्त भवन और लगभग पाँच लाख निवासी आज से लगभग 8,000 से 12,000 साल पूर्व किसी परमाणु विस्फोट के कारण नष्ट हो गए थे। एक शोधकर्ता के आकलन के अनुसार प्राचीनकाल में उस नगर पर गिराया गया परमाणु बम जापान में सन् 1945 में गिराए गए परमाणु बम की क्षमता के बराबर का था।
मुंबई से उत्तर दिशा में लगभग 400 कि.मी. दूरी पर स्थित लगभग 2,154 मीटर की परिधि वाला एक अद्भुत विशाल गड्ढा (crater), जिसकी आयु 50,000 से कम आँकी गई है, भी यही इंगित करती है कि प्राचीन काल में भारत में परमाणु युद्ध हुआ था। शोध से ज्ञात हुआ है कि यह गड्ढा  crater) पृथ्वी पर किसी 600.000 वायुमंडल के दबाव वाले किसी विशाल के प्रहार के कारण बना है किन्तु  इस गड्ढे (crater) तथा इसके आसपास के क्षेत्र में उल्कापात से सम्बन्धित कुछ भी सामग्री नहीं पाई जाती। फिर यह विलक्षण गड्ढा  crater) आखिर बना कैसे? सम्पूर्ण विश्व में यह अपने प्रकार का एक अकेला गड्ढा (crater) है।

महाभारत में सौप्टिक पर्व अध्याय १३ से १५ तक ब्रह्मास्त्र के परिणाम दिये गए है|
Great Event of the 20th Century. How they changed our lives ? नामक पुस्तक  में हिरोशिमा नामक जापान के नगर पर परमाणु बम गिराने के बाद जो परिणाम हुए उसका वर्णन हैं, दोनों वर्णन मिलते झूलते हैं । यह देख हमें विश्वास होता हैं कि 3 नवंबर 5561 ईसापूर्व (आज से 7574 वर्ष पूर्व ) छोड़ा हुआ ब्रह्मास्त्र एटोमिक वेपन अर्थात परमाणु बम ही था ।
महाभारत युद्ध का आरंभ 16 नवंबर 5561 ईसा पूर्व हुआ और 18 दिन चलाने के बाद 2 दिसम्बर 5561 ईसा पूर्व को समाप्त हुआ उसी रात दुर्योधन ने अश्वथामा को सेनापति नियुक्त किया । 3 नवंबर 5561 ईसा पूर्व के दिन भीम ने अश्वथामा को पकड़ने का प्रयत्न किया । तब अश्वथामा ने जो ब्रह्मास्त्र छोड़ा उस अस्त्र के कारण जो अग्नि उत्पन्न हुई वह प्रलंकारी थी । वह अस्त्र प्रज्वलित हुआ तब एक भयानक ज्वाला उत्पन्न हुई जो तेजोमंडल को घिर जाने मे समर्थ थी । 
तदस्त्रं प्रजज्वाल महाज्वालं तेजोमंडल संवृतम ।। ८ ।।

इसके बाद भयंकर वायु चलने लगी । सहस्त्रावधि उल्का आकाश से गिरने लगे । 
आकाश में बड़ा शब्द (ध्वनि ) हुआ ।  पर्वत, अरण्य, वृक्षो के साथ पृथ्वी हिल गई|
 सशब्द्म्भवम व्योम ज्वालामालाकुलं भृशम । चचाल च मही कृत्स्ना सपर्वतवनद्रुमा ।। १० ।। अ १४ 

यहाँ व्यास लिखते हैं कि “जहां ब्रहास्त्र छोड़ा जाता है वहीं १२ वषों तक पर्जन्यवृष्ठी (जीव-जंतु , पेड़-पोधे आदि की उत्पति ) नहीं हो पाती “।
’ब्रह्मास्त्र के कारण गाँव मे रहने वाली स्त्रियों के गर्भ मारे गए, ऐसा महाभारत लिखता है । वैसे ही हिरोशिमा में रेडिएशन फॉल आउट के कारण गर्भ मारे गए थे ।
ब्रह्मास्त्र के कारण १२ वर्ष अकाल का निर्माण होता है यह भी हिरोशिमा में देखने को मिलता है ।    



















कंप्यूटर प्रोग्रामिंग के पिताश्री: महर्षि पाणिनि



महर्षि पाणिनि के बारे में  बताने  पूर्व में आज की  कंप्यूटर प्रोग्रामिंग   किस प्रकार कार्य करती है इसके बारे में कुछ जरा सा बताना  चाहूँगा। आज की कंप्यूटर प्रोग्रामिंग  भाषाएँ जैसे c, c++, java आदि में प्रोग्रामिंग हाई लेवल लैंग्वेज (high level language) में लिखे जाते है जो अंग्रेजी के सामान ही होती है | इसे कंप्यूटर की गणना सम्बन्धी व्याख्या (theory of computation) जिसमे प्रोग्रामिंग के syntex आदि का वर्णन होता है, के  द्वारा लो लेवल लैंग्वेज (low level language) जो विशेष प्रकार का कोड होता है जिसे mnemonic कहा जाता है जैसे जोड़ के लिए ADD, गुना के लिए MUL आदि में परिवर्तित किये जाते है | तथा इस प्रकार प्राप्त कोड को प्रोसेसर द्वारा द्विआधारी भाषा (binary language: 0101) में परिवर्तित कर क्रियान्वित किया जाता है |
इस प्रकार पूरा कंप्यूटर जगत theory of computation पर निर्भर करता है |
इसी computation पर महर्षि पाणिनि (लगभग  500 ई पू)  ने संस्कृत व्याकरण द्वारा एक पूरा ग्रन्थ रच डाला | 

महर्षि पाणिनि संस्कृत भाषा के सबसे बड़े  व्याकरण विज्ञानी थे | इनका जन्म उत्तर पश्चिम भारत के गांधार में हुआ था। कई इतिहासकार इन्हें महर्षि पिंगल का बड़ा भाई मानते है | इनके व्याकरण का नाम अष्टाध्यायी है जिसमें आठ अध्याय और लगभग चार सहस्र सूत्र हैं। संस्कृत भाषा को व्याकरण सम्मत रूप देने में पाणिनि का योगदान अतुलनीय माना जाता है। अष्टाध्यायी मात्र व्याकरण ग्रंथ नहीं है। इसमें प्रकारांतर से तत्कालीन भारतीय समाज का पूरा चित्र मिलता है। 
इनके द्वारा भाषा के सन्दर्भ में किये गये महत्त्व पूर्ण कार्य 19वी सदी में प्रकाश में आने लगे |
 19वी सदी में यूरोप के एक भाषा विज्ञानी Franz Bopp (14 सितम्बर 1791 – 23 अक्टूबर 1867) ने श्री पाणिनि के कार्यो पर गौर फ़रमाया । उन्हें पाणिनि के लिखे हुए ग्रंथों में तथा संस्कृत व्याकरण में आधुनिक भाषा प्रणाली को और परिपक्व करने के नए मार्ग मिले  |  www.vedicbharat.com/ 
इसके बाद कई संस्कृत के विदेशी चहेतों  ने उनके कार्यो में रूचि दिखाई और गहन अध्ययन किया जैसे: Ferdinand de Saussure (1857-1913), Leonard Bloomfield (1887 – 1949) तथा एक हाल ही के भाषा विज्ञानी Frits Staal (1930 – 2012).

तथा इसी क्रम में आगे बढ़ते हुए 19वि सदी के एक जर्मन विज्ञानी Friedrich Ludwig Gottlob Frege      (8 नवम्बर 1848 – 26 जुलाई 1925 ) ने इस क्षेत्र में कई कार्य किये और इन्हें  आधुनिक जगत का प्रथम लॉजिक विज्ञानी कहा जाने लगा |

जबकि इनके जन्म से लगभग 2400 वर्ष पूर्व ही श्री पाणिनि इन सब पर एक पूरा ग्रन्थ सीना ठोक के लिख चुके थे |
अपनी ग्रामर की रचना के दोरान पाणिनि ने auxiliary symbols (सहायक प्रतीक) प्रयोग में लिए जिसकी सहायता से कई प्रत्ययों का निर्माण किया और फलस्वरूप ये ग्रामर को और सुद्रढ़ बनाने में सहायक हुए |
 इसी तकनीक का प्रयोग आधुनिक विज्ञानी Emil Post (फरवरी 11, 1897 – अप्रैल 21, 1954) ने किया और आज की समस्त  computer programming languages की नीव रखी | 
Iowa State University, अमेरिका ने पाणिनि के नाम पर एक प्रोग्रामिंग भाषा का निर्माण भी किया है जिसका  नाम ही पाणिनि प्रोग्रामिंग लैंग्वेज रखा है: यहाँ देखे |

एक शताब्दी से भी पहले प्रिसद्ध जर्मन भारतिवद मैक्स मूलर (१८२३-१९००) ने अपने साइंस आफ थाट में कहा -

"मैं निर्भीकतापूर्वक कह सकता हूँ कि अंग्रेज़ी या लैटिन या ग्रीक में ऐसी संकल्पनाएँ नगण्य हैं जिन्हें संस्कृत धातुओं से व्युत्पन्न शब्दों से अभिव्यक्त न किया जा सके । इसके विपरीत मेरा विश्वास है कि 2,50,000 शब्द सम्मिलित माने जाने वाले अंग्रेज़ी शब्दकोश की सम्पूर्ण सम्पदा के स्पष्टीकरण हेतु वांछित धातुओं की संख्या, उचित सीमाओं में न्यूनीकृत पाणिनीय धातुओं से भी कम है । 
अंग्रेज़ी में ऐसा कोई वाक्य नहीं जिसके प्रत्येक शब्द का 800 धातुओं से एवं प्रत्येक विचार का पाणिनि द्वारा प्रदत्त सामग्री के सावधानीपूर्वक वेश्लेषण के बाद अविशष्ट 121 मौलिक संकल्पनाओं से सम्बन्ध निकाला न जा सके ।"



The M L B D News letter ( A monthly of indological bibliography) in April 1993, में महर्षि पाणिनि को first softwear man without hardwear घोषित किया है। जिसका मुख्य शीर्षक था " Sanskrit software for future hardware "
जिसमे बताया गया " प्राकृतिक भाषाओं (प्राकृतिक भाषा केवल संस्कृत ही है बाकि सब की सब मानव रचित है  ) को कंप्यूटर प्रोग्रामिंग के लिए अनुकूल बनाने के तीन दशक की कोशिश करने के बाद, वैज्ञानिकों को एहसास हुआ कि कंप्यूटर प्रोग्रामिंग में भी हम 2600 साल पहले ही पराजित हो चुके है। हालाँकि उस समय इस तथ्य किस प्रकार और कहाँ उपयोग करते थे यह तो नहीं कह सकते, पर आज भी दुनिया भर में कंप्यूटर वैज्ञानिक मानते है कि आधुनिक समय में संस्कृत व्याकरण सभी कंप्यूटर की समस्याओं को हल करने में सक्षम है।

व्याकरण के इस महनीय ग्रन्थ मे पाणिनि ने विभक्ति-प्रधान संस्कृत भाषा के 4000 सूत्र बहुत ही वैज्ञानिक और तर्कसिद्ध ढंग से संगृहीत हैं।

NASA के वैज्ञानिक Mr.Rick Briggs.ने अमेरिका में कृत्रिम बुद्धिमत्ता (artificial intelligence) और पाणिनी व्याकरण के बीच की शृंखला खोज की। प्राकृतिक भाषाओं को कंप्यूटर प्रोग्रामिंग के लिए अनुकूल बनाना बहुत मुस्किल कार्य था जब तक कि Mr.Rick Briggs. द्वारा संस्कृत के उपयोग की खोज न गयी।
उसके बाद एक प्रोजेक्ट पर कई देशों के साथ करोड़ों डॉलर खर्च किये गये।

महर्षि पाणिनि शिव जी बड़े भक्त थे और उनकी कृपा से उन्हें महेश्वर सूत्र से ज्ञात हुआ जब शिव जी संध्या तांडव के समय उनके डमरू से निकली हुई ध्वनि से उन्होंने संस्कृत में वर्तिका नियम की रचना की थी। 
तथा इन्होने महादेव की कई स्तुतियों की भी रचना की |

नृत्तावसाने नटराजराजो ननाद ढक्कां नवपञ्चवारम्।
उद्धर्त्तुकामो सनकादिसिद्धानेतद्विमर्शे शिवसूत्रजालम्॥  -माहेश्वर सूत्र
  
पाणिनीय व्याकरण की महत्ता पर विद्वानों के विचार:

"पाणिनीय व्याकरण मानवीय मष्तिष्क की सबसे बड़ी रचनाओं में से एक है" (लेनिन ग्राड के प्रोफेसर टी. शेरवात्सकी)।
"पाणिनीय व्याकरण की शैली अतिशय-प्रतिभापूर्ण है और इसके नियम अत्यन्त सतर्कता से बनाये गये हैं" (कोल ब्रुक)।
"संसार के व्याकरणों में पाणिनीय व्याकरण सर्वशिरोमणि है... यह मानवीय मष्तिष्क का अत्यन्त महत्त्वपूर्ण अविष्कार है" (सर डब्ल्यू. डब्ल्यू. हण्डर)।
"पाणिनीय व्याकरण उस मानव-मष्तिष्क की प्रतिभा का आश्चर्यतम नमूना है जिसे किसी दूसरे देश ने आज तक सामने नहीं रखा"। (प्रो. मोनियर विलियम्स)

संस्कृत का डंका :
संस्कृत की महत्ता अब लोगो के समझ में आने लगी है 

जब से नासा को अपने परीक्षणों द्वारा ज्ञात हुआ की अनंत अन्तरिक्ष में कम्पायमान ध्वनी ॐ है 
और यह भी सिद्ध हो चूका है की ॐ प्रणव (ध्वनी ) से ही सृस्ठी की उत्पत्ति हुई है । यहाँ देखें :
 ॐकार, बिग-बेंग, शिवलिंग और स्रष्टि की उत्त्पति
 तब से नासा का दिमाग घूम गया है |
अब नासा कंप्यूटर की भाषा संस्कृत को बनाने की सोच रही है और अन्तरिक्ष में ॐ ध्वनी का संचार करने का विचार कर रही है 

इस सृष्टि की उत्पत्ति  ॐ प्रणव (शिव नाद) से हुई है और इसी से पञ्च महाभूतों (जल,पृथ्वी, अग्नि, वायु और आकाश ) की भी उत्पति हुई है |










Wednesday, May 29, 2013

1950-1960 के दशक में आपने कहानी सुनी होगी की अमरीका और रशिया के बीच अन्तरिक्ष में पहले पहुँचने का युद्ध चल रहा है. पर असल में तब कोई "अमरीकी रोकेट तकनीक" थी ही नही. द्वितीय विश्व-युद्ध के बाद अमरीका ने जर्मनी से उसके सारे प्रक्षेपास्त्र वैज्ञानिक बंदी बनाकर अमरीका बुलवा लिए, और फिर उन्हें NASA में काम पर लगवा दिया.

1960 के दशक की दौड़ अमरीका-रशिया के बीच नही, जर्मन-रोकेट-तकनीक और रशियन-तकनीक के बीच हो रही थी. परन्तु बाहर लोग सुनते थे की अमरीका ने रोकेट बनाये, जबकि सारी तकनीक जर्मनी से उठाई गई.

जर्मनी में यह तकनीक बहुत ही तेजी से बनाई थी, जिसका कारण उनका भारत से गहरा सम्बन्ध और संस्कृत में गिये ज्ञान का अध्ययन था, जिसका जर्मनी ने अपनी भाषा में अनुवाद किया. संस्कृत ग्रंथो में विमानों के Blueprints, Designs के साथ-साथ उन्हें कैसे बनाना है इसकी भी जानकारी थी. भारत पर विदेशी गुलामी होने के कारण उस समय भारत में किसी भी शोध पर प्रतिबन्ध था. भारत के सभी संस्कृत पढ़े-लिखे तज्ञ को ब्रिटेन, यूरोप लाया जा चूका था और भारत में संस्कृत पर प्रतिबन्ध लगने के साथ-साथ अंग्रेजी थोंप दी गई थी सौ-वर्ष पहले ही(1857), जिसके कारण भारतीय लोगो को इसकी कोई भनक ही नही थी की संस्कृत में क्या लिखा गया है.

इसका एक दूसरा कारण यह भी था की ब्रिटिशो ने भारत में यह सिखा दिया था स्कुलो में की दलितों को ब्राह्मणों ने बनाया, ब्राह्मणों ने भारत को लुटा. इसके कारण लोगो ने अंधे बनकर संस्कृत का तिरस्कार आरंभ कर दिया. इसमें सबसे बड़ा योगदान JNU (जवाहरलाल नेहरु विश्वविद्यालय) में पढ़े-लिखे वामपंथी हिन्दुओ का है, जिनका काम ही संस्कृत और ब्राह्मणों के विरुद्ध प्रचार करना है, ताकि भारत के लोग कभी अपना इतिहास नही जान पाए
गौत्र प्रणाली :आनुवंशिक विज्ञान | Hindu Gotra System: Genetics Science** 







गौत्र शब्द का अर्थ होता है वंश/कुल (lineage)।

गोत्र प्रणाली का मुख्या उद्देश्य किसी व्यक्ति को उसके मूल प्राचीनतम व्यक्ति से जोड़ना है उदहारण के लिए यदि को व्यक्ति कहे की उसका गोत्र भरद्वाज है तो इसका अभिप्राय यह है की उसकी पीडी वैदिक ऋषि भरद्वाज से प्रारंभ होती है या ऐसा समझ लीजिये की वह व्यक्ति ऋषि भरद्वाज की पीढ़ी में जन्मा है ।
इस प्रकार गोत्र एक व्यक्ति के पुरुष वंश में मूल प्राचीनतम व्यक्ति को दर्शाता है.
The Gotra is a system which associates a person with his most ancient or root ancestor in an unbroken male lineage.

ब्राह्मण स्वयं को निम्न आठ ऋषियों (सप्तऋषि +अगस्त्य ) का वंशज मानते है ।

जमदग्नि, अत्रि , गौतम , कश्यप , वशिष्ठ ,विश्वामित्र, भरद्वाज, अगस्त्य
Brahmins identify their male lineage by considering themselves to be the descendants of the 8 great Rishis ie Saptarshis (The Seven Sacred Saints) + Agastya Rishi
उपरोक्त आठ ऋषि मुख्य गोत्रदायक ऋषि कहलाते है । तथा इसके पश्चात जितने भी अन्य गोत्र अस्तित्व में आये है वो इन्ही आठ मेसे एक से फलित हुए है और स्वयं के नाम से गौत्र स्थापित किया . उदा० माने की
अंगीरा की ८ वीं पीडी में कोई ऋषि क हुए तो परिस्थतियों के अनुसार उनके नाम से गोत्र चल पड़ा। और इनके वंशज क गौत्र कहलाये किन्तु क गौत्र स्वयं अंगीरा से उत्पन्न हुआ है ।
इस प्रकार अब तक कई गोत्र अस्तित्व में है । किन्तु सभी का मुख्य गोत्र आठ मुख्य गोत्रदायक ऋषियों मेसे ही है ।
All other Brahmin Gotras evolved from one of the above Gotras. What this means is that the descendants of these Rishis over time started their own Gotras. All the established Gotras today , each of them finally trace back to one of the root 8 Gotrakarin Rishi.

गौत्र प्रणाली में पुत्र का महत्व | Importance of Son in the Gotra System:-
जैसा की हम देख चुके है गौत्र द्वारा पुत्र व् उसे वंश की पहचान होती है । यह गोत्र पिता से स्वतः ही पुत्र को प्राप्त होता है । परन्तु पिता का गोत्र पुत्री को प्राप्त नही होता । उदा ० माने की एक व्यक्ति का गोत्र अंगीरा है
और उसका एक पुत्र है । और यह पुत्र एक कन्या से विवाह करता है जिसका पिता कश्यप गोत्र से है । तब लड़की का गोत्र स्वतः ही गोत्र अंगीरा में परिवर्तित हो जायेगा जबकि कन्या का पिता कश्यप गोत्र से था ।
इस प्रकार पुरुष का गोत्र अपने पिता का ही रहता है और स्त्री का पति के अनुसार होता है न की पिता के अनुसार ।
यह हम अपने देनिक जीवन में देखते ही है , कोई नई बात नही !
परन्तु ऐसा क्यू ?
पुत्र का गोत्र महत्वपूर्ण और पुत्री का नही । क्या ये कोई अन्याय है ??
बिलकुल नही !!
देखें कैसे :

गुणसूत्र और जीन । Chromosomes and Genes:-
गुणसूत्र का अर्थ है वह सूत्र जैसी संरचना जो सन्तति में माता पिता के गुण पहुँचाने का कार्य करती है ।
हमने १ ० वीं कक्षा में भी पढ़ा था की मनुष्य में २ ३ जोड़े गुणसूत्र होते है । प्रत्येक जोड़े में एक गुणसूत्र माता से तथा एक गुणसूत्र पिता से आता है । इस प्रकार प्रत्येक कोशिका में कुल ४ ६ गुणसूत्र होते है जिसमे २ ३ माता से व् २ ३ पिता से आते है ।

जैसा की कुल जोड़े २ ३ है । इन २ ३ में से एक जोड़ा लिंग गुणसूत्र कहलाता है यह होने वाली संतान का लिंग निर्धारण करता है अर्थात पुत्र होगा अथवा पुत्री ।
यदि इस एक जोड़े में गुणसूत्र xx हो तो सन्तति पुत्री होगी और यदि xy हो तो पुत्र होगा । परन्तु दोनों में x सामान है । जो माता द्वारा मिलता है और शेष रहा वो पिता से मिलता है । अब यदि पिता से प्राप्त गुणसूत्र x हो तो xx मिल कर स्त्रीलिंग निर्धारित करेंगे और यदि पिता से प्राप्त y हो तो पुर्लिंग निर्धारित करेंगे । इस प्रकार x पुत्री के लिए व् y पुत्र के लिए होता है । इस प्रकार पुत्र व् पुत्री का उत्पन्न होना पूर्णतया पिता से प्राप्त होने वाले x अथवा y गुणसूत्र पर निर्भर होता है माता पर नही ।

अब यहाँ में मुद्दे से हट कर एक बात और बता दूँ की जैसा की हम जानते है की पुत्र की चाह रखने वाले परिवार पुत्री उत्पन्न हो जाये तो दोष बेचारी स्त्री को देते है जबकि अनुवांशिक विज्ञानं के अनुसार जैसे की अभी अभी उपर पढ़ा है की "पुत्र व् पुत्री का उत्पन्न होना पूर्णतया पिता से प्राप्त होने वाले x अथवा y गुणसूत्र पर निर्भर होता है न की माता पर "
फिर भी दोष का ठीकरा स्त्री के माथे मांड दिया जाता है । ये है मुर्खता !
जैसा की पाकिस्तानी फिल्म 'बोल' में दिखाया गया था ।
http://www.imdb.com/title/tt1891757/

अब एक बात ध्यान दें की स्त्री में गुणसूत्र xx होते है और पुरुष में xy होते है ।
इनकी सन्तति में माना की पुत्र हुआ (xy गुणसूत्र). इस पुत्र में y गुणसूत्र पिता से ही आया यह तो निश्चित ही है क्यू की माता में तो y गुणसूत्र होता ही नही !
और यदि पुत्री हुई तो (xx गुणसूत्र). यह गुण सूत्र पुत्री में माता व् पिता दोनों से आते है ।

१. xx गुणसूत्र ;-
xx गुणसूत्र अर्थात पुत्री . xx गुणसूत्र के जोड़े में एक x गुणसूत्र पिता से तथा दूसरा x गुणसूत्र माता से आता है . तथा इन दोनों गुणसूत्रों का संयोग एक गांठ सी रचना बना लेता है जिसे Crossover कहा जाता है ।

२. xy गुणसूत्र ;-
xy गुणसूत्र अर्थात पुत्र . पुत्र में y गुणसूत्र केवल पिता से ही आना संभव है क्यू की माता में y गुणसूत्र है ही नही । और दोनों गुणसूत्र असमान होने के कारन पूर्ण Crossover नही होता केवल ५ % तक ही होता है । और ९ ५ % y गुणसूत्र ज्यों का त्यों (intact) ही रहता है ।

तो महत्त्वपूर्ण y गुणसूत्र हुआ । क्यू की y गुणसूत्र के विषय में हम निश्चिंत है की यह पुत्र में केवल पिता से ही आया है ।
बस इसी y गुणसूत्र का पता लगाना ही गौत्र प्रणाली का एकमात्र उदेश्य है जो हजारों/लाखों वर्षों पूर्व हमारे ऋषियों ने जान लिया था ।



वैदिक गोत्र प्रणाली और y गुणसूत्र । Y Chromosome and the Vedic Gotra System:-

अब तक हम यह समझ चुके है की वैदिक गोत्र प्रणाली य गुणसूत्र पर आधारित है अथवा y गुणसूत्र को ट्रेस करने का एक माध्यम है ।
उदहारण के लिए यदि किसी व्यक्ति का गोत्र कश्यप है तो उस व्यक्ति में विधमान y गुणसूत्र कश्यप ऋषि से आया है या कश्यप ऋषि उस y गुणसूत्र के मूल है ।
चूँकि y गुणसूत्र स्त्रियों में नही होता यही कारन है की विवाह के पश्चात स्त्रियों को उसके पति के गोत्र से जोड़ दिया जाता है ।

वैदिक/ हिन्दू संस्कृति में एक ही गोत्र में विवाह वर्जित होने का मुख्य कारन यह है की एक ही गोत्र से होने के कारन वह पुरुष व् स्त्री भाई बहिन कहलाये क्यू की उनका पूर्वज एक ही है ।
परन्तु ये थोड़ी अजीब बात नही? की जिन स्त्री व् पुरुष ने एक दुसरे को कभी देखा तक नही और दोनों अलग अलग देशों में परन्तु एक ही गोत्र में जन्मे , तो वे भाई बहिन हो गये .?
इसका एक मुख्य कारन एक ही गोत्र होने के कारन गुणसूत्रों में समानता का भी है । आज की आनुवंशिक विज्ञान के अनुसार यदि सामान गुणसूत्रों वाले दो व्यक्तियों में विवाह हो तो उनकी सन्तति आनुवंशिक विकारों का साथ उत्पन्न होगी ।

ऐसे दंपत्तियों की संतान में एक सी विचारधारा, पसंद, व्यवहार आदि में कोई नयापन नहीं होता। ऐसे बच्चों में रचनात्मकता का अभाव होता है। विज्ञान द्वारा भी इस संबंध में यही बात कही गई है कि सगौत्र शादी करने पर अधिकांश ऐसे दंपत्ति की संतानों में अनुवांशिक दोष अर्थात् मानसिक विकलांगता, अपंगता, गंभीर रोग आदि जन्मजात ही पाए जाते हैं। शास्त्रों के अनुसार इन्हीं कारणों से सगौत्र विवाह पर प्रतिबंध लगाया था।


first cousin marriage increases the risk of passing on genetic abnormalities. But for Bittles, 35 years of research on the health effects of cousin marriage have led him to believe that the risks of marrying a cousin have been greatly exaggerated.
There's no doubt that children whose parents are close biological relatives are at a greater average risk of inheriting genetic disorders, Bittles writes. Studies of cousin marriages worldwide suggest that the risks of illness and early death are three to four percent higher than in the rest of the population.

http://www.eurekalert.org/pub_releases/2012-04/nesc-wnm042512.php

http://www.huffingtonpost.com/faheem-younus/why-ban-cousin-marriages_b_2567162.html
http://www.thenews.com.pk/Todays-News-9-160665-First-cousin-marriages


http://www.youtube.com/watch?feature=player_embedded&v=ju2FP8LIOLM

अब यदि हम ये जानना चाहे की यदि चचेरी, ममेरी, मौसेरी, फुफेरी आदि बहिनों से विवाह किया जाये तो क्या क्या नुकसान हो सकता है । इससे जानने के लिए आप उन समुदाय के लोगो के जीवन पर गौर करें जो अपनी चचेरी, ममेरी, मौसेरी, फुफेरी बहिनों से विवाह करने में १ सेकंड भी नही लगाते । फलस्वरूप उनकी संताने बुद्धिहीन , मुर्ख , प्रत्येक उच्च आदर्श व् धर्म (जो धारण करने योग्य है ) से नफरत , मनुष्य-पशु-पक्षी आदि से प्रेमभाव का आभाव आदि जैसी मानसिक विकलांगता अपनी चरम सीमा पर होती है ।
या यूँ कहा जाये की इनकी सोच जीवन के हर पहलु में विनाशकारी (destructive) व् निम्नतम होती है तथा न ही कोई रचनात्मक (constructive), सृजनात्मक , कोई वैज्ञानिक गुण , देश समाज के सेवा व् निष्ठा आदि के भाव होते है । यही इनके पिछड़ेपन का प्रमुख कारण होता है ।
उपरोक्त सभी अवगुण गुणसूत्र , जीन व् डीएनए आदि में विकार के फलस्वरूप ही उत्पन्न होते है ।
इन्हें वर्ण संकर (genetic mutations) भी कह सकते है !!
ऐसे लोग अक्ल के पीछे लठ लेकर दौड़ते है ।


खैर ,,

यदि आप कंप्यूटर प्रोग्रामिंग के जानकार है तो गौत्र प्रणाली को आधुनिक सॉफ्टवेयर निर्माण की भाषा ऑब्जेक्ट ओरिएंटेड प्रोग्रामिंग (Object Oriented Programming : oop) के माध्यम से भी समझ सकते है ।
Object Oriented Programming के inheritance नामक तथ्य को देखें ।
हम जानते है की inheritance में एक क्लास दूसरी क्लास के function, variable आदि को प्राप्त कर सकती है ।


दायाँ चित्र multiple inheritance का है इसमें क्लास b व् c क्लास a के function, variable को प्राप्त (inherite) कर रही है । और क्लास d क्लास b , c दोनों के function, variable को एक साथ प्राप्त (inherite) कर रही है।
अब यहाँ भी हमें एक समस्या का सामना करना पड़ता है जब क्लास b व् क्लास c में दो function या variable एक ही नाम के हो !
उदा ० यदि माने की क्लास b में एक function abc नाम से है और क्लास c में भी एक function abc नाम से है।
जब क्लास d ने क्लास b व् c को inherite किया तब वे एक ही नाम के दोनों function भी क्लास d में प्रविष्ट हुए । जिसके फलस्वरूप दोनों functions में टकराहट के हालात पैदा हो गये । इसे प्रोग्रामिंग की भाषा में ambiguity (अस्पष्टता) कहते है । जिसके फलस्वरूप प्रोग्राम में error उत्पन्न होता है ।

अब गौत्र प्रणाली को समझने के लिए केवल उपरोक्त उदा ० में क्लास को स्त्री व् पुरुष समझिये , inherite करने को विवाह , समान function, variable को समान गोत्र तथा ambiguity को आनुवंशिक विकार ।



वैदिक ऋषियों के अनुसार कई परिस्थतियाँ ऐसी भी है जिनमे गोत्र भिन्न होने पर भी विवाह नही होना चाहिए ।

देखे कैसे :
असपिंडा च या मातुरसगोत्रा च या पितु:
सा प्रशस्ता द्विजातिनां दारकर्मणि मैथुने ....मनुस्मृति ३ /५

जो कन्या माता के कुल की छः पीढ़ियों में न हो और पिता के गोत्र की न हो , उस कन्या से विवाह करना उचित है ।


When the man and woman do not belong to six generations from the maternal side
and also do not come from the father’s lineage, marriage between the two is good.
-Manusmriti 3/5

उपरोक्त मंत्र भी पूर्णतया वैज्ञानिक तथ्य पर आधारित है देखें कैसे :

वह कन्या पिता के गोत्र की न हो अर्थात लड़के के पिता के गोत्र की न हो ।
लड़के का गोत्र = पिता का गोत्र
अर्थात लड़की और लड़के का गोत्र भिन्न हो।
माता के कुल की छः पीढ़ियों में न हो ।
अर्थात पुत्र का अपनी माता के बहिन के पुत्री की पुत्री की पुत्री ............६ पीढ़ियों तक विवाह वर्जित है।
Manusmriti 3/5 चित्र देखें (बड़ा करने के लिए चित्र पर क्लिक करें )

हिनक्रियं निष्पुरुषम् निश्छन्दों रोम शार्शसम् ।
क्षय्यामयाव्यपस्मारिश्वित्रिकुष्ठीकुलानिच । । .........मनुस्मृति ३ /७
जो कुल सत्क्रिया से हिन्,सत्पुरुषों से रहित , वेदाध्ययन से विमुख , शरीर पर बड़े बड़े लोम , अथवा बवासीर , क्षय रोग , दमा , खांसी , आमाशय , मिरगी , श्वेतकुष्ठ और गलितकुष्ठयुक्त कुलो की कन्या या वर के साथ विवाह न होना चाहिए , क्यू की ये सब दुर्गुण और रोग विवाह करने वाले के कुल में प्रविष्ट हो जाते है ।

आधुनिक आनुवंशिक विज्ञानं से भी ये बात सिद्ध है की उपरोक्त बताये गये रोगादि आनुवंशिक होते है । इससे ये भी स्पष्ट है की हमारे ऋषियों को गुणसूत्र संयोजन आदि के साथ साथ आनुवंशिकता आदि का भी पूर्ण ज्ञान था ।


हिन्दू ग्रंथों के अतिरिक्त किसी अन्य में ऐसी विज्ञानं मिलना पूर्णतया असंभव है., मेरा दावा है !!!!

http://ajitvadakayil.blogspot.in/2012/11/gotra-system-khap-rules-y-chromosome.html









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एक प्रमेय होती है जिसका हम नवमी-दसमी से लेकर बारह्वी कक्षा तक प्रयोग करते हैं, जिसे हम पईथागोरस थेओरम कहते हैं| पईथागोरस का जन्म हुआ ईशा से आठ शताब्दी पहले और ईशा के पंद्रहवी शताब्दी पहले के भारत के गुरुकुलों के रिकार्ड्स बताते हैं कि वो प्रमेय हमारे यहाँ था, उसको हम बोधायन प्रमेय के रूप में पढ़ते थे|

बोधायन एक महिर्षि हुए उनके नाम से भारत में ये प्रमेय ईशा के जन्म के पंद्रहवी शताब्दी पहले पढाई जाती थी यानि आज से लगभग साढ़े तीन हज़ार साल पहले भारत में वो प्रमेय पढाई जाती थी, बोधायन प्रमेय के नाम से और वो प्रमेय है - किसी आयत के विकर्ण द्वारा व्युत्पन्न क्षेत्रफल उसकी लम्बाई एवं चौड़ाई द्वारा पृथक-पृथक व्युत्पन्न क्षेत्र फलों के योग के बराबर होता है। तो ये प्रमेय महिर्षि बोधायन की देन है जिसे हम आज भी पढ़ते हैं और पईथागोरस ने बेईमानी करके उसे अपने नाम से प्रकाशित करवा लिया है और सारी दुनिया आजतक भ्रम में है |
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शुल्ब सूत्र या शुल्बसूत्र संस्कृत के सूत्रग्रन्थ हैं जो स्रौत कर्मों से सम्बन्धित हैं। इनमें यज्ञ-वेदी की रचना से सम्बन्धित ज्यामितीय ज्ञान दिया हुआ है। संस्कृत कें शुल्ब शब्द का अर्थ नापने की रस्सी या डोरी होता है। अपने नाम के अनुसार शुल्ब सूत्रों में यज्ञ-वेदियों को नापना, उनके लिए स्थान का चुनना तथा उनके निर्माण आदि विषयों का विस्तृत वर्णन है। ये भारतीय ज्यामिति के प्राचीनतम ग्रन्थ हैं।

शुल्बसूत्र, स्रौत सूत्रों के भाग हैं ; स्रौतसूत्र, वेदों के उपांग (appendices) हैं। शुल्बसूत्र ही भारतीय गणित के सम्बन्ध में जानकारी देने वाले प्राचीनतम स्रोत हैं।
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शुल्बसूत्रों में बौधायन का शुल्बसूत्र सबसे प्राचीन माना जाता है। इन शुल्बसूत्रों का रचना समय १२०० से ८०० ईसा पूर्व माना गया है।

अपने एक सूत्र में बौधायन ने विकर्ण के वर्ग का नियम दिया है-

दीर्घचातुरास्रास्याक्ष्नाया रज्जुः पार्च्च्वमानी तिर्यङ्मानीच |
यत्पद्ययग्भूते कुरुतस्तदुभयं करोति ||
एक आयत का विकर्ण उतना ही क्षेत्र इकट्ठा बनाता है जितने कि उसकी लम्बाई और चौड़ाई अलग-अलग बनाती हैं। यहीं तो पाइथागोरस का प्रमेय है। स्पष्ट है कि इस प्रमेय की जानकारी भारतीय गणितज्ञों को पाइथागोरस के पहले से थी। दरअसल इस प्रमेय को बौधायन प्रमेय कहा जाना चाहिए।
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INDIA-RUSSIA, India
Researcher of Yog-Tantra with the help of Mercury. Working since 1988 in this field.Have own library n a good collection of mysterious things. you can send me e-mail at alon291@yahoo.com Занимаюсь изучением Тантра,йоги с помощью Меркурий. В этой области работаю с 1988 года. За это время собрал внушительную библиотеку и коллекцию магических вещей. Всегда рад общению: alon291@yahoo.com